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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

13 जनवरी, 2010

संवेदना और विषय वस्तु को ख़ूबसूरती से परदे पर उतारने वाले फ़िल्मकार

माजिद मजीदी हमारे समय के एक बेहतरीन फ़िल्म निर्देशक है। उनकी फ़िल्मों ने दुनिया में अपनी एक ख़ास पहचान बनायी है। बिजूका लोक मंच के बिजूका फ़िल्म क्लब की 25 वीं प्रस्तुति पर रविवार (04.-01. 2010 ) को फ़िल्म फादर का प्रदर्शन किया गया। इस मौक़े पर दर्शकों ने फ़िल्म के संबंध में जो अपनी राय ज़ाहिर की, वही नीचे प्रकाशित की जा रही है। अगर इस ब्लाग (bizooka2009.blogspot.com) पर छपी सामग्री पर या माजिद मजीदी की किसी और फ़िल्म पर, या देश-विदेश की किसी भी बेहतरीन फ़िल्म पर पाठक, दर्शक अपनी राय लिखना चाहते हैं, तो उनका स्वागत है।

सत्यनारायण पटेल

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चन्द्रशेखर बिरथरेः माजिद मजीदी की फ़िल्म फादर (PEDAR) एक बेहतरीन फ़िल्म है, जो मानवीय रिश्तों के टूटने-जुड़ने की एक अनूठी दास्तान है। औरत की विवशता, पति के खो जाने (मर जाने) के बाद, औरत का अकेलापन समाज क्यों नहीं बर्दाश्त कर पाता है ? किशोरवय का बच्चा मेहरोला ख़ुद की ग़लती के कारण अपने पिता को एक सड़क हादसे में खो देता है। इस दुर्घटना के अपराधबोध से ग्रसित वह बालक परिवार को पालने का बीड़ा उठाता है और गाँव से दूर बन्दरगाह पर रुपया कमाने निकल जाता है। लौटने पर पाता है कि उसकी माँ और बहनों को एक स्थानीय पुलिस अफ़सर ने अपना लिया है। पुलिस अफ़सर भी ज़िन्दगी से चोट खाया इन्सान है, जो मेहरोला की माँ से शादी करके अपनी ज़िन्दगी को मुकमल मानने की ग़लतफहमी पाल लेता है। मेहरोला की निगाह में वह पुलिस अफ़सर एक खलनायक बन जाता है। मेहरोला पुलिस अफ़सर को मारकर अपना इन्तकाम लेना चाहता है। एक दिन बीमार पड़ने पर उसकी माँ पुलिस अफ़सर के साथ उसे घर ले आती है। वहाँ ठीक होने पर मेहरोला पुलिस अफ़सर की सरकारी रिवाल्वर चुराकर भाग जाता है। पुलिस अफ़सर उसे ढूँढ निकालता है और गिरफ़्तार करके वापस लाता है। पुलिस अफ़सर की मोटर साइकिल ख़राब हो जाती है। रास्ते में रेतीले तूफान के कारण मेहरोला और अफ़सर रेगीस्तान में रास्ता भटक जाते हैं। गर्मी और प्यास के कारण अफ़सर बेहोश हो जाता है। मेहरोला को रेगीस्तान में ऊँट और भेड़ों के झून्ड नज़र आते हैं। वह उनके पीछे भागता हुआ जाता है और उसे एक पानी का झरना नज़र आता है। अपनी प्यास तो बुझाता ही है, पुलिस अफ़सर के लिए अपनी बनियान भीगाकर ले आता है और उसके मुँह पर बनियान से निचोडकर पानी डालता है, लेकिन पुलिस अफ़सर की चेतना वापस नहीं लौटती है, तब वह भारी-भरकम पुलिस वाले को बड़ी मेहनत से घीसकर बहते पानी के पास ले जाता है। पुलिस अफ़सर को तो पानी में डालता ही है ख़ुद भी पस्त होकर वहीं पसर जाता है। इस बीच वह जाने-अनजाने उसी पुलिस अफ़सर को अपना पिता मान लेता है। फ़िल्म में निर्देशक की गहरी पकड़ है। कई दृश्य मन मोहक बन पड़े हैं। रेगीस्तान में पानी के चश्मे, मिट्टी के घरों में लालटेन का जलना वहाँ की व्यवस्था के पिछड़ेपन को दर्शाता है। लेकिन वहाँ के लोगों का प्रकृति के प्रति प्रेम देखते ही बनता है। लाँग शॉट अमूमन पृष्टभूमि का छायाँकन करने को ही लिये जाते हैं, जो बेहतरीन बन पड़े हैं। फ़िल्म में निर्देशक ने लाँग शॉट का प्रयोग क्लोज अप शॉट की तरह शॉट दर शॉट बड़ी मेहनत के साथ किया है। फ़िल्म का प्रवाह धीमा होने के बावजूद, फ़िल्म दर्शकों को बान्धे रखती है। रेगीस्तान के रेतीले-पथरीले इलाक़ो में डामर की पगडन्डीनुमा सड़क इन्सानी साहस और प्रकृति पर इन्सान की विजय की गाथा कहती चलती है। यह भी लगता है कि इंसानी फितरत का विस्तार कुछ ज़्यादा है। व्यक्तिगत स्वार्थ की धूरी पर सामाजिक मान्यताओं का सच कैसे हावी हो सकता है, यह भी फ़िल्म में बख़ूबी दर्शाया गया है। लतीफ का चरित्र मुख्य पात्रों की बेशाखी बन कहानी को आगे बढ़ाते रहने का काम करता है।

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रेहाना हुसैनः फ़िल्म फादर सन 1996 में ईरान के माजिद मजीदी द्वारा निर्देशित की गयी है। फ़िल्म मुख्य रूप से पारिवारिक रिश्तों में परिस्थितियों का कारण आये बदलाओं पर आधारित है। फ़िल्म में एक सौतेले पिता पुलिस अफ़सर की भूमिका में मोहम्मद कासेबी और किशोरवय पुत्र मेहरोला की भूमिका हसन सोदकी के अंतरद्वन्दों का सटीक और ख़ूबसूरत फिल्माँकन किया गया है। दोनों ही अभिनेताओं ने अपने-अपने किरदार के साथ न्याय किया है। विधवा माँ और पुलिस अफ़सर की बवी की भूमिका पारिवश नाजारेह ने सशक्त ढंग से निभायी है। अपनी विधवा माँ और बहनों की परवरिश के लिए मेहरोला ईरान के दक्षिणी शहर में जाता है। लेकिन जब वह कुछ रुपये कमाकर, अपनी माँ और बहनों के लिए उपहार लेकर वापस लौटता है, तो उसके दोस्त लतीफ से मालूम होता है कि उसकी माँ ने पुलिस अफ़सर से शादी कर ली है, यह सुन मेहरोला का तो ख़ून ही खौल उठता है। वह ग़ुस्से भरा पुलिस अफ़सर के घर जाता है, पुलिस वाले से अपनी माँ और बहन को छोड़ने का कहता है। वह इसके ऎवज में पुलिस अफ़सर रुपयों की गड्डी देना चाहता है। लेकिन जब पुलिस वाला मना कर देता है, तो वह नोट पुलिस वाले के मुँह पर मार देता है। माँ और बहन के लिए लाये उपहार उसके दरवाज़े पर फेंक आता है। फिर एक बार और जाता है। उसके घर का शीशा पत्थर मारकर तोड़ देता है। उसके घर सामने के बग़ीचे के पोधे उखाड़कर तहस-नहस कर देता है। मेहरोला की ऎसी हरक़तों से उसकी माँ बहुत व्यथित होती है। यह सब होने की उसे पूर्व से शंका भी होती ही है, लेकिन पति कहता है कि जब मेहरोला आयेगा तो वह सब निभा लेगा। इसी दिलासा से वह थोड़ी निशिचन्त रहती है। वह मेहरोला को समझाने की कोशिश करती है कि यह दूसरा पिता भी अच्छा व्यक्ति है। वह बेटियों बड़ी इज़्ज़त और सुरक्षा देता है। लेकिन मेहरोला के मन में बनी ग़लत छवि आसानी से बदलती नहीं है। मेहरोला अपने असल पिता को चाहकर भी नहीं भूल पाता है, बाइक एक्सीडेंट में ख़ुद को दोषी मानता है। मेहरोला का दोस्त लतीफ अनाथ होता है। मेहरोला उसको साथ लेकर अपने पुराने घर को ही रहने लायक बनाता है। एक बार अपनी बहनों को चुपके से अपने घर ले आता है, तो पुलिस अफ़सर उसकी बीवी यानी मेहरोला की माँ परेशान हो जाते हैं, लेकिन फिर ढूँढ कर लड़कियों को वापस ले जाते हैं। लेकिन जब मेहरोला बीमार पड़ता है, तो उसका भी उपचार कराते हैं। लेकिन मेहरोला ठीक होते ही पुलिस अफ़सर की रिवाल्वर लेकर अपने दोस्त लतीफ के साथ लेकर वापस उसी शहर की ओर नो दो ग्यारह हो जाता है, लतीफ भी शहर जाकर पैसा कमाने का इच्छुक होता है, और फिर गाँव में उसका अपना सगा भी कोई नहीं होता है, इसलिए वह मेहरोला के साथ कुछ भी करने हिचकता नहीं है। जब पुलिस अफ़सर मेहरोला को ढूँढकर वापस लौटता है, तो रास्ते में आने वाली कठिनायों से, और पुलिस अफ़सर द्वारा हथकड़ी खोल देने और उसे भाग जाने का कहने पर उसका ह्रदय परिवर्तित हो जाता है और आख़िर में वह अपने सौतेले पिता की जान बचाने के लिए संघर्ष करता है। फ़िल्म का कथानक, फ़िल्माँकन, सिनेमेटोग्राफी और कलाकारों से उम्दा दर्जे का अभिनय करा लेना मजीदी साहब की खासियत उनकी हर फ़िल्म में नज़र आती है। पुलिस अफ़सर का अपने परिवार को घुमाने और उसके साथ घूल मिलकर रहने के दृ्श्य बहुत उम्दा बन पड़े हैं। कोई दृश्य विषवस्तु से अलग नज़र नहीं आता है। फ़िल्म अपनी 1.45 मिनट की अवधी में कथानक बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत करती है। कुल मिलाकर फ़िल्म सार्थक संदेश देती है। अंत में पुलिस अफ़सर की जेब से तस्वीर का पानी में बहना और मेहरोला की ओर जाना अपने अधूरे परिवार को पूरा होने का संदेश देती है।

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यामिनिः फ़िल्म मुख्यतः बच्चे की मानसिकता पर है। इसमें बताया गया है कि कुछ मामलों में बच्चों की सहमति न ली जाती है तो आगे चलकर वह एक विकृति का रूप ले लेती है। फ़िल्म में पुर्न विवाह भी बताया है, जो अच्छा संदेश है। हमारे देश में आज भी कई ऎसी जातियाँ हैं, जहाँ पुर्न विवाह को सही नहीं मानते हैं। फ़िल्म में जो पिता है, वह केवल जैविक पिता नहीं है, एक पिता की कई ज़िम्मेदारियाँ होती है और वह निभाता भी है।

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पूजा पटेलः फ़िल्म में पहले तो लड़का अपने पापा के साथ नहीं रहता है, लड़ता है। लेकिन फिर अच्छे से रहने लगता है। लड़के का अपने परिवार के साथ अच्छे-से रहने लगना, मुझे इस फ़िल्म में यह अच्छा लगा।

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सत्यनारायण पटेलः माजिद मजीदी ईरान के ऎसे होनहार फ़िल्मकार हैं, जिनकी फ़िल्मों को देखकर लोग अच्छी फ़िल्म बनाने की तमीज़ हासिल कर सकते हैं। उनकी फ़िल्म पटकथा, सिनेमेटोग्राफी और संपूर्ण दृष्टि से परदे पर ग़ज़ब कर दिखाती है। जबकि हमारे यहाँ वॉलीवुड में करोड़ों रुपये के बजट वाली फ़िल्में बनती हैं, और करोड़ो रुपये बटोरती भी हैं। लेकिन समाज में संदेश के मामले में सिफर होती है। ऎसी फ़िल्में समझदार दर्शकों की नज़र में दो कौड़ी की साबित होती है। माजिद मजीदी संवेदना और विषय वस्तु को ख़ूबसूरती से परदे पर उतारने वाले फ़िल्मकार है।

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प्रदीप मिश्रः दूसरी फ़िल्मों से फादर जैसी फ़िल्मों की तुलना नहीं की जा सकती है। हाल ही में रिलिज 3 इडियट के बारे में ही बात करें तो वह भी आम फ़िल्मों से कुछ अलग है। जब कोई अपने समय में कोई रचनात्मक काम करता है, तो ज़रूरी नहीं कि वह उसी समय में लोकप्रिय भी हो। ऎसा कहीं कभी हुआ भी है अगर, तो ऎसे उदाहरण कम ही है।

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संपर्कः Bizooka2009.@gmail.com, ssattu2007@ gmail.com, 09826091605, 0939852064, 09300387966, 09302031562, 09893200976, 64, शहीद भवन , न्यू देवास रोड, ( राजकुमार ओवर ब्रीज के पास) इन्दौर (म.प्र.)

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