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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

13 जुलाई, 2015

लेख : चलो सेल्फ़ी सेल्फ़ी खेलें : प्रज्ञा जोशी

चलो सेल्फ़ी सेल्फ़ी खेलें !

सब मर्जों की दवा है सेल्फ़ी 
दुनिया से माँगी दुआ है सेल्फ़ी।


अब तक दूसरे हमारी तस्वीर अपनी नज़र से उतारते थे।  उसे अपने कैमरे की लेंस से कैद कर दुनिया के सामने प्रस्तुत करते थे।  पर इस सेल्फ़ी ने हमारे 'गैर-प्रस्तुतीकरण' से मुक्ति दिलाई. ओह, यहाँ गैर- प्रस्तुतीकरण का अर्थ गैरों द्वारा प्रस्तुतीकरण था. आपने कुछ और पढ़ा हो तो स्पष्ट कर दूँ! यहाँ हम अपनी नज़र से अपने लिए फ्रेम निश्चित कर अपने कैमरे के लेंस से खुद अपनी छवि बना पाते हैं. कितना सबाल्टर्न प्रतिनिधित्व का एहसास देता है ये सेल्फि. व्यक्तिगत स्तर पर आत्म  छवि,   समाज के स्तर पर सामुदायिक,   देश के स्तर पर अंतरराष्ट्रीय छवि प्रस्तुत करने का मौका ये सेल्फ़ी देता है. इस अर्थ में ये लोकतांत्रिक प्रक्रिया और देश के लिए आवश्यक है. हमारा मानवाधिकार है. यही तो सारे कारण है कि आर्थिक उन्नत्ति के अश्वमेध में विश्व भर दौड़ लगाने वाले हमारे देश के प्रधानमंत्री भी इसके मोह का संवरण नहीं कर पाते।  यही तो कारण है कि उन्होंने "गायब होती लड़कियों" के मुद्दे पर देश में सकारात्मक सोच बनाने और बढ़ाने के लिए 'सेल्फ़ी विथ डॉटर' अभियान का आह्वान किया. और प्रेरणा ली हरियाणा के एक सरपंच से. ये वही हरियाणा है जो अपने न्यूनतम बाललिंगानुपात के लिए कुख्यात है. वहीं तो सबसे अधिक ज़रूरत है सकारात्मक प्रयास की.  फिर, ये हंगामा है क्यों बरपा?
कविता कृष्णन, श्रुति सेठ और गुजरात जनसंहार में मारे गए सांसद अहसान जाफरी की बेटी निशरीन जाफरी के ट्वीट्स और लेखों ने इस अभियान का मोड़ ही बदल दिया. उन्होंने प्रधानमंत्री की राजनैतिक धूमिल 'भूत छवि' को वर्तमान अभियान के बरक्स खड़ा किया. सारी बहस इन लड़कियों/महिलाओं पर हुए शाब्दिक हिंसात्मक हमलों पर केंद्रित हो गयी. इस बहस पर यहां केवल इतना कहा जा सकता है कि ये सारे ट्वीट्स हमारे समाज का आइना हैं, जो न केवल देश के कुछ नागरिकों के असहिष्णु चरित्र को सामने लाता है बल्कि ये भी बताता है कि इस देश में अपने 'मन की बात ' मुखर करने वाली स्त्रियों के साथ आज भी चरित्रहनन का हथियार कैसे इस्तेमाल किया जाता है. मुख्तार स्त्रियों पर हिंसा करना भारतीय समाज के गुणधर्म के रूप में ही प्रस्तुत हुआ है. "गायब लड़कियां" बच भी गयी तो उन्हें किस तरह अपने दोयम अस्तित्व को लेकर जीने के लिए ये समाज बाध्य करेगा ये स्पष्ट होने से इस अभियान का खोखलापन महसूस किया जाने लगा. इसके बावजूद प्रधानमंत्री के इस अभियान को जो प्रतिसाद मिला उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता.  उनके इस सन्दर्भ में किए ट्वीट को हज़ारों लोगों ने रीट्वीट किया और हज़ारों ने इसको सराहा. फेसबुक पर  तस्वीरों  की बाढ़ आयी.
स्तंभकार और फिल्मकार पारोमिता  वोहरा ने इस  अभियान को देखते हुए कहा कि  इसके तहत लोग दुनिया में अपनी प्रगतिशील और बेनोवेलेंट छवि प्रस्तुत कर पा रहे हैं जिससे कि वैकल्पिक सोच के प्रतिरोध में यथास्थिति को कायम रखने के उनके अट्टहास को इस 'सकारात्मक परदे ' के पीछे छुपाया जा सके. दरअसल यही मुद्दा सोचने पर मज़बूर कर रहा है.
कुछ आर्थिक पहलू इस अभियान को आत्म छवि बनाने से प्रेरित प्रयास के रूप में देखने के लिए बाध्य कर रहे हैं.  असली पेंच यही है। जून २०१४ में पर्यटन मंत्रालय द्वारा पेश की गयी WTTCII  की रिपोर्ट साफ़ तौर पर कहती है कि २०१२ के बाद २०१४ में पर्यटन उद्योग की वृद्धि की गति २.९ प्रतिशत धीमी हुई है।  इसमें नकारत्मक छवि बनाए जाने की भूमिका महत्वपूर्ण रही है. इससे पर्यटन उद्योग को नुकसान हो रहा है. अतः यह नकारात्मक छवि बदली जाए. निर्भया मसले ने भारत को महिलाओं के लिए असुरक्षित देश के रूप में प्रस्तुत किया है.
प्रधानमंत्री विदेश दौरों से वहाँ के निवेशकों को भारत में उद्योग शुरू करने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं. अब ये उद्योग आएंगे तो उसके साथ कई महिलाएं कार्यक्षेत्र के रूप में सार्वजनिक परिवेश में आएंगी क्योंकि वे सबसे सस्ते श्रमिक हैं. पर अगर सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की छवि बनी रही तो ये सस्ता श्रम उपलब्ध नहीं होगा। ऐसे में इन बहुराष्ट्रीय उद्यमियों का मुनाफ़ा कम हो जायेगा.  अतः यह नकारात्मक छवि बदलनी ही होगी। 
२०१४ की जेंडर गैप रिपोर्ट के तहत 142 देशों की सूची में भारत ११४ वे स्थान पर खड़ा नज़र आया, पिछले साल से १३ पायदान नीचे ! इसमें राजनैतिक प्रतिनिधित्व को छोड़ दिया जाए तो बाकी सभी मुद्दों पर भारत पिछड़ा साबित हुआ, शिक्षा और स्वास्थ्य के मामलों में तो स्थितियां सबसे खराब हैं. अब इसे महिलाओं के विरुद्ध सार्वजनिक हिंसा नहीं तो और क्या माना जाए? ये परिचायक हैं कि लड़कियों को उनका समाज नहीं चाहता.
यानि असली पेंच यही है। एक ओर कॉरपोरेट यह चाहता है कि भारत की छवि महिलाओं के लिए असुरक्षित समाज के रूप में न बने और दूसरी तरफ़ (यही कॉरपोरेट) अन्य विकासशील देशों की तरह भारत पर दबाव बनाए हुए है कि सामाजिक सुरक्षा का बजट न्यूनतम रहे ।
अब वह मुद्दा जिसके चलते ये अभियान फौरी तौर पर संचालित हुआ, "गायब होती लड़कियां"!  ब्रिक्स देशों की सूची में बाललिंगानुपात  के मामले में भारत सबसे नीचे पायदान पर खड़ा है, (हाँ, चीन और पाकिस्तान हमसे  नीचे हैं. इससे जो खुश होना चाहे वो हो ले।)  ऐसे में 2040 तक भारत में १९-४० आयु वर्ग में यानी श्रमिक दृष्टि से सबसे उत्पादक आयुवर्ग में 23 मिलियन लड़कियों का डेफिसिट होगा। उद्यमी अपने मुनाफे का भविष्य देख सकते हैं! अब पिता ही इसे सुधार सकता है, क्योंकि निर्णय का अधिकार परिवार में उसे है. इसीलिए पिताओं को ख़ास अपील कर ये अभियान बुना गया।
इस 'छवि उत्पादन' में सबसे आखरी कड़ी नज़र आती है  'इंडियाज डॉटर' फिल्म, जो प्रतिबंधित कर दी गयी. वहाँ भी छवि धूमिल करने का तर्क सबसे अहम था।  तो इसी  'इंडियाज डॉटर'  के जवाब में 'सेल्फीविथडॉटर'! ताकि बजट में पैसा बिना लगाए छवि सुधार के माध्यम से ये संदेश जाए कि यह देश उसकी लड़कियों को चाहता है. और इसमें तो संघ की आलोचना भी नहीं झेलनी होगी कि आप भारतीय संस्कृति के विरुद्ध हो क्योंकि इस अभियान में  माँ नहीं, पिता बेटी के साथ सेल्फ़ी खिचवायेगा। इससे पितृसत्ता को तो और मज़बूती ही मिलेगी न?
000 प्रज्ञा जोशी
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टिप्पणियाँ:-
संजीव:-
सेल्फी सेल्फी खेलें एक बहुत ही गंभीर मुद्दे को लेकर आया है। इस पर कई तरह से चर्चा होनी चाहिए।स्त्री के साथ चाहे वह अपनी बेटी हो या दूसरे की 
राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वालों को कडी आलोचना की जानी चाहिए।अपनी बेटी के साथ सेल्फी लेने की बात बचकानी है।यदि संवेदनशीलता है बेटियों के साथ तो उन बेटियों के साथ सेल्फी लें जिन्हें व्यवस्था जीने का अधिकार भी नहीं देती है।उनके साथ लें जो पचास सौ रूपये के लिए रोज बेची खरीदी जाती हैं। दरअसल स्त्री के प्रति यह जो व्यवसायिक दृष्टि कोण है वह हमारी रगों में खून की तरह दौड रहा है।मोदी जी भी तो पहले मर्द हैं बाद में प्रधानमंत्री। जब तक यह दृष्टि कोण हम नहीं बदलेंगे कुछ भी सही नहीं होगा।स्त्री को एक मानवीय संवेदनाओं का हक स्वयं ही लेना होगा।मर्द तो सिर्फ भीख दे सकता है।


प्रदीप कान्त:-
मुद्दा गंभीर है 
अच्छे तरीके से उठाया है और केवल लड़कियों को लेकर ही नहीं हिन्दीस्थान के तमाम स्थितियों को लेकर सवाल उत्पन्न करता है । सामाजिक सूरक्षा का सवाल गंभीर है।

सेल्फ़ी विद डॉटर के ऊपर संजीव की टिप्पणी गंभीर सवाल खड़ा करती है।
अब सेल्फ़ी विद डॉटर की बात 
इस देश को सेल्फ़ी विद डॉटर की नहीं बल्कि सेल्फ़ी विद हाफ पॉपुलेशन की ज़रुरत है। और उसके लिए आपको यानी मर्द को (माफ़ कीजिये) सचमुच इंसान होना पडेगा कि एक लड़की या स्त्री उस पर विशवास कर सके
वरना सब चोचले हैं और ये सेल्फ़ी सिर्फ सेल्फ है


निरंजन श्रोत्रिय:-
बहुत ही मौजूं। रिश्तों का व्यवसायीकरण/राजनीतिकरण तो कोई इनसे सीखे। यह स्त्रियों के पक्ष में तमाम ज़रूरी विमर्शों से समाज का ध्यान हटाने की घटिया कोशिश। अपनी बेटियों को 50 प्रतिशत आरक्षण राजनीति में भले न दिलवा पाएं, कन्या भ्रूण हत्या भले न रोक पाएं; सेल्फ़ी खिंचवा लें बस। मुझे तो लगता है तमाम 'डॉटर्स' को इस ड्रामे का विरोध करना चाहिए।


सत्यनारायण:-
भाईसाब डॉटर्स के फॉदर्स को भी
साथ खड़े रहने की ज़रूरत है...मुझे लगता है कि जब हम स्त्री को स्त्री
समझते हैं...और स्त्री होने के नाते ही
या तो उनका शोषण करते हैं...उपेक्षा करते हैं या फिर उन बहुत ज्याद मेहरबानी करते हैं...तब भी
ठीक नहीं करते हैं....एक स्त्री को
सिर्फ़ स्त्री नहीं...एक स्वतंत्र इंसान समझने की..स्वीकार करने की ज़रूरत है....उसे वे सभी हक़ है...जो एक स्वतंत्र इंसान के होते हैं...
जब हम स्त्री के किसी तरह के काम
की सिर्फ़ स्त्री होने के कारण...अधिक
तव्वजो देते हैं....तरह तरह की महरबानी करते हैं...तभी हम पक्षपाती ही होते हैं...तब हम उसे
एक इंसान से कम मानते हैं....
और इस तरह का काम कोई पुरुष ही करे ज़रूरी नहीं....कुछ स्त्रियाँ
भी करती हैं...जिनके भीतर एक
सामंती पुरुष बैठा होता है...
कुछ इस तरह से भी इस मसले को समझने की कोशिश हो सकती है
लेख अपनी बात बहुत सटीक और स्पस्ट रखता है....हमारे भीतर कई प्रश्न खड़े करता है


अंजू शर्मा :-
अच्छा सामयिक और सटीक सवाल उठाया वागीश जी ने। इस सेल्फ़ी अभियान को एक विडम्बना के तौर पर देखा जा रहा है तो क्या आश्चर्य है। हिपोक्रेसी इस देश का स्वभाव है। हम देवी बनाकर सारे महत्वपूर्ण विभाग उन्हें सौंप कर लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा के रूप में स्थापित तो कर सकते हैं पर उन्हें निजी जीवन में सम्मान देना भूल जाते है। नौ दिन उनके नाम करने का ढोंग करते हैं फिर उन्हीं तबकों में दुधमुही बच्चियां सर्वाधिक शिकार बनती हैं जहां धर्म की जड़ें ज्यादा गहरी हैं  ऐसे में सेल्फ़ी का क्या मतलब। पर अगर एक सेल्फ़ी लेने से बेटी को अपनी शिक्षा और जीवन से जुड़े निर्णय लेने, संपत्ति में हिस्सा देने, बेटों के समान समझे जाने जैसे भाव जागृत होते हैं तो सेल्फ़ी जिंदाबाद


अलकनंदा साने:-
रस्म अदायगी के तौर पर ही सही, शहीदों को नमन किया जाता है पर लक्ष्मीबाई, दुर्गावती, चेलम्मा या प्रीतीबाला  को भूल जाते हैं ।

मैं सत्य जी की बात से सहमत हूं कि स्त्री को पहले मनुष्य समझा जाना आवश्यक है ।

मनीषा जैन :-
सेल्फी से पहले स्त्रियों को समानता व उन्हें मनुष्य समझने की दरकार है। बेटी को कमताश में ब्याह कर सारी संपत्ति बेटो के नाम करने से पहले सेल्फी का लाॅलीपाॅप दिखाने का क्या मतलब है। जब भगवान को या कुलदेवता को दिया दिखाने के लिए बेटो को पुकारना । क्या सेल्फी से  बेटी को सम्मान मिलता हो तो क्या हर्ज है सेल्फी में।
वैसे सत्या जी और अंजू जी से सहमत।


स्वरांगी साने:-
चल बेटा से सेल्फी ले ले रे…. आज का मुंहचढ़ा गीत है। पूछिये इस गीत में क्या है तो यह आत्ममुग्धता के चरम का प्रतीक है। गायब होती लड़कियां इस मुग्धता के दौर में याद आ जायें तो कोई अचरज की बात नहीं। लड़कियाँ, महिलायें, औरतें, स्त्री या नारी आप उन्हें कोई भी नाम दे दीजिये, याद ही मुग्ध करने के समय आती है। हम कितने प्रगतिशील है कि हमारे यहाँ बेटी है, उसका प्रमाण उसके साथ हमारा सेल्फी है। ये उस बाजारीकरण का ही एक प्रमाण है कि शादी के बाजार में उसे सिर झुकायें खड़ा कर दिया जाता है, देखो कितनी संस्कारी, सुशील है। अब उससे पहले का यह चिन्ह है, देखो हमारे यहाँ लड़की है।

वो लड़की जो मांस का लोथड़ा मान कर पेट में ही गिरा दी जाती है, वो लड़की जिसके लिये कहा जाता है- पढ़्कर क्या करेगी, वो जिसे पढ़ाया भी किसी सस्ते स्कूल में जाता है, जबकि उसी घर के बेटे बड़े यानी महंगे स्कूल में जाते हैं। उसकी पढ़ाई शादी की उम्र के इतंजार तक होती है। उसे नौकरीपेशा बनाया जाता है ताकि मार्केट वैल्यू बढ़ जायें। हरियाणा का सरपंच एक फेड लाता है, मध्यप्रदेश सरकार की लड़की पैदा होने पर प्रदेश की बेटी जैसी योजना है, पुणे में लेक लाडकी (लाड़ली बेटी) योजना है। पर क्या इनसे कुछ ज्यादा फर्क पड़ा है ? ऐसे में आश्वस्त करती है तो केवल एक बात, ऐसे परिवार जिन्होंने एक ही बेटी पर परिवार का विस्तार रोक लिया। मैं इस आत्ममुग्धता में डूबती ही हूँ कि मेरी सहेली और इ्कलौती बेटी की माँ आकर मुझे पूछ लेती है- बता न क्या करूं, अब तक तो सास कह रही थी पर अब ‘ये’ भी कह रहे हैं, लड़का तो होना ही चाहिये। इधर उसके पति का फेसबुक अपडेट दिखता है सेल्फी विद डॉटर…
आलोक बाजपेयी:-
यह selfie का जो ड्रामा चल रहा है यह अनायास नहीं है।यह समाज को आत्मकेंद्रिता और असामाजिक करने के लिए एक मनोवैज्ञानिक युद्ध है।
साथ ही मूलभूत समस्याओ से ध्यान हटा कर केवल सुखाभास में डालना है।
यह कुचक्र है।


प्रदीप मिश्र:-
सूचनाएं और उलब्ध जानकारी विषय के प्रति चिंतन की प्रक्रिया शुरू करने में सफल है। मेरी व्यक्तिगत अपेक्षा हो सकती है। मुझे लगता है। इस आलेख को और भी धारदार होना चाहिए था। मित्रों क्या आपलोगों को ऐसा नहीं लग रहा है कि अचानक हमारा देश बाजार में बदल गया है। और राजनीती बाज़ारू हो गयी है। हमारे नीति निर्धारक सेल्समैन में बदल गएँ है। यह मान लिया गया है की जो दावपेंच बाजार में अच्छे दिनों ला सकते हैं वही समाज और मनुष्यों के जीवन में भी। आज से कुछ बरस पहले तक हमारे साहित्य में मनुष्य का वास्तु में बदलजाने की जिस चिंता को रेखांकित किया जा रहा था। आज की व्यवस्था ने उसी की घोंसणा कर दी है। सेल्फ़ी भी उसी का हिस्सा है जो सेल्फिश यानी स्वार्थी के बहुत करीब है। इसमें हमें सिर्फ खुद को एक चमक में देखना है। यदी हम चमकदार हैं तो पूरी दुनिया चमकदार है। भला हो प्रधान का उन्होंने सेल्फ़ी विथ डॉटर कहा क्यों की उनका देश तो महानगरों तक सीमित है। जहां सब अंगरेजी जानते और स्मार्ट फ़ोन में जीवन तलशते है। हमारे गाव के पिता और बेटियां बच गयीं।अहम् और स्वयं के इस उत्सव में सब कुछ सुन्दर और अच्छा है। अलोक ने सही कहा है। यह ड्रामा में ही संभव है।


मनीषा जैन :-
वागीश जी वो तो गलत लिखा गया था कहना कुछ और चाहती थी

सेल्फी से पहले स्त्रियों को समानता व उन्हें मनुष्य समझने की दरकार है। बेटी को कमताश में ब्याह कर सारी संपत्ति बेटो के नाम करने से पहले सेल्फी का लाॅलीपाॅप दिखाने का क्या मतलब है। जब भगवान को या कुलदेवता को दिया दिखाने के लिए बेटो को पुकारना । क्या  सेल्फी से  बेटी को सम्मान मिलता है ?  सब ध्यान भटकाने के टोटके है।
वैसे सत्या जी और अंजू जी से सहमत।


प्रदीप मिश्र:-
वागीश मेरे धारदार कहने का मतलब यह था की भाषा के स्तर इसमें व्यग्यात्मकता और होनी चाहिए थी। मैंने अपनी टिप्पणी उसको स्पष्ट करने की कोशिश किया हूँ। लेकिन ठीक से हो नहीं पाया है। दरअसल मेरी मान्यता है की हमे जिस तरह के मुद्दे को छू रहे हैं। उसका जो तापमान समाज में है या तो उसी तापमान या उससे ज्यादा के साथ ख़ारिज करें या स्वीकार करें। या फिर इतनी ठंडक के साथ करें की वह हमारे तर्क़ों से बुझने जैसा महसूस हो।यह अपेक्षा व्यक्ति व्यक्ति में बदल जाती है।


राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
सेल्फी का मामला मुझे ढकोसला लगता है। इसी मुद्दे पर मेरी एक कहानी भी है,  जो कि लोकमत समाचार के वार्षिक अंक में प्रकाशित हुई है और राधाकृष्ण से प्रकाशित मेरे संग्रह में भी शामिल है। सेल्फी का मामला मुझे भी ढकोसला लगता है


आशीष मेहता:-
साथी के बीज वक्तव्य में "सेल्फी" पर तंज सटीक लगा। जैसे ही "सेल्फी विद डॅाटर" का रंग चढ़ा, मामला बिगड़ गया।
हंगामा क्यों बरपा ? इस वाजिब सवाल की पड़ताल के साथ साथ कुछ लोगों की  असहिष्णुता को भी वाजिब तौर पर कोसा ।
बेवजह हुए हंगामे के सबब (जैसे, वोहराजी की व्यक्तिगत आशंकाएं) इस बीज वक्तव्य में भी आ ही गए, इरादतन या गैर -इरादतन ? बेहद तथ्यात्मक रपटों के आँकड़ें / तथ्य, निष्पक्षता से न रखने से, कुछ भ्रामक से हो गए हैं। निश्चित तौर पर नकारात्मक पहलुओं का मंथन जरूरी है (इसलिये तो रपट जारी करते हैं, पूंजीवादी  ) 
बहुत सारे अंदाज़े, कयास लगाने से दो -तीन (??) "असली पेंच" केंद्र बिंदु बन गए हैं, और "सरल प्रयास" हाशिये पर हो लिया।
शुक्र है, मुहीम को मिले प्रतिसाद को स्पष्टतः स्वीकारा गया है। जेंडर रिपोर्ट साफ कह रही है (पेज २७) की २०१० से भारत के अंकों में निरंतर बढ़ोतरी है, सिवाय अंतिम साल के। इस गिरावट के मुख्य कारण  "आर्थिक सहभागिता एवं अवसर" तथा "शिक्षा प्राप्ति" में कमी (स्त्री लिंग की) को माना है। (कृपया "स्त्री" शब्द उपयोग न करने को मेरी असंवेदनशीलता न माना जाए )। आगे, रिपोर्ट कह रही है (भारत के संदर्भ में) कि २००६ के बाद से सबसे अधिक गिरावट "स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता (survival) सूचक" में दर्ज की गई है क्योंकि इसके दो में से एक घटक ("जन्म के समय लिंगानुपात") में "महत्वपूर्ण गिरावट" है। यानी भ्रूणहत्या!!! 
अब इसके खिलाफ, "सेल्फी" जैसी 'बनती हुई सामाजिक बीमारी' का जुगाड़ू उपयोग कर लिया, तो नारी-सशक्तिकरण या राजनीति कहाँ बीच में आ गई ?
बनी बात है कि ज्यादा "मर्दों (?)" को इन्सान बनना होगा, उन्हें स्त्री को "इन्सान" मानना होगा। हर कला की शुरुआत ढोंग से ही होती है। इसी बहाने कुछ और मर्द ईमानदारी से ढोंग भी कर लिए, तो उनके "कलाकार" होने की संभावना तो बनती है। सूचक तो सुधर सकता है। (अब इस पर भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मुनाफा साल रहा है, तो हम मिल के कह रहे हैं कि  "चित भी तुम्हारी, पट भी तुम्हारी। अंटा तो मेरे बाप का कभी था ही नहीं")।
रही बात 'छवि सुधार' की, तो तीन चार देशों के भ्रमण मंत्रालयों के, भारतभ्रमण करने वाले, अपने नागरिकों के लिए जारी निर्देश पढ़ें, WTTCII की रिपोर्ट की जरूरत नहीं पड़ेगी । हमारी छवि 'संपेरों और जादू टोनों के देश ' की है। क्यों न हो, पिछले दिनों ही इन्दौर में संपेरों ने एकत्रित हो कर (भले लोग हैं भई) अपने जीवन यापन के लिए माँगें रखीं हैं। हाँ, जादू टोनों के लिए, देवरानी -जेठानी के बजाय, ' जादुगर आनंद' को जिम्मेदार ठहराना ठीक रहेगा ।
यह चाय की प्याली से लाल रंग कैसे उतरेगा ? पता नहीं । अंगुलिमाल के समय 'सेल्फी' होती, तो क्या वो बौद्ध अपना पाते ? डाकू रत्नाकर 'नई सेल्फी' अपडेट कर वाल्मीकि बन जाते??
'सेल्फी' (जैसे मर्ज़ को) को किसी एक मर्ज़ की दवा तो बना लीजिए ।


वागीश:-
सुभोर! एक ज़रूरी विषय पर प्रस्तुत बीज वक्तव्य पर आपकी सुविचारित प्रतिक्रिया और टिप्पणियों के लिए आप सभी साथियों का आभार। यह बीज वक्तव्य हमारे समूह की साथी प्रज्ञा जोशी की थी। आज प्रज्ञा आपकी प्रतिक्रियाओं पर अपनी बात रखेंगी और इससे निकले मुद्दों पर हम मुक्त बहस जरी रखेंगे।


प्रज्ञा :-
विचारोतेजक लेख। सेल्फ़ी विद डॉटर अभियान की कलई खोलता। तस्वीर लगाने से यदि मानसिकता और स्थिति बदलती हो तो हम सभी समस्याओं के आकर्षक और खोखले आर्दशवाद की लाखों तस्वीरें लगा दें। ये इतना हास्यास्पद है कि इस अतार्किक मूर्खता पर गुस्सा आता है। ग़ालिब का दिल के बहलाने से भी आगे का चले जाना। पर ग़ालिब की करुणा इस सन्दर्भ में हास्य क्रोध विसंगति में तब्दील होती है। सर धुनने का मन होता है। प्रधान सेवक का आत्ममोह वितृष्णा पैदा करता है। जिसे सेल्फलेस होकर काम करना था उसे सेल्फ से परे कुछ नही सूझता। सुपरफीशियल तरीकों से गम्भीर हल नही निकलते जनाब। और जो हल हो सकते हैं उन्हें सुनना गवारा नही। क्योंकि वहां तो जड़ रूढ़ पितृसत्ता अपने तमाम पूर्वाग्रहों के साथ बैठी है । इन पूर्वाग्रहों में आप अंतर्विरोध ही गढ़ेंगे कि कॉर्पोरेट वर्ल्ड को चलाने वाली स्त्री छवि देखने में अल्ट्रा मोडर्न रहे और दिमाग से आपकी सत्ता के सारे ढकोसले भी सहे।
ये अंतर्विरोध उसकी तमाम परतें हमे साफ नज़र आ रही हैं कमाल है अभियान नियंताओं की आँखों पर चढ़े चश्मे का नंबर बढ़ गया लगता है।


चंद्र शेखर बिरथरे :-
हमारे माननीय प्र म एक भोले भाले इंसान है । सिर्फ फ़ोटो खिंचवाने से ही नारी जाती की सारी मुश्किलें कम हो जाएँगी ऐसा कैसे हो सकता है । हमारी संन्स्कृति संस्कार इस बात की अनुमति कतई नहीं देते है । एक गहरे


कविता वर्मा:-
सेल्फी विद डॉटर अभियान के कई निहितार्थ हो सकते है जैसा की इस लेख में बताया गया है लेकिन इसे एकदम और हर स्तर पर ख़ारिज़ करना विरोध के लिये विरोध करने जैसा है । एक सामान्य सी बात है कि प्यार जताना चाहिये और जब इसे अभियान स्वरूप किया जाये तो उसका जनमानस पर सकारात्मक प्रभाव जरूर पढ़ेगा । लेख में ही कहा गया है देश के कुछ नागरिकों के 'असहिष्णु चरित्र ' तो उन्हे बदलने का प्यास क्यों ना किया जाये ? किसी भी अच्छे काम का विरोध होता ही है उसकी गति में अडंगे लगते है पर बदलाव गलत को सही में बदलना और धीमी गति से ही होता है । मन की बात मुखर करने वाली स्रियों का चरित्र हनन सिर्फ इस अभियान में नही हुआ हमेंशा होता है लेकिन उसके बाद स्रियॉं और हिम्मत के साथ आगे आईं हैं और ऐसा करने वालों के मुख से मुखौटा उतरा है जो अंततः समाज और महिलाओं के लिये लाभदायक रहा है । देश की छवि के लिये कार्य करना प्र म की प्रतिबद्धता है और ऐसे अभियान उसकी परिणिति हॉं इन्हे सकारात्मक रूप से सतत चलाना आम नागरिक की भी जिम्मेदारी है ।

फ़रहत अली खान:-
अच्छा लेख है; मेहनत से लिखा गया है। हालाँकि सेल्फ़ी विद डॉटर अभियान से जुड़े जो क़यास यहाँ लगाये गए, उन सबसे मैं सहमत नहीं हूँ। मुझे तो साफ़तौर पर ये अभियान पीएम द्वारा अपनी सरकार की मार्केटिंग करने और वाह-वाही लूटने का एक सस्ता और बे-कार ज़रिया नज़र आता है; ये बात और है कि तारीफ़ के बजाए उल्टी फज़ीहत हो गयी।
सरकार को समझना चाहिए कि महज़ बातें बनाने और हवा बाँधने से कुछ नहीं होता; तारीफ़ चाहिए तो ज़मीन पर आकर काम करना होगा। गंभीर और अहम मसलों पर मौन-व्रत धारण करने के बजाए सही को सही और ग़लत को ग़लत कहना चाहिए।


मनीषा जैन :-
सेल्फी से पहले स्त्रियों को समानता व उन्हें मनुष्य समझने की दरकार है। बेटी को कमताश में ब्याह कर सारी संपत्ति बेटो के नाम करने से पहले सेल्फी का लाॅलीपाॅप दिखाने का क्या मतलब है। जब भगवान को या कुलदेवता को दिया दिखाने के लिए बेटो को पुकारना । क्या  सेल्फी से  बेटी को सम्मान मिलता है ?  सब ध्यान भटकाने के टोटके है।


आर्ची:-
बिलकुल ठीक विडम्बना कहिए या विरोधाभास इस अभियान का समर्थन करने वाले भी विरोध मे विचार व्यक्त करने वाली महिलाओं की बेइज्जती करने से नहीं चूक रहे थे इस हिसाब से तो अभियान पहले ही चरण में सांकेतिक तौर पर भी असफल ही कहा जाएगा

संजीव:-सेल्फी सेल्फी खेलें एक बहुत ही गंभीर मुद्दे को लेकर आया है। इस पर कई तरह से चर्चा होनी चाहिए।स्त्री के साथ चाहे वह अपनी बेटी हो या दूसरे की 
राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वालों को कडी आलोचना की जानी चाहिए।अपनी बेटी के साथ सेल्फी लेने की बात बचकानी है।यदि संवेदनशीलता है बेटियों के साथ तो उन बेटियों के साथ सेल्फी लें जिन्हें व्यवस्था जीने का अधिकार भी नहीं देती है।उनके साथ लें जो पचास सौ रूपये के लिए रोज बेची खरीदी जाती हैं। दरअसल स्त्री के प्रति यह जो व्यवसायिक दृष्टि कोण है वह हमारी रगों में खून की तरह दौड रहा है।मोदी जी भी तो पहले मर्द हैं बाद में प्रधानमंत्री। जब तक यह दृष्टि कोण हम नहीं बदलेंगे कुछ भी सही नहीं होगा।स्त्री को एक मानवीय संवेदनाओं का हक स्वयं ही लेना होगा।मर्द तो सिर्फ भीख दे सकता है।


संजना तिवारी:-
सेल्फ़ी विद डॉटर को मैं सबसे पहले निजी , फिर सामाजिक और फिर राजनितिक तौर पर आंकना चाहूंगी -

निजी 
जब एक पिता सार्वजनिक तौर पर अपनी बेटी के साथ सेल्फ़ी शेयर करेगा तो ना सिर्फ पिता और पुत्री जुड़ाव का एक रेश्यो सामने आएगा, बल्कि पिता को बेटी को समान समझने और जानने की फिलिंग्स भी आएंगी । जब एक अभिभावक अपनी संतान को दुनिया के समक्ष गर्व से दिखाता है तो बिना कहे उसके शब्द गूंजते है की ये है मेरी संतान , जिसे पाकर मैं निहाल हो गया हूँ और मुझे गर्व है इस पर ।आज तक भारतीय पिताओं ने बेटियों को छुपाकर रखा है किसी घरेलू सामान की तरह , लेकिन आज वो संसार के सामने अपनी बच्ची को गर्व से लिए प्रस्तुत है की ये है मेरी बेटी- कोई सजाने का सामान नहीं बल्कि जीता जागता मेरा हिस्सा


सामाजिक
ये छोटी सी पहल समाज के सामने स्त्री अस्तित्व के बरगद के लिए बीज स्वरूप है । आज तक समाज ने बेटी को पराया धन और शारीरिक तौर पर कमजोर साबित किया है और इसी हिसाब से उसे उसके अधिकारों से वंचित भी रखा है ।
सेल्फ़ी विद डॉटर जैसी शुरुआतें बेटियों को समाज में पराया नहीं वरन् अपना घोषित करने की सोच है ।जहाँ तक रही कुछ तुच्छ सोच वालों का इस अभियान में गन्दी बाते लिखने और करने का मैटर तो हर जगह अपवाद हमेशा रहता है ।
जब अभिभावक समाज में बेटीयों को स्वतन्त्र पहचान देंगे तो उनकी परवरिश में भी सुधार होगा । उन्हें मानसिक और शारीरिक तौर पर मजबूत बनाया जाएगा जिससे वे हर तरह के संकटों से जूझ सकें और बाहर आकर समाज के हर क्षेत्र में अपना मुकाम बना सके ।
यही समझदार अभिभावक बेटों को ये सिखाएंगे की उन्हें लड़कियों को केवल शरीर नहीं बल्कि अपनी ही तरह साथी समझना चाहिए और एक बार सोच में बदलाव आना शुरू हुआ तो लड़कियों की असुरक्षा का आधा मैटर सॉल्व हो जाएगा ।

राजनितिक
भारत सेल्फ़ी विद डॉटर से विश्व को ये सन्देश देना चाहता है अब भारत की सोच और समाज बदल रहा है । बेटियों को पराया धन मानने वाला पिता उसे बेटे के बराबर मानता और अधिकार दे रहा है ।भारतीय परिवेश में अब आधी आबादी को भी सम्मान देने हेतु भारतीय जनता अग्रसर है ।
अंत में बस यही कहना चाहती हूँ की व्यवसायिक सम्बन्ध बनाने के लिए तो हर प्रधानमंत्री विदेश घूमते हैं , उसे तूल ना देते हुए हमें इस छोटी सी पहल का स्वागत खुले दिल से करना चाहिए और बेटी को बेटी नही बल्कि स्वतंत्र अस्तित्व समझना चाहिए । दोनों लिंग की संतानो को समान प्रेम , अधिकार और मजबूत परवरिश देनी चाहिए ।



:- सेल्फी सेल्फी खेलें एक बहुत ही गंभीर मुद्दे को लेकर आया है। इस पर कई तरह से चर्चा होनी चाहिए।स्त्री के साथ चाहे वह अपनी बेटी हो या दूसरे की 
राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वालों को कडी आलोचना की जानी चाहिए।अपनी बेटी के साथ सेल्फी लेने की बात बचकानी है।यदि संवेदनशीलता है बेटियों के साथ तो उन बेटियों के साथ सेल्फी लें जिन्हें व्यवस्था जीने का अधिकार भी नहीं देती है।उनके साथ लें जो पचास सौ रूपये के लिए रोज बेची खरीदी जाती हैं। दरअसल स्त्री के प्रति यह जो व्यवसायिक दृष्टि कोण है वह हमारी रगों में खून की तरह दौड रहा है।मोदी जी भी तो पहले मर्द हैं बाद में प्रधानमंत्री। जब तक यह दृष्टि कोण हम नहीं बदलेंगे कुछ भी सही नहीं होगा।स्त्री को एक मानवीय संवेदनाओं का हक स्वयं ही लेना होगा।मर्द तो सिर्फ भीख दे सकता है।



:-अच्छे तरीके से उठाया है और केवल लड़कियों को लेकर ही नहीं हिन्दीस्थान के तमाम स्थितियों को लेकर सवाल उत्पन्न करता है । सामाजिक सूरक्षा का सवाल गंभीर है।
सेल्फ़ी विद डॉटर के ऊपर संजीव की टिप्पणी गंभीर सवाल खड़ा करती है।



:-अब सेल्फ़ी विद डॉटर की बात 
इस देश को सेल्फ़ी विद डॉटर की नहीं बल्कि सेल्फ़ी विद हाफ पॉपुलेशन की ज़रुरत है। और उसके लिए आपको यानी मर्द को (माफ़ कीजिये) सचमुच इंसान होना पडेगा कि एक लड़की या स्त्री उस पर विशवास कर सके
वरना सब चोचले हैं और ये सेल्फ़ी सिर्फ सेल्फ है।



:- बहुत ही मौजूं। रिश्तों का व्यवसायीकरण/राजनीतिकरण तो कोई इनसे सीखे। यह स्त्रियों के पक्ष में तमाम ज़रूरी विमर्शों से समाज का ध्यान हटाने की घटिया कोशिश। अपनी बेटियों को 50 प्रतिशत आरक्षण राजनीति में भले न दिलवा पाएं, कन्या भ्रूण हत्या भले न रोक पाएं; सेल्फ़ी खिंचवा लें बस। मुझे तो लगता है तमाम 'डॉटर्स' को इस ड्रामे का विरोध करना चाहिए।

सत्यनारायण:-
भाईसाब डॉटर्स के फॉदर्स को भी
साथ खड़े रहने की ज़रूरत है...मुझे लगता है कि जब हम स्त्री को स्त्री
समझते हैं...और स्त्री होने के नाते ही
या तो उनका शोषण करते हैं...उपेक्षा करते हैं या फिर उन बहुत ज्याद मेहरबानी करते हैं...तब भी
ठीक नहीं करते हैं....एक स्त्री को
सिर्फ़ स्त्री नहीं...एक स्वतंत्र इंसान समझने की..स्वीकार करने की ज़रूरत है....उसे वे सभी हक़ है...जो एक स्वतंत्र इंसान के होते हैं...
जब हम स्त्री के किसी तरह के काम
की सिर्फ़ स्त्री होने के कारण...अधिक
तव्वजो देते हैं....तरह तरह की महरबानी करते हैं...तभी हम पक्षपाती ही होते हैं...तब हम उसे
एक इंसान से कम मानते हैं....
और इस तरह का काम कोई पुरुष ही करे ज़रूरी नहीं....कुछ स्त्रियाँ
भी करती हैं...जिनके भीतर एक
सामंती पुरुष बैठा होता है...
कुछ इस तरह से भी इस मसले को समझने की कोशिश हो सकती है
लेख अपनी बात बहुत सटीक और स्पस्ट रखता है....हमारे भीतर कई प्रश्न खड़े करता है



:- अच्छा सामयिक और सटीक सवाल उठाया वागीश जी ने। इस सेल्फ़ी अभियान को एक विडम्बना के तौर पर देखा जा रहा है तो क्या आश्चर्य है। हिपोक्रेसी इस देश का स्वभाव है। हम देवी बनाकर सारे महत्वपूर्ण विभाग उन्हें सौंप कर लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा के रूप में स्थापित तो कर सकते हैं पर उन्हें निजी जीवन में सम्मान देना भूल जाते है। नौ दिन उनके नाम करने का ढोंग करते हैं फिर उन्हीं तबकों में दुधमुही बच्चियां सर्वाधिक शिकार बनती हैं जहां धर्म की जड़ें ज्यादा गहरी हैं  ऐसे में सेल्फ़ी का क्या मतलब। पर अगर एक सेल्फ़ी लेने से बेटी को अपनी शिक्षा और जीवन से जुड़े निर्णय लेने, संपत्ति में हिस्सा देने, बेटों के समान समझे जाने जैसे भाव जागृत होते हैं तो सेल्फ़ी जिंदाबाद


:-रस्म अदायगी के तौर पर ही सही, शहीदों को नमन किया जाता है पर लक्ष्मीबाई, दुर्गावती, चेलम्मा या प्रीतीबाला  को भूल जाते हैं ।


:- मैं सत्य जी की बात से सहमत हूं कि स्त्री को पहले मनुष्य समझा जाना आवश्यक है।


:- सेल्फी से पहले स्त्रियों को समानता व उन्हें मनुष्य समझने की दरकार है। बेटी को कमताश में ब्याह कर सारी संपत्ति बेटो के नाम करने से पहले सेल्फी का लाॅलीपाॅप दिखाने का क्या मतलब है। जब भगवान को या कुलदेवता को दिया दिखाने के लिए बेटो को पुकारना । क्या सेल्फी से  बेटी को सम्मान मिलता हो तो क्या हर्ज है सेल्फी में।
वैसे सत्या जी और अंजू जी से सहमत।            

:- चल बेटा से सेल्फी ले ले रे…. आज का मुंहचढ़ा गीत है। पूछिये इस गीत में क्या है तो यह आत्ममुग्धता के चरम का प्रतीक है। गायब होती लड़कियां इस मुग्धता के दौर में याद आ जायें तो कोई अचरज की बात नहीं। लड़कियाँ, महिलायें, औरतें, स्त्री या नारी आप उन्हें कोई भी नाम दे दीजिये, याद ही मुग्ध करने के समय आती है। हम कितने प्रगतिशील है कि हमारे यहाँ बेटी है, उसका प्रमाण उसके साथ हमारा सेल्फी है। ये उस बाजारीकरण का ही एक प्रमाण है कि शादी के बाजार में उसे सिर झुकायें खड़ा कर दिया जाता है, देखो कितनी संस्कारी, सुशील है। अब उससे पहले का यह चिन्ह है, देखो हमारे यहाँ लड़की है।



:- वो लड़की जो मांस का लोथड़ा मान कर पेट में ही गिरा दी जाती है, वो लड़की जिसके लिये कहा जाता है- पढ़्कर क्या करेगी, वो जिसे पढ़ाया भी किसी सस्ते स्कूल में जाता है, जबकि उसी घर के बेटे बड़े यानी महंगे स्कूल में जाते हैं। उसकी पढ़ाई शादी की उम्र के इतंजार तक होती है। उसे नौकरीपेशा बनाया जाता है ताकि मार्केट वैल्यू बढ़ जायें। हरियाणा का सरपंच एक फेड लाता है, मध्यप्रदेश सरकार की लड़की पैदा होने पर प्रदेश की बेटी जैसी योजना है, पुणे में लेक लाडकी (लाड़ली बेटी) योजना है। पर क्या इनसे कुछ ज्यादा फर्क पड़ा है ? ऐसे में आश्वस्त करती है तो केवल एक बात, ऐसे परिवार जिन्होंने एक ही बेटी पर परिवार का विस्तार रोक लिया। मैं इस आत्ममुग्धता में डूबती ही हूँ कि मेरी सहेली और इ्कलौती बेटी की माँ आकर मुझे पूछ लेती है- बता न क्या करूं, अब तक तो सास कह रही थी पर अब ‘ये’ भी कह रहे हैं, लड़का तो होना ही चाहिये। इधर उसके पति का फेसबुक अपडेट दिखता है सेल्फी विद डॉटर।


:- यह selfie का जो ड्रामा चल रहा है यह अनायास नहीं है।यह समाज को आत्मकेंद्रिता और असामाजिक करने के लिए एक मनोवैज्ञानिक युद्ध है।
साथ ही मूलभूत समस्याओ से ध्यान हटा कर केवल सुखाभास में डालना है।
यह कुचक्र है।



:- सूचनाएं और उलब्ध जानकारी विषय के प्रति चिंतन की प्रक्रिया शुरू करने में सफल है। मेरी व्यक्तिगत अपेक्षा हो सकती है। मुझे लगता है। इस आलेख को और भी धारदार होना चाहिए था। मित्रों क्या आपलोगों को ऐसा नहीं लग रहा है कि अचानक हमारा देश बाजार में बदल गया है। और राजनीती बाज़ारू हो गयी है। हमारे नीति निर्धारक सेल्समैन में बदल गएँ है। यह मान लिया गया है की जो दावपेंच बाजार में अच्छे दिनों ला सकते हैं वही समाज और मनुष्यों के जीवन में भी। आज से कुछ बरस पहले तक हमारे साहित्य में मनुष्य का वास्तु में बदलजाने की जिस चिंता को रेखांकित किया जा रहा था। आज की व्यवस्था ने उसी की घोंसणा कर दी है। सेल्फ़ी भी उसी का हिस्सा है जो सेल्फिश यानी स्वार्थी के बहुत करीब है। इसमें हमें सिर्फ खुद को एक चमक में देखना है। यदी हम चमकदार हैं तो पूरी दुनिया चमकदार है। भला हो प्रधान का उन्होंने सेल्फ़ी विथ डॉटर कहा क्यों की उनका देश तो महानगरों तक सीमित है। जहां सब अंगरेजी जानते और स्मार्ट फ़ोन में जीवन तलशते है। हमारे गाव के पिता और बेटियां बच गयीं।अहम् और स्वयं के इस उत्सव में सब कुछ सुन्दर और अच्छा है। अलोक ने सही कहा है। यह ड्रामा में ही संभव है।


अरुण आदित्य:-
: सवाल - आपने कहा था कालाधन वापस लाएंगे?
जवाब- आइए सडक पर झाडू लगाएं।

सवाल - आपने कहा था महंगाई  घटा देंग?
जवाब - आइए मेक इन इंडिया के गुण गाएं।

सवाल - किसान आत्महत्या कर रहे हैं ?
जवाब - आइए योग दिवस मनाएं।

सवाल - व्यापम घोटाले में हत्याएं...
जवाब -  जीवन ज्योति बीमा का लाभ उठाएं।

सवाल- सुषमा, वसुंधरा, पंकजा ...
जवाब - बेटी बचाओ।

सवाल - ललित मोदी के ट्वीट्स।
जवाब - डिजिटल इंडिया का कमाल देखिए।

सवाल -  कब देंगे सब को शेल्टर, सब को वाटर ?
जवाब - आओ हो जाए सेल्फी विद डाटर।
....
:- सब इधर उधर की बाते हैं।बातों का बाजार है, जुमलों की मार है। हर प्रश्न से बचने के लिए एक जश्न है।

किसी शायर ने कहा है,
तू इधर उधर की न बात कर
ये बता कि कारवां कयों लुटा।


वागीश झा:-
मिश्रजी आप कहते हैं, "इस आलेख को और धारदार होना चाहिए"। इस बात को थोडा और स्पष्ट करते तो बात आगे जाती।

:- मनीषा जी, सेल्फ़ी लेने से बेटी को सम्मान कैसे मिलता है?
एक और सवाल मन में आ रहा है। जिसके पास स्मार्ट फ़ोन न हो बल्कि फ्रंट कैमरा वाला स्मार्ट फ़ोन न हो तो उनकी बेटी का क्या होगा? कहीं यह फ्रंट कैमरा वाले स्मार्ट फोन का प्रचार तो नहीं!!


:-बिलकुल सही पकड़ा आपने वागीश जी।

:-अरुण को सलाम। सिर्फ वाह। और अन्ना हज़ारे वाली कविता भी याद आ रही है।

वागीश झा:-
बहुत ही समीचीन कविता अरुण

:- वो है लतीफा
कविता है ...मैं भी अन्ना तू भी अन्ना।

:- वागीश जी वो तो गलत लिखा गया था कहना कुछ और चाहती थी

सेल्फी से पहले स्त्रियों को समानता व उन्हें मनुष्य समझने की दरकार है। बेटी को कमताश में ब्याह कर सारी संपत्ति बेटो के नाम करने से पहले सेल्फी का लाॅलीपाॅप दिखाने का क्या मतलब है। जब भगवान को या कुलदेवता को दिया दिखाने के लिए बेटो को पुकारना । क्या  सेल्फी से  बेटी को सम्मान मिलता है ?  सब ध्यान भटकाने के टोटके है।
वैसे सत्या जी और अंजू जी से सहमत।


:- वागीश मेरे धारदार कहने का मतलब यह था की भाषा के स्तर इसमें व्यग्यात्मकता और होनी चाहिए थी। मैंने अपनी टिप्पणी उसको स्पष्ट करने की कोशिश किया हूँ। लेकिन ठीक से हो नहीं पाया है। दरअसल मेरी मान्यता है की हमे जिस तरह के मुद्दे को छू रहे हैं। उसका जो तापमान समाज में है या तो उसी तापमान या उससे ज्यादा के साथ ख़ारिज करें या स्वीकार करें। या फिर इतनी ठंडक के साथ करें की वह हमारे तर्क़ों से बुझने जैसा महसूस हो।यह अपेक्षा व्यक्ति व्यक्ति में बदल जाती
वागीश झा:-

:-मित्रो, आज के बीज वक्तव्य पर कुछ अन्य साथियों की प्रतिक्रिया और टिप्पणी अपेक्षित है। आज रात तक आप अपनी बात रखें तो बेहतर। कल सुबह बीज वक्तव्य देने वाले साथी
कल सुबह बीज वक्तव्य रखने वाले साथी का नाम उजागर होने के बाद कुछ मुक्त चर्चा हो तो ताकि रविवार विशेष रूप से सार्थक हो सके। आज आप अपनी बात रखें तो बहस के और फलक तय हों।


:- मुझे लगता है इस मुद्दे पर स्त्री मुक्ति के  विमर्श का स्वरूप के संदर्भ में चर्चा होनी चाहिए। इस पर मेरा आलेख उद्भावना के पिछले अंक में प्रकाशित हुआ है। वह यूनीकोड में नहीं है। यदि कोई उसे बदल सके तो मैं मेल पर भेज सकता हूं
वैसे अंजू जी को भेजा है।


:-सेल्फी का मामला मुझे ढकोसला लगता है। इसी मुद्दे पर मेरी एक कहानी भी है,  जो कि लोकमत समाचार के वार्षिक अंक में प्रकाशित हुई है और राधाकृष्ण से प्रकाशित मेरे संग्रह में भी शामिल है। सेल्फी का मामला मुझे भी ढकोसला लगता है

:- सबको मालूम है जन्नत की हकीकत।

:-साथी के बीज वक्तव्य में "सेल्फी" पर तंज सटीक लगा। जैसे ही "सेल्फी विद डॅाटर" का रंग चढ़ा, मामला बिगड़ गया।
हंगामा क्यों बरपा ? इस वाजिब सवाल की पड़ताल के साथ साथ कुछ लोगों की  असहिष्णुता को भी वाजिब तौर पर कोसा ।
बेवजह हुए हंगामे के सबब (जैसे, वोहराजी की व्यक्तिगत आशंकाएं) इस बीज वक्तव्य में भी आ ही गए, इरादतन या गैर -इरादतन ? बेहद तथ्यात्मक रपटों के आँकड़ें / तथ्य, निष्पक्षता से न रखने से, कुछ भ्रामक से हो गए हैं। निश्चित तौर पर नकारात्मक पहलुओं का मंथन जरूरी है (इसलिये तो रपट जारी करते हैं, पूंजीवादी  ) ।
बहुत सारे अंदाज़े, कयास लगाने से दो -तीन (??) "असली पेंच" केंद्र बिंदु बन गए हैं, और "सरल प्रयास" हाशिये पर हो लिया।
शुक्र है, मुहीम को मिले प्रतिसाद को स्पष्टतः स्वीकारा गया है। जेंडर रिपोर्ट साफ कह रही है (पेज २७) की २०१० से भारत के अंकों में निरंतर बढ़ोतरी है, सिवाय अंतिम साल के। इस गिरावट के मुख्य कारण  "आर्थिक सहभागिता एवं अवसर" तथा "शिक्षा प्राप्ति" में कमी (स्त्री लिंग की) को माना है। (कृपया "स्त्री" शब्द उपयोग न करने को मेरी असंवेदनशीलता न माना जाए 🙏)। आगे, रिपोर्ट कह रही है (भारत के संदर्भ में) कि २००६ के बाद से सबसे अधिक गिरावट "स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता (survival) सूचक" में दर्ज की गई है क्योंकि इसके दो में से एक घटक ("जन्म के समय लिंगानुपात") में "महत्वपूर्ण गिरावट" है। यानी भ्रूणहत्या!!! 
अब इसके खिलाफ, "सेल्फी" जैसी 'बनती हुई सामाजिक बीमारी' का जुगाड़ू उपयोग कर लिया, तो नारी-सशक्तिकरण या राजनीति कहाँ बीच में आ गई ?
बनी बात है कि ज्यादा "मर्दों (?)" को इन्सान बनना होगा, उन्हें स्त्री को "इन्सान" मानना होगा। हर कला की शुरुआत ढोंग से ही होती है। इसी बहाने कुछ और मर्द ईमानदारी से ढोंग भी कर लिए, तो उनके "कलाकार" होने की संभावना तो बनती है। सूचक तो सुधर सकता है। (अब इस पर भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मुनाफा साल रहा है, तो हम मिल के कह रहे हैं कि  "चित भी तुम्हारी, पट भी तुम्हारी। अंटा तो मेरे बाप का कभी था ही नहीं")।
रही बात 'छवि सुधार' की, तो तीन चार देशों के भ्रमण मंत्रालयों के, भारतभ्रमण करने वाले, अपने नागरिकों के लिए जारी निर्देश पढ़ें, WTTCII की रिपोर्ट की जरूरत नहीं पड़ेगी । हमारी छवि 'संपेरों और जादू टोनों के देश ' की है। क्यों न हो, पिछले दिनों ही इन्दौर में संपेरों ने एकत्रित हो कर (भले लोग हैं भई) अपने जीवन यापन के लिए माँगें रखीं हैं। हाँ, जादू टोनों के लिए, देवरानी -जेठानी के बजाय, ' जादुगर आनंद' को जिम्मेदार ठहराना ठीक रहेगा ।
यह चाय की प्याली से लाल रंग कैसे उतरेगा ? पता नहीं । अंगुलिमाल के समय 'सेल्फी' होती, तो क्या वो बौद्ध अपना पाते ? डाकू रत्नाकर 'नई सेल्फी' अपडेट कर वाल्मीकि बन जाते??
'सेल्फी' (जैसे मर्ज़ को) को किसी एक मर्ज़ की दवा तो बना लीजिए ।


:-सुप्रभात के साथ संवाद और शब्द के संबंध पर एक विचार। संवाद एक मानवीय परिघटना है। इस का सार है शब्द। शब्द के दो आयाम होते हैं  चिंतन और कर्म।ये दोनों शब्द के अन्दर ऐसी आमूल परिवर्तन कारी अन्योन्यक्रिया में रहते हैं  इनमें से एक को भी अंशतः त्याग दिया जाए तो दूसरा तुरंत क्षतिग्रस्त हो जाता है।ऐसा कोई सच्चा शब्द नहीं हैं जो शब्द के साथ कर्म न हो। अतः एक सच्चा शब्द बोलना विश्व का रूपांतरण करना है। शब्द के संघटक तत्वों को अलग कर दिया जाए तो वह अप्रामाणिक हो जायेगा। यह विचार पाओलो फ्रेरे के हैं।

वागीश झा:-
सुभोर! एक ज़रूरी विषय पर प्रस्तुत बीज वक्तव्य पर आपकी सुविचारित प्रतिक्रिया और टिप्पणियों के लिए आप सभी साथियों का आभार। यह बीज वक्तव्य हमारे समूह की साथी प्रज्ञा जोशी की थी। आज प्रज्ञा आपकी प्रतिक्रियाओं पर अपनी बात रखेंगी और इससे निकले मुद्दों पर हम मुक्त बहस जरी रखेंगे।

प्रज्ञा:-
आप सभी का शुक्रिया जिन्होंने मुझे अपनी बात कहने का मौका दिया और बहस को सार्थक ढंग से आगे बढ़ाया।
सबसेपहले आशीष जी की बात - 
1. बिना रंग की कोई चाय नहीं होती, जिन्हें लगता है कि उनकी है,उनकी भी।


2. निष्पक्षता का अर्थ वैयक्तिक तटस्थता नहीं होता। 'वस्तुनिष्ठ इतिहास लेखन' के छद्म को ई. एच.कार बरसों पहले उद्घाटित कर चुकेहैं| अब सामाजिक विज्ञान में वस्तुनिष्ठता का नारा कोई नहीं लगाता।
मोबाइल बार हैंग होने के कारण ( एक बार लंबा लिखा नष्ट भी हो गया।  ) टुकड़ों टुकड़ों में लिखना ही संभव हो पा रहा है। इजाजत दें।


3.1 2006-14 के दौरान श्रीलंका, जॉर्डन,ट्यूनीशिया,माली,मैसेडोनिया और क्रोएशिया इन छः देशोंको छोड़कर सभी 111 देशों के जेंडर सूचकांक का परिवर्तन सकारात्मक ही है। ( पृष्ठ 38 ) अतः इस सकारात्मकता पर खुश होने की जगह यह देखना होगा कि कुल परिवर्तन के प्रतिशत में हम कहाँ ठहरते है। सर्वश्रेष्ठ 20.2 ( निकारागुआ ) के मुकाबले हमारा 7.4 ।

3.2 जेंडर सूचकांक मेंपहले से ऊपर रहे  उच्च आय वर्ग के देशों में परिवर्तन की दर कम रहना स्वाभाविक है। पर हमठहरे निम्न मध्यम आय वर्ग के देश- अतः अपना आकलन अपने मानकों से करना ही 'निष्पक्ष' रहेगा। तो हम अपने वर्ग में अपनी स्थिति देखें।

:- जी, रिपोर्ट का उद्देश्य तो सभी देशों को और सकारात्मक एवं उद्देश्यपरक बनाना ही है। मैं  रिपोर्ट पढ़ कर (पढ़ाने के लिए आपका धन्यवाद) खुश नहीं हुआ। बल्कि 'Political Empowerment' के अच्छे अंकों को भी अच्छी नज़र से नहीं देख पा रहा। सरपंच पतियों एवं मुख्य मंत्री पति के जानकारियां भी पश्चिमी संज्ञान में है ही।

प्रज्ञा:-
निकारागुआ को ही लें।यह हमारे ही आय वर्ग का देश है जो जेंडर सूचकांक में छठे स्थान पर है और इसकी परिवर्तन दर सबसे अधिक 20.2है।
सच तो यह है कि यदि पंचायतों में आरक्षण के कारण राजनीतिक सूचकांक में जो हमारा अच्छा स्थान है, ( और कुल सूचकांक में भी इससे फायदा मिला है ) उसे हटा लिया जाए तो हम धड़ाम से नीचे बहुत नीचे आ गिरेंगे।


आशीष:- 
बिल्कुल ठीक प्रज्ञाजी। पर, 'डाटर सेल्फी आह्वान ' के संदर्भ में सारी कमियां खंगालने का क्या औचित्य है? मेरे ख्याल से कोई यह नहीं कह रहा कि इस रामबाण (डाटर सेल्फी) से देश में महिलाओं की स्थिति में कोई सुधार आएगा। मगर "गायब होती" बच्चियों पर यह असरदार हो सकता है।
:-मितव्ययिता के चलते, यदि अपनी बात ठीक से न रख पाया हूँ, तो क्षमा करें। चाय की प्याली और लाल रंग से मेरा मतलब मोदी, गोधरा से था। मेरी आपकी चाय के रंग में कोई विशेष अंतर नहीं होगा। यदि हो, तो भी मिटाया जा सकता है।

प्रज्ञा:-
आशीष जी लिंगनिर्धारित भ्रूणहत्याएं क्यों हो रही है तो उसके पीछे सामाजिक आर्थिक कारण ही है जिसमें महिलाओं की समाज में दोयम प्रस्थिति ही स्पष्ट होती है। फिर ऐसे में सरकार द्वारा उन क्षेत्रों में सुधार न कर केवल सेल्फ़ी के सहारे छवि सुधार का प्रयास हास्यास्पद ही नहीं बल्कि जेंडर सशक्तीकरण में सरकार की राजनैतिक अनिच्छा का ही सूचक होगा। हमारी सामाजिक आर्थिक जेंडर प्रस्थिति की वास्तविक स्थिति जिन महत्वपूर्ण क्षेत्रों से सामने आती है वे है आर्थिक सहभागिता व अवसर , शिक्षा की प्राप्ति और स्वास्थ्य व सर्वायवल है। वहाँ हमारी स्थिति क्रमशः इस प्रकार है (सूचकांक स्कोर और कोष्ठक में 142 देशों में स्थान ): 0.4096 (134), 0.8503 (126), 0.9366 (141) [पृष्ठ संख्या 9]
अब इस में सुधार करेंगे तो ही जनसंख्या से "गायब लड़कियां" का सिलसिला रुकेगा न कि सेल्फ़ी से ( जिसे आपने भी जुगाड़ू कहा है)! अब इसे सुधार के लिए चाहिए बजट प्रावधान और राजनैतिक इच्छा जो न दिखाते हुए सेल्फीविथडॉटर जैसे अभियान प्रधानमंत्री चलाते हैं तो इससे महिला सशक्तीकरण और अतः गायब होती लड़कियों के सिलसिले के रोकथाम में कैसे मदद मिलती है ये आप ही बताएँ।


वागीश झा:-
चाय की रंग मिटाने का openness काबिले तारीफ़!! संवाद ज़िंदा है तो संभावनाएं बची रहेंगी।
प्रज्ञा, प्रदीप मिश्र, निरंजन जी, अलकनंदा जी और अन्य साथियों ने जो बात उठाई है उस पर भी बात हो


प्रज्ञा:-
बिलकुल वागीश भाई। जहां मोटा-मोटी सहमति है उससे पहले असहतियों से संवाद करना ज़रूरी लगा। मैं भी आशीष जी के खुलेपन एहतराम करती हूँ।
सभी आंकड़े देना उस समय शब्द सीमा के चलते संभव नहीं था। अंदाज़ा था कि संवाद होगा तो इसके मौके मिलेंगे ही। हां जिन बिंदुओं को रखा है वहाँ धार की कमी है तो और स्पष्ट करें ताकि उन्हें तराश सकूँ।

:-प्रज्ञा और आशीष जी मुझे यहां पर दो तरह की दृष्टि दिखाई दे रही है। एक जो हम सबलोगों की चिंता है।जो स्त्री को एक मुकम्मल नागरिक और पूरी अस्मिता के साथ देखना चाहते हैं।दूसरी दृष्टि सेल्फ़ी का ऐलान करनेवालों का हैं। उनको स्त्री उत्थान से कोई लेना देना नहीं है। वे स्त्रियों उसी तरह से उपयोग में लेना चाहते हैं जैसे विज्ञापन लेता है। एक तीर से कई निशाने साधने उपक्रम है। निस तरफ अरुण और सत्यनारायण इशारा कर रहे हैं।बदबू को इत्र छिड़ककर मिटाने जैसी बात।

:-प्रज्ञा जी आपके द्वारा दी गयी सूचनाएं और अकड़े हमें अपनी बात को पूरी ताकत से रखने में सहायता कर रहे हैं। लेकिन इसके बरस्क हमारे सामाजिक संस्कार भी उनकी सहायता कर रहे हैं। हमारे घरों में लड़कियों को भोजन बनाने और बच्चा पैदा करने से ज्यादा अहमियत नहीं दी गयी।अब वे जब जीवन के दूसरे क्षेत्रों में अपनी शशक्त उपास्थि दर्ज कर रहीं हैं ऐसे में घर के अंदर की जिम्मेदारियों से उनको मुक्ती नहीं इल रही है। जबकी पुरुष के पास यह सुविधा है। यानी हमारे घरों के संस्कारों को बदलना सबसे ज्यादा जरूरी है। दूसरी बात जब स्त्रियां घर के बहार निकल रहीं है तो वहां पर सुरक्षित वातावरण और न्यायोचित अवसर उपलब्ध करवाना इस व्यवस्था की जिम्मेदारी है। यह व्यवस्था नहीं चाहती है की स्त्रियों के अनुकूल वातावरण बने।इस लिए वे बेटी बचाओ और सेल्फ़ी जैसी हल्की फुल्की बातें कर के देशवासियों का ध्यान भटका रहे हैं। इसके पक्षः में एक आजमाया हुआ दाव उनके सामने है। आरक्षण का कितना उपयोग राजनीती में हुआ और कितना जमीनी हकीकत हमसब जानते हैं। नयी सरकार की नीतियों में आरक्षण वाला मुद्दा उतना सहयोगी नहीं है। उनकी नीतियों का निर्धारण हमेशा ही बाजार करता रहा है। इसलिए बाजार के लिए हनेश से उपयोगी रही स्त्रियों के बेटी रूप को यहां उपयोग में लिया जा रहा है। जहां संवेदना की आंधी में विवेक को उड़ान आसान है।

:- प्रज्ञाजी, आपके  'रोकथाम' वाले  सवाल में, महिला सशक्तिकरण को कुछ देर के लिए हटाऐं।
भ्रूणहत्या रोकने के लिए कानून हैं। कानून तो सरकार ने वृद्धों के पालन पोषण (परिवार द्वारा) के भी बना रखे हैं । पर दोनों ही मसलों में सच,  घिघोना है एवं जगजाहिर है ।

गौर करें, तो रिपोर्ट के चार सूचकों में से तीन मूलतः सुधार पर हैं, बेशक सुधार कम है, और स्थिति को 'बेहतर' कहना भी गैर वाजिब ही है। भ्रूणहत्या में इजाफा, बेहतर मेडिकल सुविधाओं एवं कड़े कानून के बावजूद है । आर्थिक / व्यवस्थाजनक कारणों के बजाय, एक खास सोच , इसकी जड़ में है। पितृसत्ताक होना, स्त्री का (शोषित होने में) सॅाफ्ट टारगेट होना, जैसे कुछ मसले हैं (भारत के अलावा भी) समाज में । ऐसे ही कुछ और  विचार 'अल्पसंख्यक' या विभिन्न तबकों का शोषण का कारण बनते हैं ।
इस "सोच" का काट 'एक बेहतर सोच' (बजट के साथ या कम बजट के साथ) हो सकती है । पीछे एक विज्ञापन आया था 'स्त्री समलैंगिकता" को इंगित करते हुए । इसका मंथन/ विश्लेषण अपने अपने विचारानुसार होगा ।  पर, गंभीरता से विचारें, तो "सोच" (अच्छी) के विस्तार के लिए "सेल्फी" मदद ही करेगी । मेरे पास "डाटर सेल्फी" की वकालत की कोई वजह नहीं है। पर, साथियों के कुछ एक विचार, जैसे : "ढकोसला, इस से प्रेरित होकर स्त्री विमर्श, सेल्फी ऐलान करने वालों का स्त्री उत्थान से कोई लेना देना नहीं", हजम नहीं कर पा रहा हूँ (कमी मेरी ही है।)
जेन्डर रिपोर्ट का मन्थन अच्छा विचार है, स्त्री विमर्श के लिए (आखिर, वैश्विक आँकड़ों का सदुपयोग होना चाहिए।) पर यह मनन "डाटर सेल्फी" के कंधे पर करना उचित नहीं लगा

:-ओह... प्रज्ञाजी को बीज वक्तव्य के लिए एवं इससे जुड़े वागीशजी के प्रयास / प्रोत्साहन को साधुवाद ।
प्रज्ञा:-
आशीष जी कानूनों के बनने और बनाने भर से स्थितियाँ सुधरती तो सामाजिक आन्दोलनों की बहुत सी ऊर्जा बचती। वर्तमान में भारत के प्रधानमंत्री जिस गुजरात के मुख्यमंत्री सालभर पहले थे वहाँ, लड़कियों के भ्रूणों की हत्या  को रोकने के लिए क़ानून के तहत  कितनों को सज़ा हुई?  3मार्च 2015 को स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग द्वारा इस क़ानून की पालना संबधी जारी किए गए प्रे विज्ञप्ति के अनुसार 2009 से 2014 तक इस क़ानून के तहत भारत में 206 केसेस में सजा सुनाई गयी जिन में गुजरात में मात्र 6 कांविक्शन्स हुए हैं। 25 जून 2015 के बिज़नस स्टैण्डर्ड  की गुजरात और महाराष्ट्र की गायब लड़कियों की रिपोर्ट के अनुसार सोनोग्राफी सेंटर्स के इंस्पेक्शन्स में क्रमशः 73% और 55% की कमी पायी गयी (2011-14)। 
बालविवाहों के प्रतिबंधक क़ानून के तहत गुजरात 659 दर्ज़ मामलों में एक भी मामले में सज़ा नहीं सुनायी गयी। अब ये इनकी इस मामले में राजनैतिक इच्छा का ट्रैक रिकॉर्ड है।
प्रसिद्ध सांख्यिकी वैज्ञानिक आशीष बोस के अनुसार मेडिकल तकनीक की पहुँच ने जनसंख्या से लड़कियों के गायब होने की आग में घी/तेल का योगदान दिया है। इस सन्दर्भ में मेरा लेख  आधी ज़मीन के सितंबर 2013 के अंक में है। 
सरकार के संबंध किसी भी 'बेहतर सोच' को ज़मीन पर लाने के लिए गवर्नन्स एक मात्र तरिका है। अन्य तरीका कौनसा हो सकता है? गवर्नेंस में बेहतर सोच को दिखाने के लिए चाहिए नीति, क़ानून, योजनाएं उन्हें लागू करने की इच्छा और उसके अनुरूप प्रभावी कार्यान्वयन की यंत्रणा और उसके सुचारू संचालन के लिए बजट।  इसके अलावा सरकार या सरकार का प्रतिनिधित्व करता व्यक्ति अपनी 'बेहतर/सकारात्मक' सोच को कैसे दिखा सकता है यह मेरे समझ और इतिहास बोध के परे है। आप उदाहरण देंगे तो मुझे अपनी सोच बदलने की दिशा में शायद तर्क मिल जाएं। 
आप जिस विज्ञापन की बात कर रहे हैं उसका लिंक या सन्दर्भ भेजेंगे तो बात करने में सहूलियत होगी। 
आखिर जेंडर गैप या उससे पहले जेंडर विकास सूचकांक और जेंडर एम्पोवेरमेंट इन्डेक्स जैसे सूचकांक विकसित करने और 1995 में 'स्त्रीसशक्तीकरण' को बीजिंग कॉन्फरन्स में लाने के पीछे किस तरह की पूंजीवादी बाज़ार की ताकतों के दबावों को समझते ही इनका और सेल्फीविथडॉटर का क्या परस्पर संबंध है ये स्पष्ट होता है। 
जो तर्क नहीं बज़्म होते उनके हज़म न होने के लिए प्रतितर्क होते हैं। आप के पास भी होंगे ही इसीलिए 'ढकोसले' वाले जो तर्क आप हज़म नहीं कर पा रहे तो उसके प्रतितर्क क्या हैं? क्योंकि आस्थाओं के भी अपने तर्क होते हैं। आप सभी का धन्यवाद कि आपने मुझे बीजवक्तव्य इस विषय पर रखने का मौक़ा दिया और चर्चा को सार्थक रूप से आगे बढ़ाया। जिन साथियों के वक्तव्यों पर मोटामोटी सहमति थी उनपर मैंने टिपण्णी नहीं की। यह मेरा बीज वक्तव्य देने का पहला ही अनुभव था ।मुझे माफ़ कीजिएगा अगर मैं चर्चा को सही दिशा न दे पायी। 
पुनः आप सभी का धन्यवाद। वागीश भाई का विशेष आभार मुझे ये आलेख लिखने के लिए प्रवृत्त करने के लिए।


वागीश झा:-
मित्रो, एक मुहीम में इस तरह उलझा रहा कि प्रज्ञा की पोस्ट पर हो रही जीवंत और स्फूर्तिदायक बहस में भी शामिल न हो पाया। पर आज संजीव, आशीष और प्रदीप ने इस बहस को जो ऊर्जा दी उससे हम सब लाभान्वित हुए हैं, यह मेरा विश्वास है। साहित्य बिम्बों से विचार के नए आयाम खोजता है और वोट की राजनीति विचारों को खोखले बिम्बों में बदल देती है। तभी तो जिन्होंने गांधी की हत्या की वे आज गांधी  विचार उसके दो चश्मों वाले प्रचार अभियान चलाने लगे, जिसने सेल्फ़ी का वैचारिक विरोध करने की हिम्मत की उनकी सरे आम अश्लील भाषा में ज़लील किया गया, जो देश को तोड़ने की साज़िश के तहत लगातार फैलाए जा रहे धार्मिक उन्माद का विरोध करेंगे उन्हें देशद्रोही करार दिया जा रहा है...इस विद्रूपता और छद्म को बेनकाब कर समतामूलक और शोषण विहीन समाज की कल्पना के विचार को मज़बूत करने का और क्या मुफीद समय होता है! आप सभी साथियों का इस विचार संवाद में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से शामिल होने के लिए धन्यवाद।
और भवना मिश्र का भी बहुत बहुत शुक्रिया जिन्होंने आज पाब्लो नेरुदा की एक कविता का बेहतरीन अनुवाद साझा कर इस प्रगतिकामी महान कवि के जन्मदिन पर हम सब की तरफ से उन्हें याद किया।

:-सभी साथियों के साथ प्रज्ञा जी को बधाई के साथ सुप्रभात। कल अच्छा गंभीर विमर्श हुआ।
:-प्रज्ञा जी आपने बहुत बेहतर तरीके बात रखी।आपके विचारों के सनिद्य में मैं और भी समृद्ध हुआ।वागीश तो सदाबहार हैं।उनसे बहुत कुछ सीखना है।आशीष मेहता आपका हस्तक्षेप विषय को समझने में सहयोग करता है।बाकी मित्रों का भी जिनके विचारों ने झाला साफ़ करने का काम किया।आज की कविता पर शाम को बात करूँगा।

प्रज्ञा:-
शुक्रिया मिश्रा जी। दरअसल संवाद और बहस ही चिंतन और लेखन/ प्रस्तुति की प्रेरक कड़ी है। उसी से हर व्यक्ति समृद्ध होता है।

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