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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 अक्तूबर, 2016

मनोज पटेल द्वारा अनुदित कुछ कविताएं उनके ब्लॉग 'पढ़ते-पढ़ते' से

आज प्रस्तुत हैं मनोज पटेल द्वारा अनूदित अन्तरराष्ट्रीय कवियों की कुछ कविताएँ। अपनी प्रतिक्रियाओं से अवश्य अवगत कराइयेगा...

कविता :

1. प्रेम खरगोश
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मुझे ज्यादा देर नहीं लगेगी, वह बोली,
और दरवाजे को अधखुला छोड़कर चली गई.
यह एक ख़ास शाम थी हमारे लिए,
खरगोश का स्ट्यु गैस चूल्हे पर धीमे-धीमे पक रहा था,
उसने कुछ प्याज और लहसुन बारीक काट रखे थे
और गाजर को छोटे गोल टुकड़ों में.
उसने कोट नहीं लिया
और न ही कोई लिपस्टिक लगाई. मैंने पूछा भी नहीं
कि वह कहाँ जा रही थी.
ऎसी ही है वह.
उसे वक़्त का कभी कोई अंदाजा ही नहीं रहता,
हमेशा देर हो जाती है उसे; बस इतना ही
कहा था उसने उस शाम
मुझे ज्यादा देर नहीं लगेगी;
उसने दरवाज़ा भी बंद नहीं किया था.
छः साल बाद
मैं उससे गली में मिलता हूँ (अपनी नहीं)
और वह अचानक फिक्रमंद दिखाई पड़ने लगती है, जैसे किसी को अचानक याद आया हो
कि वह इस्त्री का प्लग निकालना भूल गया था,
या जैसे...
तुमने गैसचूल्हा तो बंद कर दिया था न, वह पूछती है.
अभी तक तो नहीं, मैं जवाब देता हूँ,
बहुत सख्तजान होते हैं ये खरगोश.

गिओर्गि गस्पदीनव

2.  "बांग्लादेश के लिए"

…उस रात बाद में
एक एटलस रखा मैंने अपनी गोद में
और दुनिया के नक़्शे पर फिराते हुए अपनी अंगुलियां
धीरे से पूछा
दर्द कहाँ हो रहा है?
और जवाब मिला
हर जगह
हर जगह
हर जगह.

3. निज़ार कब्बानी की कविता -

तुम अब भी पूछती हो मेरा जन्मदिन
लिख लो इसे,
जान लो ठीक-ठीक
जिस दिन क़ुबूल किया तुमने मेरा प्यार
उसी दिन हुआ मेरा जन्म.
* *
तुम्हारा प्यार
पराकाष्ठा है प्यार की, गूढ़ से गूढ़तम ;
है इबादत अपने आप में.
जन्म और मृत्यु की तरह
नामुमकिन है इसका दुहराव.
* *
सच है सब जो कहते हैं वे मेरे बारे में ;
प्यार में मेरी शोहरत के बारे में
स्त्रियों के साथ के बारे में जो कहते हैं वे
सच है सब,
लेकिन वे नहीं जानते तो बस यह
कि तुम्हारे प्यार में लहूलुहान हूँ मैं
ईसा मसीह की तरह.
* *
फ़िक्र मत करो, सबसे हसीं
हमेशा मौजूद रहोगी तुम मेरे शब्दों में मेरी कविताओं में.
उम्रदराज हो सकती हो तुम समय के साथ
मेरी रचनाओं में रहोगी मगर यूं ही.

साभार - 'पढ़ते-पढ़ते ' ब्लॉग

मनोज पटेल द्वारा अनूदित कुछ कविताएँ उनके ब्लॉग "पढ़ते-पढ़ते"  से प्रस्तुत हैं...

1. युगोस्लाविया का रक्तिम विभाजन मानव सभ्यता के ऊपर एक बहुत बड़ा धब्बा है । पत्रकारिता से लेकर मानवाधिकार, कानून, और सिनेमा ने उसे अपने-अपने तरीके से व्यक्त भी किया है । जाहिर है ... साहित्य ने भी .. । खासकर बोस्निया-हर्जेगोविना के जख्मों की कहानियां सुनकर तो रूह ही काँप जाती है ।
बोस्नियाई कवि 'इजत सरजलिक' की यह छोटी सी कविता 
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सरायेवो में किस्मत
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सब कुछ मुमकिन है
सरायेवो की
1992 की बसंत ऋतु में
कि आप खड़े हों एक कतार में
ब्रेड खरीदने के लिए
और पहुँच जाएं
किसी इमरजेंसी वार्ड में
अपनी टाँगे कटवाए हुए
और तब भी कह सकें
कि किस्मत वाले रहे आप .. ।
.................................
कवि .... इज़त सरजलिक

2. हिदायात के मुताबिक़ : अफ़ज़ाल अहमद सैयद

वजीरे आज़म दक्षिण की तरफ नहीं जाएंगी
सदर
सिर्फ ऊपर की ओर उड़ान भरेंगे
सिपाही
ढाई घर चलेंगे
जलावतन रहनुमा
साढ़े बाईस डिग्री पर घूमेंगे
लोग घरों से नहीं निकलेंगे
एम्बुलेंस जिग-जैग चलेंगे
तारीख़
पहले ही एंटी क्लॉक वाइज चल रही है.

3.  मेरी पत्नी की चिट्ठी : नाजिम हिकमत

मैं तुमसे पहले मरना चाहती हूँ.
क्या तुम्हें लगता है कि बाद में मरने वाला
पा जाता है पहले मरने वाले को ?
मुझे तो ऐसा नहीं लगता.
बेहतर होगा कि मुझे जला देना
और रख देना अपने आतिशदान के ऊपर
एक मर्तबान में.
मर्तबान साफ़ शीशे वाला हो,
ताकि तुम देख सको मुझे भीतर...
देखो मेरी कुर्बानी :
मैनें छोड़ दिया धरती होना,
तज दिया फूल होना,
सिर्फ तुम्हारे पास बने रहने के लिए
और मैं राख हो गई
तुम्हारे साथ रहने के लिए.
फिर, जब तुम छोड़ना यह दुनिया,
आ जाना मेरे मर्तबान में
और हम उसमें रहेंगे साथ-साथ,
तुम्हारी राख रहेगी मेरी राख के साथ,
जब तक कि कोई नासमझ नववधू
या कोई जिद्दी पोता
हमें बाहर न फेंक दे...
मगर
तब तक
हम
आपस में
ऐसे मिल चुके होंगे
कि कचरे में भी हमारे तमाम कण
अगल-बगल ही गिरेंगे
हम साथ-साथ डुबकी लगाएंगे धरती में.
और अगर किसी दिन पानी पाकर कोई जंगली फूल
फूट आता है धरती के उस टुकड़े से,
तो उसकी डंठल में
दो कलियाँ जरूर होंगी :
एक तुम होओगे
और दूसरी मैं.
मैं अभी
मरने नहीं जा रही हूँ.
अभी एक और बच्चा जनना चाहती हूँ.
पूरी भरी हूँ मैं ज़िंदगी से
और गर्म है मेरा खून.
तुम्हारे साथ
बहुत दिन ज़िंदा रहना है मुझे, बहुत दिन.
मौत मुझे डराती नहीं,
बस अपने क्रिया कर्म के इंतज़ाम
मुझे कुछ सोहते नहीं.
मगर मेरे मरने के पहले
सबकुछ बदल सकता है.
क्या तुम्हारे जेल से जल्दी निकलने की कोई गुंजाइश है ?
मेरे भीतर कुछ है, जो कहता है :
शायद.

( प्रस्तुति-बिजूका)

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