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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

01 फ़रवरी, 2025

सुषमा गुप्ता की कविताऍं

 


एक

आवरण


छूने पर खुद को 

समेटने वाली

लाजवंती की पत्तियां 

नहीं बचा पाई 

अपने आपको

उन क्रूर हाथों से

जिनका मकसद ही 

कुचलना था उन मासूम

पत्तियों को

बिखरी मिली क्यारी में

दबी कुचली हालत में


मुद्दा ये है कि 

रह गया हो शेष

कितना भी विवाद 

पर 

निर्णय पहनने वाले का होना चाहिए

कि उसके लिए  परदा 

बुरका या हिज़ाब

जरूरी है 

सुरक्षित है

या कोई अनावश्यक आवरण


क्यों कि

बिखरने और

लूटने से 

बचाने के लिए

आवरण कोई 

तय सीमा नहीं है ।

०००













दो 

किताब


सिरहाने रखी पुस्तक 

समझती है मेरी बैचनी

कितनी बार रातों को उसने सुनाई है

मुझे मेरी ही कहानियां


इसने दिया मुझे मेरा आसमान

मेरा सुकून,मेरी आजादी

इसने मुझे हंसाया है,रुलाया है

होंसला दिया है,अवसाद से निकाला है

पुस्तक में छपे शब्द खुद ब खुद सुना देते है 

सांत्वना भरे शब्द 

जो नहीं मिलते किसी प्रियजन के मुख से


मेरे अकेलेपन को तोड़ा है

मेरी खामोशियों को आवाज दी है

मेरी रुकी हुई जिंदगी को उड़ान दी है

एक रहनुमा दिया है मुझे


जब भी खुद को अकेला पाया तो

साथ रही पुस्तक ने निभाई 

बिना किसी स्वार्थ के अपनी दोस्ती

बिना मांगे ही दिया 

उसने मुझे बहुत कुछ

सच में 

पुस्तक सिर्फ देना जानती है।

०००


तीन 


कविता


पूर्ण हो कर

जन्म ले या

मन के गर्भ से ही

खत्म हो जाए कविता

पर मर्म को अपने 

शब्दों में ढालकर

कह जाती है

अनकही अनसुनी बातें


शब्द जुगाली करते

फिर फिर बनते बिगड़ते

खिल ही जाते हैं

किसी भी पृष्ठ पर

बनकर कविता

और चोट कर जाते हैं

उसके अंतर्मन को

जो आत्मसात 

कर पाता है 

कविता से।

०००


चार

मोहपाश से मुक्ति


कितना मुश्किल था

त्यागना अपने प्रेम की

स्मृतियों को

भूल पाना अपने 

किसी प्रिय को


निकलना 

किसी पिंजरे से नहीं

बल्कि मोहपाश से था

जिससे बंधी वो 

भूल गई थी

खुद को


कोई अस्तित्व  

नहीं था उसका 

एक बंधन 

जिसे प्रेम समझ

वो चल रही थी 

तुम्हारे दिखाए

किसी निश्चित 

रास्ते पर 


जब अनंत से

कोई पुकार

सुनाई दी

जो उसके अंतस

को उद्वेलित कर

बुला रही थी उसे

अपने करीब

बेहद करीब


चल दिए कदम

अपनी बेड़ियों

को भूल कर

किसी नए रास्ते पर

छोड़ कर सब

प्रेम के बंधन


हां

ये सच है कि

कोई उसे बुद्ध तो

नहीं मानेगा

पर उस अनंत से

मिलकर उसकी 

अपूर्णता को

मिल जाए

एक नया आकार

जो कर दे

उसे पूर्ण ।

०००













पॉंच 

स्त्री मन


उसने कब चुनी

अपने लिए संस्कार की बाते

बस बो दिए गए बीज

उसकी कच्ची मिट्टी के मन में

अंकुरित होने के लिए


डर भी दर्ज कर दिया गया

कोमल से मन में

जो फिर कभी गया ही नहीं

एक बार दर्ज होने के बाद


लोक लाज भर दिया गया

बार बार उसके आगे बढ़ते को

कदमों को रोकने के लिए

रुक गई वो वही

नहीं निकल पाई

कभी फिर दहलीज 

के बाहर


उसके लिए तय कर दी गई

एक परिधि

नाप तौल कर हंसना

दिखाए गए रास्ते पर चलना

नजर झुका कर रखना

जुबान बंद रखना


चलती रही तय किए गए

दायरों में

और उन्ही दायरों के

बीच जिंदगी गुजार दी।

०००


छः 

दिल के रिश्ते


वो एक दूसरे की

प्राथमिकता नहीं बन सकते 

और न ही एक दूसरे के वास्ते

अपनी दुनिया छोड़ सकते


किसी भी तरह की कोई

संभावना उनके बीच में नहीं है

अलग अलग दुनिया

और उस दुनिया में अलग ही

दोनों की प्राथमिकताएं


इन प्राथमिकताओं और 

संभावनाओं के बीच

कोई भी समीकरण नहीं है

लेकिन फिर भी

किसी अदृश्य डोर से

बंधे वो जुड़े हुए हैं

एक दूसरे से


किसी बात पर बेझिझक

बहस करते वो

याद रखते हैं अपनी हद

बातों और मुलाकातों में

होती है एक निश्चित दूरी

पर अपनत्व में 

नहीं होती कोई कमी


उलझनों को

सुलझाने की कोशिश और

एक दूसरे को

समझने की कवायद

साथ रहती है हमेशा


समांतर चलते इन

आत्मिक संबंधों को 

देखकर

ऐसा नहीं लगता कि 

दुनियावी रिश्तों के साथ

भावनाओं का भी 

अपना अस्तित्व होता है ?

और उन रिश्तों का कोई

नाम नहीं होता ।

०००


सात 

माँ


माँ तेरा आँचल

आज भी मेरे दुख की गर्मी पर

शीतल छाँव सा लहराता है

मेरी सारी उदासी को

हवा के झोंके सा 

उड़ा कर ले जाता है


माँ तेरा दुलार

तेरी याद बन मेरे मन में

हूक बन उठ जाता है

वो प्यार भरी सी बातों का

झोंका फिर आँखों को 

नम कर जाता है


माँ तेरा प्यार 

दिल से मेरे ज़ख्म के छालों पर

एक मरहम सा लग जाता है

तेरी सीख से दुनिया के

सभी विरोध से लड़ने का 

हौसला आ जाता है


माँ तेरा गुस्सा

जो अक्सर झूठा ही होता था

मेरी गलती के सबक बन

आज भी मुझे कोई

नया पाठ सीखा जाता है।

०००

आठ

तुम्हें आना था


यू तो रोज ही मैं

अपना आँगन

बुहार लेती हूँ


पर आज मैने अपने

मन के आँगन को

अच्छे से बुहार कर

रखा था....

क्योंकि तुम्हें आना था


मन के सभी विषाद, दर्द

छिपा दिए थे कहीं

और मुस्कान लेप ली थी

मन के आँगन में

क्योंकि तुम्हें आना था


अपनी चिंता उड़ा दी थी

अपने से दूर कहीं

और खुशी निकाल ली थी

दबी हुई थी जो

मन के किसी कोने में

क्योंकि तुम्हें आना था


व्यस्त पलों को 

निकाल दिया था मन से

और ढूंढ ली थी फुरसत

जो मिल नहीं रही थी

कई दिनों से

क्योंकि तुम्हें आना था


सुबह से शाम 

रखी थी रास्ते पर नज़र

हर आहट पर 

धड़का था दिल

पर तुम नहीं आये

मैंने किया था इंतजार

क्योंकि तुम्हें आना था।

०००



परिचय 



जन्मतिथि : 20 सितम्बर

शिक्षा : M. Sc. (भूगोल) M. A. (हिंदी) (इतिहास)

कार्य : वरिष्ठ अध्यापक ( विज्ञान)  श्रीगंगानगर

लेखन विधा : कविता, कहानी,लघुकथा

प्रकाशित कृतियां : सांझा काव्य संकलन " उड़ान" , सांझा काव्य संकलन " नारी तू अपराजिता" ,साझा काव्य संकलन "काव्य मंजरी" पता : मकान न. 15 ,गली न. 2

बाबादीप सिंह कॉलोनी,श्रीगंगानगर (राजस्थान)

ईमेल : kamalvijay40@gmail.com

दूरभाष नंबर : 9414246235

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