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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

22 जून, 2016

कविता : पूनम शुक्ला

सुभोर साथियो,

आइये आज पढ़ते हैं समूह के साथी पूनम शुक्ला की कुछ कविताएँ ।
आप सभी साथी पढ़कर अपनी राय जरूर दें।

1.एक तीता : एक मीठा 

 जोर की घरघराहट है 

आसमान में 

अभी-अभी निकला है एक प्लेन 

कल्पना चावला भी तो गई थी 

आसमान में 

ऊँचाइयों को छूने 

हिमालय पर चढ़ चुकी हैं बेटियाँ 

पर अभी भी है फर्क गाँवों में 

बेटों और बेटियों में 

तीन दिन पहले चचेरी भौजाई ने 

जनी थी बेटी 

छाया है मातम वहाँ 

आज गाय ने जनी है बछिया 

खुशी छाई है यहाँ 

बछिया ?

पर वह भी तो है बेटी 

इतना स्वार्थ लोलुप है इंसान 

कि हर जगह जोड़ता है 

बस घाटा नफा 

यहाँ तक कि अपने बच्चों में भी 

अपने ही खून की बूँद 

अपने ही जिगर का क़तरा

एक तीता, एक मीठा। 

2.नदी बन गई हूँ 

देखो 

झरते हैं मेरे आँसू

देखो तुमने उगली थीं जो चिंगारियाँ 

पिघला रही हैं मेरे भीतर का हिमखंड

जरा देखो तो 

बहुत उदास हो गई हूँ मैं आज

तुम नहीं देखोगे

रहोगे चुपचाप ही 

कनखियों से निहारते

देख लिया था मैंने

सिर झुका चुपचाप

पढ़ोगे कोई किताब

कोई अखबार 

या फिर टी वी पर

लगा दोगे कोई 

सिद्धू या कपिल के

हँसते हुए नुस्खे

कोई कुछ नहीं बोलेगा

सब अनजाने से 

मगन रहेंगे इधर-उधर

कोई नहीं देखने आएगा

मेरी वेदना

जब नदी बन बह जाऊँगी पूरी तरह

खुद ही निहारूँगी अपना चेहरा

खुद को ही समझा लूँगी धीरे से

और कहूँगी चलूँ अब लग जाऊँ काम पर

आश्चर्य.....अब सभी देखने लगे हैं

बिना किसी भाव बिना वेदना अनजाने से

ज्यों एक पत्थर की मूरत हूँ मैं 

पर मैं तो नदी बन गई हूँ

मैंने पार कर लिए हैं ढ़ेरों पत्थर के अवरोध ।

3.शरीर धरने का दंड

हममे भी बहता है

लाल ही रक्त

हममें भी हाड़ मांस ही तो है

आते हैं स्तनधारी 

जीवों की श्रेणी में ही

बस अंतर इतना ही

कि वे पुरुष थे

और हम स्त्री

पर दंड खूब मिला हमें

इस शरीर को धरने का

शारीरिक संरचना के अनुसार

हम ज्यादा संतुलित थीं 

और अग्रणी 

ऐसा लिखा था

जीव विज्ञान की पुस्तक में 

पिछले ही साल जब

गिरा था असमय ही 

भाभी का गर्भ

समझाया था चिकित्सक नें भी यही

कि पकड़ लड़कियों की होती है मजबूत

लड़के में गर्भ गिरने का खतरा

होता है ज्यादा

फिर भी जबरन हमें ही

खींच कर अलग कर दिया जाता है

गर्भ से असमय ही 

यह शरीर धरने का दंड ही तो है

कि घर में रखते हुए सबका ख्याल

हम पा जाती हैं लड़कों से अधिक अंक

फिर भी असमय ही 

रोक दी जाती है हमारी पढ़ाई

कि कहीं हम सीख न जाएँ गुर 

खुद का भी ख्याल रखने का

कहीं भी तो कम नहीं थीं हम

पर झोंक दिया गया हमें 

चौके बरतन में 

चूल्हे की मुहानी में 

धरा दिए गए सबके मैंले कपड़े

कि बस धोती रहें बैठ कर घंटों

कभी बुहारें घर

कभी दबाएँ सबके पाँव

गर थोड़ा भी डगमगाए यह देह

तो झेलें तानाशाहों की बौछार

यह शरीर धरने का दंड ही तो है

कि थक कर भी नहीं बैठ सकती

एक भी पल

चलना ही पड़ता है

उसे निगलते हुए गोलियाँ

हो कोई पीड़ा या ज्वर

आज ही कूदी है चलती हुई बस से

हममे से एक

नहीं झेल पाई वह

इस शरीर को छलने की पीड़ा

मिल गया है उसे भी

शरीर धरने का दंड

असमय ही समा गई वह

मृत्यु की गोद में 

मरने के बाद

दुबारा हम बनेंगी स्त्री ही

तुमसे कहाँ सँभल पाएगी यह दुनिया ।

4.गुलाबी रंग

आज फिर लिया मैंने
एक गुलाबी रंग 
जैसे ही कम पड़ने लगता है
गुलाबी रंग
उठा लाती हूँ
कभी बाल्टी, कभी चादरें 
कभी कपड़े 

जिन्दगी का चलता यह धारावाहिक 
आ जाता है जब भी
एक भावुक मोड़ पर
गुल होने लगती हैं रोशनियाँ
बढ़ने लगता है अँधेरा
रुँधने लगते हैं पात्रों के गले 
खुलने लगते हैं भीतरी दरवाजे
और सुनाई पड़ने लगती है
कुँडली मारे भीतर सोए 
इच्छाओं के शेष नाग की
फुफकारने की आवाज
मैं झट से खरीद लाती हूँ 
गुलाबी रंग
और उड़ेल देती हूँ भीतर बाहर

दुनिया रचने वाले ने
हमारे लिए ही तो
बनाया है गुलाबी रंग
ताकि बची रहे
उसकी जमात
पूरी कायनात
जो टिकी है हमारी इच्छाओं के
शेष नाग के फन पर

5. "फूलना"

वे कहते हैं 
वे खाते नहीं हैं ज्यादा
बस यूँ ही
फूल जाती है उनकी देह
वजन बढ़ना
महज़ बीमारी है बस
पर क्यों दिखा नहीं मुझे
किसी गरीब
किसी मजदूर के 
देह का फूलना । 

6. "नाक पर "

इन दिनों पड़ती है जैसे ही नज़र 
किसी के चेहरे पर 
झट से आँख टिक जाती है नाक पर 
नाक क्या छोटा सा टापू कह सकते हैं इसे 
जो सागर से चेहरे पर बनाए हुए है सबसे ऊँचा स्थान 
दो आँखें इसमें तैरती हुई दो नाव की माफिक 
ज्यों टिकी हो इस टापू के अंतिम छोर पर 
चेहरे पर तरह-तरह की भंगिमाएँ सागर की ऊँची नींची लहरों सी 
मैं देखती हूँ संपूर्ण दृष्य पर आँख है कि टिक जाती है नाक पर 
हर चेहरे पर है बिल्कुल अलग तरह की नाक 
कोई इतनी छोटी कि भ्रम हो कि है भी या नहीं 
कोई ऐसी कि आकाश भेदने को तैयार 
कोई ऊपर से पतली नीचे से चौड़ी 
कोई ऊपर से नीचे तेजी से भागती हुई 

कोई नीचे से बिल्कुल गोल ऊपर को उठी हुई 
कोई नुकीली त्रिभुजाकार
कोई थोड़ी टेढ़ी तोते की चोंच सरीखी 
जितनी नाक उतनी आकृति 
जितनी नाक उतने भेद 
प्रकृति की अद्भुत संरचना 
जिसने जाना बस श्वास का आना जाना 
जिसने जाना बस इस जीवन की लय 
देह में दौड़ते लहु का स्पंदन 
ऊष्मा स्नेह ......
पर हमने रख दिया इसी पर 
मान सम्मान अपमान ........।

7.   "पहाड़ का राई होना"

अहंकार का पहाड़ 
अक्सर रहता है मेरे आस-पास
पर ऐसा कहीं लिखा ही नहीं 

कि अगर आपने कैद कर लिया
अपने अहं को अपनी मुट्ठी में 
तो अदृष्य हो जाएगा यह पहाड़ भी 

पहाड़ ज्यों को त्यों है 
लगता है मैं ही लुप्त हो जाऊँगी 

सोचती हूँ 
उठा ही लूँ अब
चाणक्य नीति की किताब 
लिखा है जिसमें 
उजागर करना मत कभी 
सत्य अहं के सम्मुख
बस उसे तुष्ट करना
और पहाड़ को राई में 
तब्दील होते देखना ।

8. "चरित्रहीन"

दानिस्ता वे चलती हैं थोड़ा झुककर 

झुका हुआ 

आभा का तना हुआ वितान भी 

अपनी हँसी को थोड़ा मुल्तवी करतीं 

शिनाख्त करती आँखों से थोड़ा बचतीं 

थिराए हुए कदमों को धीरे-धीरे बढ़ातीं 

आखिर क्यों ऐसे चलती हैं ये औरतें ?

लगता है वे अब जान गई हैं शब्द चरित्रहीन ।
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कवि परिचय:

नाम - पूनम शुक्ला

जन्म - 26 जून 1972 ( बलिया , उत्तर प्रदेश )

शिक्षा - बी एस सी आनर्स ( जीव विज्ञान ), एम एस सी- कम्प्यूटर साइन्स, एम सी ए 

प्रकाशित कृतियाँ -

*कविता संग्रह " सूरज के बीज " अनुभव प्रकाशन , गाजियाबाद द्वारा प्रकाशित ।

*"सुनो समय जो कहता है" ३४ कवियों का संकलन में रचनाएँ - आरोही प्रकाशन 

* विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।

सम्पर्क - 9818423425

ई मेल आइडी- poonamashukla60@gmail.com
( प्रस्तुति: बिजूका)
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टिप्पणियाँ:-

रेणुका:-
एक तीता एक मीठा कविता अच्छी लगी। किन्तु जहाँ तक घर के काम काज की बात है, तो मेरा मानना है कि घर के काम निम्न नहीं होते यदि मिल बाँट कर किये जाएं।

राकेश कुमार:-
कविताओ के माध्यम से औरतों की पीड़ा का वर्णन किया गया है जो बहुत मार्मिक है। समाज का असली चेहरा उजागर किया गया है...

संतोष श्रीवास्तव:-
पूनम जी की कविताएँ कविता के मूल गुणों से युक्त है।मौजूदा समय की पकड़ और स्त्री मन की पीड़ा दर्शाती पूनम जी को इन कविताओं के लियेबढ़ाई,आभार एडमिन् जी का।

आशीष मेहता:-
प्रभावी रचनाएँ, काँच की तरह साफ, ... एक ही धर्म .... (कोई राजनीति नही).... न कोई संप्रदाय, न कोई प्रांत..... एक ही बात.... मानवजात।
एक पंक्ति है, 'तुमसे कहाँ सँभल पाएगी यह दुनिया'...... एक मरीचिका ही है। क्या वाकई सँभली हुई है दुनिया ?

रचनाकार युवा सोच की मालकिन और 'नेट् सैवी' भी प्रतीत होतीं हैं।

इस गोल-माल दुनिया का कोई भी कोना देख लें, नारी मन की व्यथा एक सी हैं.... एक तरफ निर्मला पुतुल जी की आदिवासिन अपनी 'उड़ती तस्वीर' के लिए हैरान है, तो दूसरी तरफ अपनी पढ़ाई के खर्चे पूरे करने के लिए शरीर बेचने का चलन...... इन दो ध्रुवों के बीच 'नारी शोषण' पर सभी धर्म - संप्रदाय, अमीर-गरीब, चोर-साहुकार, नेता-पुलिस, सभी एक मत हैं..... और तो और स्त्री-पुरुष भी एक मत हैं...... सर्वसम्मति से ..... और सबकी खुशी से, ... 'नारी' शोषित प्राणी है। फादर्स् डे (इसकी टाँग-पूँछ वेलेनटाइन से जुड़ी है क्या?) के उपलक्ष्य पर प्रभावी पेशकश के लिए बिजूका मंच को साधुवाद । कवि महोदया को साधुवाद।

कोई नई सी सेना ने ट्रम्पजी का बड्डे (बर्थडे) सेलिब्रेट किया है (लोग इसे भी राजनीति ही कहते हैं), सो अम्मरिक्का, लंदन और प्रिय पाकिस्तान की कुछ खबरें {कहने को आज के अखबार की हैं, पर मानो आदिकाल (वैदिक काल कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूँ।) से रोज ही घटतीं हैं} साझा कर रहा हूँ। इन सभी खबरों का रंग एक ही है...., जो निश्चित तौर पर 'गुलाबी' नहीं है।

साथियों से निवेदन है, चर्चा गुलाबी रंग (रचनाओं ) पर ही केन्द्रित रखें ।

रूचि:-
फूलना / नाक पर/पहाड़ का राई होना/ चरित्रहीन ....पूनम जी सभी कविताएँ अच्छी लगीं ....बधाई आपको एक शब्द में कहूँ तो सभी कविताएँ - Realistic

गीतिका द्विवेदी:-
कल की कविताएं तो थीं ही बहुत सुगढ़ परन्तु आज की भी कुछ कम नहीं।पूनम जी को बहुत -बहुत शुभकामनाएं

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