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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

06 अक्तूबर, 2019

सुनीता डागा की कविताएँ

सुनीता डागा


(1)
भले ही दिमाग से उतर जाएँ लोग
दिमाग खाली नहीं होता है
बहुत कुछ भरा हुआ होता है दिमाग में
अनगिनत सवाल, प्रतिशोध, ईर्ष्या,
राग-द्वेष
कूड़ा-करकट...

दिमाग से उतरे लोग पड़ते जाते हैं
हमारी स्मृतियों में क्षीण
उनकी धुंधली होती जाती यादें
नहीं खड़े करती हैं कोई प्रश्न
जैसे-जैसे उतरते हैं लोग दिमाग से
मन हल्का हल्का होता जाता है

मुश्किल तब होती है
जब मन से उतर जाते हैं लोग

मन से उतरे लोग
क‌ई-क‌ई सवालों के घेरे में
उलझाकर
चुप्पी साध लेते हैं
पीड़ा व उदासी की निशानियाँ
गहरे घाव कर जाती हैं
उनके ज़ख्म रिसते रहते हैं
मन के अंधियारे तहखाने में
और
हमें पता भी नहीं चलता है कि
मन से उतरे लोग
कब घर कर जाते हैं
हमारे दिमाग में ।



(2)
तुम चाहते हो कि
रोज एक कविता लिखूँ तुम पर मैं
उन पंक्तियों में बजाय मुझे ढूँढने के
तुम सहलाते हो अपने अहं को
बड़ी सहजता से
आहट मिल जाती है तुम्हें कि
कितना रोई हूँ मैं रात-भर
तुम्हारी याद को ओढ़कर
गुज़ार दी है मैंने सारी रात
अकेलेपन से लड़ी हूँ
क‌ई- क‌ई बार

नहीं माँगती है मेरी कविता
तुमसे कोई जवाब
सारे उत्तरदायित्वों को दूर रखकर
चुपचाप सिमटी हुई होती है
कितने सुरक्षित होते हो तुम

मुस्कुराहट से भरकर
इस कविता को परे रखते हो तुम
तैयार रहते हो न‌ई कविता के इंतज़ार में

नहीं जानते हो तुम
तुमसे शुरू हुई मेरी हर कविता
अंत में खत्म होकर
एक नई राह बनाती है मेरे ही लिए

हर दूसरा दिन
तुम्हारे लिए एक नई कविता
मेरे लिए रोज़ खुलती
कोई नई राह



(3)
एक ही छत के नीचे रहकर
मृत हो चुके रिश्तों के कलेवर को
संभालने की जद्दोजहद
और
अपनी-अपनी आँकी हुई
सीमा रेखा के भीतर
ठंडे पड़े हुए कलेवर को
सजाकर
सुरक्षित रखने के लिए
की हुई मशक्कत
जैसे हो कोई ममी...

सब कुछ अच्छा चल रहा है
इस भ्रम को पाले
इत्मीनान से रहते हुए
कल रात में देर से
घर लौटने पर
उसके माथे पर पड़े हुए बल देखकर
एक अंदेसे से विस्मित-सी वह
सोचने लगी
अच्छा!

इस कलेवर में है
कोई धुगधुगी अभी
बची हुई है बाकी !



(4)
अच्छी तरह से उलट-पलट कर
इधर-उधर से देखभाल कर
बारीकी से निहारती रही वह
बेलनों को
छोटे-बड़े पतले-भारी
अभी हाल ही में आए
नए-नए नमूनों के 
कई बार बेलकर देखा
पूछती रही दुकानदार से
कई-कई प्रश्न

बेलनों में पड़ी कुछ ही खरोचों से
परेशान थी वह
शिकायत भरे स्वर से कहने लगी कि
इनसे बिगड़ सकती है उसकी रोटी
माथे पर चिंता के बल लिए
खड़ी रही वह देर तक
उकताये दुकानदार ने अन्य ग्राहकों की ओर
ध्यान देने में समझी भलाई
और
सारी दुनिया से बेखबर वह
मग्न हो गई एक अच्छे बेलन की तलाश में...

बेली है उसने अब तक
कई-कई महीन पतली
रेशम-सी मुलायम रोटियाँ
बिना इसकी फ़िक्र के कि
कब की बिखरी टूटी पड़ी है एक कोने में
उसके अपने जीवन की बिगड़ी रोटी
जिसे कोई भी मुँह नहीं लगा पाएगा 
नहीं ढूँढ पाई है वह अब तक
अपने लिए कोई अच्छा-सा बेलन

मग्न थी वह पूरी दुनिया से बेखबर
एक मनचाहे बेलन की तलाश में...


2 टिप्‍पणियां:

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  2. बहुत प्रभावी और मर्मस्पर्शी कविता ओं के लिए कवयित्री को बहुत-बहुत बधाई। ब्लॉग के संपादक जी का आभार, धन्यवाद।

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