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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

22 दिसंबर, 2024

भानु प्रकाश रघुवंशी की कवाताऍं

 

एक


न मिले कोई और जन्म 


गाॅंव खेत परदेश मैं जहा भी मरूॅं

खेत की मिट्टी ही बनू


नदी कुऑं तालाब का पानी बहता रहे मेरी देह पर 

बारिश लौटती रहे बार-बार

मेरी आत्मा की तृप्ति के लिए




चित्र 

रमेश आनंद 










सूरज के ताप से हो जाऊॅं और अधिक उर्वरा

और अधिक उपज के लिए ,

फसलों में रहूॅं सत बनकर ,लहलहाऊॅं हवा के स्पर्श से

मेढ़ पर हरियाते पेड़ों से हो मेरी पहचान


मैं रोज-रोज चाॅंद की रोशनी में नहाऊं

ओस से भीग जाऊॅं

मेरे वंशज मेरी छाती पर हल चलाते हुए

किसान होने पर गर्व महसूस करें 


जबतक आदमी के पेट में भूख रहे,

गांव खेत परदेश मैं जहाॅं भी मरूॅं 

खेत की मिट्टी ही बनू।

०००

       

दो


 मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है 


ख़ुद ही ख़ुद से बात करना

बड़बड़ाते हुए ख़ुद ही ख़ुद को देना

अपने प्रश्नों के जवाब 

खीझना ख़ुद पर ही

और फिर

खुद ही खुद को साॅंत्वना देना,

ऐसा कितनी बार हुआ है आपके साथ

मैं नहीं जानता

पर मेरे साथ तो अक्सर ऐसा होता है।


दिसम्बर की सबसे ठंडी रात में

जब पाइप लाइन में पानी जम जाए 

और ठिठुरन भरे हाथों से अलाव जलाने में

ख़त्म हो जाएं सारी तीलियाॅं

तब खीझ पड़ता हूॅं बर्फ़ बन चुके पानी पर

रीत गई दियासलाई पर

गीली जलावन की लकड़ियों पर

और उस लाइनमैन पर भी 

जो ठीक रात बारह बजे ही करता है 

पावर सप्लाई ऑन।


जब एक-एक पौधे को सींचता हूॅं

एक-एक दाना बीनता हूॅं खेतों से 

छटका-फटका अनाज बचाकर 

पहुॅंचता हूॅं गल्ला मंडी

जब सेर दो सेर अनाज परखने के नाम पर ही 

बिखरा दिया जाता है ज़मीन पर

जब लागत से भी कम दाम पर

अनाज,फल,सब्जियाॅं ख़रीदने को 

आतुर दिखते हैं व्यापारी

तब खीझ तो होती है न

इस दोगली व्यवस्था पर 

इस व्यवस्था को चलाने वाली सरकार पर,

ख़ुद ही ख़ुद से पूछता हूॅं एक सवाल कि 

माॅंग और पूर्ति का नियम हमारी फ़सलों पर

क्यों हो जाता है बेअसर।


कार्पोरेट के अदृश्य षडयंत्र में उलझकर

इतना अंधविश्वासी और आस्तिक हो चुका हूॅं 

कि मंडी जाते हुए रीते घड़े लिए कोई स्त्री गुजरती है

सामने से 

या काली बिल्ली रास्ता काट जाती है

या छींक दे कोई अगल-बगल

तो खीझ पड़ता हूं उसपर भी

या उस भगवान पर 

मेरे कोसने से जिसके होने का दावा 

और मजबूत हो जाता है।


ख़ुद ही खुद से बात करते हुए

कुरेदता हूॅं अपने ज़ख्म 

मरहम भी लगाता हूॅं अपने ही हाथों

सोचता हूॅं मैंने क्यों अपना हक़ नहीं छीनना सीखा,

क्यों नहीं कहा कि मेरा भी एक परिवार है खेती भरोसे 

मेरे बाल-बच्चों के तन पर भी पेट है 

जिसकी तस्वीर टाइम्स मैगजीन के मुखपृष्ठ पर छपती है

यदाकदा 

मैंने नहीं कहा कि किसान औरतें 

एक साड़ी में गुजार देती हैं दो-तीन वर्ष

खीझ तो होती है जब कोई नायिका स्क्रीन से बाहर आकर 

पत्नी से पूछती है 

मेरी साड़ी तुम्हारी साड़ी से सफेद क्यों?

जबकि मैंने उससे कभी नहीं कहा 

कि फास्फोरस से नहीं 

अपनी हड्डियां घोलने से बनते हैं 

अन्न के दाने चमकदार।


खीझ तो होती है जब 

चौदह-पंद्रह किताब पढ़ा बेटा घर आ बैठता है 

गोबर उठाने में शरम आती है उसे 

कहता है राजनेता बनूगा, खूब पैसा कमाऊॅंगा।

मैं बेटे से पूछता हूॅं 

वही बनेगा जो बंदरों-सी उछल-कूद करते हैं 

गालियाॅं बकते हैं 

स्वार्थ , लिप्साओं और बहुमत की दम पर 

कानून पलटते हैं संसद में जाकर 

क्या वही बनेगा तू 

जिनका आमजन के प्रति दीमकों-सा आचरण हो जाता है 

संविधान की शपथ लेकर।


मैं अपने खेतों में सपने बोता हूॅं 

सपने ही काटता हूॅं 

जो आप तय करें उस दाम पर बेचता हूं सपने ही 

पर खीझ तो होती है जब हर उत्पाद का 

मूल्य तय करता है उत्पादक ही 

तब हमारी फसल के दाम 

सरकार और आढ़तियों के रहमो-करम पर क्यों?


ख़ुद ही ख़ुद से बात करना 

ख़ुद ही ख़ुद से जवाब पूछना 

मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है 

आपके साथ कितनी बार हुआ, मैं नहीं जानता 

पर किसानी के भविष्य को लेकर मेरा उत्तर 

आपको चिंता में डाल सकता है 

कि डायनासोर के होने तक 

जितनी उम्मीद डायनासोर के बचे रहने की रही होगी 

मुझे इतनी ही उम्मीद है किसानी के बचे रहने की।

०००


तीन


किसान 


मैं, सिर्फ एक शब्द हूॅं 

जिसके दम पर बनती-गिरती हैं सरकारें।


मैं एक योजना हूॅं 

जिसे लागू करते ही सवर जाता है

कितने ही राजनेता, प्रशासनिक अधिकारी

कर्मचारी और चपरासियों का भविष्य।


ठूॅंठ होता जा रहा एक पेड़ हूॅं मैं

जिसकी जड़ों से चूस लेता है कोई और 

मेरे हिस्से की नमी

ओढ़ लेता है मेरे हिस्से का उजास।


मैं एक बाजार हूॅं 

जहां नयी-नयी कंपनियां,नये-नये आविष्कार आते हैं

लोन पाॅलिसी के कांधे पर चढ़कर,

विधवा के ब्लाउज का ऊपरी बटन हूॅं 

जिसके जल्द टूटने की आस लगाए

बैठा रहता है साहूकार।


तिरंगे में सबसे नीचे

मध्य चक्र की कई तीलियों का भार सहता

हरे रंग की पट्टी /मैं इस भूमि पर

आबादी का सत्तर प्रतिशत भार हूॅं।


अन्नदाता...?

नहीं! नहीं!!

किसान हूॅं मैं।

०००




चित्र 

आदित्य चढ़ार









चार 


यांत्रिक अभिलाषाऍं

------------------------

यांत्रिक जंगल के ऊंचे दरख्तों पर

पुष्प लताओं सी लिपटी हुई हैं मेरी अभिलाषाऍं

बेहतर से बेहतर फसल उत्पादन की

जरूरत के नीचे दब-कुच गई बैल-बछड़ों की जरूरत

पुरानी मशीनों को चला सकने की इच्छाशक्ति

दम तोड रही है

नई तकनीक से बने कृषि औजारों के आगे


जब नहीं सजता था किसानों के लिए कोई बाजार

जब नहीं बने थे उन्नत कृषि औजार 

कि पलट सकें जमीन की कठोर परत

तब जमीन भी नहीं हुई थी आज के जितनी कठोर

कि एक जोड़ी बैल ही उठा लेते थे

एक हल की जमीन का भार


खाद का भंडारण गोबर के रूप में

घर के पिछवाड़े ही होता रहा

सारे कीट, मित्र ही होते थे फसलों के

यों कि कीटनाशक दवाओं के नाम भी नहीं जानता था मैं

नीम की पत्तियां मिलाकर ही मां

साल भर तक सुरक्षित रखती थी कुठिया में अनाज

गोबर की मोटी परत से बारिश में बच जाता था दीवारों का क्षरण

एक चौंतरी काफी होती थी आगंतुक को बैठाने के लिए


आज विकास की पटरी के नीचे स्लीपर से बिछे हैं

हलबैल,ऊंटगाड़ी,लोटाडोर, गोबर खाद

मकानों की भव्यता में समा गई वह पीढ़ी

जो गंभीर बीमारियों का इलाज न होने पर भी जी जाते थे सौ के पार


पृथ्वी गाय तो नहीं कि अवशिष्ट पदार्थ पचाकर भी

दूध की शुद्धता बचा सके

कम समय में अच्छे परिणाम की उत्सुकता

उपचारित बीज और अधिक उपज के लोभ में

ज़हरीले कीटनाशकों का छिड़काव से संभव है, कल मेरे खून में

पाये जायेंगे प्रोफेनोफोस,सायपरमेथ्रिन क्लोरोपायरीफॉस या कार्बेंडाजिम


मेरी अभिलाषाऍं 

मुझे अल्पायु की खाई में धकेल रही हैं।

०००


बेस्वाद


मार्च-अप्रैल की पीठ पर

जब पक रही होती हैं फसलेंं

उल्लासित मन हॅंसिया उठाये

जा बैठता है मेंड़ पर 

वसंत सिर्फ धरती पर ही नहीं 

किसान की देह पर भी दमकने लगता है

कि अचानक,

क्षणभर में रक्तिम होता आसमान 

पश्चिम से घुमड़ आये बादल

अंधड़, ओले और बेमौसम बारिश

तहस-नहस कर देती है फसलें

कर देती है

एक-एक दाने को मोहताज


यूॅं ही नहीं कहा/पूर्वजों ने

ओलों को -बेस्वाद।

०००


आपदा और नकली फ़रिश्ते 


जैसे अल्पावधि मध्यावधि चुनाव

देश की अर्थव्यवस्था के लिए संकट है

ठीक वैसे ही अल्पवृष्टि अतिवृष्टि

आपदा है किसानी के लिए।


आपदा,निकटता दिखाने का मौका देती है 

सरकार खुश होती है आपदा आने पर,

मैं बीज मांगता हूं अगली फसल के लिए 

सरकार कहती है- कोई पाबंदी नहीं 

पूरा बाजार खुला है तुम्हारे लिए

जहां से चाहो बीज खरीदो

फिलहाल राशन का थैला पकड़ो

और फोटो खिचवाओ।


फोटो जरूरी होता है विज्ञापन से चलने वाली

सरकार के लिए

चुनाव के समय तो वह

झोंपड़ी में अन्दर तक घुस आते हैं

कहते हैं खाना यहीं बैठकर खायेंगे

फिर फोटो भी खिंचवायेंगे।


आपदा आती है मां के जेवर ले जाती है

बहन का ब्याह टल जाता है 

भूख चिकोटी काटती है खाली आंत में

रुला जाती है पूरे गाॅंव को

तब सरकार आती है गुदगुदाने

फिर झूठमूठ हॅंसाते हुए फोटो ली जाती है

फोटो जरूरी है

गांव गरीब की ख़ुशहाली दिखाने के लिए।

अगले दिन यही फोटो अख़बार के

मुखपृष्ठ पर छपती है 

कोई अपना सामान्य ज्ञान 

कोई कविता कहानी लिखने को

पाना चाहता है जानकारियाॅं

ख़ूब बिक्री होती है 

जिस दिन किसान की तस्वीर छपती है

अख़बार में।


आपदा आती है,छान छप्पर उड़ जाते हैं 

घर ढह जाते हैं

पशु मर जाते हैं खूॅंटी पर बॅंधे हुए

बिजली गुल हो जाती है हफ्ते दो हफ्ते के लिए

आपदा प्रबॅंधन टीम से पहले पहुंचते हैं

मीडिया कर्मी, माननीय नेतागण

हवाई सर्वेक्षण के बाद

पाॅंच हजार के नुकसान पर

पचास रुपए के चेक थमाते हुए

फोटो खींचे जाते हैं काॅंधे पर हाथ रखकर

कोई अपना वोट बैंक मजबूत करना चाहता है

कोई भरना चाहता है लाॅकर और तिजोरियाॅं।


आपदा से सबके अपने फायदे हैं

वे दुआ करते हैं कि आपदा आती रहे

यह पाॅंचवाॅं मौसम होता है 

इन नकली फरिश्तों के लिए।

०००

छः 


जहाॅं मैं रहता हूॅं 


जहाॅं मैं रहता हूॅं 

वहाॅं नही हैं गगनचुंबी इमारतेंं

नही हैं सलीके से बसी कलोनियाॅं 

उन कालोनियों में एक ही डिजाइन के घर 

चमचमाती सड़कें,प्रतिमाओं से सुसज्जित चौंक-चौराहे

पर शांति बहुत है।


अगर कोई शाम तक न जुटा पाये 

दो जून की रोटी के लिए दाना 

ठंडी पड़ गई हो चूल्हे में दबी आग

और माचिस में न बची हो एक भी तीली 

या आटा गूंथते समय ही पता चले 

कि डिब्बे में नहीं बचा एक चौंटी नमक 

तब पड़ोस के घर से मिल जाता है

यह सबकुछ उधार

बापिस करने की गारंटी के बगैर

लोग गरीब हैं पर दिल बहुत बड़ा है

यहाॅं रहने वालों लोगों का।


बेशक यहाॅं नहीं हैं उत्सवों की धूम

पर औरतें गोवर उठाते

चक्की पीसते फसल काटते 

गाती हैं डोला मारू,हीर राॅंझा, सोनी महिवाल 

की प्रेम गाथाऍं

और पुरुष शाम ढले ढोलक की तान पर

खूब नाचते हैं।


यहाॅं तंगहाल हैं लोग

इतने तंगहाल की चबूतरे पर गुदड़ी ही बिछा देते हैं

पाहुनों के लिए 

दो जून की रोटी के लिए खटते हैं सारी उम्र

पर रिश्तों से बड़े अमीर हैं

इतने अमीर कि 

बच्चे, युवा और बुजुर्ग

तीन-तीन पीढियाॅं रहती हैं एक साथ

एक ही घर में

थामें एक दूजे का हाथ।

०००


सात




चित्र 

शशिभूषण बढ़ोनी 








एक महामारी के निशान 


पिता के चेहरे पर चेचक के निशान थे 

एक महामारी के निशान 

उम्र भर उनके साथ रहे 

अब वह मेरी स्मृतियों में उभर आये हैं 

गहरे काले धब्बों के शक्ल में।


प्राण वायु के अभाव में लोगों को मरते देखा 

लाशों के नदी में तैरने की ख़बर 

छप गई बेटे के मानस पटल पर।


एक महामारी के बाद नानी 

और चार-पाॅंच लोग ही बच सके थे गाॅंव में 

यह बात 

किसी रहस्यमय कहानी की तरह 

लगती थी,हम बच्चों को 

कि लाशें ढोने के लिए काॅंधे नहीं बचे 

ईंधन नहीं बचा 

तब कुऍं पाट दिये गये बैलगाड़ियों में 

लाशें भर-भरकर।


इस तरह एक महामारी 

पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रही साथ 

हर दुःख,हर क्रूरता को सहने का 

हौंसला देते हुए।

०००


आठ


बेढंगा नाच 


कान की लौंड़ी पकड़ कोई छेड़ता है तान 

जैसे ही बजता है मधुर संगीत 

बजने लगता है लयबद्ध कोई वाद्य यंत्र।

एक आदमी

या एक औरत 

या दोनों ही प्रतिस्पर्धा करते हुए 

या कई जन एक साथ समूह में

बगैर पूर्वाभ्यास के नाचने लगते हैं।


कभी-कभी तो बगैर गाये हुए

सिर्फ़ ढोलक की धुन पर

गले में पड़े गमछे के दोनों सिरों को

मुॅंह में दबाकर

या उसी गमछे को कमर में बाॅंध

दोनों हाथ हवा में लहराते हुए 

पाॅंव पटकते है जमीन पर 

तरह तरह की मुख मुद्राओं के साथ

कोई गर्दन हिलाता है मुर्गे की तरह

सींग/मोरपंख/बिजना

यहां तक कि झाड़ू भी बांध लेते हैं

सिर पर।


वे नहीं जानते एक भी डांस स्टेप

अंग-अंग तरंगित होता है 

और वे नाचने लगते हैं

उनके लिए नाच,आनन्द की अनुभूति है ।

०००


नौ


बाबूजी,समय बदल गया है 


जब भी गंभीर मसलों पर बात शुरू करता हूॅं 

कोई नौजवान हॅंसकर कहता हैं 

बाबूजी,समय बदल गया है।


सोचता हूं क्या वाकई समय बदल गया है 

या बदल गया है आदमी 

या खान-पान

या वातावरण 

या पेड़-पौधे

या समूची प्रकृति ही बदल गई है


मिट्टी से अब नहीं उठती वह पहले सी सौंधी गंध

जो पहली बारिश के साथ उठती थी धरा से

और सारी प्रकृति को करती थी उन्मत्त,

जो करते थे ऊतकों का निर्माण और मरम्मत

ऊष्मा से भर देते थे देह को 

नहीं बचे अनाज में वह पहले से पोषक तत्व


मृत शरीर के अपघटन में शामिल 

वह जीव जो माॅंस-मज्जा के बोझ से हल्का करते हैं पिंजर को 

और मल भक्षण करने वाले कीड़े, कवक और बैक्टीरिया

आखिर मर क्यों जा रहे हैं मृत देह या मलभक्षण के बाद

क्या सचमुच भोजन हो गया है इतना विषाक्त?


तुम्हें तो याद भी नहीं होगा कि

कब,कौन-सा फल खाने से बीमार हुए थे 

और कौन-सी हरी सब्जियाॅं खाने से उल्टियां होती रही थीं रात भर,

डाक्टरी सलाह के बाद

काली मूॅंग की दाल और दलिया खाने से 

चकत्ते बनने लगे थे शरीर में जगह-जगह 

जिनके होने के निशान अब भी बचे हैं 

तुम्हारे कोमल अंगों पर

इलाज के बाद भी न बच सके

बीमार पशुओं को खाकर ही तो मर गये कितने ही कुत्ते और कौउये

खत्म हो गई गिद्धों की समूची प्रजाति,

क्या उन जरूरी गुणों से रहित हो रही है पृथ्वी

जिनके बगैर चांद या मंगल ग्रह पर

रहने का आभास होगा हमें इसी धरती पर रहते हुए?


यह कैसा जहर है जो रगो में दौड़ता है खून के साथ

और आदमी मर जाता है शनै शनै

कौन दे रहा है इतनी आसान मौत

कि सीने का दर्द अस्पताल की चौखट भी पार न करने दे

और पार कर भी गये

तब भी परिजनों के हाथ में होता है हमारा मृत्यु प्रमाण पत्र

क्या अपने ही हाथों जहर खाने को अभिशप्त हैं हम?


जब मुझे टोकते हुए कोई नौजवान हॅंसकर कहता है

बाबूजी समय बदल गया है

तब सोचने पर विवश हो जाता हूॅं 

कि समय ही बदला है

या बदल गई है समूची प्रकृति ही।

०००


परिचय:

जन्म - एक जुलाई उन्नीस सौ बहात्तर

शिक्षा -कला स्नातक, स्नातकोत्तर (हिन्दी)

प्रकाशन - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में लगातार रचनाएं प्रकाशित।

साहित्य धरा अकादमी से "जीवन राग" एवं न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से चयनित कविताओं का संग्रह 'समकाल की आवाज' प्रकाशित।

-दस साझा काव्य संग्रहों में कविताएं प्रकाशित।

-कुछ कविताओं का अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी, गुजराती और नेपाली भाषा में अनुवाद।

-आकाशवाणी और अन्य मंचों से काव्य पाठ का प्रसारण।

-प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा इकाई अशोकनगर में सक्रिय सदस्य।

- कुछ नाटकों में अभिनय।

संप्रति -कृषि कार्य 

सम्पर्क -ग्राम -पाटई पोस्ट -धुर्रा,तहसील -ईसागढ़ जिला -अशोकनगर (मध्यप्रदेश) पिन -473335, मोबाइल -9893886181

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