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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

17 जून, 2020

दस कविताएँ : डॉ हरिओम





हरिओम





1. तमाशे


चूहे के पीछे दौड़ती है बिल्ली
बिल्ली से आगे भागते है चूहे
आगे पीछे चकर-मकर
छाती पीट नाचते भालू रीछ गोरिल्ले
उछलते बात-बेबात
करतबी बन्दर
बिराते मुंह घुमाते आँखें
लगाते जयकार मुर्दाबाद हर-हर
डम-डम धूम-धड़ाम
ठूँ-ठांय ढिशुम-धांयआंय-बांय-शांय
ध्यान खीचने के लिए
क्या-क्या करता मदारी
आते-जाते रुकते तमाशबीनबुद्धिमान,ख़बरबाज़
खींचते तस्वीरें करते चकल्लस
लिखते लेख-कुलेख
बनाते फ़िल्में भेजते इधर-उधर रोमांच से भर
सेठ-साहूकार हाकिम-हुक्कामज़मींदार
पंडित-इमाम मुन्सफ़-मोतबर
देते नंबर तालियाँ पीटखीसें निपोर
इतिहास भूगोल सब उलट-पलट गोल-मटोल

बरबस उम्मीद की आंड में ताकते
आंची-खांची ब्योपारी-मजूर
नौकरीपेशा-किसान
मदारी ज़रूर बेचेगा
मर्दाना जोश बढ़ाने वाली जड़ी-बूटियाँ
तिलिस्मी ताबीज़ तेल संडा का
आखीर में जंतर-मंतर पर
कि अचानक मदारी फूकता है मंतर
और खोल देता है बंद पिटारे का मुंह
बेतहाशा बढ़ता है शोर चिल्ल-पों
तिड़ी-बिडी तमाशबीन
सब तितर-बितर
पिटारे से निकल चारों ओर फ़ैल जाते हैं
सांप-बिच्छूगोजरकीट-पतंगखर-मकर

मदारी समेटता है अपना सामान
और हो जाता है छूमंतर
बिल्ली सौ चूहे खाकर फटकारती है मूछें
जाती है हज
बाक़ी सब चूहे अपनी बिलों में घुस
करते हैं इधर उधर ताक-झाँक
मुल्क की फ़िज़ा में देर तक
तैरता रहता है ये सवाल   
कि ‘ऐसा कब तक चलेगा’
   



2. टोपियाँ

उन्होंने अपने लिए तय की हैं
अलग-अलग टोपियाँ
टोपियों के लिये क्या-क्या नहीं किया उन्होंने
कुछ ने इतिहास के अँधेरे तहख़ाने खंगाले
जाति-धरम की उर्वर धरती
कईयों ने त्याग-बलिदान संघर्ष
ध्यान-तप-अध्यात्म के बाने से बुनी टोपियाँ
कितनों ने निचोड़ डाला दुनियां भर के फूल-पत्तों का रस
और रंग डाली अपनी बदरंग टोपियाँ

कुछ टोपियों की तलाश में जा पहुन्चे आकाश पर
और नोच लाये चाँद टोपी
जिन्हें कुछ समझ नहीं आया
उन्होंने दूसरों की टोपियाँ चुराईं
और लिख डाला अपना नाम एक दिन

इतना होने पर भी
तमाम ऐसे हैं जिनके सिरों पर नहीं है कोई टोपी
उनपर कभी भी टूट पड़ सकता है पहाड़
या उनके सर किये जा सकते हैं कलम कभी भी
क्योंकि इस टोपी समय में
टोपियाँ सुरक्षा की पहली शर्त है

ये दुनिया एक बार फिर से
दो हिस्सों में बाँट गई है-
टोपीबाज़ों और ख़ाली सर वालों में

टोपियों के बारे में सोचना इस आपद समय में
दरअसल अपने सरों के बारे में सोचना है
और यह जानना वाकई एक गूढ़ जानना है
कि टोपी वाले ख़ाली सर वालों को
कबकहाँकैसे पहनाते है टोपी

टोपियों के बारे में सोचना
सिर्फ अपने सरों के बारे में सोचना नहीं है
यह दरअसल सरपरस्तों के बारे में सोचना भी है




3. उन्हें वक़्त लगेगा

उन्हें वक़्त लगेगा
जबतक की सारे जंगले काट नहीं दिए जाते
ढाह नहीं दिए जाते पहाड़ सब
जब तक कि ज़हरीली न हो जाएँ
सारी नदियाँ
पकड़ी न जाएँ सारी मछलियाँ

उन्हें वक़्त लगेगा
जब तक बचे हैं खेत
जब तक बची है एक भी मुट्ठी रेत
बचे हैं तेलखनिजगैसलवण
और नमीं के टुकड़े
धरती की कोख में कहीं

उन्हें यह समझने में वक़्त लगेगा कि
लोभ से प्यास नहीं बुझेगी
और पैसों को खाया नहीं जा सकेगा
आखिर में  





4. हमें प्यार करना था

हमें काटने नहीं थे पहाड़
नहीं खोदनी थीं नदियाँ
उगाने नहीं थे जंगल कहीं
हमें कोई सागर नहीं तैरना था
हमें प्यास के अलंघ्य मरू नहीं करने थे पार कभी
हमें पहाड़ोंजंगलों वगैरह के नाम से
रोमांचित होना था  

हमें नहीं बसाने थे
युद्धों से बरबाद हुए नगर
नहीं लड़नी थी भूख के ख़िलाफ़ कोई जंग
हमें हिंसा और खौफ़ के रिवाज़ से
नहीं होनी थी कोई परेशानी
हमें अपने दौर के बेचैन करने वाले सवालों पर सोचते हुए
सिर्फ उदास होना था

हमें अपनोंबेगानों की
बारीक पहचान करनी थी
हमें फूलों की बात करनी थीं
चढ़ते सूरज और उतरते चाँद की बात करनी थी
हमें एक घर बनाना था
और उसकी खिड़की से
दुनियां के आँगन में झांकना था
हमें ठंडी रातों और गर्म दिनों से बचना था
हमें एक-दूसरे की आँखों से दर्द चुराना था
हमें आसमान की ओट में रोना था
और फिर धरती का लिहाफ़ ओढ़ सो जाना था

हमें प्यार करना था


  

5. प्रेम

प्रेम एक धारदार हथियार है
जिसकी मूठ तुम्हारे हाथ में है
और नोक मेरे सीने में
हमने एक-दूसरे को गले लगा रखा है
हमने हमेशा से
ऐसी ही ज़िन्दगी चाही थी
और ऐसी ही मौत
दरअसल प्रेम में मर जाना ही तो जीना है


  


6. उस शहर के लिए

कुछ लम्हें
उस शहर के लिए
जहाँ बाहें फैलाए 
रातें करती हैं शामों का इंतज़ार
और दोपहर बाद खिड़कियों पर उतरती हैं
अलसाई सुबहें
जहाँ समय इतना तरल है
कि मुश्किल है बांटना उसे
रात दिन सुबह और शामों में

कुछ बातें
उस शहर के लिए
जहां असंख्य दरवाजों से होकर
पहुँचता है इतिहास
और खो जाता है
किलों मीनारों महलों और मेहराबों में
जहां चांदनी इतनी चटख है
और हवाएं इतनी बातूनी
कि सदियों पुरानी बातें भी ऐसे लगती हैं
जैसे तुमने अभी-अभी
कानों में कुछ कहा हो  

कुछ रंग
उस शहर के लिए
जहां देगों कड़ाहियों मटकों और सुराहियों से
झरती है स्वाद की रेशम
जहां मिलते हैं सुनहरे आम
नारंगी संतरे और सुर्ख तरबूज
जहाँ काले नक़ाब की आड़ से
झांकती हैं
मोती की तरह सुन्दर स्त्रियाँ
और फिर डूब जाती है
घर-गृहस्थी के मामूली तक़ाज़ों में
जहां नज़र भर
दिखते हैं सिर्फ़ लोग ही लोग
जिनके होंटों पर
गरम हवा के बावजूद
बची हुई हैं उम्मीद की कत्थई मुस्कानें


कुछ फूल
उस शहर के लिए
जो उमस भरी रातों में उगता है
निरभ्र तारे-सा जगमग
और तैर जाता है बादलों की तरह
उदास आखों में अनायास
जो चम्पई गजरे की तरह घुलता है साँसों में
और फिर बिखर जाता है थिर
सागर की बेचैन हथेलियों पर चुपचाप
जहाँ सपने सच्चाइयों को
ऐसे घेरते हैं
जैसे दिमाग़ को घेरता है नशा

कुछ धूप
उस शहर के लिए
जिसके बारे में
अल्बरूनी और ह्वेनसांग से भी ज्यादा
जानता है एक रिक्शेवाला
और जिसकी बरकत के लिए
किसी हाकिम से ज़्यादा फ़िक्रमंद है वो फ़कीर
जिसकी चौखट चूमते हैं
कबूतर हज़ार
गाते अबूझ गान फड़फड़ाते पंख
तोड़ते साए सन्नाटों के
लिखते इबारतें अमन की
नफ़रतों के आकाश पर    
बिना थके हारे

कुछ दुआएं
उस शहर के लिए
जिसके उजालों में है हमारा अक्स
और जिसके अंधेरों में है 
हमारी चाहतों का संगीत
जिसकी हवाओं में
सदियों तक तैरती रहेगी
हमारे ख्यालों की ख़ुशबू
वह शहर जो अब हमारा भी उतना है
जितना किसी दूसरे का
जो उसके दामन में पीढ़ियों से आबाद है

एक ऐसे समय में
जहाँ ख़ुद के अलावा
कुछ और सोचने का चलन नहीं है

मेरे दोस्त
आओ साथ मिल उसकी सलामती की दुआ करें
आओ अपने पाकीज़ा चुम्बनों से
उसकी नज़र उतारें
आओ ले चलें उसे अपने साथ
जहां तक साथ चल सके इतिहास
साथ चल सकें स्मृतियाँ


  

7. अब तुम नहीं हो

हमारे इतिहास में
बहुत कुछ नहीं था

एक पल था वो
जब मैं तुम्हें देख रहा था
तुम चाँद को
चाँद सूरज को
और सूरज जाने किसे देख रहा था

एक पल था वो
जब मैं तुममें खोया था
तुम तारों में
तारे आसमान में
और आसमान जाने कहाँ खोया था

एक पल था वो
जब मैं तुम्हारी आँखों में उलझा था
तुम बातों में
बातें नीम सर्द हवा में
और हवा जाने कहाँ उलझी थी

हमारे इतिहास का एक दौर
वह भी था

जब मेरी दुनिया में
सिर्फ़ तुम थी
तुम्हारी बातें थीं
चाँद-तारेसूरज और आसमान थे
या फिर थी नीम सर्द हवा

और अब कितना कुछ है
सब तरफ़
मेरी सुबहों और शामों में उलझी
एक पूरी दुनिया है
जिसकी अपनी बेशुमार उलझनें हैं  

फ़िलहाल ये बताना मुश्किल है
कि अब मैं किसे देखता हूँ
कहाँ खोया हूँ
किसमें उलझा हूँ

अब तुम नहीं हो.

   

8. बात सुननी ही पड़ेगी

असलहों से लैस थे वे
त्योरियाँ उखड़ी हुईं नारे चुभीले
गालियाँ नश्तर सरीखी थीं जुबां पर
हाथ में बल्लम-छुरे थे चमचमाते
और कुछ हाथों में थे जलते लुकाठे
कूदते और फांदतेसब तोड़ते 
आतंक का बम फोड़ते
वे धड़धड़ाते आ घुसे निर्जन सदन में
और फिर खोजी नगाहों से तलाशे जा रहे थे कुछ
उचककर व्यग्र-विह्वल

था वहां कोई नहीं उनके सिवा
फिर कौन था उस रात की वीरानियों में जो छिपा
जिससे उन्हें प्रतिशोध लेना था
या जिससे भय था उनको

वे उलटते जा रहे थे कुर्सियां-मेज़ें
पलटते जा रहे थे माल और असबाब सब
आक्रोश के अतिरेक में
दीवार पीटे जा रहे थे

फिर उन्हें वह मिल गया
जिसकी उन्हें दरकार थी
वे थीं किताबेंहस्तलिपियों के ज़खीरे
जिनमें थे सपने सुनहरे
आतिशी जज़्बात कितने जगमगाते
और थीं इंसानियत का मर्म समझाती हुई बातें कई
कुछ शांति के सन्देश
जिनमें शक्ति थी दुनिया बदलने की
पलटने की हुकूमत आतताई
और रचने की इबारत इश्क़ की
जो तोड़ सकती थी हदें
फ़िरकापरस्तीज़ात-मज़हब की गंठीली

था उन्हें ख़तरा बहुत इससे
जलाना चाहते थे वे समूची ये विरासत
इल्म और तहजीब की
चिंदियों में वे उड़ाना चाहते थे ये धरोहर
प्यार कीइंसानियत कीआपसी एतबार की
अपनी सनक की रौ में बहकर
चीखकरधमका-डराकरमार कर
उनको कि जो सहमत नहीं होते थे डरकर

कौन समझाए उन्हें आखिर
कि है आसां नहीं ये जंग
ये संग्राम कल भी था
रहेगा कल यक़ीनन
फ़ैसला जिसका नहीं होगा सितम से
असलहों से और बम से
बात करनी ही पड़ेगी
बात सुननी ही पड़ेगी


  

9. वो डरे हुए हैं

वे सबसे ताक़तवर हैं
दुनिया के जाबिर हैं
मगर वे डरे हुए हैं
सबसे कमज़ोर मुल्क़ों,क़ौमों और मज़हबों से  

वे तमाम चेहरोंनामोंभाषाओं-लिबासों
यूँ कि दुआ के तरीक़ों
और प्रार्थना की भंगिमाओं से भी
डरे हुए हैं  

वे दुनिया में ज्ञान-विज्ञानतकनीक-आविष्कार
विचार और विमर्श के चौधरी हैं
लेकिन वे इन सबसे ही डरे हुए हैं

वे जबकि
पर्वतों-जंगलों-सागरों और
मौसमी बदलाओं को अपनी मुट्ठी में रखते हैं  
धूप-छाँवअंधड़-तूफ़ान सबपर है उनकी नज़र
मगर वे डरते हैं
अंधेरों और उजालों से
शोर और शान्ति से

वे डरे हुए हैं
उन समाजों और सभ्यताओं से
जिन्हें ‘सभ्य’ बनाने का प्राचीन दंभ है उन्हें
या जिन्हें लाख जतन के बाद
वे नहीं बना सके ‘आधुनिक’ 

वे डरे हुए हैं उनसे
जिन्हें अपने पुश्तैनी लोभ के लिए
बर्बाद कर डाला है उन्होंने
और जिन्हें कायर और पिछलग्गू बनाने में
नहीं छोड़ी है कोई कसर उन्होंने


वे हर चीज़ पर शक़ करते हैं
अपने क़रीब आने वाली हर शय की
करते हैं बारीक जांच
गट्ठों काग़ज़-पत्तर
इतिहास-भूगोल हुलिया-हवाला इकट्ठा करते हैं
वे अपनी हिफ़ाज़त की अपार चिंताओं और इन्तेज़ामों के बीच
आसन्न ख़तरों से डरे हुए हैं

सुनो अहमद!
तुम बुरा मत मानना उनके खौफ़ज़दा बर्ताव का
तुम भले एक होनहार मासूम वैज्ञानिक ठहरे  
तुमने भले ही अपने हुनर से
रची है एक नई मशीन
वे तुम्हारे नाम और निर्मिति से
डरे हुए हैं

अजीब तो है
पर ऐसे में यह पूछना ज़रूरी हो जाता है
कि आख़िर क्या है
उनके इस क़दर भयभीत होने की वजह

क्या यह डर
उनके कारोबार का मुनाफ़ा है
जो देस-विदेस, जंगल-ज़मीन
तेल-वनस्पति-खनिज की लूट के बाद
उन्हें मिला है?

या जो मुल्क़ों-क़ौमोंतहजीबों
रंगोंधंधोंइलाक़ों
और ज़बानों के नाम फैलाई गई नफ़रत
और उससे निपटने के लिए
छेड़ी गई बारूदी लड़ाइयों में
हत्यारों और हथियारों की खेप भेजने के बदले
उन्हें मिला है?
  

क्या यह उस क्रूर अपराधी का भय है
जो अँधेरी रात के साए में
रोशनी की नर्म आहट से भी काँप उठता है?


सुनो अहमद! तुम बुरा मत मानना
उनके बरताव का
तुम्हारे आविष्कार पर उनकी चौकसी ने
दुनिया को अनजाने ही
दी है एक नई उम्मीद
जिसका इंतज़ार सबको था
तुम्हें भीहमें भी

सबकुछ खो जानेलुट जाने
बर्बाद हो जाने के भयावह अपशगुन के बीच
जाग रही नाउम्मीदी के इस दौर में
किसी जाबिर को इस तरह
डरे-घबराएचौकन्ना देख
उम्मीद तो जगती ही है-
धूप कीबारिश कीमुस्कराहट और प्यार की



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(अमेरिका में अहमद नाम के एक छोटे बच्चे ने एक घड़ी बनाई थी जो अचानक क्लास में बज उठी. अमेरिकन पुलिस ने उसे आतंकवादी समझकर जेल भेज दिया था. बाद में हक़ीक़त खुलने पर उसे छोड़ा गया था लेकिन इस बीच उसके परिवार ने अमेरिका छोड़ने का फ़ैसला ले लिया था.)     



10. वहां एक नदी थी


वहां एक नदी थी खिलखिलाती हुई
जिसके तटबंधों को
तुमने तरक्की के नाम पर
गाद-कीच उगलते शहरों
और कारख़ानों से पाट दिया है

वहां एक जंगल था लहकता हुआ
जिसकी कोख तुमने
पत्थर-रेत कंक्रीट और काठ के लिए
अपने लोभ की बारूद से
भर दी है

वहां झूमती फ़सलों का
एक सिवान था
जहां अब तुम्हारे
आतिशी अरमानों का महल है

वहां थी अमन का पैग़ाम देती
किसी फ़क़ीर की एक मज़ार
जिसे ज़मींदोज़ कर
बना डाला है तुमने राजपथ

तुम्हें अब याद भी नहीं होगा
कि जिन दिलों पर
हुकूमत का नशा था तुम्हें
उनमें भलमनसाहत थी
भरोसा थाउम्मीद थी
मुहब्ब्बत और सपने थे

और जिनमे तुमने
अपनी बातों और हरक़तों से
बो दी है नाउम्मीदी


उड़ेल दिया है
अविश्वास और नफ़रत का ज़हर

इतिहास बनाने की रौ में
यह तुमने कैसा भविष्य
रच दिया है 

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10 टिप्‍पणियां:

  1. कविताएं समय एवं समाज के साथ व्यक्तित्व के भी विभिन्न पहलू को उजागर करती हैं।
    टोपी कविता जितनी मारक है उतनी ही प्रेम कविता भी।

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  2. वाह बहुत सुंदर कवितायें

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  3. ये कविताएं आज के परिप्रेक्ष्य में बहुत ही सार्थक है

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  4. प्रभावपूर्ण कविताएँ हैं। निहितार्थ दूर तक जाते हैं।

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  5. Subhanalla...ye humare liye Khzaane se Kum nahi. Bahut shukriya dear sir 🙏🙏🙏🙏🌸🌸🌸🌸🌸🌸👍👍👍👌👌👌👌👌

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  6. Subhanalla...ye humare liye Khzaane se Kum nahi. Bahut shukriya dear sir 🙏🙏🙏🙏🌸🌸🌸🌸🌸🌸👍👍👍👌👌👌👌👌...Zafar Mirza

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  7. मुक्तिबोध जैसी शैली और काव्य संवेदना। सामयिक और मारक। सटीक, सार्थक एवं बौद्धिक। बहुत खूब भाई, बधाई हो।

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  8. Satire on present scenario, worried about destruction of ecosystem and romanticism...poet has unlimited vision using icons ..brilliant

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