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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

22 नवंबर, 2016

हर जगह मोदी-मोदी चिल्लाना समर्थन नहीं साम्प्रदायिकता है।- पवन करण

सुप्रभात साथियों,

आज प्रस्तुत है मौजूद हालात की पड़ताल करता एक लेख। लेख छोटा है किंतु जिस मसले को लेकर चला है वह छोटा नहीं है। समूह में भी ऐसा देखा गया है कुछ साथी पहले से ही अपना मत बनाये हुए रहते हैं और उसके आगे वे अपने विरोधी को देशद्रोही ही मानते हैं। आज साथियों से एक सार्थक चर्चा की आशा करते हैं।

क्योंकि इस विषय पर आजकल अनगिनत चुटकुले भी सोशल मीडिया में चल रहे हैं, साथियों से अनुरोध है अपने विचार रखें और किसी भी तरह के चुटकुले को यहाँ शेयर ना करें।

हर जगह मोदी-मोदी चिल्लाना समर्थन नहीं साम्प्रदायिकता है।- पवन करण

प्रधानमंत्री मोदी के बड़े नोट बदलने के फैसले से होने वाली परेशानी सामने लाने वालों की आवाज दबाने के लिये भाजपा कार्यकर्ताओं और उसके समर्थकों का इकट्ठे होकर मोदी मोदी चिल्लाना समर्थन नहीं सांप्रदायिकता है। जब चार—छह कट्टरपंथी कहीं भी इकट्रठे होकर मोदी—मोदी चिल्लाते हैं, लगता है हिंदू—हिंदू चिल्ला रहे हैं। सरकार समर्थक करेंसी बदलाव से जनता को हो रही परेशानी को हिंदुत्व की आड़ में छुपाना चाहते हैं। जो परेशान है,वह हिंदु नहीं है अथवा हिंदू हो तो परेशानी कैसी। लगता है जनता को अब नोटों से पैदा हो रही जानलेवा परेशानी के साथ—साथ फैसला मनवाने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार इस हिंदुत्व से भी लड़ना है।

इस बदलाव को बड़ी बेशर्मी से देशभक्ति से भी जोड़ा जा रहा है। इस बदलाव से होने वाली परेशानी को बताने बाले को यह कहकर प्रताणित और अपमानित किया जा रहा है ‘कि देश के उस सैनिक को देखो जो सीमा पर कितने कष्ट सहकर देश की रक्षा करता है और तुम देश के लिये पहली बार किसी प्रधानमंत्री के देश हित में लिये गये इस निर्णय के समर्थन में चार—छह घंटे लाईन में नहीं लग सकते।’ ये अजीब तरह का कुतर्क है। ‘पहली बार’ ये क्रियापद देश के आम नागरिक पर बहुत भारी पड़ रहा है। ये पहली बार, पहली बार उनकी बिटिया की शादी पर भारी पड़ रहा है, ये पहली बार मां बनने जा रही किसी औरत पर बहुत भारी पड़ रहा है, ये पहली बार आपरेशन टेबिल तक पहुंचे किसी गंभीर मरीज के लिये बहुत भारी पड़ रहा है। ये पहली बार किसी घर की पहली बार पूरी तरह से खाली गांठ पर बहुत भारी पड़ रहा है।

इस देश के आम नागरिक को राजनीति वैसे भी उन्माद के सिवाय कुछ नहीं देती। विकास कार्यों का सीधा और बड़ा लाभ बड़े लोगों को ही मिलता है। सड़कों स्कूलों और अस्पतालों की शक्ल में आमनागरिक को मिलने वाले इस विकास की हकीकत हम सबके सामने है। ऐसे में उसका बदलाव की आशा में सरकार को दिया बोट इस हद तक मुसीबत में बदल जाये तो उसके ‘रोष’ समझा जा सकता है और उसके उसी रोष को दबाने का काम इन दिनों सरकार के समर्थक मोदी—मोदी के नारे लगाकर कर रहे हैं। मगर यह तय है कि इस समय सरकार के समर्थकों के ये नारे सरकार को नुकसान ही पहुंचायेंगे, सरकार और प्रधानमंत्री की स्थिती इससे हास्यास्पद ही होगी उनका नारे लगाना जनता की खीज को ही बढ़ायेगा, और ये हो भी रहा है। नोट बदलने के सरकार का फैसले से जनता को पैदा हो रही परेशानी मोदी—मोदी के नारों से दबाने से वह दबेगी नहीं बल्कि और ज्यादा उभरेगी।

प्रस्तुति-बिजूका
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टिप्पणियाँ:-

प्रदीप कान्त:-
कितने भी आलेख लगा लो बाबा

पर

जनता तो परेशान होकर भी फेवर में है इसलिए सब विरोधी देशद्रोही

मनचन्दा पानी:
जहाँ तक मुझे समझ आता है ये सरकार बनी ही धर्म और देशभक्ति को सहारा बनाकर थी। जो सच्चा हिन्दू है, जो सच्चा देशभक्त है वो सरकार के पक्ष में रहे ऐसी धारणा बनायी गयी। जो सरकार का विरोध कर रहा है, चाहे किसी भी बात पर क्यों ना हो, सरकार का विरोधी नहीं धर्म का विरोधी है, देशद्रोही है।

जहाँ धर्म जोड़ दिया जाता है वहां हम अंधे होकर अनुसरण करते हैं, सवाल नहीं करते, तर्क नहीं करते, समझदारी को ताला मार देते हैं, वास्तविकता को भी हम भक्ति के चश्मे से देखते है और सबकुछ भला ही भला दिखाई देता है। ऐसा ही हो रहा है। टीवी पर जो चैनल जनता की सही और सच्ची तस्वीर दिखा रहा है लोग उसको भी देशद्रोही चैनल मानकर नहीं देखते। कतार में खड़ा परेशान होकर अगर कोई व्यक्ति मोदी या सरकार के विरोध में कुछ बोल देता है तो वहां भरे मोदीवादी हिन्दू उस से उसकी जाति पूछने लगते है, उसका धर्म पूछने लगते हैं, अपने वाले नारे लगाने लगते हैं।
हम उस समझ के लोग हैं जहाँ एक गर्भवती महिला घी को खाने के बजाय मातारानी का चिराग जलाती रहती है और जब उसको कुपोषित अपंग बच्चा पैदा होता है तो वो मातारानी का चिराग और ज्यादा समय के लिए जलाने लगती है इस आस में कि शायद पहले उसकी पूजा में कोई कमी रह गयी थी।
और जो सही बात है वो ना उसकी समझ में आएगी ना समझायी जा सकती है क्योंकि धर्म का मामला है।
और जब धर्म-राजनीती एक-दूसरे में घुस जायेंगे तो आँखों पर पट्टी बांधे भक्त कैसे उन्हें अलग करेंगे।

पल्लवी प्रसाद:-
अँधभक्ति की तरह अँधविरोध भी पढ़े लिखों को शोभा नहीं देता। हर चीज के अच्छे बुरे पहलु होते हैं।/ मंडल कमीशन लागु होने पर सड़क पर छात्र जल कर प्राणाहूति दे रहे थे - तो क्या पिछड़े वर्गों का भला न हुआ?- वी.पी. सिंह सरकार/ economic reforms पर भी हाय तोबा हुयी थी तो क्या देश को तरक्की न दिलाई?- कॉंग्रेस सरकार / Demonetisation तो इन के सामने मामूली ही है / कम से कम मैं तो स्वयं को इतना घोर काबिल नहीं मानती कि हर legitimately elected by d people govt. को २४ पहर गरियाते रहुँ।
एक ही तरह के राजनीतिक पोस्ट पढ़ कर काफी ऊब होती है, इन बातों को हम सब tv और newspaper पर देखते हैं। मेरी उम्मीद बिजूका से साहित्यिक पोस्टस् की रहती है व साहित्यिक चर्चा की।

सीमा आज़ाद:-
लेनिन ने मार्क्सवाद को समृद्ध करते हुए साम्राज्यवाद के बारे बताया। उन्होंने बताया कि यह वित्तीय पूंजी का दौर है, जिसमें बैंकिंग पूंजी का महत्व बढ़ जाता है, जो बड़े-बड़े कारपोरेटों तक पहुंचती रहती हैं। मंदी के दौर में मुनाफे की हवस और एकाधिकार के लिए इस पूंजी के अधिग्रहण की होड़ मच जाती है। इस सन्दर्भ में देखें तो भारत जैसे देशों के रूपये बैंक तक पहुंचाने के लिए बांग्लादेश के मोहम्मद यूनुस ने " समूह निर्माण" के माध्यम से साम्राज्यवाद की इसी योजना को पेश किया, जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। अब मोदी जी ये काम कर रहे हैं- पहले ' जन धन योजना' के माध्यम से अब "नोटबन्दी" के माध्यम से। साम्राज्यवाद,( मोदी जिसके बेहतरीन एजेंट हैं) को समझने के लिए लेनिन की पुस्तक " साम्राज्यवाद: पूंजीवाद की चरम अवस्था" जरूर पढ़ें और इसी रोशनी में इसके खिलाफ खड़ें हों। इस साल फरवरी में हमने यानि दस्तक ने कई संगठनों के साथ मिल कर इस पुस्तक का सौंवा साल मनाया था।

उदय अनुज:-
मनचंदा जी! हमारे मुल्क में लोग धार्मिक आस्थाओं में अंधे हो गये हैं। सारी बद्धि टाक में रख दी है। अनपढ़ के नहीं पढ़े लिखे भी इसी श्रेणी में आते हैं। आप भारत के मन्दिरों का सोने और पैसो का चढावा देख लें। इसमें आम गरीब आदमी का योग कम है। पढ़े लिखे बड़े कारोबारी अधिक जुड़े हैं। बी जे पी ने धर्म की आस्था को भुनाया। अन्य दल भी  लोक लुभावन  नारे देकर ही तो राज कर रहे हैं। गरीबी हटाओ -- नेताओं की गरीबी हट गई हैं।
*उदयसिंह अनुज

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