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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 जुलाई, 2015

ग़ज़ल : आनिस मोईन

पाकिस्तान के मुल्तान में जन्मे अपने वक़्त के बेहद लोकप्रिय युवा शायर 'आनिस' मोईन(1959-1986) ने कम उम्र में ही बहुत नाम कमाया और जब ये शोहरत की बुलंदियों पर पहुँच गए तो महज़ 27 साल की उम्र में इन्होंने ख़ुद-कुशी कर ली।
अपने आख़िरी ख़त में इन्होंने इसकी वजह अपनी ज़िन्दगी से उकता जाना बताया।
शायरी की दुनिया में इनकी तुलना मशहूर अंग्रेज़ी कवि जॉन कीट्स से की जाती है।
पेश हैं इनकी तीन ग़ज़लें(पूर्ण/आंशिक) और कुछ चुनिंदा अशआर:

1.
वो कुछ गहरी सोच में ऐसे डूब गया है
बैठे-बैठे नदी किनारे डूब गया है

आज की रात न जाने कितनी लम्बी होगी
आज का सूरज शाम से पहले डूब गया है

वो जो प्यासा लगता था सैलाब-ज़दा था
पानी-पानी कहते-कहते डूब गया है
(सैलाब-ज़दा - तूफ़ान से पीड़ित)

मेरे अपने अंदर एक भँवर था जिस में
मेरा सब-कुछ साथ ही मेरे डूब गया है

शोर तो यूँ उठ्ठा था जैसे इक तूफ़ाँ हो
सन्नाटे में जाने कैसे डूब गया है
(उठ्ठा - उठा)

आख़िरी ख़्वाहिश पूरी करके जीना कैसा
'आनिस' भी साहिल तक आ के डूब गया है
(साहिल - किनारा)

2.
ये और बात कि रंग-ए-बहार कम होगा
नई रुतों में दरख़्तों का बार कम होगा
(रंग-ए-बहार - बहार का रंग; दरख़्त - पेड़; बार - भार/फूलों और फलों का वज़न)

तअल्लुक़ात में आई है बस ये तब्दीली
मिलेंगे अब भी मगर इन्तेज़ार कम होगा
(तअल्लुक़ात - संबंधों)

मैं सोचता रहा कल रात बैठ कर तन्हा
कि इस हुजूम में मेरा शुमार कम होगा
(हुजूम - भीड़; शुमार - गिनती)

पलट तो आएगा शायद कभी यही मौसम
तेरे बग़ैर मगर ख़ुश-गवार कम होगा

बहुत तवील है 'आनिस' ये ज़िन्दगी का सफ़र
बस एक शख़्स पे दार-ओ-मदार कम होगा
(तवील - लम्बा; दार-ओ-मदार - निर्भरता)

3.
हो जायेगी जब तुम से शनासाई ज़रा और
बढ़ जायेगी शायद मेरी तन्हाई ज़रा और
(शनासाई - जान-पहचान)

क्यूँ खुल गए लोगों पे मेरी ज़ात के असरार
ऐ काश कि होती मेरी गहराई ज़रा और
(ज़ात - शख़्सियत; असरार - रहस्य)

फिर हाथों पे ज़ख़्मों के निशाँ गिन न सकोगे
ये उलझी हुई डोर जो सुलझाई ज़रा और

क्यूँ तर्क-ए-तअल्लुक़ भी किया, लौट भी आया?
अच्छा था कि होता जो वो हरजाई ज़रा और
(तर्क-ए-तअल्लुक़ - सम्बन्ध-विच्छेद)

है दीप तेरी याद का रौशन अभी दिल में
ये ख़ौफ़ है लेकिन जो हवा आई ज़रा और

बढ़ जाएँगे कुछ और लहू बेचने वाले
हो जाए अगर शहर में महंगाई ज़रा और

इक डूबती धड़कन की सदा लोग न सुन लें
कुछ देर को बजने दो ये शहनाई ज़रा और
(सदा - आवाज़)

4. कुछ चुनिंदा अशआर:

हैरत से जो यूँ मेरी तरफ़ देख रहे हो
लगता है कभी तुमने समंदर नहीं देखा

हमारी मुस्कराहट पर न जाना
दिया तो क़ब्र पर भी जल रहा है

अजब अंदाज़ से ये घर गिरा है
मेरा मलबा मेरे ऊपर गिरा है

अंजाम को पहुँचूँगा मैं अंजाम से पहले
ख़ुद मेरी कहानी भी सुनाएगा कोई और

अंदर की दुनिया से रब्त बढ़ाओ 'आनिस'
बाहर खुलने वाली खिड़की बंद पड़ी है
(रब्त - सम्बन्ध)

गूंजता है बदन में सन्नाटा
कोई ख़ाली मकान हो जैसे

न जाने बाहर भी कितने आसेब मुन्तज़िर हों
अभी मैं अंदर के आदमी से डरा हुआ हूँ
(आसेब - प्रेत; मुन्तज़िर - इन्तेज़ार में)

बयाज़ भर भी गयी और फिर भी सादा है
तुम्हारे नाम को लिक्खा भी और मिटाया भी
(बयाज़ - नोटबुक)
   
लिक्खा उसे कि तुम से मुहब्बत तो है मगर
फिर और कुछ मैं लिख न सका इस 'मगर' के बाद
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टिप्पणियाँ:-

गरिमा श्रीवास्तव:-
उर्दू कविता की रवानी और अभिव्यंजना अपने पूरे सौंदर्य के साथ उपस्थित होकर इस दावे को गलत ठहरा रही है कि श्रेष्ठ अभिव्यक्ति का सम्बन्ध अभ्यास यानि उम्र से है।प्रतिभा किसी में कभी भी हो सकती है वह व्युत्पत्ति और अभ्यास की मुहताज़ नहीं।शायर अपना श्रेष्ठ देकर चला गया है वक्त से पहले, और वक्त अब उसे दोहरा रहा है।क्या कभी ऐसा वक्त भी आएगा जब प्रतिभाओं को असमय जाने की जल्दी न होगी,व्यवस्था उनका मज़ार बनाने के बजाय जीते जी कलाकार की ज़रूरतों को समझेगी?

फ़रहत अली खान:-
रूपा जी,
शुक्रिया, अभी तक इनके किसी ग़ज़ल-संग्रह के बारे में पता नहीं चल पाया है। वैसे इनका आख़िरी ख़त कहीं छपा था शायद, वो मैं शेयर करने की कोशिश करूँगा।
सही बात कही आपने कि प्रतिभा किसी में कभी भी हो सकती है; इतनी कम उम्र में इनके द्वारा इतनी आला दर्जे की ग़ज़लें कहा जाना यही दर्शाता है। शायद इसीलिए इनकी तुलना कीट्स से की जाती है।
अहमद नदीम क़ासमी, फैज़, जोश, वज़ीर आग़ा जैसे शायर इनकी इतनी सी उम्र में ऐसी प्रतिभा देख कर हैरान थे। क़ासमी साहब ने तो ये तमन्ना तक ज़ाहिर की थी कि काश वो भी आनिस जैसे शेर कह सकते।
केवल नौ साल की अवधि में ही आनिस ने क़रीब डेढ़ सौ ग़ज़लें और ढेरों नज़्में कही।

कविता वर्मा:-
सुबह से बहुत व्यस्त थी अभी सबकी बातें पढ़ीं बेशक गज़लें बहुत अच्छी हैं और आनिस साहब से जुड़ी जानकारियॉं भी ।

फ़रहत अली खान:-
एक कॉलम के अनुसार इनकी पैदाइश 29 नवम्बर 1960 और इंतेक़ाल की तारीख़ 5 फ़रवरी 1986 दिखाई गयी है।

मनीषा जैन :-
बहुत ही अद्भुत शायर। और कमाल के शेर। बहुत शुक्रिया पलट तो आयेगा शायद कभी यही मौसम
तेरे बग़ैर मगर खुश गवार कम होगा
बेहतरीन शेर।
सारे ही शेर एक से एक

ब्रजेश कानूनगो:-
आज से पहले जिन शायरों से फरहत जी ने परिचित कराया उनमे दुनिया और दुनियादारी का बहुत गहरा दर्शन से वास्ता हुआ। उसकी तुलना में आज प्रस्तुत शायरी ज़रा कम पड़ती है।इसके लिए मेरी समझ भी जिम्मेदार हो सकती है शायद।पर पढ़कर अच्छा तो अनुभव हुआ ही है।शुक्रिया फरहत भाई।आभार एडमिन।

अनवर इस्लाम:-
अनीस मुईन एक ताज़कार शाइर थे । उनकी ग़ज़लें वक़्त की नब्ज़ पर हाथ रखते हुए हालात का जायज़ा लेती हुई और पूरे फ़िक्री शऊर के साथ मुनासिब कमेंट कर रही हैं ।अफ़सोस इस खुशबख्त शाइर के साथ बहुत  उम्र में ( कारण जो भी रहे हों ) ज़िन्दगी ने बे वफाई की वरना उनसे बहुत उम्मीदें थीं ।

संजीव:-
आनिस की गजल पढकर दिमाग झनझना गया। ठीक ऐसा ही मंटो की कहानियां पढ कर महसूस हुआ था। दिमाग ने सोचना बंद कर दिया।

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