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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

18 जुलाई, 2015

ग़ज़ल : अहमद फ़राज

अहमद फ़राज की ग़ज़लें
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यूँ तुझे ढूँढ़ने निकले के न आए ख़ुद भी
वो मुसाफ़िर कि जो मंज़िल थे बजाए ख़ुद भी

कितने ग़म थे कि ज़माने से छुपा रक्खे थे
इस तरह से कि हमें याद न आए खुद भी

ऐसा ज़ालिम कि अगर ज़िक्र में उसके कोई ज़ुल्म
हमसे रह जाए तो वो याद दिलाए ख़ुद भी

लुत्फ़ तो जब है तअल्लुक़ में कि वो शहरे-जमाल
कभी खींचे कभी खिंचता चला आए ख़ुद भी
(शहरे जमाल - ख़ूबसूरती का शहर)

ऐसा साक़ी हो तो फिर देखिए रंगे-महफ़िल
सबको मदहोश करे होश से जाए ख़ुद भी

यार से हमको तगाफ़ुल का गिला है बेजा
बारहा महफ़िले-जानाँ से उठ आए ख़ुद भी
(तग़ाफ़ुल करना - नज़रअंदाज़ करना, बेजा - बेकार,बारहा - कई बार,महफ़िल-ए-जानाँ - प्रियतम की महफ़िल)

2)
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते
वरना इतने तो मरासिम थे कि आते-जाते
(मरासिम - रिश्ते)

शिकवा-ए-जुल्मते-शब से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शमअ जलाते जाते
(शिकवा-ए-ज़ुल्मत-ए-शब - रात द्वारा किये गए ज़ुल्म की शिकायत,शमअ - चिराग़ की लौ)

कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जाना
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते
(हिज्र - जुदायी)

जश्न-ए-मक़्तल ही न बरपा हुआ वरना हम भी
पा बजोलां ही सहीं नाचते-गाते जाते
(जश्न-ए-मक़्तल - फाँसी-गृह का जश्न,पा- पाँव)

उसकी वो जाने, उसे पास-ए-वफ़ा था कि न था
तुम 'फ़राज़' अपनी तरफ से तो निभाते जाते.
(पास-ए-वफ़ा - वफ़ा के वादे का लिहाज़)

3)
किस को गुमाँ है अबके मेरे साथ तुम भी थे,
हाय वो रोज़ो-शब के मेरे साथ तुम भी थे
(रोज़ो शब - दिन और रात, गुमाँ - गुमान/किसी चीज़ के होने का विचार)

यादश बख़ैर अहदे-गुज़िश्ता की सोहबतें,
एक दौर था अजब के मेरे साथ तुम भी थे
(यादश - याद में,ब-ख़ैर - खैरियत के साथ,अहद-ए-गुज़िश्ता - गुज़रे हुए वादे,सोहबतें - साथ)

बे-महरी-ए-हयात की शिद्दत के बावजूद,
दिल मुतमईन था जब के मेरे साथ तुम भी थे
(बे-महरी-ए-हयात - ज़िन्दगी की कटुता,शिद्दत - ताक़त/गहरायी/तीव्रता,मुतमइन - आश्वस्त)

मैं और तकाबिले- ग़मे-दौराँ का हौसला,
कुछ बन गया सबब के मेरे साथ तुम भी थे
(तक़ाबिल-ए-ग़म-ए-दौराँ - उस वक़्त के दुख,सबब - वजह)

इक ख़्वाब हो गई है रह-रस्मे- दोसती,
एक वहम -सा है अब के मेरे साथ तुम भी थे
(रह-ए-रस्म-ए-दोस्ती - दोस्ती की रस्मों की राह)

वो बज़्म मेरे दोस्त याद तो होगी तुम्हें "फराज़"
वो महफ़िले-तरब के मेरे साथ तुम भी थे
महफ़िल-ए-तरब - प्यासी महफ़िल)
००
अहमद फ़राज
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टिप्पणियाँ:-

चंद्र शेखर बिरथरे :-
गजब कविताए ।डूबकर लिखी गई । भावलोक के विहंगम बिम्बो को प्रेषित करती मन मोहक  विशुद्ध रूप से उनकी  धरती से समाज से और मानव मात्र से जुडी कविताए । बहुत सफल प्रस्तुति । बधाई । चंद्रशेखर बिरथरे

फ़रहत अली खान:-
फ़राज़ साहब का जवाब नहीं।
ये इनका अंदाज़-ए-सुख़न ही था कि इतनी मुहब्बत-ओ-मक़बूलियत पाई।
तीनों ग़ज़लें बहुत उम्दा कही हैं।
पहली और तीसरी ग़ज़ल के मुश्किल रदीफ़ पर आधारित हैं, जिनपर शेर कहना आसान नहीं होता।
पहली, दूसरी और तीसरी ग़ज़ल में क्रमशः आख़िरी, पहला और तीसरा शेर हासिल-ए-ग़ज़ल शेर हुए हैं।
इसके अलावा पहली ग़ज़ल का पहला, दूसरी ग़ज़ल का तीसरा और तीसरी ग़ज़ल का पहला शेर भी बहुत उम्दा हैं। कुल मिलाकर मज़ा आ गया।

प्रदीप मिश्र:-
वाह अहमद फराज से पहला परिचय पहल पुस्तिका से हुआ।तबसे मैं अहमद फ़राज़ का मुरीद हूँ। आभार सत्तू।

राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
अहमद फराज की गजलें तो खैर पहले भी पढ़ी हैं, ज्यादा महत्वपूर्ण है उनका परिचय
नई जानकारी
तभी शायद फराज साहब ने कुछ ऐसा भी लिखा है कि -
फन मेरा दरबार की जागीर नहीं है
मेरी कलम में कोई जंजीर नहीं है
राजेन्द्र श्रीवास्तव, पुणे

राहुल वर्मा 'बेअदब':-
मुन्तज़िर जिनके हम रहे उनको
मिल गए और हमसफ़र शायद

जो भी बिछड़े हैं कब मिले हैं'फ़राज़'
फिर भी तू इंतज़ार कर शायद

Hat's off to u sir 'फ़राज़' साहब

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