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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 अक्तूबर, 2015

गौभक्तो के नाम खुला पत्र : एल एस हरदेनिया

आज चर्चा के लिए एक विषय दे रहे हैं। सौह्रार्दपूर्ण तरह से अपने विचार रखे। हमारा मतलब किसी के भी प्रति द्वेष नही सिर्फ आपके विचारो को जानना है।

गौभक्तों के नाम खुला पत्र
एल.एस. हरदेनिया
 
आए दिन देश के अनेक वे लोग जो गाय को माता मानते हैं बार-बार इस बात की दुहाई दे रहे हैं कि वे गाय की हत्या सहन नहीं करेंगे। उनमें से अनेक यह मांग कर रहे हैं कि गाय के हत्यारों को फांसी की सज़ा मिलनी चाहिए।

उनकी इस भावना का सम्मान करते हुए मैं उनसे कुछ सवाल पूछना चाहूंगा।

गाय के हत्यारों के लिए फांसी की सज़ा की उनकी मांग पर मुझे फिलहाल कुछ नहीं कहना है। परंतु इन गौभक्तों का उन लोगों के बारे में क्या कहना है जो अपनी ऐसी गायों को जो दूध देना बंद कर देती हैं, खुला छोड़ देते हैं। उनकी क्या हालत है इसकी चिंता नहीं करते हैं। ये गायें गांवों और शहरों की सड़कों पर, राजमार्गों पर, राष्ट्रीय मार्गों पर दिन-रात बैठी रहती हैं। अपनी भूख मिटाने के लिए कचरे के साथ फेंके हुए सड़े अन्न, सब्जियां और यहां तक कि प्लास्टिक की थैलियां भी खा लेती हैं।

पिछले दिनों प्लास्टिक की थैलियां खाने के कारण अनेक गायों की अकाल मृत्यु हुई है। हमारे गौभक्त ऐसे लोगों के लिए कौनसी सज़ा निर्धारित करना चाहेंगे जो अपनी माताओं को सड़कों के भरोसे छोड़ देते हैं?

फिर, उन गौभक्तों का क्या किया जाए जो बूढ़ी होने पर अपनी गौमाताओं को गौशाला भेज देते हैं। जो गायें काटी जाती हैं उन्हें कोई व्यक्ति जबरदस्ती उठाकर नहीं ले जाता है। ऐसी गायों के मालिक स्वयं उन्हें ऐसे लोगों को बेच देते हैं जो उन्हें उन कारखाने वालों को बेचते हैं जहां गायें काटी जाती हैं। इस तरह के लोगों के लिए किस सज़ा का निर्धारण हो?

मैंने कभी गौभक्तों को यह मांग करते हुए नहीं सुना कि जो सड़कों पर अपनी गायों को छोड़ेगा, उसे वे सख्त से सख्त सज़ा दिलवायेंगे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि गाय की उपयोगिता है। खासकर इसलिए कि उसका दूध अन्य दूध देने वाले पशुओं से ज्यादा पौष्टिक समझा जाता है। खेती का मशीनीकरण होने से पहले गाय की और ज्यादा उपयोगिता थी क्योंकि वह बैल को जन्म देती थी, जो खेती के काम आता था।

सच पूछा जाए तो इन तथाकथित गौभक्तों को गाय से कुछ लेनादेना नहीं है। आज से ही नहीं बरसों से गाय दकियानूसी हिंदू राजनीति का मोहरा बनी हुई है। मैं गौभक्तों से एक और प्रश्न पूछना चाहूंगा कि जब गौमाता की मृत्यु हो जाती है तो उसे उसी तरह दफनाया दिया जाता है जैसे अन्य पशुओं को दफनाया जाता है। गांवों में तो एक विशिष्ट जाति के लोग पशुओं की अंतिम क्रिया की जिम्मेदारी निभाते हैं। कुछ स्थानों पर इस जाति विशेष के लोगों ने इस जिम्मेदारी को निभाने से इंकार कर दिया है। मैं ऐसे कुछ गांवों को जानता हूं जहां उन लोगों का बहिष्कार किया जा रहा है जो मृत पशु का अंतिम संस्कार करने से इन्कार करते हैं।

यदि गाय, माता है तो उसका अंतिम संस्कार हमारे गौभक्त उसी ढंग से क्यों नहीं करते जैसे वे अपनी मां का करते हैं? अपनी मां और गौमाता के बीच यह भेदभाव क्यों? गौभक्त यह फैसला क्यों नहीं करवाते हैं कि मृत गायों का अंतिम संस्कार उसी विधि से होगा जैसे मनुष्यों का होता है और विशेषकर मां का होता है।

यदि इन तत्वों की-जो अपने आप को गौभक्त कहते हैं-भक्ति सच्ची है तो वे जन्म से लेकर मृत्यु तक गाय के साथ वैसा व्यवहार क्यों नहीं करते जैसा वे अपनी मां से करते हैं?

यहां मुझे स्वामी विवेकानंद से जुड़ी एक घटना याद आ रही है। स्वामीजी से बिहार का एक शिष्टमंडल मिलने आया। स्वामीजी ने उनसे पूछा कि तुम किस उद्देश्य से मेरे पास आए हो? उन लोगों ने कहा कि हम गौरक्षा समिति के सदस्य हैं और गायों का वध रोकने का प्रयास करते हैं। इस पर स्वामीजी ने उनसे कहा कि अभी कुछ दिन पहले बिहार में एक बड़ा अकाल पड़ा था। उस अकाल में बड़ी संख्या में लोग मरे थे। आप लोगों ने इस अकाल की विभीषिका से कितने लोगों को बचाया?

इस पर शिष्टमंडल के सदस्यों ने कहा कि जो लोग भूख से मरे उसका कारण उनके द्वारा पूर्व जन्म में किए पापकर्म थे। इस पर स्वामीजी ने कहा कि जो गायें काटी जाती हैं, क्या कहीं उसके लिए उनके द्वारा पूर्व जन्म में किए गए पापकर्म तो उत्तरदायी नहीं है? स्वामीजी ने यह सवाल इसलिए पूछा होगा क्योंकि जिस समाज में लाखों लोग भूख से मर जाएं उस समाज की प्राथमिकता क्या होनी चाहिए, इंसानों को बचाना या पशुओं को?

आज भी हमारे देश में लाखों लोग ऐसे हैं जिन्हें एक समय का खाना भी उपलब्ध नहीं हो पाता है। क्या उनकी चिंता हमारे गौभक्तों को नहीं करना चाहिए।

अभी कुछ दिन पहले भारतीय जनता पार्टी के सांसद तरुण विजय ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा कि हमारे देश से मांस का सबसे ज्यादा निर्यात करने वाला व्यापारी हिंदू है। उन्होंने इस बात पर भी चिंता प्रकट की कि दादरी जैसे घटनाएं विकास की राह में रोड़ा बनती हैं। क्या गौभक्त तरूण विजय की बात पर, जो वर्षों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साप्ताहिक के संपादक रहें हैं, ध्यान देंगे? क्या यह अच्छा नहीं होता कि दादरी के अखलाक़ को मारने के पहले यह पता लगा लिया जाता कि अखलाक़ और उनके परिवार के लोगों ने जो गोश्त खाया था, वह गाय का था भी या नहीं। सिर्फ अफवाह के आधार पर एक निर्दोष व्यक्ति की हत्या, वह भी एक भीड़ द्वारा, क्या मानवता के विरुद्ध जघन्य अपराध नहीं है? या क्या गौभक्तों की निगाह में किसी निर्दोष मनुष्य की हत्या किसी गाय के वध से कम गंभीर है?

ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर हमारे गौभक्त भाईयों से अपेक्षित हैं।
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लेखक वरिष्ठ पत्रकार व धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं।
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टिप्पणियाँ:-

सतीश आलिया:-
शक की बिना पर किसी को मारना जघन्य अपराध है। सिद्ध हो तो भी अपराध ही है। हर हाल में हत्या अनुचित और अपराध है। नक्सली और माओवादी जो हत्यायें करते हैं वे भी और आईएसआईएस कर रहा है वे भी। अखलाख की हत्या करने वाले भी और सिर्फ गाय ही नहीं मांस खाने के लिए या तथाकथित कुर्बानी के नाम पर मांस खाने के लिए हत्या करना भी अपराध है। बिना मांस खाये भी जिंदा रहा जा सकता है। जो जीवन दे नहीं सकता उसे मारने का कोई हक नहीं।                                  अब बात धर्म निरपक्छता की। धारयति इति धर्म: अर्थात जो धारण करने योग्य है। धर्म की सर्वाधिक संक्षिप्त और प्रभावी परिभाषा यही है। धर्म निरपेक्छ हुआ ही नहीं जा सकता। पंथ निरपेक्छ हुआ जा सकता है। धर्म सापेक्छ रहते हुए पंथ निरपेक्छ। इस्लाम, क्रशचियानिटी, हिंदू, इत्यादि पंथ हैं यानी अलग अलग उपासना पद्धतियां। धर्म का पर्यायवाची नहीं है रिलीजन। एक हद तक पंथ का है। पंथ या मजहब निकपेक्छ सही शब्द है, धर्म निरपेक्छ नहीं। धर्म निरपेक्छता के झंडावरदार भी समाज के लिए उतने ही घातक हैं जितने पंथ के उग्र व्याख्याकार। सह अस्तित्व ही समाज की ताकत है, रहेगी।

आर्ची:-
सहमत हूँ कि यदि गौहत्या रोकनी है तो गायों की उचित देखभाल सुनिश्चित करनी होगी उनका आवारा घूमना और बेचा जाना रोकना होगा.. जब तक बेचने वाला बेचेगा खरीदने वाला खरीदेगा उसके बाद वह जो भी करे उसे रोकना न तो मुमकिन है न ही न्याय संगत है.. केवल राजनैतिक रोटियाँ सेंकने के लिए किए गए बवाल से गौमाता का या धर्म का कुछ भला होने वाला नहीं

सुरेन्द्र कुमार :-
गाय की कितनी देखभाल है किसी से छिपी नहीं है । लेकिन गाय खाए बग़ैर गुज़ारा नहीं ऐसा भी तो नहीं है ।

शिशु पाल सिंह:-
साम्प्रदायिकता की समस्या हमारे देश में नासूर बनती जा रही है यदि इसे रोका नहीं गया तो हमारे देश का सामाजिक सदभाव,भाईचाराऔर शांति खतरे में पड़ जायेंगे। लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की भावना को बहुत नुकसान होगा। सांप्रदायिक शक्तियां नए नए मुद्दे लेकर अपना खेल खेलती रहती है। वे इस बार गाय को मुद्दा बनाकर लोगो में धार्मिक उन्माद पैदा कर रही हैं।जनता बेरोजगारी,महँगाई,भ्रष्टाचार,मंहगी शिक्षा,महँगा इलाज,महिलाओं पर अत्याचार जैसी ज्वलंत समस्याओं को भूल कर गाय पर चर्चा कर रही है
राजनेता भी यही चाहते हैं।राजनेता भी सत्ता हथियाने के लिए जाति वाद,क्षेत्रवाद और साम्प्रदायिकता का सहारा ले रहे हैं।इन तथाकथित गौरक्षकों का गोरक्षा से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है।ये केवल गाय का नाम लेकर लोंगो की धार्मिक भावना को भड़काकर उन्माद पैदा कर रहे हैं।
और निर्दोषों की हत्या कर रहे है।अगर कहीं कुछ गलत हो रहा है तो खुद कानून हाथ में न लेकर कानून का सहारा लें

किसलय पांचोली:-
गाय ही नहीं दुनियाँ के सभी पशु पक्षी पेड़ पौधे पूजनीय हैं। मानव सहित सभी प्रजातियों का सहअस्तित्व धरती पर जीवन के वैविध्य की सजीव प्रदर्शनी है। हमें सब का सम्मान और संरक्षण करना है क्योंकि हम मानव ही सबसे उन्नत बुद्धि वाली प्रजाति हैं। जब तक यह वैज्ञानिक तथ्य और सोच सब लोगों में विकसित नहीं होगा धर्मान्धता किसी भी प्राणी को प्रतीक बनाती रहेगी और राजनीति अपना उल्लू सीधा करती रहेगी।

आशीष मेहता:-
श्री हरदेनियाजी का खुला पत्र पढ़ा। बहुत डर लग रहा है। बिजूका पर तो सौहार्द बना रहेगा, बाहर की जिम्मेदारी कौन लेगा ? चाहे तथाकथित हों या असली, गौभक्त तो कई मिल जाएँगें, पर हरदेनिया जी के "विचारों के भक्त" कितने हो पाएंगे? उफ्फ, एक और अल्पसंख्या!!! अल्पसंख्या अपने आप में ही अभिशाप है।

पाँच लोगों के अपने छोटे से परिवार में, मैं अल्पसंख्यक हूँ। अकेला मैं, मांसाहारी हूँ । मुझे रविवार, मंगलवार एवं शनिवार में अंतर दिखाई नहीं देता । १२ वर्षीय पुत्र को 'हल्का ताजा' शौक उभरा है, मांसाहार का। ९ वर्षीय पुत्री अपनी दादी और माँ की अनुयायी होते हुए स्वविवेक से शाकाहारी है। घर में अण्डा भी नहीं बनता, पर "तथाकथित मांसाहारी मैं" । सच मानिए, सिर्फ उपरोक्त भूमिका के आलोक में, पूर्ण विश्वास से कहना चाहता हूँ कि "अल्पसंख्यक" होना ही अभिशाप है । कई बार ग्लानि होती है, कि सिर्फ स्वाद के लिए क्या, कुछ भी खा लो ? कोई पर्चा कहेगा कि यह प्रोटीनप्रचूर है इसलिए खा लो । कोई पर्चा कहेगा आदमी के दांत-आंत बने ही नहीं हैं मांसाहार के लिए, सो मत खाओ । इस सच को पहचानने की बारी आ ही नहीं पाती कि इन्सान की "शाकाहारी" और "मांसाहारी" नस्लें, सदियों से विचर रहीं हैं, ठीक दूसरे मांसाहारी/शाकाहारी जानवरों की तरह।

खैर, इस खुले पत्र से पहले ही, विगत तीन दिनों से सुबह चाय के वक्त "दादरी वाक्ये" पर जानकारी दे रहा हूँ अपने बच्चों को, खास तौर पर बेटे को। कारण कि, उसकी शिक्षिका ने पिछले हफ्ते से दैनिक अखबार के सम्पादकीय पठन की हिदायत दी है । दादरी पर बच्चे हैरान हैं, अवाक् हैं। शायद, वही सहमा सा ख्याल मेरी पहली दो पंक्तियों में आ गया है।

अखलाक़ के घर चाहे गौमांस हो, उसका मारा जाना सामाजिक सहिष्णुता पर सवाल है। अफसोस कि यह सवाल इक्का-दुक्का नहीं हैं। कल ही सैफई (करहल) उ.प्र., में फिर दुर्घटना हुई है। मेरे घर में टीवी -केबल नहीं  है, सो बच्चे शायद "जघन्य अपराध / हत्याकांड" जैसे शब्दों से कुछ अपरिचित हैं, पर दादरी हादसे पर उनकी फटी आँखें और "हओSSS" जाहिर रूप से इसे "जघन्य अपराध" की श्रेणी में ही ठहराती हैं।

हालांकि हरदेनियाजी ने पत्र सिर्फ गौभक्तों को लिखा है। पर, उनका अंतिम प्रश्न हर नागरिक के लिए है, भले ही जवाब बच्चे बच्चे को पता हो।

हरदेनियाजी से पूर्ण सहमति है कि गाय बरसों से दकियानूसी हिन्दू राजनीति का मोहरा बनी हुई है। पर इसके तह में हमें हमारी सामाजिक शिक्षा, परवरिश और संस्कार पर भी ध्यान देना होगा। अगर पढ़ा कर डाक्टर बनाए जा सकते हैं, कसाब बनाए जा सकते है, तो गौप्रेम भी कोई माँ की कोख से नहीं सीख रहा। अगर निरपेक्ष मन से कहूँ, तो पिछले दिनों beaf ban पर हुई बहस पर स्वरांगीजी ने संवेदनशील एवं बेहद भावनात्मक स्तर पर अपने विचार रखे। उनकी राजनीतिक पक्षधरता जो भी हो, गौसम्मान अपनी जगह है। वे खुद दादरी को "जघन्य अपराध" मानेंगी, पर गौप्रेम तटस्थ है, और मेरी समझ में यह स्वभाविक है।

सभी गौप्रेमी स्वरांगीजी जैसे संवेदनशील  हों, यह अपेक्षा भी नाजायज़ है। पानसरे और कलबुर्गी को मोक्ष दिलाने वाले विचार का ही तो भाई / पड़ौसी विचार है, अखलाक़ को मुक्ति दिलाने वाला। दूसरी और देखें, तो समाज में अपने माँ-पिता के मान सम्मान के लिए ही टोटे पड़े हैं। परामर्श केंद्र हैं जो जवान बेटे को समझाइश देतें हैं। कानून हैं। तो "गाय" को माता जैसे मनवाने आह्वान छोड़ ही दें, हरदेनियाजी। गाय पर उपकार ही होगा।

चाहे दादरी हो या बाबरी, अनियंत्रित भीड़ का षड्यंत्रकारी प्रयोजन बर्बरता की मिसाल है। हमारी परेशानी यह है कि हम राष्ट्र  तो सेकुलर हैं, पर हमारा समाज सेकुलर नहीं है। गंगा -जमुनी प्रेम भी अस्तित्व रखता है, और परवान भी चढ़ेगा। पर यह उतना नहीं है कि समाज सेकुलर कहला सके। बम्बई बड़ी जगह है, बड़ी रिहाइशी सोसायटियाँ हैं, लिखित कायदे हैं। लिख लेते हैं कि फलाने को किरायेदार नहीं रखेंगे। बाकी, अबोला कायदा पूरे देश में है, और सभी समुदाय बढ़ चढ़ कर भागीदार हैं ।

करेला नीम चढ़ लेता है, राजनैतिक रोटियां भी तो सेकनी हैं ना।

कायदा है, कानून है, इन्साफ़ है। आदमी को खून वून सब माफ है।
हाल चाल ठीक ठाक हैं। सब कुछ ठीक ठाक है।

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