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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 जून, 2015

कैलाश वाजपेयी का संस्मरण

॥जब भारती जी फफक कर रो पड़े ॥

`टाइम्स' कार्यालय में, अपने केबिन में बैठा कॉलिन विल्सवन की नई कृति `द एज ऑफ डिफीट' पढ़ रहा था। तभी फोन की घंटी बजी। आवाज धर्मवीर भारती की थी। धर्मयुग में उनके अधीन काम करने वालों का कहना था- `भारती जी एक कुशल संपादक और क्रूर इंसान हैं। वे अक्सार अपने नीचे काम करने वालों को अपने कक्ष में बुलाकर अपमानजनक वाक्यों का प्रयोग करते हैं।'हमारे साथ उनका व्यवहार कुछ अलग हटकर था। शायद इसलिए कि उन्हें ज्ञात था कि हमें भी उन्हीं रमाजी ने नियुक्त किया था, जिनके इसरार पर वे मुंबई आए थे या शायद इसलिए कि हम दोनों एक ही क्षेत्र से आए थे।
उनका व्यवहार हमारे प्रति एक बड़े भाई जैसा था।फोन पर भारती जी ने अधिकार भरे शब्दों में कहा, `शाम को अपन साथ-साथ चलेंगे। खाना तुम हमारे साथ खाओगे।' बिना हमारी स्वीकृति या अस्वीकृति की प्रतीक्षा किए उन्होंने फोन रख दिया। कार्यालय बंद होने के बाद हम लिफ्ट से उतरकर उनके कक्ष में गए। उन्होंने कहा थोड़े अंतराल बाद चलेंगे। भीड़ जब छंट गई, जाने वाले विक्टोरिया टर्मिनस से अपने-अपने डेरे की ओर चले गए, तब भारती जी के साथ हम नीचे उतरे।भारती जी ने कहा, `चरैवेति-चरैवेति। हम पैदल चलेंगे।'इत्तिफाक से हमें वह श्लोक याद था। हमने कहा, `चरैवेति से पहले का श्लोक इस तरह है।-कलि:शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापर:,उत्तिष्ठंस्त्रेता भवित कृतं संपद्यते चरन्। चरैवेति चरैवेति।'सोने का नाम कलियुग है, ऊंघना द्वापर है। उठ बैठना त्रेता है पुरुषार्थ करने का नाम सतयुग है। चले चलो, चले चलो।भारती जी जोर से हंसे। वे अट्टहास के लिए जाने जाते थे। साथ ही अपनी काकुवक्रोक्ति के लिए भी। बोले,`तुम तो पक्के पंडित हो। बस थोड़े-थोड़े पोंगे। तुम धर्मयुग में क्यों नहीं आ जाते।' हम चुप।फ्लोरा फाउंटेन आने से पहले गांधी वस्त्र भंडार आता है। वहां भारती जी रुके। काफी पड़ताल के बाद उन्होंने भागलपुर से आने वाला वजनदार सिल्क खरीदा बुशशर्ट के लिए। भारती जी पूरी बांह की बुशशर्ट पहनते थे। सफारी सूट शायद उन्हें पसंद नहीं था। लंबे-छरहरे बदन पर उन्हें अपनी तरह की ऐसी बुशशर्ट रास आती थी।मुंबई में सुबह-शाम जो हवा चलती है, विशेष रूप से शाम की हवा, वह खासी औपशमिक होती है। उसे जीवनरेखा भी कह सकते हैं। बहरहाल रास्ते में सहज और हल्की-फुल्की बातें करते हम `दिव्यांग' नाम वाले भारती जी के आवास पहुंचे। हमारा कयास था कि पुष्पा जी (भारती जी की सहचरी) वहां होंगी, मगर वे वहां नहीं थीं। जबकि भारती जी पहले-पहल जब मुंबई आए ही आए थे, तब एक बार हम तीनों ने शहर में एक साथ बस यात्रा की थी।घर पहुंचकर और शायद सजी हुई पुस्तकों को देखकर हमने पूछा, `अंधा युग' जैसी कालजयी कृति लिखने से पहले उन्हें कितनी साधना करनी पड़ी रही होगी।' प्रश्न पूछने से पहले हम भूल ही गए थे कि भारती जी प्रयाग से आए हैं, `परिमल' की गोष्ठियों के ही साथ वे वहां के विश्वविद्यालय में एक सफल व्याख्याता के रूप में ही जाने जाते रहे हैं।फिर क्या था! प्रश्न सुनते ही भारती जी के भीतर का मास्टर जाग गया। बादरायण के ब्रह्मसूत्र से शुरू कर उन्होंने हमें वेदांत, निरुक्त, छंद, व्याकरण आदि की पेचदार गलियों में तब तक घुमाया, जब तक कि भोजन समाप्त नहीं हो गया। इसके बाद भारती जी ने कहा, `चलो अब थोड़ी आवारागर्दी की जाए।' नीचे उतरकर हम गेटवे ऑफ इंडिया की तरफ चले। वहीं पास में तब एक पान की दुकान हुआ करती थी। वहां भारती जी ने इलाहाबाद के अपने मित्रों से जुड़े एक-दो चुटकुले भी सुनाए।इलाहाबाद का जिक्र आने पर हमें वहां के रेडियो की गोष्ठी की याद आई, जिसमें भारती जी के साथ उनकी पहली पत्नी कांता भारती भी आईं। विवाह से पहले उनका नाम कांता कोहली हुआ करता था। उनकी गोरी, छरहरी देहयष्टि पर आसक्त हुए भारती जी ने उनसे विवाह किया था। विवाह के बाद भारती जी एक कन्या के पिता भी बने थे, जिसका नाम भारती जी ने `केका' रखा था। रात के दस बज रहे थे, मगर भारती जी थे कि उनकी वाणी विराम बिंदु पर आ ही नहीं रही थी।अब भारती जी बोले, `चलो बस पर बैठकर थोड़ा घूमा जाए।' हमने बस ली, जो हमें मैरीन ड्राइव, बालकेश्वर, धोबी तालाब, तीन बत्ती, पैडररोड, प्रभादेवी आदि न जाने कहां-कहां लिए जा रही थी और भारती जी थे कि वे अपनी वैष्णवीयता और रचनाधर्मिता का एक-एक पृष्ठ खोले जा रहे थे।सामान्यतः हम किसी और की नितांत निजी जिंदगी के बारे में किसी तरह की पड़ताल को अभद्र किस्म की उत्सुकता का पर्याय मानते आए हैं, मगर उस रात पता नहीं क्या हुआ, हमने उनकी दुखती हुई रग छू ली और अपनी मूर्खता का परिचय देते हुए सहमे से स्वर में पूछ लिया, `आपने ये पंक्तियां किसके लिए लिखीं?'रख दिए तुमने नजर में बादलों को साधकर आज माथे पर, सरल संगीत से निर्मित अधरआरती के दीपकों की झिलमिलाती छांह मेंबांसुरी रक्खी हुई ज्यों भागवत के पृष्ठ पर।प्रश्न सुनकर भारती जी फफक कर रो पड़े। पता नहीं भारती जी कांता कोहली के लिए रोए या फिर 'कनुप्रिया' के लिए, जिसके विरह में वे उन दिनों बौरा गए थे।

000 कैलाश वाजपेयी
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टिप्पणियाँ:-

प्रज्ञा :-
एक अच्छा संस्मरण। भारती जी के व्यक्तित्व और व्यक्तित्वांग उजागर हुए। पिताजी भारती जी के साथ धर्मयुग में थे। कितने किस्से याद हैं मुझे भी उनके सुनाये। एक मेहनती सम्पादक एक विज़नरी साहित्यकार एक सख्त व्यक्ति के भीतर बहता कोमल झरना।
संवेदनाएं सदा जीती हैं जिलाती हैं।

फ़रहत अली खान:-
भारती जी के फ़फ़क कर रो देने वाला प्रसंग मुझ पर बहुत ज़्यादा प्रभाव नहीं डाल पाया; इसलिए कि वो एकदम आख़िर में आया और उसका पीछे की बातों से उसका कोई ताल्लुक़ नहीं था; और शायद इसलिए भी क्यूँकि मुझे भारती जी की निजी ज़िन्दगी के बारे में ज़रा भी ज्ञान नहीं है।
साथ ही उस समय के 'बम्बई' को बार बार 'मुम्बई' कहना भी अखरा।

बहरहाल अच्छा संस्मरण है; पढ़कर अच्छा लगा।
प्रज्ञा जी, कुछ बातें और यादें जो आपके पिताजी ने भारती जी के बारे में आपको बतायी हों, साझा करें।

प्रज्ञा :-
फरहत जी भारती जी के सम्पादन में धर्मयुग में काम करते हुए पिताजी साहित्य उपसम्पादक थे। साहित्य के साथ विज्ञान आदि कॉलम भी देखा करते थे। बड़ी रूचि से नई खोजों नई उपलब्धियों और वैज्ञानिकों से बातचीत को प्रमुखता देते। भारती जी हिंदी विज्ञान लेखकों को सम्मान से प्रकाशित करते। उस समय से पूर्व पिताजी की कहानियां प्रकाशित हो रही थीं और वे धर्मयुग के लाडले रचनाकार कहे जाते थे।
धर्मयुग में जुड़ने पर भारती जी उन्हें कहानीकार के रूप में ही जानते थे। धर्मयुग में आने पर काम के शुरूआती दिनों में उन्होंने पिताजी को बुलाया और पूछा क्या दिशा रहेगी तुम्हारी रमेश। वो कुछ अचकचाये तो भारती जी ने तुरन्त अपनी बात को विस्तार दिया। साहित्य में रहोगे या पत्रकार बनोगे। पिताजी शुरू से निर्भीक और बेधड़क थे। बोले साहित्य में रहकर पत्रकार बनेंगे। पत्रकारिता रोज़गार थी और साहित्य हमेशा से उनकी अपनी पसन्द का काम। शंकर्स वीकली नवनीत धर्मयुग के अतिरिक्त अपनी पत्रिका कथन का लम्बे समय तक सम्पादन किया। और भारती जी से कही अपनी बात साबित कर दी। आज भी कहते हैं वे कि भारती जी के उस सवाल से जीवन की दिशा निर्धारित हो गयी थी। एक वरिष्ठ रचनाकार की तरह उनका सम्मान है और एक मैत्रीभाव भी जो समान मंच देता उन्हें अपनी बात कहने का।
इस प्रसंग में मुझे हमेशा भारती जी की एक गम्भीर छवि और नए लेखकों के दिशाप्रेरक की आत्मविश्वासी दृढ़ता से लबरेज़ छवि दिखाई देती है।
फिलवक्त यही फरहत जी।

राजेश श्रीवास्तव:-
बहुत सुन्दर मणि भाई।यह संस्मरण पुनः स्मरण कराने  के लिये।मैंने कहीं पढ़ा है शायद।लेकिन यह पूरा नहीं  है।बिजूका का कार्य  बहुत। अच्छा है।बधाई।।

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