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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

01 फ़रवरी, 2025

अलका अग्रवाल सिग्तिया की कविताऍं

 

एक

नहीं देखतीं,  वे सपने


मैंने देखा-

पहाड़ों पर कुछ लड़कियां

आई हैं, बिताने छुट्टियां।

पढ़ती हैं ,घूमती हैं,

बुद्धिमानों की महफिल में शिरकत भी करती हैं।

नहीं बनातीं, खुद वे रोटियां 

एक है लेखिका, 

एक पढ़ाकू, 

एक उद्योगकर्मी 

एक समाजसेवी और एक पत्रकार 

हैं उनके अपने सरोकार

सनराइज देखने होटल से  बाहर जब निकलीं,

सुबह-सुबह कितनी औरतें

उन्हें गारा बनाती दिखीं।

जिसने पढ़ा था, साहित्य ,

कहा, उसने,' याद आ रही मुझे

निराला की  "वह तोड़ती पत्थर"।        

छोटा सा बच्चा भी  ढो रहा था पत्थर

लेखिका ने निकाला नोटपैड और लिखा उस पर

'बचपन की मस्ती नहीं उसके भाग्य में 

उठा रहा मासूम बोझा हाथ में।'




चित्र 

शशिभूषण बढ़ोनी 









समाज सेविका बच्चे के पास गई ,

की कुछ बातें, खींची सेल्फी  उनके साथ ।

पता चला, भूखा है बच्चा

पूछा" समोसे,चॉकलेट, खाओगे?"

जानता था, वह सिर्फ भात।

उद्योगकर्मी उनसे बोली

" यहां जो मिलता है उससे ज्यादा दूंगी,

तुम सबको शहर ले चलूंगी"


पत्रकार ने बनाई रिपोर्ट-

"नारी सशक्तिकरण की मिसाल

 बना रही ये औरतें,

 पहाड़ों पर मकान

  लेकर श्रम की  मशाल"।

मैं प्रभावित हो गई, चुपचाप उनके पीछे गई

कुछ देर में वे शानदार लंच खा रही थीं।

 उन मजदूर औरतों के संग 

खींची फोटोज़ में 

अपनी सफलता की कहानियां बना रही थी ।

उधर वे श्रमजीवी लगी थीं,

 वैसे ही श्रमदान करने में ।

जानती हैं! 

नया कुछ नहीं घटने वाला 

इसलिए गंवाती  नहीं वक्त

 सपने देखने में।

 पर हां, वह मासूम बैठा कर रहा है,

 समोसे का इंतजार

 जिस दिशा में गईं वो लड़कियां, उस पथ को रहा निहार।               ****

दो

तू तो खुद है चिरैया


" दरवाज़े के बाहर खड़ी वह " 

पढ़ती कक्षा चार में जब

गृह कार्य में बनाना था घर तब

उसने एक घर बनाया

सुंदर रंगों से उसे सजाया

मां बाबा को उसे दिखाया।

देखो मां, हमेशा हम सब इस घर में संग रहेंगे

यहां तुम और बाबा, यहां मैं और भैया

ये हमारा खेलने का कमरा,

ये रसोई, 

यहां रहेगी, हमारी चिरैया

मां ने उसको गले लगाया

बेटी तेरा घर हमारे साथ हो नहीं सकता

तू किसी और घर की अमानत है

तू तो खुद है चिरैया

फुर कर के उड़ जाएगी

जाकर किसी और बगिया में सुंदर गीत खाएगी


अपनी मधुर वाणी से उस बगिया को गुंजाएगी

इस घर में तो तेरी भाभी आएगी

उसके मासूम दिमाग को समझ आया

उसकी जगह हैइस घर के बाहर कहीं

उसने खुद चित्र में खुद को बाहर खड़ा कर दिया


कुछ साल बीत गए

इंतजार करने लगी उस पल का जब वह ऐसे घर जाएगी

जो होगा उसका घर

उस घर को ही अब वह सजाएगी

उस घर में अपनी जगह बनाएगी


लेकिन कहां बन पाई उसके जगह उस घर में भी

जब जरूरत होती पति को

लगता उसे यह घर कुछ देर के लिए उसका हो गया है

अंतरंग क्षणों में ही सही उसे यह भरोसा हो गया है

यह घर उसका भी है


लेकिन जब तक और परिवार वालों की तो छोड़ो

पति भी अक्सर कहता है

तुम्हारे घर में ऐसा होता है

हमारे घर में ऐसा नहीं होता है

अक्सर जब सोचती है, पति कभी तो कहेगा

तुम भी हमारी उतनी ही हो जितने मेरे और घर वाले हैं

तुम्हारी राय भी उतनी ही अहमियत रखती है

जितनी बाकी सब की रखती है

पर ऐसा नहीं होता

मैं अभी दूसरे घर से आई एक पराई लड़की है

जो दूसरे घर के दरवाजे के बाहर ही खड़ी है।

***

तीन 

कौन से वर्ग की चाय


ढाई सौ स्क्वायर फीट के मेरे फ्लैट में

बनती है जो चाय

 न जाने क्यों भाती नहीं कभी मुझको

पहुंचता हूं ,चाय की टपरे पर

जहां खदबदा रही है टोप में चाय

खदबद खदबद खदबद खदबद!

अदरक इलायची की खुशबू फैल रही चारों ओर

जो शायद डली है, सुबह से उसमें

कटिंग चाय, फुल चाय, पीते आसपास बतियाते लोग

नहीं लगते अच्छे मुझे

चाय तो अच्छी लगती यहां

पर ये लोग अपने स्तर से नीचे के लगते

टीवी में देखता मैं हाईप्रोफाइल लोग को पीते जब चाय

नक्काशी दार सेट में अंग्रेजी चाय

काश बुला लें, मुझे भी चाय पर

पर मेरा वजूद, वहां है कीड़े सा

सोचता हूं सरकार बुलाले

 करे चाय पर चर्चा मुझसे

पर मैं त्रिशंकु की तरह लटका

अपने ही फ्लैट में भगौने में 

चढ़ाता हूं चाय

देख रहा हूं नीचे टपरे पर, गंदे लोगों को पीते चाय

देख रहा हूं टीवी में एलिट लोगों को पीते चाय

मैं अपनी बनाई चाय पी कर मुंह बनाता हूं

कंफ्यूज हूं कौन से वर्ग की है यह चाय?

***

चार

क्या सपने बन गए बोनसाई

                    (विचार मंथन)


कहते हैं कुछ लोग कि

जब बनती है स्त्री, मां

करती जाती है, अपने सपनों को छोटा, छोटा बहुत छोटा

होते जाते हैं सपने उसके बौने!

सोच का बवंडर उठा

भीतर उसके

क्या यह सच उसका भी है?

क्या होने दिया है उसने भी अपने सपनों को बौना?

बना दिया है उन्हें हरे-भरे वृक्ष से बोनज़ाई?

"विचार मंथन"

चल पड़ा अंतस में

ग़र ऐसा होता,

तो मिट चुका होता

कब का वजूद उसका!

उसने टटोला

खुद के वजूद को महसूस किया

'वो वहां है"

बड़ा अजीब है व्यक्तित्व उसका

एक और स्त्री विमर्श की बातें तमाम

पर झेलती है यातनाएं भी तो।

तो क्या छद्म है उसकी सारी बौद्धिकता?

लेखन में विरोध के स्वर हैं मात्र दिखावा!

तर्कों की मथानी से फिर मंथन वह करती है,

तब सांसारिक सच की सोच नवनीत सी उतरती है-

पत्नी और मातृत्व का चुनाव उसका ही तो है

तो फिर जायज है कुछ समझौते भी।

यातना सहते हुए भी वह खुद को खुश रख पाती है

अपने वजूद से पहचानी जाती है

यानी, नहीं होने दिया, उसने अपने सपनों को बौना।

जिजीविषा के पानी , महत्वाकांक्षा की खाद

और आत्म सम्मान की धूप ने बचाया है  

उसके सपनों को बोनजाई बनने से!

***


परिचय               

कहानी ,व्यंग्य ,कविता तीनों विधियों में लेखन। कहानी संग्रह 'मुर्दे इतिहास नहीं लिखते' महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी के प्रथम पुरस्कार प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित।

व्यंग्य संग्रह -'तेकहानी संग्रह नदी अभी सूखी नहीं -प्रकाशनाधीन।री,मेरी ,सबकी',# मीरा_कूल,उपन्यास -अदृश्य प्रकाशित। अपने समय का बखान और बखिया : लिखना परसाई का,,     लघु उपन्यास , फैन्स के इधर उधर, लघुकथा संग्रह,बिखरते हरश्रृंगार, कविता संग्रह- खिड़की एक नई सी , कहानी संग्रह नदी अभी सूखी नहीं - प्रेस में।निरंतरा स्क्रिप्ट, गोदरेज़ फिल्म फेस्टिवल में  प्रथम।

फिल्म अदृश्य को राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड्स। फिल्म, टेलीविज़न धारावाहिकों व रेडियो के लिए लेखन, स्तंभ लेखन व आने को पत्र पत्रिकाओं के लिए आलेख।                    

हरिशंकर परसाई पर लघु शोध व प्रबंध, शोध।

 लघु फिल्मों का निर्माण।

अध्यक्ष राइटर्स व जर्नलिस्ट्स असोसिएशन महिला विंग मुंबई

निदेशक परसाईं मंच, अध्यक्ष महाराष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय महिला काव्य मंच, राष्ट्रीय अध्यक्ष अंतरराष्ट्रीय वामा साहित्य अकादमी,बोर्ड मेंबर सी एफ बी पी।

 संपादन- रंगक़लम अप्रतिम भारत,मुंबई की हिन्दी कवयित्रियां  संगिनी।

सम्मान - महाराष्ट्र हिंदी साहित्य एकेडमी,                                

दुष्यंत सम्मान,रचनाकार,आयेग(यू.के.) स्वस्थ भारत सारथी, आस्क सोसायटी सम्मान व्यंग्य यात्रा,नीरी, यादें बिस्मिल्लाह, कैरियर आफ्टर फैमिली,सी एफ बी पी, स्त्री शक्ति सम्मान, साहित्य रत्न सम्मान, महाराष्ट्र जागतिक महिला सम्मान, अंतरराष्ट्रीय महिला काव्य मंच का सम्मान आदि।

सुषमा गुप्ता की कविताऍं

 


एक

आवरण


छूने पर खुद को 

समेटने वाली

लाजवंती की पत्तियां 

नहीं बचा पाई 

अपने आपको

उन क्रूर हाथों से

जिनका मकसद ही 

कुचलना था उन मासूम

पत्तियों को

बिखरी मिली क्यारी में

दबी कुचली हालत में


मुद्दा ये है कि 

रह गया हो शेष

कितना भी विवाद 

पर 

निर्णय पहनने वाले का होना चाहिए

कि उसके लिए  परदा 

बुरका या हिज़ाब

जरूरी है 

सुरक्षित है

या कोई अनावश्यक आवरण


क्यों कि

बिखरने और

लूटने से 

बचाने के लिए

आवरण कोई 

तय सीमा नहीं है ।

०००













दो 

किताब


सिरहाने रखी पुस्तक 

समझती है मेरी बैचनी

कितनी बार रातों को उसने सुनाई है

मुझे मेरी ही कहानियां


इसने दिया मुझे मेरा आसमान

मेरा सुकून,मेरी आजादी

इसने मुझे हंसाया है,रुलाया है

होंसला दिया है,अवसाद से निकाला है

पुस्तक में छपे शब्द खुद ब खुद सुना देते है 

सांत्वना भरे शब्द 

जो नहीं मिलते किसी प्रियजन के मुख से


मेरे अकेलेपन को तोड़ा है

मेरी खामोशियों को आवाज दी है

मेरी रुकी हुई जिंदगी को उड़ान दी है

एक रहनुमा दिया है मुझे


जब भी खुद को अकेला पाया तो

साथ रही पुस्तक ने निभाई 

बिना किसी स्वार्थ के अपनी दोस्ती

बिना मांगे ही दिया 

उसने मुझे बहुत कुछ

सच में 

पुस्तक सिर्फ देना जानती है।

०००


तीन 


कविता


पूर्ण हो कर

जन्म ले या

मन के गर्भ से ही

खत्म हो जाए कविता

पर मर्म को अपने 

शब्दों में ढालकर

कह जाती है

अनकही अनसुनी बातें


शब्द जुगाली करते

फिर फिर बनते बिगड़ते

खिल ही जाते हैं

किसी भी पृष्ठ पर

बनकर कविता

और चोट कर जाते हैं

उसके अंतर्मन को

जो आत्मसात 

कर पाता है 

कविता से।

०००


चार

मोहपाश से मुक्ति


कितना मुश्किल था

त्यागना अपने प्रेम की

स्मृतियों को

भूल पाना अपने 

किसी प्रिय को


निकलना 

किसी पिंजरे से नहीं

बल्कि मोहपाश से था

जिससे बंधी वो 

भूल गई थी

खुद को


कोई अस्तित्व  

नहीं था उसका 

एक बंधन 

जिसे प्रेम समझ

वो चल रही थी 

तुम्हारे दिखाए

किसी निश्चित 

रास्ते पर 


जब अनंत से

कोई पुकार

सुनाई दी

जो उसके अंतस

को उद्वेलित कर

बुला रही थी उसे

अपने करीब

बेहद करीब


चल दिए कदम

अपनी बेड़ियों

को भूल कर

किसी नए रास्ते पर

छोड़ कर सब

प्रेम के बंधन


हां

ये सच है कि

कोई उसे बुद्ध तो

नहीं मानेगा

पर उस अनंत से

मिलकर उसकी 

अपूर्णता को

मिल जाए

एक नया आकार

जो कर दे

उसे पूर्ण ।

०००













पॉंच 

स्त्री मन


उसने कब चुनी

अपने लिए संस्कार की बाते

बस बो दिए गए बीज

उसकी कच्ची मिट्टी के मन में

अंकुरित होने के लिए


डर भी दर्ज कर दिया गया

कोमल से मन में

जो फिर कभी गया ही नहीं

एक बार दर्ज होने के बाद


लोक लाज भर दिया गया

बार बार उसके आगे बढ़ते को

कदमों को रोकने के लिए

रुक गई वो वही

नहीं निकल पाई

कभी फिर दहलीज 

के बाहर


उसके लिए तय कर दी गई

एक परिधि

नाप तौल कर हंसना

दिखाए गए रास्ते पर चलना

नजर झुका कर रखना

जुबान बंद रखना


चलती रही तय किए गए

दायरों में

और उन्ही दायरों के

बीच जिंदगी गुजार दी।

०००


छः 

दिल के रिश्ते


वो एक दूसरे की

प्राथमिकता नहीं बन सकते 

और न ही एक दूसरे के वास्ते

अपनी दुनिया छोड़ सकते


किसी भी तरह की कोई

संभावना उनके बीच में नहीं है

अलग अलग दुनिया

और उस दुनिया में अलग ही

दोनों की प्राथमिकताएं


इन प्राथमिकताओं और 

संभावनाओं के बीच

कोई भी समीकरण नहीं है

लेकिन फिर भी

किसी अदृश्य डोर से

बंधे वो जुड़े हुए हैं

एक दूसरे से


किसी बात पर बेझिझक

बहस करते वो

याद रखते हैं अपनी हद

बातों और मुलाकातों में

होती है एक निश्चित दूरी

पर अपनत्व में 

नहीं होती कोई कमी


उलझनों को

सुलझाने की कोशिश और

एक दूसरे को

समझने की कवायद

साथ रहती है हमेशा


समांतर चलते इन

आत्मिक संबंधों को 

देखकर

ऐसा नहीं लगता कि 

दुनियावी रिश्तों के साथ

भावनाओं का भी 

अपना अस्तित्व होता है ?

और उन रिश्तों का कोई

नाम नहीं होता ।

०००


सात 

माँ


माँ तेरा आँचल

आज भी मेरे दुख की गर्मी पर

शीतल छाँव सा लहराता है

मेरी सारी उदासी को

हवा के झोंके सा 

उड़ा कर ले जाता है


माँ तेरा दुलार

तेरी याद बन मेरे मन में

हूक बन उठ जाता है

वो प्यार भरी सी बातों का

झोंका फिर आँखों को 

नम कर जाता है


माँ तेरा प्यार 

दिल से मेरे ज़ख्म के छालों पर

एक मरहम सा लग जाता है

तेरी सीख से दुनिया के

सभी विरोध से लड़ने का 

हौसला आ जाता है


माँ तेरा गुस्सा

जो अक्सर झूठा ही होता था

मेरी गलती के सबक बन

आज भी मुझे कोई

नया पाठ सीखा जाता है।

०००

आठ

तुम्हें आना था


यू तो रोज ही मैं

अपना आँगन

बुहार लेती हूँ


पर आज मैने अपने

मन के आँगन को

अच्छे से बुहार कर

रखा था....

क्योंकि तुम्हें आना था


मन के सभी विषाद, दर्द

छिपा दिए थे कहीं

और मुस्कान लेप ली थी

मन के आँगन में

क्योंकि तुम्हें आना था


अपनी चिंता उड़ा दी थी

अपने से दूर कहीं

और खुशी निकाल ली थी

दबी हुई थी जो

मन के किसी कोने में

क्योंकि तुम्हें आना था


व्यस्त पलों को 

निकाल दिया था मन से

और ढूंढ ली थी फुरसत

जो मिल नहीं रही थी

कई दिनों से

क्योंकि तुम्हें आना था


सुबह से शाम 

रखी थी रास्ते पर नज़र

हर आहट पर 

धड़का था दिल

पर तुम नहीं आये

मैंने किया था इंतजार

क्योंकि तुम्हें आना था।

०००



परिचय 



जन्मतिथि : 20 सितम्बर

शिक्षा : M. Sc. (भूगोल) M. A. (हिंदी) (इतिहास)

कार्य : वरिष्ठ अध्यापक ( विज्ञान)  श्रीगंगानगर

लेखन विधा : कविता, कहानी,लघुकथा

प्रकाशित कृतियां : सांझा काव्य संकलन " उड़ान" , सांझा काव्य संकलन " नारी तू अपराजिता" ,साझा काव्य संकलन "काव्य मंजरी" पता : मकान न. 15 ,गली न. 2

बाबादीप सिंह कॉलोनी,श्रीगंगानगर (राजस्थान)

ईमेल : kamalvijay40@gmail.com

दूरभाष नंबर : 9414246235