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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

05 फ़रवरी, 2016

कविता : चंद्रशेखर बिरथरे

आज प्रस्तुत हैं समूह के साथी चंद्रशेखर बिरथरे की पाँच कवितायेँ। आप इन्हें पढ़े और अपनी बेबाक राय अवश्य दें।
साथियों से अनुरोध है टिप्पणियाँ थोड़ी विस्तारित और रचनाकार को लाभान्वित करने वाली दें। ऐसा केवल इन रचनाओं के बारे में नहीं सभी रचनाओ के लिए ध्यान रखें।

1. काले दिन 

एकाएक आसमान
काला क्यों होता जा रहा है ।
हवा जहरीली हो रही है ,
और पानी का रंग ,
लाल होता जा रहा है ।
आदमी की ज़ात ,
गूंगी-बहरी और अंधी ,
होती जा रही है ।
लगता है जीवन कहीं कैद हो गया है ।
और आदमजात का ,
अस्तित्व खतरे में
नजर आ रहा है ।
चंद्रशेखर बिरथरे

 2. सज़ा

जब भी बैठता हूँ ,
कागज-कलम लेकर,
कुछ लिखने के लिए ,
मेरा मन बेतहाशा रोने लगता है ।
शब्द बोझिल हो कर खो जाते है ।
इतना दर्द बिखरा पड़ा है ,
आसपास बाप रे बाप ।
नीली स्याही बदल जाती है ,
सुर्ख लाल ख़ून में ।
मेरे आसपास का पूरा वातावरण , 
भर जाता है ,
बच्चों-औरतों-मर्दों की 
चीख-पुकार से ,
चाकू-छुरों से ,
नसों को , मांस-मांसपेशियों को , 
खचाखच काटने की भद्दी आवाजों से ।
नजर आतें है ,
फांसी के फन्दों पर ,
झूलते बच्चे-औरत-मर्द ।
कीटनाशक पीकर ,
जिंदगी ख़त्म करते किसान ,
जो हमेशा हमेशा के लिए , 
कर्ज से ही नहीं ,
जीवन नर्क से भी मुक्त हो जाते हैं ।
और मेरी कलम की नीब , 
मैं खुद तोड़ देता हूँ  ,
और खुद की अदालत में , 
मैं अपने आप को , 
फाँसी की सज़ा सुनाता हूँ ।
और खुद ही अपने आप को ,
लटका देता हूँ , 
फाँसी के फंदे पर ।
मगर कितनी अजीबोग़रीब बात है , 
क़ि मैं मरता नहीं हूँ ।
तड़पता रहता हूँ ।
शायद मैं यूँ ही लटका रहूँगा
दुनियां के अंत तक ।
                    
3. सरल-जीवन

अभी तक हम नहीं हुए आजाद ,
कुरूतियों से , पूर्वाग्रहों से ,
पाले बैठे हैं , 
तमाम तरह की भ्रान्तियाँ जो ,
दबोच लेती हैं जीवन को ।
और हम अपने आप को , 
खुद अपनी ही कैद में पाते है ।
पता नहीं हम कब जीएंगे ,
अपना जीवन जो ,
सहज-सरल होकर मानवीय हो ।
और अपने साथ साथ  , 
दूसरों के लिए भी ।
                 
4.  निष्काम - कर्म 

गिर कर  उठ ,
उठ कर  चल ।
चल सीढ़ी चढ़ 
सीढ़ी पर सीढ़ी चढ़ता चल ।
हो खड़ा अडीग ,
तान कर सीना ।
कर मुकाबला ,
हवा - पानी - आग का ।
झुक मत ,
मुश्किलों को चीर ,
मुस्करा ।
फतह का जश्न मना ।
माना तेरी कहानी ,
न कहेगा कोई ,
न सुनेगा कोई ।
फिकर मत कर ।
समय साक्षी है ।
तू खुद गवाह है ।
रास्ते पर तेरे पदचिन्ह ,
करेगें पथ-प्रशस्त ओरों का ।
पगडन्डी बन ,
पगडन्डी बना ।
बहुत सारा , बहुत कुछ ,
इतिहास मे नहीं है ।
सन्ताप न कर ।
गिर कर उठ।
उठ कर चल ।

5. कठपुतली

अजीब बात है ,
मैं जिन्दा हूॅं , या कि मुर्दा ,
मुझे खुद पता नही ।
मगर ऐसा क्यों है ?
अब मैं यकींन के साथ कह सकता हूॅं ,
कि मैं मर चुका हूॅं ।
मेरी हलचल जिस्मानी हो ,
या कि दिमागी ,
मेरे आसपास कोई भी ,
असर पैदा नही करती ।
यही मेरे मुर्दा होने का ,
मुक्कमल सबूत है  ।
ये और बात है कि ,
अन्दरुनी तौर पर ,
मेरे जिस्म में कई  
तरह  की हरकतें हो रही हैं ।
जैसे की मेरा दिल धडकता है ,
रगों में लहू दोडता है ,
हाथ-पैरों में , 
उगंलियों में हरकत है ।
मगर  मेरी आवाज़ गायब है ।
मैं बस हूॅं  ,
एक कठपुतली के मानिदं ।
जो बस है तो है ।
जिसका होना न होना  ,
बराबर है ।
मगर ऐसा क्यों है ?
क्या मैं किसी फास्सिटवादी ,
उपनिवेशवादी या कि साम्प्रदायिक ,
ताकतों के षड़यन्त्र का शिकार हूॅं ।
कुछ तो गड़बड़ है ज़रूर ,
और बहुत बड़ी गड़बड़ है ।
वर्ना मैं इन्सान की औलाद होकर ,
इतना  अपाहिज़, मज़लूम और
लाचार क्यों हूॅं  ?
मेरा वज़ूद ,
सड़क के दोनो तरफ लगीं ,
लोहे की रेलिगों के पीछे खड़े होकर ,
सिर्फ हाथ हिलाने 
भर का ही क्यों है ।

००० चंद्रशेखर बिरथरे
प्रस्तुति: मनचन्दा पानी

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टिप्पणियाँ:-

सरिता सिंह:-
जहाँ... कविता में जीवन स्वत: हो वहाँ ना केवल शब्द ही... बल्कि... कवि की कविता भी मुखर होती हैं....

आशा पाण्डेय:-
सभी कवितायें अच्छी लगीं.सजा बहुत अच्छी लगी.संवेदनशील व्यक्ति के हिस्से में ऐसे ही तड़पना लिखा है मनचंदाजी.

संतोष श्रीवास्तव:-
बहुत मारक कविताएँ है।समय की सच्चाई और जीवन की कड़वाहट बयाँ करती।फिर भी हमें कवि धर्म तो पालन करना ही है।कलम से शंखनाद करना ही है।
बधाई कवि को
आभार एडमिन् जी का

श्रुति सुधा आर्य:-
बहुत अच्छी कविताएँ। खास तौर पर कठपुतली कविता के लिए बधाई।
मेरी हलचल जिस्मानी हो,
या कि दिमागी, मेरे आसपास कोई भी
असर पैदा नहीं करती

विदुषी भरद्वाज:-
अत्याचार, शोषण ,जड़ता के प्रति आक्रोश ,विवशता की अभिव्यक्ति ।अच्छी कविताएं  कवि को बधाई

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