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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 सितंबर, 2019

फिर गाँधी चाहिए

डॉ.अजय तिवारी
 
गाँधी ने जिस देश को भयमुक्त किया था, वह आज फिर भयग्रस्त मानसिकता का बंदी है. यह भय बहुत-सी काल्पनिक आशंकाएँ पैदा करता है. आशंकाएँ हमें कायर और क्रूर एक साथ बनाती हैं. वे भयग्रस्त कायर लोग हैं जो कभी बच्चाचोर मानकर, कभी गोहत्यारा मानकर किसी निरीह-निर्दोष नागरिक के साथ क्रूरता का बर्ताव करते हैं. गाँधी जिस भय से लोगों को मुक्त कर रहे थे, वह १९१९-२० में डेढ़ सौ साल के अंग्रेजी दमन से बद्धमूल हुआ था. सौ साल बाद आज हमारा समाज जिस भय से ग्रस्त है, वह राजनीति द्वारा सधे हुए मनोवैज्ञानिक युद्ध की रणनीति से पैदा किया गया है—देश की असुरक्षा का भय, समाज में फैले गद्दारों का भय, और इसके लिए अपने ही समाज के एक हिस्से को शत्रु की तरह प्रचारित किया गया है. यह सब तर्क-बुद्धि को निकालकर केवल उत्तेजना का सहारा लेकर किया जाता है. अन्यथा एक ओर देश के सशक्त होने का डंका बजाना, दूसरी ओर देश के खतरे से घिरे होने का भय जगाना, दोनों परस्पर-विरोधी बातें साथ-साथ चल नहीं सकतीं. गाँधी ने लोगों को भयमुक्त करते हुए बड़े-बड़े आन्दोलनों का सूत्रपात किया था, इसके लिए उन्होंने ‘खादी’ के रूप में राष्ट्रीयता का और ‘चरखा’ के रूप में स्वदेशी का प्रतीक निर्मित किया था; लेकिन आज बिलकुल भिन्न उद्देश्य से आन्दोलनों का उपयोग करके ‘आस्था’ और ‘शत्रु’ के प्रतीक निर्मित किये गए हैं—मंदिर और मुसलमान. गाँधी की वैष्णव आस्था ‘पीड पराई’ से परिभाषित होती थी, आज ‘हिंदुत्व’ की आस्था परपीडन में व्यक्त होती है. इसलिए एक का परिणाम समाज को जाग्रत करना था, दूसरे का उत्तेजित करना.
 
यह अलग बहस है कि आज ‘आस्था’ का लोगों के वास्तविक जीवन से संबंध है या नहीं; उनकी हजारों वर्षों की जीवन-पद्धति और विश्वास प्रणाली से उसका संबंध है या नहीं; इससे हमारे विशाल देश की सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता की बलि तो नहीं चढ़ रही है? गाँधी ने स्वाधीनता के स्वप्न को लोगों के जीवन का यथार्थ बना दिया था जिसके लिए वे सर्वस्व निछावर करने को तैयार थे. हम अपने समय में जिन कल्पनाओं को आस्था का विषय मान बैठे हैं, उनका न सामाजिक समस्याओं से लेना-देना है, न मानवीय मूल्यों से. संयोग नहीं है कि इस समय गाँधी के हत्यारे को गौरवमंडित किया जाता है. हम देखते हैं कि गाँधी के प्रभाव से लोग आत्मबलिदान के लिए तैयार होते थे, किसी की हत्या के लिए नहीं और इसे ही सच्ची वीरता मानते थे; लेकिन गाँधी के हत्यारे के महिमामंडन के समय हम दूसरे की हत्या को वीरता मानते हैं, आत्मबलिदान को कायरता. दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के समय एक पठान ने गाँधी को लिखा था कि अपने स्वभाव के विपरीत निर्दय पिटाई के बावजूद हमने हाथ नहीं उठाया, आपका यही आदेश है न!
 
गाँधी का कहना था, युद्ध से युद्ध को, हिंसा से हिंसा को और भय से भय को नहीं मिटाया जा सकता. वर्तमान संसार इस बात की सत्यता का उदाहरण है. इसीलिए वे प्रतिशोध को नहीं, प्रतिरोध को अपनी रणनीति बनाते थे. प्रतिरोध का लक्ष्य विरोधी को परस्त करना नहीं, परिष्कृत करना था. दूसरों को हम तभी परिष्कृत कर सकते हैं, जब स्वयं उन दोषों से मुक्त हों. इसलिए गाँधी की हर कार्रवाई एक सिरे पर अपने समाज या व्यक्तित्व के सुधार से जुडी होती थी, दूसरे सिरे पर सार्वजनिक जीवन से. गाँधी जिन अंग्रेजों से लड़ रहे थे, वे विदेशी थे. गाँधी कहते थे कि अँगरेज़ व्यावसायिक स्वार्थों के कारण भारत को गुलाम बनाकर रखना चाहते हैं. इस गुलामी को कायम रखने के लिए उन्होंने दमन और आतंक से भारतवासियों को भयभीत किया था. हमारे वर्तमान शासक देशी हैं, लेकिन वे ‘आस्था’ जैसी पवित्र चीज़ को अपने ही समाज के एक अंग के प्रति आक्रामक बनाकर घृणा के ज़रिये यह भय उत्पन्न कर रहे हैं. गाँधी को विदेशी सत्ता के विरुद्ध पूरे भारतीय जनमानस को एकजुट करना था, इसलिए वे उन्हीं मुद्दों को चुनते थे जो अधिकांश जनता के हितों से सरोकार रखते थे. वर्तमान शासकों को सत्ता में रहने के लिए समाज के एक हिस्से का समर्थन चाहिए, इसलिए वे समाज के एक हिस्से को ‘गौरव’ से उकसाते हैं, दूसरे हिस्से को ‘शत्रु’ के रूप में चित्रित करके ध्रुवीकरण करते हैं. संभव है, गाँधी ‘चतुर बनिया’ रहे हों, पर यह एक कुटिल रणनीति है.
 
गाँधी जब भय का प्रतिकार करते थे तो लोग न आपस में डरते थे, न शासन से डरते थे, न खुद गाँधी से डरते थे. लेकिन आज जिस हिस्से के ‘गौरव’ को उकसाया जाता है, वह कम भयभीत नहीं है. रोज़गार, महँगाई, असुरक्षा और अनिश्चित भविष्य को लेकर वह जिन दुःशंकाओं में फँसा है, वे समाधान न पाकर काल्पनिक छायाएँ उत्पन्न करती हैं. इन दुःशंकाओं को मोड़कर एक काल्पनिक शत्रु के खिलाफ सक्रिय करने का काम एक पूरी व्यवस्था करती है, पूँजी-मीडिया-राजनीति की संगाहित प्रणाली. भय को एक समुदाय की ओर मोड़कर नफ़रत का संचार करना आसान हो जाता है, इस नफ़रत से भरे लोगों को गर्व की अनुभूति करायी जाती है. ‘गर्व से कहो...’ जैसे नारे अभी याद होंगे. गाँधी जिन पूर्वाग्रहों से लड़ रहे थे, उन्हीं पूर्वाग्रहों को पुनर्स्थापित करने की वर्तमान प्रक्रिया इतिहास की प्रगति का सूचक नहीं हो सकती. याद करें, मैरिट्सबर्ग रेलवे स्टेशन पर गाड़ी से उतारे जाने के बाद वहाँ रात भर बैठे हुए गाँधी ने गोरों में जड़ीभूत उन नस्लवादी संस्कारों को निर्मूल करने का संकल्प लिया था. आज उस तरह के मृत संस्कारों को उससे भी प्रबल पूर्वाग्रहों के साथ जनमानस में बिठाने का अभियान चलाया जाता है. इस अभियान में राजनीति, संचार माध्यम, दिन-रात प्रचार में जुटे भाड़े के टट्टू, सब शामिल हैं. वास्तव में यह समाज के विरुद्ध निहित स्वार्थों का युद्ध है. जबकि गाँधी निहित स्वार्थों के विरुद्ध समाज का युद्ध लड़ रहे थे.
 
गाँधी ने पूर्वाग्रहों से लड़ने के लिए सत्याग्रह का तरीका अपनाया था. सत्याग्रही के लिए विरोधी भी शत्रु नहीं होता. उसका उद्देश्य ही रचनात्मक है—अपना और दूसरे का परिष्कार. इसलिए सत्याग्रह केवल राजनीतिक हथियार नहीं था, नैतिक साधन भी था. यह संयोग नहीं है कि जिस तरह की आत्मसाधना और समाज-सुधार का सामंजस्य भक्त कवियों में दिखाई देता है, उसी का पुनराविष्कार आधुनिक सन्दर्भ में गाँधी ने किया. पूर्वाग्रहों को उकसाने की जो राजनीति आज की जाती है, उसमें आसपास के लोग भी शत्रु मान लिए जाते हैं, अजनबियों की कौन कहे! भय के कारण कहीं और विद्यमान हैं लेकिन उन्हें पृष्ठभूमि में करके अपने आसपास शत्रु के होने का भय लोगों में असुरक्षा की भावना जगाता है. ऐसा मनोविज्ञान आदमी में छिपी क्रूरता को सक्रिय कर देता है. वह किसी भी सीमा तक हिंसक हो जाता है. ऐसी एक कार्रवाई व्यापक भय का वातावरण बनाती है, ‘शत्रु’ को भयभीत करती है. यह नहीं सोचा जाता कि जैसे हमारा भय क्रूर बनाता है, वैसे ही यदि भयभीत समुदाय का भी रूपांतरण प्रतिहिंसा में हुआ, तब? गाँधी सही कहते थे, हिंसा से हिंसा उपजती है, क्रूरता से क्रूरता. ‘आस्था’ वाले यह बात न सोचें, इसके लिए अस्मिता या ब्रांड की रणनीति द्वारा एक आख्यान तैयार किया जाता है जो आसानी से जगह बना ले. गाँधी का आख्यान इसके विपरीत था. वह समाज को विखंडित करनेवाला नहीं, उसे एकताबद्ध करनेवाला था. मानवीय प्रेरणा और आत्मिक शक्ति का आख्यान. इसलिए आज गाँधी फिर ज़रूरी हो गए हैं. शायद पहले से अधिक।


('राष्ट्रीय सहारा' से साभार)

1 टिप्पणी:

  1. उन्हे पता है गाँधी के आते ही उनका मैदान साफ हो जायेगा। सपने में भी ना आये गाँधी कुछ ऐसे इन्तजामात कर दिये जायेंगे।

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