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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

15 सितंबर, 2011

द स्टोनिंग ऑफ सोराया एम.

4 सितम्बर 2011 को कई दिनों की बारिश के पश्चात धूप खिलखिला के निकली, और साथ में लाखों चेहरे भी। कुछ दिन से लगातार हो रही बारिश से आयोजन बिगड़ने का अंदेशा, लेकिन बादलों की महरबानी रही कि आयोजन के दिन वे शांत रहे, और बिजूका लोक मंच के साथी फ़िल्म प्रदर्शन की तैयारी करते रहे।



रविवार की दोपहर का समय एक कार्पोरेट शहर के हिसाब से बेहद उपयुक्त था। वरना शहर की भागादौड़ी में रविवार की शाम ऎसी फ़िल्म देखने में कौन तबाह करे…जो देश में कभी प्रदर्शित ही नहीं हुई।१२ बजे के पूर्व ही कुछ दर्शाकगण आना शुरू हो चुके थे, सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थी सिवाय एक तैयारी के और वो था लैपटॉप से प्रोजेक्टर को कनेक्ट करना (सबसे महत्वपूर्ण तैयारी)चूँकि यह कार्य पूर्व में हम लोग कर चुके थे इसलिए चिंता किसे थी। लेकिन कहते हैं न समय सब पर भारी होता है, आपके अनुभवों पर भी, और वही हुआ कनेक्टिविटी का इतना प्रोब्लम आया की बड़े-बड़े तकनिकी विशेषज्ञ बैठे के बैठे ही रह गए। फिर कुछ १५-२० मिनिट की माथापच्ची के बाद गाडी पटरी पर आई, और मुझे कार्यक्रम प्रारंभ करने का मौका मिला। मैंने सभी का अभिनन्दन किया और थोड़ी जानकारी फ़िल्म के बारे में भी दी, तत्पश्चात ही फ़िल्म का मधुर संगीत प्रारंभ हुआ और फ़िल्म शुरू हो गई।

फिर तो जो समां बंधा कि फ़िल्म के समाप्त होने तक न किसी का मोबाइल बजा और न किसी को खाँसी आयी। एक बेहतरीन कलात्मक प्रस्तुति कि यही पहचान होती है कि वह सुनने-देखने वाले को मोहित कर लेती है। "द स्टोनिंग ऑफ सोराया एम्." ने यह बात सिद्ध कर दी, फिल्म में एक फिल्म के हिसाब से सब कुछ था अच्छी कहानी, अच्छा निर्देशन, केमरा, इमोशन….आदि.. इत्यादि ।

कहानी में दिखाया गया की किस तरह से १९८८ में सोराया मानुचेहरी नमक एक ३४ वर्षीय शादीशुदा महिला को उसका पति साजिश के तहत संगसार करवाता है| संगसार याने की सामूहिक रूप से पत्थर मार-मार कर मृत्युदंड देने की सजा। यह सजा आज भी प्रचलन में है। इसे शादीशुदा होने पर भी किसी गैर मर्द से शारीरिक सम्बन्ध बनाने पर दंड के रूप में दिया जाता है। यह सजा मर्द और औरत के लिए सामान है। यह सजा और भी कई गुनाहों के लिए दी जाती है। ऎसी सज़ा अलग-अलग जाति, सम्प्रदाय या धर्म में अलग-अलग कुप्रथा या नियम-कायदों से दी जाती है।

फ़िल्म के कुछ अंतिम क्षणों में दर्शकों के मुंह से अफ़सोस भरी तथा दुःख भरी आवाजें भी आई, अंतिम दृश्यों में वीभत्स क्रूरता दिखाई गई है जिसमे सोराया को पत्थरों से मार दिया जाता है। हालाँकि सत्य की यहाँ भी जीत होती है - वो कैसे..? इसके लिए आप फिल्म देखकर ही जाने यह हमारी मंशा है।

फ़िल्म के पश्चात कहानी तथा इस्लामी क़ानून ‘जिसके तहत फ़िल्म में सोराया एम को सज़ा सुनायी गयी थी’ के बारे में चर्चा भी हुई। चर्चा में किसने क्या कहा… संक्षिप्त में प्रस्तुत है:-
कहानीकार सत्यनारायण पटेल ने चर्चा की शुरुआत की, उन्होंने कहा- हमारा समाज स्त्री की तुलना में पुरुष ज्यादा ताक़तवर है। उसका घर और घर की आर्थिक व्यवस्था पर एकाधिकार है। सहज ही स्त्री को उसके अधीन माना लिया जाता है, जो कि ग़लत है। क़ानूनी रूप से समाज में स्त्री और पुरुष दोनों को समान अधिकार है.. लेकिन पुरुष हमेशा अपनी मनमानी करता है.. और स्त्री के अधिकारों की.. उसकी भावनाओं की उपेक्षा करता है… जबकि किसी भी घर की गृहस्थी को चलाने में उस घर की स्त्री ही पुरुष से ज्यादा काम करती है। यह फ़िल्म के स्त्री दुष्चरित्रता को केन्द्र में रखकर बनायी गयी है। फ़िल्म में दुष्चरित्र तो सोराया का पति, महापौर और मौलाना भी है.. लेकिन उनकी दुष्चरित्रा की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है। बल्कि वे ही अनैतिक लोग सोराया के ख़िलाफ़ साजिश रचते हैं और उसे संगसार जैसी अमानवीय सज़ा भोगने के लिए बाध्य करते हैं। ऎसी सज़ा सिर्फ़ मुस्लिमों में दी जाती है.. ऎसा नहीं है। सीता को भी दुष्चरित्रता के आरोप के कारण ही अग्निपरिक्षा से गुज़रना पड़ा था। नाथ सम्प्रदाय में जिस स्त्री पर दुष्चरित्रता का लगाया जाता है.. उसके हथैलियों पर गर्म कुल्हाड़ी रखी जाती है.. इस कुप्रथा को कुल्हाड़ी ईमान कहा जाता है। बाँछड़ा जाति की महिला जिसका की पैसा ही देह व्यापार है.. उस पर कुछ अलग परिस्थियों में ऎसे आरोप लगते हैं और उसे खोलते तेल में हाथ डुबाकर अपने ईमान की जाँच कराना होती है। और भी कई तरीके हैं.. क़त्ल की ख़बरे तो आये दिन हम पड़ते ही रहते हैं…। सवाल यह है कि ऎसी सज़ा किसी भी जाति,सम्प्रदाय, धर्म या क़ानून में होना चाहिए…? क्या यह अमानवीय नहिं है..? ऎसी घटना ईरान, पाकीस्तान, भारत या धरती के किसी भी हिस्से पर घटे…पर क्या इसे स्वीकार किया जा सकता है…?



चर्चा के आगे बढ़ते हुए डॉ. फ़हीम अंसार ने सजा के बारे में रोचक तथा महत्वपूर्ण जानकारियाँ दी। आपने व्याभिचार के उर्दू शब्द ज़िना से हमारा परिचय करवाया। आपने ज़िना को असामाजिक तथा अनैतिक बताया - आज के समाज की गति अतिभयावहतापूर्वक एक अश्लील समाज की और दौड़ती बताई, आपने आज के नवयुवकों तथा उनकी मानसिकता पर सवाल उठाए, तथा अभिविन्यास को लेकर भी बात की - आपके अनुसार समलैंगिक संबंध भी ठीक नहीं।
सजा के बारे में आपने जानकारी देते हुए कहा की - यह सजा औरत के इकरार पर ही निर्भर करती है अगर वह कहे कि मुझ पर इलज़ामात झूठे हैं तो उस स्थिति में उसके शौहर को ५ कसमे खानी होती है, और फिर उसे संगसार भी नहीं किया जाता। आगे उन्होंने कहा कि खुदा की चाह थी की समाज के लोगों को इस सजा में शामिल किया जाए ताकि इससे सबको इबरत (नसीहत) मिले और आगे से ऐसा गुनाह न हो। फिर आपने सब से बलात्कार के संबंध में प्रश्न किया की "क्या आप आपकी बहु-बेटियों के साथ ऐसा चाहेंगे चूँकि मर्दों के लिए भी क़ानून सामान है।
आपने फ़िल्म में दिखाए क़ानून को अमेरिका की साज़िश बताया जिससे दुनियाभर में मुस्लिम धर्म बदनाम होगा तथा फ़िल्मी क़ानून को झूठा भी ठहराया। आपने कहा फ़िल्म में सिर्फ दो गवाहों को गवाही देते दिखाया गया है जिनके आधार पर सोराया को सजा दी गई लेकिन असल में चार गवाहों की गवाही लगती है।

प्रो. इरफ़ान अज़ीज़ ने डॉ. फ़हीम अंसारी की बातों का समर्थन किया तथा फ़िल्म के विषय पर सवाल उठाते हुए कहा की - क्या आप ईरान तथा अमरीका के बीच की तनातनी नहीं जानते?" ऐसा इसलिए कहा गया चूँकि फ़िल्म हॉलीवुड की थी। आपने सभ्य समाज का पक्ष धरते हुए जंगली दुनिया बनाने देने से बचने का आग्रह किया।

कॉ.चुन्नीलाल वाधवानी ने ऎसे क़ानून को जहालत के वक़्त का क़ानून बताया। आपने पैगम्बर मोहम्मद को इंकलाबी माना। आपने सिंध प्रान्त में भी ऐसी ही सजा का ज़िक्र किया जिसे कारीकारो कहा जाता है। आपने मंसूर (शहीद-ए-आज़म) का भी ज़िक्र किया जन्हें संगसार किया गया था। उनके दोस्त ने उन्हें फल मारा था जिसे उन्होंने लोगों के पत्थर मारने से भी बुरा बताया था। आपने सरमत शहीद का भी ज़िक्र किया जिसे औरंगजेब ने क़त्ल करवाया था, उसपर तीन इलज़ाम लगाये गए थे:
१. एक तो की वो कलमा पूरा नहीं पढता था, अधुरा पढ़ा करता था- जिससे यह अर्थ प्रकट होता था कि ख़ुदा नहीं है।
२. सरमत का मानना था कि पैगम्बर खुदा से आसमान में मिलने नहीं गए थे.. बल्कि आसमान से खुदा पैगमबर के जेहन में उतरे थे…।
३. तथा सरमत नंगा घूमता था जो इस्लाम के खिलाफ था।
अपने कहा कि आज वैज्ञानिक तौर पर विकसित पीढ़ी के अनुसार इंसान को अपना अपना नजरिया रखना चाहिए, ईश्वर जैसी कोई सत्ता नहीं है.. अगर है तो आज के हिसाब से तो ईश्वर को भी अपने आपको प्रमाणित करना होगा। आगे आपने कहा की जब कोई महापुरुष, संत, महात्मा पैदा होते हैं.. तो लोग उन्हें ईश्वर मान लेते हैं.. लेकिन असल में ईश्वर नहीं होते हैं.. हम-आप जैसे हाड़-माँस के इंसान ही होते हैं।



कवि आनंद पचौरी ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि मैं धर्म में अपनी समझ के अनुसार गौण मानता हूँ। उन्होंने धर्म की परिभाषा तथा उसके उदाहरण देते हुए कहा कि "धर्म वह जो निरंतर रूप से व्याप्त है - जैसे सूरज का उगना तथा अस्त होना, हवाओं का चलना, नदियों का बहना, पक्षियों का चहचहाना आदि। इसके अलावा जिसे हम धर्म कहते हैं वह सम्प्रदायवाद है।"
औरतों की स्थिति के बारे में आपने कहा कि हमारे समाज कई जगहों पर औरतों को ख़रीदा ओर बेचे जाता है। उन्होंने एक लड़की के १६ बार बेचे जाने के बारे में ज़िक्र किया, जिसे सत्रहवी बार उसके भाई के द्वारा ही बेची जानी थी।
उन्होंने कहा कि औरत की इस हालत के ज़िम्मेदार भी हम मर्द ही हैं। आपने कट्टरवाद के बारे में भी बात कही तथा भारतीय लोगों को सबसे अधर्मी बताया।
गिरीश भिलवारे:- युवाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए आपने कहा की - धर्म मतलब जीवन जीने का सही तरीका है। आपने फ़िल्म में दिखाए गए भीड़ तंत्र को सरासर गलत बताया तथा कहा की भीड़ का विवेक नहीं होता है।
जय पंजवानी ने कहा कि सड़ी मान्यताओं का आदर नहीं करना चाहिए। इंसान को इंसानियत तथा सत्य की राह पर चलना चाहिए।

अंत में प्रसिद्ध कहानीकार और चित्रकार प्रभु जोशी कहा कि शीत युद्ध के दौरान रशिया की बदनाम करने के लिए अमेरीका की तरफ़ से ऎसी कई फ़िल्में बनायी गयी.. जिसमें रशिया की छवि ख़राब दिखायी जाती थी। इस फ़िल्म को भी ऎसी किसी साजिश के तहत बनायी गयी हो ऎसा हो सकता है। लेकिन हर बार ऎसा हो यह ज़रूरी नहीं है। उन्होंने सेम्युअल हटिंगटन तथा जॉन परकिन्स्की की किताबों का भी उल्लेख किया जिनमें ईसा तथा मूसा के बीच की लड़ाई दिखाई गयी है। उन्होंने कहा कि सारे क़ानून धर्म की देन है। इंसान की सबसे बड़ी लड़ाई ईश्वर, काल तथा मृत्यु से ही होती है। उन्होंने प्रश्न उठाया की पहले तत्व या पहले चेतना होनी चाहिए। आपने कट्टरवाद हर धर्म में बताया, आपने मार्क्सवाद, डायलेक्टिकल डबलिंग, नेनो तकनीक, विज्ञान तथा कई सारे ऐसे विषयों से फ़िल्म को जोड़ा। उन्होंने विवेकवादी तथा भाववादी चरित्र के बारे में भी बताया कि - पढ़े लिखे व्यक्ति का विवेकवादी मस्तिष्क कार्य करता है तथा कम पढ़े लिखे या अनपढ़ व्यक्ति का भाववादी मस्तिष्क कार्य करता है।



अंत में उन्होंने कहा कि फ़िल्म कलात्मक प्रस्तुति होती है और उसे देखने-समझने के कई तरीक़े होते हैं। फ़िल्म को समझने में जल्दबाजी नहीं करना चाहिए। फ़िल्म देखना-दिखाना अपने आप में एक अच्छी पहल है और इसे जारी रहना चाहिए।
इस आयोजन में वरिष्ठ रंगकर्मी मिलिन देशपान्डे, शारद सबल, वरिष्ठ कवि ब्रजेश कानूनगो, सुरेश उपाध्याय, युवा रंगकर्मी राज बेन्द्रे, पल्लवी बेन्द्रे, यामिनि सोनवणे, रत्नेश, चैतन्य, युवा कवि बहादुर पटेल और कई युवा साथी छात्रों ने सक्रिय भागीदारी दर्ज की। कार्यक्रम का संचालन कहानीकार सत्यनारायण पटेल ने किया।
प्रस्तुति - विनय मालवीय
बिजूका लोक मंच, इन्दौर

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