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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

03 मई, 2016

कविता : मनोज कुमार 'मधुर'

साथी मनोज कुमार 'मधुर' की कुछ रचनाएँ उनके परिचय व तस्वीर के साथ प्रस्तुत हैं।
उम्मीद है आप सभी अपनी निष्पक्ष राय यहाँ रखेंगे ।
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कविताएँ :

1.   'देख रहा हूँ'

चाँद सरीखा 
मैं अपने को, 
घटते देख रहा हूँ। 
धीरे -धीरे 
सौ हिस्सों में, 
बँटते देख रहा हूँ। 
      
तोड़ पुलों को 
बना लिए हैं 
हमने बेढब टीले। 
देख रहा हूँ 
संस्कृति के, 
नयन हुए हैं गीले। 
नई सदी को परम्परा से, 
कटते देख रहा हूँ। 
चाँद सरीखा 
मैं अपने को, 
घटते देख रहा हूँ। 
धीरे-धीरे सौ 
हिस्सों में 
बँटते देख रहा हूँ। 
       
अधुनातन 
शैली से पूछें , 
क्या खोया क्या पाया 
कठपुतली से  नाच रहे हम, 
नचा रही है छाया। 
घर- घर में ज्वाला मुखियों को 
फटते देख रहा हूँ। 
चाँद सरीखा 
मैं अपने को 
घटते देख रहा हूँ। 
धीरे -धीरे 
सौ हिस्सों में 
बँटते देख रहा हूँ। 
     
तन-मन सब कुछ 
हुआ विदेशी 
फिर भी शोक नहीं है। 
बोली -वाणी, सोच नदारद 
अपना लोक नहीं है। 
कृत्रिम शोध से 
शुद्ध बोध को 
हटते देख रहा हूँ 
चाँद सरीखा 
मैं अपने को 
घटते देख रहा हूँ। 
धीरे -धीरे 
सौ हिस्सों में, 
बँटते देख रहा हूँ। 
        
मेरा मैं टकरा -टकराकर, 
घाट घाट पर टूटा। 
हर कंकर में 
शंकर वाला, 
चिंतन पीछे छूटा। 
पूरब को 
पश्चिम के मंतर, 
रटते देख रहा हूँ। 
चाँद सरीखा 
मैं अपने को 
घटते देख रहा हूँ। 
धीरे धीरे सौ 
हिस्सों में 
बँटते देख रहा हूँ। 
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2.  'हम'

रोज़ शिराओं में 
मालिक की 
चुपके से घुल जाते हम।

एक बियर की 
बोतल जैसे 
टेबल पर खुल जाते हम।

लहू चूसने वालों ने 
कब पीर 
किसी की बूझी है।

अपने हक़ के 
लिए लाश भी 
कहीं किसी से जूझी है!

घर दफ्तर में 
रद्दी जैसे 
बिना मोल तुल जाते हम।

राजा जी मोटी खाते हैं 
हमको दाना 
तिनका है।

उनका चलता सिक्का 
जग में 
ऊँचा रूतबा जिनका है।

उन को पार 
उतरना हो तो 
बन उनके पुल जाते हम।

नमक उन्हीं का 
हड्डी अपनी 
मर्ज़ी केवल उनकी है।

खाल हमारी 
रुई की गठरी 
जब चाहा तब धुनकी है।

चाबी वाले हुए खिलौने 
कैसे हिल -डुल पाते हम! 
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3.  'शर्माया ताल' 
   
मेघों ने अमृत घट 
छलकाया अम्बर से, 
बूंदों  ने चूम लिए, 
धरती के गाल। 
शरमाया ताल।

परदेशी मौसम ने , 
अम्बर के आँगन में, 
टाँग दिए मेघों के , 
श्यामल परिधान 
वातायन वातायन 
गंध घुली सौंधी-सी, 
दक्षिणी हवाओं ने, 
छेड़ी है तान।

किरणों ने बदन छुआ, 
रिमझिम फुहारों का , 
फ़ैल गया अम्बर में, 
सतरंगी जाल 
भरमाया ताल

धरती ने गोदे हैं, 
धानी के गोदने, 
जाद-सा डाल रहा 
अन्तस का मोद 
सावन की झड़ियों 
पनघट की मांग भरी, 
नदियों की भर दी है, 
सूनी-सी गोद।

पाँखी-सा उतर रहा, 
नभ थामें उतर रहा, 
धरती को पहनाने, 
मेघों की माल। 
ललचाया ताल।। 
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4.   'छले गए'
  
हम पासे हैं 
शकुनि चाल के 
मन मर्ज़ी से 
चले गए। 
डगर डगर पर 
छले गए।

छले गए हम 
कभी शब्द से, 
कभी शब्द की सत्ता से। 
विज्ञापन से, 
कभी नियति से 
और कभी गुणवत्ता से। 
कभी देव के 
कभी दनुज के 
पाँव तले हम 
दले गए। 
डगर डगर पर 
छले गए।

नागनाथ के 
पुचकारे हम 
सांपनाथ के डसे हुए। 
नख से शिख तक 
बाज़ारों की 
बाहों में हम कसे हुए। 
क्रूर समय की 
गरम कड़ाही में 
निस दिन हम तले गए। 
डगर डगर पर 
छले गए।

हम सब के सब 
भरमाये हैं 
और ठगे हैं अपनों के। 
जाने कब तक 
महल ढहेंगे 
भोले भाले सपनों के। 
सख्त हथेली 
पर सत्ता की 
रगड़ रगड़ कर मले गए। 
डगर डगर पर छले गए। 
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5.   'छन्दों का संजीवन' 
            
                
जब पीर पिघलती है मन की 
तब गीत नया मैं गाता हूँ। 
             
सम्मान मिले जब झूठे को 
सच्चे के मुँह पर ताला हो। 
ममता को कैद किया जाये 
समता का देश निकाला हो।

सपने जब टूट बिखरते हों 
तब अपना फ़र्ज़ निभाता हूँ। 
               
छल- बल जब हावी होकर के
करुणा को नाच नचाते हैं 
प्रतिभा निष्कासित हो जाती 
पाखंड शरण पा जाते हैं।

तब रोती हुई कलम को मैं 
चुपके से धीर बँधता हूँ। 
            
वैभव दुत्कार, ग़रीबी को 
पगपग पर नीचा दिखलाये 
जुगनु उड़कर के सूरज को 
जलने की विद्या सिखलाये

तब अंतर मन में करूणा की 
घनघोर घटा गहराता हूँ। 
              
जब प्रेम-सुधा रस कह कोई 
विष-प्याला सम्मुख धरता है। 
आशा मर्यादा निष्ठा को 
जब कोई घायल करता है।

मैं छंदों का संजीवन ले 
मुर्दों को रोज़ जिलाता हूँ। 
            
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(प्रस्तुति-बिजूका)

कवि परिचय :

नाम:  मनोज जैन 'मधुर'
जन्म: 25 दिसम्बर 1975 (बामौरकलां, शिवपुरी, म.प्र.)
शिक्षा - अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर
सम्प्रति - सीगल लैब इंडिया (प्रा.) लि. में एरिया सेल्स मैनेजर
प्रकाशन: एक बूँद हम (गीत संग्रह), विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। 
दूरदर्शन व आकाशवाणी से भी प्रसारण।

सम्मान : अनेक साहित्यिक सम्मान व पुरस्कार।

सम्पर्क: 09301337806, 09685563682
ईमेल- manojjainmadhur25@gmail.com
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टिप्पणियाँ:-

मीना अरोड़ा:-
अद्भुत लेखन
शहद हुए ,बाबू जी, कैसा है भाई,
गाँव जाने से, देख रहा हूँ, हम,छले गये
मजा आ गया । 
मनोज जी

उदय अनुज:-

मनोज जी ! बहुत प्रभावित करते हैं आपके गीत। अपने परिवेश के सरोकारों से जुड़े गीत। शिल्पगत मौलिकता के साथ आपकी उपस्तिथि पाठक को बाँध लेती है।

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