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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

01 सितंबर, 2010

असली इंसान की तरह जियेंगे

कार्ल मार्क्स

कठिनाइयों से रीता जीवन
मेरे लिए नहीं,
नहीं, मेरे तूफ़ानी मन को यह स्वीकार नहीं।
मुझे तो चाहिए एक महान ऊँचा लक्ष्य
और, उसके लिए उम्रभर संघर्षों का अटूट क्रम।
ओ कला ! तू खोल
मानवता की धरोहर, अपने अमूल्य कोषों के द्वार
मेरे लिए खोल !
अपनी प्रग्या और संवेगों के आलिंगन में
अखिल विश्व को बाँध लूँगा मैं !
आओ,
हम बीहड़ और कठिन सुदूर यात्रा पर चलें
आओ, क्योंकि- छिछला निरुद्देश्य और लक्ष्यहीन जीवन
हमें स्वीकार नहीं।

हम ऊँघते, कलम घिसते हुए
उत्पीड़न और लाचारी में नहीं जियेंगे।
हम – आकांक्षा, आक्रोश, आवेग और अभिमान में जियेंगे।
असली इंसान की तरह जियेंगे।

( जब कार्ल मार्क्स ने यह कविता लिखी थी, उनकी उम्र 18 वर्ष थी )

4 टिप्‍पणियां:

  1. जाने कब से यह कविता मेरे साथ-साथ चलती है....

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  2. लगता ही नहीं अनुवाद है...हिन्दी की ही कवित लगती है.बधाई!
    आर.शांता सुन्दरी.

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  3. हम ऊँघते, कलम घिसते हुए
    उत्पीड़न और लाचारी में नहीं जियेंगे।
    हम – आकांक्षा, आक्रोश, आवेग और अभिमान में जियेंगे।
    असली इंसान की तरह जियेंगे।

    BAHUT BADHIYA

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