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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

03 सितंबर, 2015

कहानी : असहज : सुरेन्द्र कुमार संजय

॥ असहज॥

उस दिन मेरी शादी की पहली सालगिरह थी। मैने सोचा कि आज थोडा जल्दी उठकर शोभा को सालगिरह की बधाई दूँगा। शोभा कल रात को मुझसे रूठकर जल्दी ही सो गई थी। मैं शोभा को विश करने गया तो वह रसोईघर में मेरे लिए लंच तैयार कर रही थी।

मुझे दफ्तर के लिए रोजाना 9 बजे की बस पकड़नी होती है। शोभा के साथ एक वर्ष कब बीत गया मुझे पता ही नहीं चला। शोभा मुझे बहुत अच्छे जीवन साथी के रूप में मिली है। शोभा की वजह से मेरा जीवन प्यार और सुख से भर गया। मैंने सोचा था कि आज दफ्तर से छुट्टी ले लूँ और पूरा दिन शोभा के साथ गुजारू पर दफ्तर में आवश्यक कार्य होने के कारण मुझे छुट्टी नहीं मिली। शोभा की नाराजगी की भी यही वजह थी।

मैने शोभा को रसोईघर में जाकर विश किया तो उसने बेहद ठण्डे लहजे में मुझे भी विश किया। चाय-नाश्ता करके मैं दफ्तर के लिए तैयार होने लगा। जब मैं दफ्तर के लिए निकलने को हुआ तो शोभा मेरा लंच लेकर आई फिर वह कल रात की चुप्पी तोड़ते हुए बोली, ‘‘आज दफ्तर मत जाइये ना।’’ मैं भी उसके साथ ही वक्त गुजारना चाहता था पर जब छुट्टी ही नहीं मिली तो मैं क्या करता? मैंने उसकी तरफ प्यार भरी नजरों से देखते हुए कहा, ‘‘आज दफ्तर में बहुत काम हैं, साहब मुझे चाहते हुए भी छुट्टी नहीं दे सकते। हाँ, शाम को मैं जल्दी आने का प्रयास करूँगा। फिर हम कहीं घूमने जायेंगे और रात का खाना भी बाहर ही खायेंगे।’’

शोभा मेरी बात सुनकर खुशी-खुशी बोली, ‘‘चलो ठीक है, पर शाम को तो जल्दी आ ही जाना।’’

‘‘हाँ-हाँ जरूर।’’ कहते हुए मैं घर से बाहर निकल गया था।

मैं आज बहुत लेट हो चुका था। मुझे लग रहा था कि रोजाना वाली बस आज छूट जायेगी। मैं दौड़कर बस स्टेण्ड पर पहुँचा। बस अभी थोड़ा ही आगे बढ़ी थी। मुझे दौड़ता देख बस कन्डेक्टर ने बस रूकवा दी। मैं जल्दी से बस में चढ़ गया। बस में भीड़ बहुत थी मैने बहुत मुश्किल से अपने लिए जगह बनाई।

थोड़ा व्यवस्थित होने पर मैंने बस मैं खडे-बैठे लोगों पर नजरे घुमाई। वही जाने-पहचाने चेहरे थे जो रोजाना मुझे नजर आते थे। मैं सोचने लगा कि कैसे लोगों का पलायन गाँव से शहरों की ओर हो रहा है। गाँव में खेती-बाड़ी से अब गुजारा हो नहीं पाता इसलिए काम धन्धों के लिए गाँव के लोगों का पलायन शहरों की ओर हो रहा है। शहरों में दिनो-दिन भीड़ बढ़ती जा रही है। मैं इन्हीं विचारों में खोया था कि मेरा स्टेण्ड आ गया। मैं भीड़ मे से जगह बनाता हुआ जल्दी से उतर गया। मैं अपने दफ्तर की ओर जाने वाले रास्ते पर अभी बीस-पच्चीस कदम आगे बढ़ा था कि मुझे धमाके की आवाज आई। मैंने पीछे घूमकर देखा।
अरे यह क्या ! जिस बस से मैं उतकर आया था वह बस धमाके के साथ ऊपर उछल गई थी। हर तरफ अफरा-तफरी का माहौल हो गया था। मैं भी बुरी तरह डर गया था। दफ्तर में पहुँच जाने पर भी मेरे हाथ पाँव कांप रहे थे। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था।

दफ्तर में भी धमाके की ही बातें हो रही थी। सभी साथी टी.वी. न्यूज देख रहे थे। थोड़ी देर में खबर आई कि पूरे शहर में कफ्र्यू लगा दिया गया था। टी.वी. चैनलों पर इस बम कांड को आतंकी हमला बताया जा रहा था।

मेरा मन काम में नहीं लग रहा था। मुझे बार-बार वह धमाके वाला दृश्य याद आता और मैं सिहर जाता। मेरी खाना खाने की भी इच्छा नहीं हुई, लंच ऐसे ही पड़ा रहा। और जब शाम होने लगी तो मुझे शोभा की चिन्ता सताने लगी। पूरे शहर में कफ्र्यू लगा हुआ था और एक हल्की सी चिंगारी उठने की देर थी दंगे किसी भी पल भड़क सकते थे। मुझे सुबह वाली बातें याद आने लगी और शोभा का चेहरा मेरी आँखों में घूमने लगा। मुझे एक पल को महसूस हुआ कि अगर बम धमाका थोड़ी देर पहले हो जाता तो मैं भी अन्य बस यात्रियों की तरह खत्म हो जाता। फिर शोभा का क्या हाल होता ? अब तो मैं जल्दी शोभा के पास जाना चाहता था।

मैंने दफ्तर के अन्य कर्मचारियों से इस बारे में बात की।

वे सभी कफ्र्यू में बाहर नहीं निकलनना चाहते थे जबकि मुझे शोभा की चिन्ता हो रही थी। मेरे साथ जाने को कोई तैयार नहीं हुआ तो मैं अकेला ही घर जाने के लिए दफ्तरसे बाहर आ गया। बाहर सन्नाटा पसरा हुआ था। दफ्तर की सीढियाँ उतरकर मैं जैसे ही सड़क पर आया वहाँ गश्त कर रहे पुलिस वालों ने मुझे रोक लिया, ‘‘ऐ ! कहाँ जाता है? देखता नहीं है कफ्र्यू लगा है!’’

मैंने दुखी स्वर में कहा, ‘‘हवलदार साहब मेरे घर पर बीबी अ केली है।’’

‘‘अरे तो ! क्या हुआ ! इस कफ्र्यू में तो सभी इधर-उधर अकेले पड़े है। घर पर फोनकर दे। अभी स्थिति तनावपूर्ण है। दंगे भी भड़क सकते है।’’

‘‘हवलदार साहब कृपा करके मुझे जाने दीजिए।’’

जब मैं बहुत देर तक इसी तरह गिड़गिडाता रहा तो वहाँ खड़े इंसपेक्टर ने कहा, ‘‘चलो ठीक है, अभी हमारी गाडी आने दो उसमें बैठकर चले जाना।’’

मैने राहत की सांस ली। थोड़ी देर बाद ही एक गाड़ी आई। मैं एक हवलदार के साथ उसमें बैठ गया। मैंने अपने घर का पता बताया और थोडी ही  देर में जीप रवाना हो गईं जब मेरा घर आ गया और मैं जीप से उतरकर घर के अन्दर जाने लगा तो हवलदार बोला, ‘‘अरे कुछ खर्चा पानी तो दे जा कफ्र्यू में से लेकर आया हूॅ तुझे।’’

मेरे पास उस समय पाँच सौ रूपये थे वो मैंने हवलदार को दे दिये।

हाँलाकि मुझे उस पर गुस्सा भी आया कि ऐसी परिस्थिति में भी ये अपनी औकात दिखाना नहीं भूलते।

मैंने घर का दरवाजा खटखटाया तो बहुत देर तक शोभा ने दरवाजा नहीं खोला। मैनने उसे आवाज दी तो उसे पूरा यकीन हो गया कि बाहर मैं ही हूँ तब जाकर उसने दरवाजा खोला।

मैं अन्दर आ गया था। शोभा मेरे लिए पानी लेकर आई। पानी पीने के बाद जब मैने सारी घटना बयान की तो शोभा के रांेगटे खड़े हो गये। उसे अपने सामने पाकर मेरी आॅखे नम हो गई। उसने मुझे अपनी बाँहों में समेट लिया और बहुत देर तक हम ऐसे ही बैठे रहे।

तीन दिन तक कफ्र्यू लगा रहा। चैथे दिन कफ्र्यू हटा लिया गया। अब स्थिति सामान्य हो गई थी। चार-पाँच दिन तक अखबारों में इस बम कांड की ही खबरें छायी रही। फिर धीरे-धीरे खबरें भी सिमटने लगी और घटना के महीने भर बाद तो इस घटना की  खबरे अखबारों से बिल्कुल ही गायब हो गई। मैं भी उस घटना को दर्दनाक हादसा समझकर भूल चुका था उन दिनों शोभा ने मेरा बहुत ध्यान रखा। मैं भी उसका साथ पाकर अपनी जिन्दगी जीने लगा समय गुजरता गया। और कई साल बीत गये इसी बीच बहुत कुछ बदल गया। मैं दो बच्चों का बाप बन गया। मेरा प्रमोशन भी हो गया। फिर एक दिन खबर आई कि उस बम धमाके के कुछ आंतकी पकडे गये है। मेरे जेहन में वह घटना पुनः ताजा हो गई और वह दर्दनाक मंजर मेरी आँखो में नाचने लगा। वे मासूम चेहरे जो रोजाना मेरे साथ बस में सफर किया करते थे, मेरी आँखो से ओझल नहीं हो रहे थे। मुझे ऐसा लगा कि वे पूछ रहे हो कि हमारा क्या कसूर था? मैं अपनी सोच व दायरे से बाहर भी नहीं आया था कि शोभा ने चहकते हुए कहा, ‘‘तुम्हे याद है कल अपनी शादी की ग्यारवहीं सालगिरह है।

मैंने कहा, ‘‘अच्छा !’’ और मैंने अपने मन में ही सोचा। यानि उस घटना को भी पूरे 10 साल गुजरे गये। तभी शोभा ने कहा, ‘‘क्या सोचने लगे ? मैं इस सालगिरह को खास तरीके से सेलीब्रेट करना चाहती हूँ।

मैने अनमने ढंग से कहा, ‘‘ जैसी तुम्हारी इच्छा।’’

और अगले दिन शोभा ने सालगिरह की खुशी में एक छोटी सी पार्टी आयोजित कर दी। जिसमें मेरे और शोभा के कुछ खास मित्र व  रिश्तेदार आमन्त्रित थे शोभा तथा बच्चे पार्टी का भरपूर लुत्फ उठा रहे थे। लेकिन मै सहज नहीं हो पा रहा था। पता नहीं क्यों ? मुझे ऐसा लगा रहा था कि मैं अपनी शादी की सालगिरह नहीं उस दर्दनाक हादसे में मरे लोगों की पुण्य तिथि मना रहा है।

000 सुरेन्द्र कुमार संजय
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टिप्पणियाँ:-

प्रज्ञा :-
एक सांस में पढ़ी गयी अच्छी कहानी। असहजता के पीछे की स्थितियां विश्लेषण का स्पेस छोड़ती हैं। हां ये ज़रूर है कहानी थोडा और विस्तार और गहनता की अपेक्षा रखती है।

मनीषा जैन :-
अच्छी कहानी है। प्रज्ञा जी से सहमत हूँ।कहानी क ई तरह के प्रश्न खड़े करती है जैसे आतंकवाद, पुलिस की रिश्वत की आदत, लोगो का शहरों की ओर पलायन की अधिकता। लेखक को बधाई।

कविता वर्मा:-
कहानी हर बात को सतही तौर पर छू कर आगे बढ़ जाती है ।ऐसा लगता है बहुत सारी चीजें समेटने के चक्कर में है इसलिये अहसासों कौ गहराई से महसूस नही कर पाती है । जिस बस में धमाका हुआ और जाने पहचाने चेहरे उस धमाके में उड़ गये कर्फयू खुलने के बाद ऑफिस जाते हुए नायक की मनस्थिति का कोई वर्णन नही है और अचानक दस साल बाद वह असहज होता है । ऐसी कुछ कड़ियॉ छूट सी गई हैं ।कहानी काम मॉगती है ।

कीर्ति राणा:-
नागर जी का संस्मरण पढ़ा.....सीख भी मिली कि अपनी रचना पूरी कर लो और कुछ महीनों के लिए भूल जाओ, फिर दुबारा पढ़ोगे तो उसकी कमजोरी पता चल जाएगी।

मुझे कहानी संपूर्ण लगी है...आपाधापी है, घटना है....आतंकवाद से जूझते लोग हैं....पुलिस और उसके व्यवहार से स्पष्ट होती उसकी छवि है......छोटी कहानी इन सभी मुद्दों को बताती है....अच्छी लगी।

प्रज्ञा :-
कविता जी की बात गौरतलब। मैंने भी इसी बात को रेखांकित किया था। जिस बात को मैंने विस्तार के सन्दर्भ में कहा कविता जी ने उसे स्पष्ट कह दिया।

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