एक
नहीं देखतीं, वे सपने
मैंने देखा-
पहाड़ों पर कुछ लड़कियां
आई हैं, बिताने छुट्टियां।
पढ़ती हैं ,घूमती हैं,
बुद्धिमानों की महफिल में शिरकत भी करती हैं।
नहीं बनातीं, खुद वे रोटियां
एक है लेखिका,
एक पढ़ाकू,
एक उद्योगकर्मी
एक समाजसेवी और एक पत्रकार
हैं उनके अपने सरोकार।
सनराइज देखने होटल से बाहर जब निकलीं,
सुबह-सुबह कितनी औरतें
उन्हें गारा बनाती दिखीं।
जिसने पढ़ा था, साहित्य ,
कहा, उसने,' याद आ रही मुझे
निराला की "वह तोड़ती पत्थर"।
छोटा सा बच्चा भी ढो रहा था पत्थर
लेखिका ने निकाला नोटपैड और लिखा उस पर
'बचपन की मस्ती नहीं उसके भाग्य में
उठा रहा मासूम बोझा हाथ में।'
चित्र
शशिभूषण बढ़ोनी
समाज सेविका बच्चे के पास गई ,
की कुछ बातें, खींची सेल्फी उनके साथ ।
पता चला, भूखा है बच्चा
पूछा" समोसे,चॉकलेट, खाओगे?"
जानता था, वह सिर्फ भात।
उद्योगकर्मी उनसे बोली
" यहां जो मिलता है उससे ज्यादा दूंगी,
तुम सबको शहर ले चलूंगी"
पत्रकार ने बनाई रिपोर्ट-
"नारी सशक्तिकरण की मिसाल
बना रही ये औरतें,
पहाड़ों पर मकान
लेकर श्रम की मशाल"।
मैं प्रभावित हो गई, चुपचाप उनके पीछे गई
कुछ देर में वे शानदार लंच खा रही थीं।
उन मजदूर औरतों के संग
खींची फोटोज़ में
अपनी सफलता की कहानियां बना रही थी ।
उधर वे श्रमजीवी लगी थीं,
वैसे ही श्रमदान करने में ।
जानती हैं!
नया कुछ नहीं घटने वाला
इसलिए गंवाती नहीं वक्त
सपने देखने में।
पर हां, वह मासूम बैठा कर रहा है,
समोसे का इंतजार
जिस दिशा में गईं वो लड़कियां, उस पथ को रहा निहार। ****
दो
तू तो खुद है चिरैया
" दरवाज़े के बाहर खड़ी वह "
पढ़ती कक्षा चार में जब
गृह कार्य में बनाना था घर तब
उसने एक घर बनाया
सुंदर रंगों से उसे सजाया
मां बाबा को उसे दिखाया।
देखो मां, हमेशा हम सब इस घर में संग रहेंगे
यहां तुम और बाबा, यहां मैं और भैया
ये हमारा खेलने का कमरा,
ये रसोई,
यहां रहेगी, हमारी चिरैया
मां ने उसको गले लगाया
बेटी तेरा घर हमारे साथ हो नहीं सकता
तू किसी और घर की अमानत है
तू तो खुद है चिरैया
फुर कर के उड़ जाएगी
जाकर किसी और बगिया में सुंदर गीत खाएगी
अपनी मधुर वाणी से उस बगिया को गुंजाएगी
इस घर में तो तेरी भाभी आएगी
उसके मासूम दिमाग को समझ आया
उसकी जगह हैइस घर के बाहर कहीं
उसने खुद चित्र में खुद को बाहर खड़ा कर दिया
कुछ साल बीत गए
इंतजार करने लगी उस पल का जब वह ऐसे घर जाएगी
जो होगा उसका घर
उस घर को ही अब वह सजाएगी
उस घर में अपनी जगह बनाएगी
लेकिन कहां बन पाई उसके जगह उस घर में भी
जब जरूरत होती पति को
लगता उसे यह घर कुछ देर के लिए उसका हो गया है
अंतरंग क्षणों में ही सही उसे यह भरोसा हो गया है
यह घर उसका भी है
लेकिन जब तक और परिवार वालों की तो छोड़ो
पति भी अक्सर कहता है
तुम्हारे घर में ऐसा होता है
हमारे घर में ऐसा नहीं होता है
अक्सर जब सोचती है, पति कभी तो कहेगा
तुम भी हमारी उतनी ही हो जितने मेरे और घर वाले हैं
तुम्हारी राय भी उतनी ही अहमियत रखती है
जितनी बाकी सब की रखती है
पर ऐसा नहीं होता
मैं अभी दूसरे घर से आई एक पराई लड़की है
जो दूसरे घर के दरवाजे के बाहर ही खड़ी है।
***
तीन
कौन से वर्ग की चाय
ढाई सौ स्क्वायर फीट के मेरे फ्लैट में
बनती है जो चाय
न जाने क्यों भाती नहीं कभी मुझको
पहुंचता हूं ,चाय की टपरे पर
जहां खदबदा रही है टोप में चाय
खदबद खदबद खदबद खदबद!
अदरक इलायची की खुशबू फैल रही चारों ओर
जो शायद डली है, सुबह से उसमें
कटिंग चाय, फुल चाय, पीते आसपास बतियाते लोग
नहीं लगते अच्छे मुझे
चाय तो अच्छी लगती यहां
पर ये लोग अपने स्तर से नीचे के लगते
टीवी में देखता मैं हाईप्रोफाइल लोग को पीते जब चाय
नक्काशी दार सेट में अंग्रेजी चाय
काश बुला लें, मुझे भी चाय पर
पर मेरा वजूद, वहां है कीड़े सा
सोचता हूं सरकार बुलाले
करे चाय पर चर्चा मुझसे
पर मैं त्रिशंकु की तरह लटका
अपने ही फ्लैट में भगौने में
चढ़ाता हूं चाय
देख रहा हूं नीचे टपरे पर, गंदे लोगों को पीते चाय
देख रहा हूं टीवी में एलिट लोगों को पीते चाय
मैं अपनी बनाई चाय पी कर मुंह बनाता हूं
कंफ्यूज हूं कौन से वर्ग की है यह चाय?
***
चार
क्या सपने बन गए बोनसाई
(विचार मंथन)
कहते हैं कुछ लोग कि
जब बनती है स्त्री, मां
करती जाती है, अपने सपनों को छोटा, छोटा बहुत छोटा
होते जाते हैं सपने उसके बौने!
सोच का बवंडर उठा
भीतर उसके
क्या यह सच उसका भी है?
क्या होने दिया है उसने भी अपने सपनों को बौना?
बना दिया है उन्हें हरे-भरे वृक्ष से बोनज़ाई?
"विचार मंथन"
चल पड़ा अंतस में
ग़र ऐसा होता,
तो मिट चुका होता
कब का वजूद उसका!
उसने टटोला
खुद के वजूद को महसूस किया
'वो वहां है"
बड़ा अजीब है व्यक्तित्व उसका
एक और स्त्री विमर्श की बातें तमाम
पर झेलती है यातनाएं भी तो।
तो क्या छद्म है उसकी सारी बौद्धिकता?
लेखन में विरोध के स्वर हैं मात्र दिखावा!
तर्कों की मथानी से फिर मंथन वह करती है,
तब सांसारिक सच की सोच नवनीत सी उतरती है-
पत्नी और मातृत्व का चुनाव उसका ही तो है
तो फिर जायज है कुछ समझौते भी।
यातना सहते हुए भी वह खुद को खुश रख पाती है
अपने वजूद से पहचानी जाती है
यानी, नहीं होने दिया, उसने अपने सपनों को बौना।
जिजीविषा के पानी , महत्वाकांक्षा की खाद
और आत्म सम्मान की धूप ने बचाया है
उसके सपनों को बोनजाई बनने से!
***
परिचय
कहानी ,व्यंग्य ,कविता तीनों विधियों में लेखन। कहानी संग्रह 'मुर्दे इतिहास नहीं लिखते' महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी के प्रथम पुरस्कार प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित।
व्यंग्य संग्रह -'तेकहानी संग्रह नदी अभी सूखी नहीं -प्रकाशनाधीन।री,मेरी ,सबकी',# मीरा_कूल,उपन्यास -अदृश्य प्रकाशित। अपने समय का बखान और बखिया : लिखना परसाई का,, लघु उपन्यास , फैन्स के इधर उधर, लघुकथा संग्रह,बिखरते हरश्रृंगार, कविता संग्रह- खिड़की एक नई सी , कहानी संग्रह नदी अभी सूखी नहीं - प्रेस में।निरंतरा स्क्रिप्ट, गोदरेज़ फिल्म फेस्टिवल में प्रथम।
फिल्म अदृश्य को राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड्स। फिल्म, टेलीविज़न धारावाहिकों व रेडियो के लिए लेखन, स्तंभ लेखन व आने को पत्र पत्रिकाओं के लिए आलेख।
हरिशंकर परसाई पर लघु शोध व प्रबंध, शोध।
लघु फिल्मों का निर्माण।
अध्यक्ष राइटर्स व जर्नलिस्ट्स असोसिएशन महिला विंग मुंबई
निदेशक परसाईं मंच, अध्यक्ष महाराष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय महिला काव्य मंच, राष्ट्रीय अध्यक्ष अंतरराष्ट्रीय वामा साहित्य अकादमी,बोर्ड मेंबर सी एफ बी पी।
संपादन- रंगक़लम अप्रतिम भारत,मुंबई की हिन्दी कवयित्रियां संगिनी।
सम्मान - महाराष्ट्र हिंदी साहित्य एकेडमी,
दुष्यंत सम्मान,रचनाकार,आयेग(यू.के.) स्वस्थ भारत सारथी, आस्क सोसायटी सम्मान व्यंग्य यात्रा,नीरी, यादें बिस्मिल्लाह, कैरियर आफ्टर फैमिली,सी एफ बी पी, स्त्री शक्ति सम्मान, साहित्य रत्न सम्मान, महाराष्ट्र जागतिक महिला सम्मान, अंतरराष्ट्रीय महिला काव्य मंच का सम्मान आदि।