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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 जनवरी, 2018

अनुपम सिंह की कविताएं




अनुपम सिंह 




हम औरतें हैं मुखौटे नहीं

वह अपनी भट्ठियों में मुखौटे तैयार करता है
उन पर लेबुल लगाकर ,सूखने के लिए
लग्गियों के सहारे टांग देता है
सूखने के बाद उनको अनेक रासायनिक क्रियाओं से गुजारता है
कभी सबसे तेज तापमान पर रखता है
तो कभी सबसे कम
ऐसा लगातार करते रहने से
उनमे अप्रत्यासित चमक आ जाती है
विस्फोटक हथियारों से लैस उनके सिपाही घर -घर घूम रहे हैं
कभी दृश्य तो कभी अदृश्य
घरों से उनको घसीटते हुये
अपनी प्रयोगशालाओ कीओर ले जा रहे हैं
वे चीख रही हैं,पेट के बल चिल्ला रही हैं
फिर भी वे ले जायी जा रही हैं
उनके चेहरों की नाप लेते समय खुश हैं वे
आपस मे कह रहे हैं ,की अच्छा हुआ इनका दिमाग नहीं बढ़ा
इनके चेहरे ,लंम्बे-गोल ,छोटे- बड़े है
लेकिन वे चाह रहे हैं की सभी चेहरे एक जैसे हो
एक साथ मुस्कुराएं
और सिर्फ मुस्कुराएं
तो उन्होने अपनी धारदार आरी से
उन चेहरों को सुडौल
एक आकार का बनाया
अब मुखौटों को उन औरतों के चेहरों पर ठोंक रहे हैं वे
वे चिल्ला रही है
हम औरते हैं
सिर्फ मुखौटे नहीं
वह ठोंके ही जा रहे हैं
ठक-ठक लगातार
और अब हम सुडौल चेहरों वाली औरतें
उनकी भट्ठियों से निकली
प्रयोगशालाओं में शोधित
आकृतियाँ हैं ।




लड़कियाँ जवान हो रही हैं

हम लड़कियाँ बड़ी हो रही थीं
अपने छोटे से गाँव में
लड़कियाँ और भी थीं
छोटी अभी ज्यादा छोटी थीं
जो बड़ी थीं वे
ब्याह दी गयी थीं सही सलामत
इस तरह हम ही लड़कियाँ थीं
जिनकी उम्र बारह-तेरह की थी
हम सड़कों के बजाय
मेड़ों के रास्ते आती–जातीं
चलती कम
उड़ते हुये अधिक दिखतीं
गाँव मे नयी–नयी ब्याह कर आयीं
दुल्हन हुयी लड़कियों की भी
सहेलियाँ बन रही थीं हम
किसी के शादी-ब्याह में
हम बूढ़ी और अधेड़ उम्र की
स्त्रियों से अलग बैठतीं
और अपने जमाने के गीत गातीं
हमारी हंसी गाँव में भनभनाहट की तरह फैल जाती
गाँव के छोटे–भूगोल में
हमारे जीवन के विस्तार का समय था
अब हम सब अपने देह के उभारों के अनुभव से
एक साथ झुककर चलना सीख रही थीं
कभी तो जीवन को
हरे चने के खटलुसपन से भर देती
तो कभी माँ की बातों से उकताकर
आधे पेट ही सो जाती थीं
हम उड़ना भूलकर
अब भीड़ में बैठना सीख रहीं थीं
भीड़ से उठतीं, तो कनखियों से
एक दूसरे को पीछे देखने के लिए कहतीं
जब कभी हमारे कपडों में
मासिक धर्म का दाग लग जाता
तो देह के भीतर से लपटें उठतीं
और चेहरे पर राख बन फैल जाती
हम दागदार चेहरे वाली लड़कियाँ
उम्र के कच्चेपन में सामूहिक प्रार्थनाएँ करतीं
हे ईश्वर – बस हमारी इतनी-सी बात सुन लो
हम लड़कियाँ , अनेक प्रार्थनाएँ करती हुयी
जवान हो रही थीं
लड़कियाँ जवान हो रही थीं
उनके हिस्से की धूप, हवा, रात
और रोशनियाँ कम हो रहीं थीं
अब हम बाग में नहीं दिखतीं
गिट्टियाँ खेलते हुये भी नहीं
हम घरों के पिछवारे
लप्प –झप्प में
एक दूसरे से मिल लेती हैं
दीवार से चिपक कर ऐसे बतियातीं
जैसे लड़कियाँ नहीं छिपकलियाँ हों हम
घरों के बड़े कहीं चले जाते
तब बूढ़ी स्त्रियाँ चौखट पर बैठ
हमारी रखवाली करतीं और
किसी राजकुमार के इंतिज़ार और अनिवार्य
हताशा मे हरे कटे पेड़ की तरह उदास होती हम
लड़कियाँ जवान हो रही हैं।










आसान है हमें मनोरोगी कहना 

रात अनेक सपनों का कोलाज होती है
कई रातों के सपने अभी भी याद हैं
बचपन में पढ़ी कविताओं की तरह
सपने के एक सिरे से दूसरे सिरे का मतलब
अभी भी पूछतीं हूँ सबसे ।
आखिर! पश्चिम दिशा में साँप उगने का क्या मतलब होता है ?
कुछ सपने ,जो गाँव में आते थे
अब शहर की अनिद्रा में भी आने लगे हैं
एक आदमकाय ,सींगवाला जानवर
धुन्धभरी रातों में दौड़ता है
मेरे पैरों में बड़े-बड़े पत्थर बांध देता है कोई उसी क्षण
पैर घसीटे हुये, घुस गयी हूँ अडूस और ढाख के जंगलों में
अब वह जंगल ,जंगल नहीं एक सूनी सड़क है
उस साँय-साँय करती सड़क पर मैं भाग रही हूँ ।
रात को सोने से पहले ही
दिन चक्र की तरह घूम जाता है
आज फिर दूर वाले फूफा जी आए हुये हैं
वे आंखो से ,मेरे शरीर की नाप लेते हुये
अभिनय की मुद्रा मे कहते हैं –
अरे ! तुम इतनी बड़ी हो गयी
मेरे बायें स्तन को दायें हाथ से दबा देते हैं ।
वह डॉक्टरनुमा व्यक्ति फिर आया हुआ है
जो मेरे गाँव की सभी स्त्रियॉं का इलाज करता है
पूछता है –पेशाब में जलन तो नहीं होती
एक प्रश्न हम सभी की तरफ उछालकर
जाड़े की रात में भी ग्लूकोज चढाता है
और रात भर उन औरतों का हाथ
अपने शिश्न पर रखे रहता है
फिर सपने में आते हैं कुछ मुंह नोचवे
जो स्कूल जाती लड़कियों को बस में भर ले जाते हैं
छटपटाहट में नीद खुलती है
मुझे अपना चिपचिपाया हुआ बिस्तर देखकर घिन्न आती है
बीच की छूटी तमाम रातों में डरी हूँ
जिस रात, मैं उन देवताओं से गिड़गिड़ाती हूँ
की अब कोई और सपना मत दों मेरी नीद में
उसी रात ,पता नहीं कब ,कहाँ ,कैसे निर्वस्त्र ही चली गयी हूँ ।
सभी दिशाओं से आती हुयी आंखे मुझे चीर रही हैं
वे मेरी देह पर अनेक धारदार हथियारों से वार करते हैं
मुझे सबसे गहरी खायीं में फेक देते हैं वे
मेरी सांस फूल रही है ,मेरी देह मेरे विस्तार से थोड़ा उठी हुयी है
मैं सबसे पहले अपने कपड़े देखती हूँ ।
बगल में सोयी माँ पूछ रही है – क्या कोई बुरा सपना देखा तुमने
मैं कहती, नही, अम्मा तुम सो जाओ
मैं सोच रही हूँ की, फ्रायड तुम जिंदा होते
तो इन सपनों को पढ़ कर कहते
की यह मनोरोगी है




पिता से

अब अपने  नल में पानी बहुत कम आता है पिता
जब मैं छोटी थी झूल जाती नल के हत्थे से
तब चोटों और जिद्दी इच्छाओं के बीच
अंतर नहीं कर पाती थी पिता
फिर, नल भी इतना गाढ़ कहाँ चलता था
उछलकर कूदती लोटा भर जाता पानी से
अब तो बरसात में भी, नल पानी छोड़ देता है
बरसात भी पहले जैसे कहाँ होती है पिता

अब अम्मा सूरजमुखी मिर्च नहीं लगातीं पिता
खेत की धूल आँगन तक आ जाती है
होली के दिन भैसें
तालाब में नहीं नहलायी जातीं
लड़के रात पिताओं की चोरी से
तालाब पार करने की बाजी नहीं हारते
अब तालाब भी चोरी से मिलने
दरवाजे तक नहीं आता पिता
बारिश में आसमान से मछलियाँ नहीं गिरतीं
आसमान भी पहले जैसा पारदर्शी कहाँ रहा पिता
याद है !
जब पहले किसी साल बारिश नहीं होती
बच्चे इन्द्र से पानी मांगने जाते
द्वार-द्वार पानी  गिरा
उसमे लोटते
इस तरह अपना प्रतिरोध दर्ज करते थे बच्चे
स्त्रियाँ नंगी होकर
आधी रात में हल चलाती
यह उनके प्रतिरोध की अपनी भाषा थी
कहते हैं, इन्द्र गौरैया  भेजते थे  दूत बनाकर
वे आतीं, धूल में नहाकर पानी का आगम दे जातीं
पर अब तो बच्चों का भी भ्रम टूट गया
इन्द्र पानी का देवता था ही नहीं
सच बताओ पिता!
तुमने इन्द्र की झूठी कहानियाँ क्यों सुनाई
धूल मे नहाती चिड़िया
पानी के लिए लोटते बच्चे
किनकी इच्छाओं का परिणाम हैं

ओह! माफ़ करें पिता
मैं भूल गयी तुमसे पूछना
तुम्हारी जंघाओं में घाव कैसे
तुम मरने के बाद भी बूढ़े हो रहे हो
या फिर मेरी स्मृति में
अब क्यों तुम्हारे जाने की याद बहुत कम आती है पिता

ओह पिता !
मुझे जितना शोक तुम्हारे लिए है
उतना ही उन पेड़ों के लिए
जिनसे सूखी कुर्सियाँ और मेंजे बनी
मैं शोक करती हूँ पिता !
आसमान में टंगी मछलियों
इन्द्र से गिड़गिड़ाते बच्चों और
नंगी औरतों के लिए



अधूरा पुल 
जब दुपहरिया कुम्हार के आंवे- सी
तपने लगती है
और धूल आग की तरह गर्म
जब कुत्ते मिट्टी को गहरे खोद
गर्मी से बचने की कोशिश करते हैं
और गोरैया नल के मुहं से लटकर
हांफती है पानी के लिए
तब कुछ तांबई रंग की औरतें
खेत काट रही होती हैं
और कुछ इंसाननुमा लोग
ईंट के भट्ठे पर पक रहे होते हैं
ईंटों से भी गहरा है उनके देह का रंग
कुछ झांवे जैसा
जब कुछ लोग दुपहरिया के डर से
दरवाजा बंद कर अंधेरा कर लेते हैं घरों में
तब कुछ बच्चे भीट की तरफ
लेकर चले जाते हैं अपनी बकरियां
बकरियां चरती रहती हैं
बच्चे पेडचील्हर खेलते हैं
एक दिन ईंट के भट्ठे से भागता है एक आदमी
और बच्चों की गोल में शामिल हो जाता है
खेत काटती औरत छहाने आती है
वह भी बच्चों में शामिल हो जाती है
आदमी औरत मिलकर
बच्चों को सुनाते हैं
लकड़सुघंवा के किस्से
लकड़सुघंवा पीठ पर बोरा लादे आता है
बोरे में छुपाये रखता है
तरह - तरह की लकड़ियां
लकड़ी सुघां वश में कर लेता है बच्चों को
बच्चे जब तक होश में आते हैं
तब तक डाल दिये गये होते हैं
किसी बन रहे पुल की नींव में
सभ्यताओं को जोड़ने के लिए
इसीलिए तो कहते हैं
कि पुल जीवधारी होते हैं
पुल के पांव नहीं होते
वे टंगे रहते हैं बच्चों की पीठ पर
पुल चढ़कर आता है आतातायी
पुल से कवि कलाकार संगीतकार आते हैं
बारातें गुजरती हैं
अर्थियां आती हैं
पुल से पार हो जाती हैं कई- कई पीढियां
बच्चे पुल को पार करते बडे़ होते हैं
खोजते रहते हैं जीवधारी पुल का तिलिस्म
पुल अधूरा ही अटका रहता है उनकी स्मृति में.













हमारे गाँव की विधवाएँ

उधध रंगों में लिपटी औरतें
हमारे गाँव की विधवाएँ हैं।
हमारी दादियाँ चाचियाँ माएँ हैं
जवान भाभियाँ, बहनें हैं
जो उजाड़ ओढ़ अंधेरे में
सिसकियाँ भर रही हैं।
ज्ञान की खोज में जब पोते-पोतियाँ
कहीं दूर जा रहे होते हैं
तो विधवा दादियाँ दूर से ही
अपना प्रेमाशीष हवा में छोड़ देती हैं ।
विधवाएँ टूटी हुई बाल्टियाँ हैं
जिसमें सगुन का जल नहीं भरा जाता।
विधवा हुई माएँ बेटियों के ब्याह में
अपने आंचल से उनका सिर नहीं ढकतीं
बस हारी आँखों से उन्हें निहारती रहती हैं।
मन ही मन क्षमा माँग लेती हैं माएँ
विदा होती बेटियों से
और न जाने किन जंगलों में खो जाती हैं।
शुभ कार्यों से बेदख़ल विधवाएँ
मंगलाचार को रुदन के राग में गाती हैं।
हमारे गाँव की विधवाएँ और बिल्लियाँ एक जैसी हैं
बहुवर्णी स्त्रियाँ कब बनीं विधवाएँ
बिल्लियों में किसने भरे ये रंग
न विधवाएँ जान पाती हैं
न ही बिल्लियाँ।




 जुए की पारियाँ 
छोटे बल्बों की झालरें
बाउंड्री की तरह खींच दी गयी हैं
रोशनी से पाट दिये गए हैं गड्ढे
औरतों के सुर का उतार-चढ़ाव
बच्चों के उल्लास के साथ
शुरू हुयी ब्याह की रश्म
अंधेरी रात मौन साधे
दूर से देखती रही सब

भूत के डर से अम्मा ने
सबके हिस्से का कन्यादान किया
चादर से ढककर भरी गयी माँग
साथ फेरों से बांध दिये गए
सात- सात जन्म

धीरे-धीरे यह रश्म पूरी हुयी
धीमीं पड़ गयी मंत्रोचार की ध्वनि
औरते अपने घरों को वापस जा रही हैं
बच्चे सो गए हैं इधर-उधर
एक दूसरे पर हाथ-पाँव मारे
राख और अधजली आहुतियाँ छोड़कर
देवता गण भी चले गए

अब कोहबर पहुँचकर वह
ब्याह की थकान उतार देना चाहती है
वह बाबा के कोहबर मे जीत लेती है
जुए की सातों पारियाँ
एक और कोहबर जाना है उसे
अभी बाकी हैं जुए की
कई -कई पारियाँ

रोशनी से पाटे गए गड्ढे
सुबह दिखाई देने लगे हैं
निर्वासित अंधेरी रात
सुबह मे घुल गयी है
फेंकी गयी पत्तलों पर
कुत्ते जूझ रहे हैं
पंछियों का झुंड
मडराने लगा है आकाश में

रात का गीत
भोर की जीत
सुबह धीरे-धीरे
बिलाप में बदल रही है ।






 चिट्ठियां
अम्मा के लिए तुम्हारी चिट्ठी
रातों की नींद और
आधा पेट खाए का सुकून थी
मेरे लिए अटक-अटक कर पढ़ा गया शब्द
और भाषा सीखने का पहला उत्साह
जो हर बच्चे को होता है
पिता पूछ भर लेते
कि किसकी चिट्ठी है
और तुम्हारे ठीक-ठीक होने की कल्पना
कर लेते मन ही मन

चिट्ठी में अम्मा बाबू का चरण स्पर्श के बाद
सीधे अम्मा से संवाद था
संवाद में कुछ सवाल,शुभेक्षा और
अन पहचाना शिकायती लहज़ा था
‘की पिता की तवियत कैसे रहती है
छोटी स्कूल जाती है की नहीं
पढ़ने में मन तो लगता है उसका न
बड़की सखी आयी थीं की नहीं
अभी भी अबोला है उनके घर से
बेचारी ! बेटे के इंतजार में सात-सात बेटियां
झेलगां हो गयी उसकी देह
अरे हाँ अम्मा !
अब मैं भी पूर्ण हुयी
तुम्हे बेटी के बांझपन का ताना
अब नहीं मिलेगा
लिखना कम समझना ज्यादा
तुम्हारी बेटी ‘....

अम्मा की आँखे चमकी थीं
पिता हर बार की तरह शांत
दोनों के चहरे का भाव देख
मैं और अटक गयी थी शब्दों में
अर्थ तो मेरी पकड़ से खिसक कर
बहुत दूर छिटक गया था
मैं खुद भी फिसल गयी थी शब्दों की रास से

मुझे पता होता यह चिट्ठी जहाँ खतम होती है
वही से शुरू होता है तुम्हारा जीवन
की समझना ज्यादा एक वाक्य भर नहीं
तुम्हारी पूरी कहानी है
पता होता की इन शब्दों में कैद हैं तुम्हारी चीखें
तुम्हारे ही शोक का उत्सव मनाएंगे हम सब
की यह सृष्टि जो अनवरत चल रही है
तुम खींच रही हो उसे
गुलामों-सी मूकता लिए
की आशीर्वादों में शाप दिया था
हमारे पुरखों ने तुम्हे
तो मैं साफ-साफ पढ़ती उन चिट्ठियों को
सबको बताती कि-
मेरे लिए प्यार नहीं
खुद के लिए याचना थी
हाँ बताती सबको-
की लड़कियों की चिट्ठियां
चिट्ठियां नहीं
ठोस शिल्प में लिखा
शोकगीत होती हैं









 हाँ शर्तों पर टिका है मेरा प्रेम
मुझसे प्रेम करने के लिए
तुम्हें शुरू से शुरू करना होगा
पहले पैदा होना होगा एक स्त्री की कोंख से
उसकी और तुम्हारी धड़कन
धड़कनी होगी एक साथ

मुझसे प्रेम करने के लिए
संभल कर चलना होगा हरी घास पर
उड़ते हुए टिड्डे को पहले उड़ने देना होगा
पेड़ों के पत्ते बहुत जरुरत पर ही तोड़ना होगा
की जैसे आदिवासी लड़के तोड़ते हैं
फूलों को नोच
कभी मत चढ़ाना देवताओं की मूर्तियों पर

मुझसे प्रेम करने के लिए
तोड़ने होंगें नदियों के सारे बांध
एक्वेरियम की मछलियों को मुक्त कर
मछुआरे के बच्चे से प्रेम करना होगा
करना होगा पहाड़ों पर रात का विश्राम

मुझसे प्रेम करने के लिए
छाना होगा मेरा चूता हुआ छप्पर
उस पर लौकियों की बेले चढ़ानी होंगी
मेरे लिए लगाना होगा एक पेड़
अपने भीतर भरना होगा जंगल का हरापन
और किसी को सड़क पार कराना होगा

मुझसे प्रेम करने के लिए
भटकी हुयी चिठ्ठियों को
पहुँचाना होगा उनके ठीक पते पर
मेरे साथ खेतों में काम करना होगा
रसोई में खड़ा रहना होगा एक पाँव पर
मेरी ही तरह
विस्तर पर तुम्हे पुरुष नहीं
मेरा प्रेमी होना होगा
हाँ शर्तों पर टिका है मेरा प्रेम
मुझसे प्रेम करने के लिए
अलग से नहीं करना होगा मुझसे प्रेम .




यह नया साल
कल आने वाले नए साल में
कुछ लड़कियाँ तीस साल की हो जाएंगीं
इस उम्र में लड़कियाँ लेंगी
कुछ छोटे-बड़े फैसले
यह तीस की उम्र
कुछ के प्रेम संबंधों के
टूटने की उम्र होगी
उनके भीतर एक हूक उठेगी
जो बाहर सिसकियों में बदल जाएगी
एक दिन उठेंगी वे
आंखे बंद करेंगी
और जी कड़ा करके
प्रेमी को लिख भेजेंगी करारा जवाब
कुछ चुनेंगी शाम का अकेलापन
और ऊबी हुयी रातें
कुछ अपनी ही पराजय को
उत्सव में बदल
हँसेंगी ठठाकर
कुछ तीस तक पैदा कर चुकी होंगी
तीन –तीन बच्चे
आपरेशन की जगहों से
रिसता रहेगा मवाद
मेरे लिए यह तीस की उम्र
अपराधबोध की उम्र होगी
मेरे कुछ न कर पाने की सजा
मेरी छोटी बहनों को मिलेगी
मेरे चेहरे की कम होती चमक
स्तनों का ढीला होना
वितृष्णा का विषय होगा
और आनन-फानन में
ब्याह दी जाएँगी कम उम्र की बेटियाँ










माँ के लिए 
जब कभी
माँओं के प्यार-दुलार की बात चलती है
थोड़े से बच्चे चहकते हैं
बाक़ी सब उदास हो जाते हैं।
उन उदास बच्चों के साथ खड़ी मैं
याद करना चाहती हूँ अपनी माँ का स्पर्श।
मुझे याद आती हैं उसकी गुट्ठल खुरदुरी हथेलियाँ
नाखूनों के बगल निकले काँटों-से सूतरे
जो कई बार काजल लगाते समय
आँख में गड़ जाते थे।
सिंगार पटार के बाद माथे पर बड़ी तेजी से
टीक देती थी एक काला टीका
जिसे न जाने प्यार से लगाती थी या गुस्से से।
सोचती हूँ याद करूँ
वो थपकियाँ जो माँएँ बच्चों को देकर सुलाती हैं,
देखती हूँ, वह चरखे के सामने बैठी
एक हाथ में रूई की पूनी पकड़े
दूसरे को
चरखे की घुण्डी पर टिकाए
उझक उझक कर सो रही है।
अब भी मेरे घर में मेहमानों के लिए जो सबसे सुंदर
चादर और दरियाँ हैं, उसके रेशे रेशे में
माँ झपकियाँ ले रही है
देर रात तक चरखा चलाती, ऊँघती माँ
दिन में भी तकली की तरह घूमती रहती
पाँवों में ढेरों गुरखुल छुपाए
कंकड़ पर पाँव पड़ते ही वह चीखती और ठंडी पड़ जाती।
माँ नहीं याद आती कभी माँ के रूप में
याद आती है चूल्हे की धुधुआती लकड़ियाँ
जिसे वह अपनी फूँक से अनवरत
सुलगा रही है ।
देख रही हूँ, माँ अपनी छोटी-सी गुमटी में बैठी
फरिश्तानुमा बच्चों का इंतिज़ार कर रही है
जहाँ दिन में एक दो बच्चे अपने घरों से
एकाध सेर गेहूँ चुरा लाते हैं
वह उन्हें हड़बड़ी में कुछ चूस नल्लियां पकड़ा देती है
इस समय सबसे ज़्यादा भयभीत दिखती है
वह उंकड़ू बैठी माँ।
माँ नहीं है माँ
वह चरखा तकली अटेरन है
भोर का सुकवा तारा है वह
जिससे
नई दुलहने अपने उठने का समय तय करती हैं।
माँ चक्की से झरने वाला पिसान है जिससे
घर ने मनपसंद पूरियाँ बनाईं।
अब वह एक उदास खड़ी धनकुट्टी है जिसके
भीतर की आवाज़ कहीं नहीं पहुँचती
अपने ही जंगलों में गूँज कर बिला जाती है।
यह कई बेटियों बेटों और पोतों वाली
हमारी पैसठ साला माँ के लिए
मर्सिया पढ़ने का समय है



 परिचय -
नाम -अनुपम सिंह 
इलाहबाद विश्ववविद्यालय से बी  ए ,एम  ए
दिल्ली विश्ववविद्यालय से पी एच डी
कुछ कविताएँ  विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित 



चित्र गूगल से साभार 

1 टिप्पणी:

  1. 'हम औरतें हैं मुखौटे नहीं, आसान है हमें मनोरोगी कहना और हाँ शर्तों पर टिका है मेरा प्रेम'---कविताएँ अदभुत लगी | और मुखौटे तो जाने कितनी बार पढ़ गई और उतनी ही बार हड्डियों में सिरहन हुई जैसे....कितना कुछ कहती हैं इनकी सारी कविताएँ...दृश्यबंध बांधती हुई चलती जाती हैं और फिर अन्दर में जैसे पालथी मार कर बैठ जा रही हैं....कुरेदने के लिए अन्दर तक...
    अनुपम जी को बहुत बहुत साधुवाद बेहतरीन कविताओं के लिए

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