image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

22 सितंबर, 2017




उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के 26 वर्ष

मनाली बर्मन

आज शासक वर्ग की तरफ से हमें तरह-तरह की कहानियां सुनाई जा रही है। "मन की बातें" "चाय पर चर्चा" आदि आदि। LPG - liberalization, Privatisation & Globalisation, यानी  की उदारीकरण निजीकरण तथा वैश्वीकरण की नीतियों को लागू हुए 26 से भी अधिक हो चुके हैं। ऐसे में यह बेहद जरुरी हो जाता है कि हम भी तथ्य तथा आंकड़ों पर अपनी एक पुख्ता समझ बनाएं। यह जानना बेहद जरूरी है किन 26 सालों के वैश्वीकरण का आर्थिक पक्ष क्या है? राजनीतिक पक्ष क्या है?
    24 जुलाई, 1991; दोपहर का एक बजना चाह रहा था। कांग्रेस की नरसिम्हाराव की सरकार मात्र एक महीना पहले ही जीत कर आई थी। हवा में एक विशेष तरह का माहौल था कि कुछ होने वाला है। आप में से बहुत सारे तो उस समय शायद पैदा भी नहीं हुए थे। ऐसे में एक बजट पेश किया गया। डॉक्टर मनमोहन सिंह, जो कि एक अर्थशास्त्री हैं, उन्होंने तब तक कि अपनी सारी मान्यताओं से अलग एक बजट पेश किया। बजट में इकबाल के गीत गाए गए। (सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा)। उस बजट को देश की अर्थव्यवस्था के लिए संजीवनी बूटी, रामबाण और ना जाने क्या क्या कहा गया। तमाम तरह की लुभावनी चिकनी-चुपड़ी बातें की गईं। उन्होंने अपने बजट के भाषण का अंत ऐसे किया था, " मैं आगे के लंबे सफ़र में आने वाले मुश्किलों,  दुविधाओं तथा परेशानियों को कम कर के नहीं आंकना चाहता। पर मैं यह एलान करता हूं कि अब वह समय आ गया है कि हम दुनिया को बता दें कि हमारा देश एक आर्थिक महाशक्ति बनने के लिए पूरी तरह तैयार है। हम सारी दुनिया को साफ और खुले शब्दों में बता देना चाहते हैं कि भारत अब जाग चुका है। अब भारत दहाड़ेगा और यह निश्चित है कि वह कामयाब होगा और दुनिया में छा जाएगा!"  ऐसा माहौल बन रहा था कि जैसे किसी डरावनी फिल्म का अंत बस होने ही वाला हो!  पीछे-पीछे संगीत बज रहा हो!
       जबकि 24 जुलाई से पहले अखबारों में यह लगातार बताया जा रहा था कि भारत के पास विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खत्म हो चुका है। अब हम डूबने वाले हैं! साहूकार हमें पकड़ने वाले हैं! हमारा ये हो जाएगा, हमारा वो हो जाएगा, हमारा सत्यानाश हो जाएगा! 4 जुलाई को पी. चिदंबरम ने वित्तीय बजट पेश किया। 18 से 22 जुलाई के बीच भारत ने अपना 47 टन सोना गिरवी रखा। उसके बदले में 20 करोड़ डॉलर लेकर आए। और फिर हुआ मनमोहन का बजट पेश। आज उस घटना को 26 साल से भी अधिक हो गए हैं। इन 26 सालों में क्या नया हुआ? क्या विकास हुआ? कैसा व किसका विकास हुआ? यह हमें समझना है, जानना है ; पर इसकी बात आज देश में कहीं नहीं हो रही।
         
       आइए जरा भावनाओं को थोड़ा रोककर आंकड़ों में बात करते हैं। जरा देखें तो कि हमें बताया क्या जा रहा है और असल में है क्या?

 शासक हमें दो बातों के बारे में बताते हैं :-
 1 जीडीपी
2 ग्रोथ
     जीडीपी का मतलब है - हमारी अर्थव्यवस्था का आकार, यानी कि 1 वर्ष में देश के अंदर कितना उत्पादन हुआ, कितना  निर्यात हुआ, कितनी वस्तुओं का उत्पादन  हुआ, कितनी सेवाओं का उत्पादन हुआ। यानि कि देश के सभी लोगों का खर्च और देश के सभी लोगों की आय
   सन् 1991 में देश का जीडीपी 270 बिलियन डॉलर था। आज 2700 बिलियन डॉलर है। 2700 बिलियन डॉलर का मतलब क्या है। 2700 बिलियन डॉलर आखिर होते कितने हैं? इसका मतलब है कि अगर इस राशि को देश के 130 करोड़ लोगों में बांट दिया जाए तो हरेक के हिस्से में लगभग डेढ़ लाख रुपेया आ जाएंगे। अब औसतन 5 लोगों का एक परिवार मान कर चले तो हर परिवार का हिस्सा लगभग 7-7.5 लाख सालाना हुआ। मेरे ख्याल से इतने में एक परिवार सम्मानजनक व ठीकठाक  ढंग से अपनी गुजर-बसर कर सकता है ।

अब जीडीपी में दस गुणा वृद्धि के हिसाब से देखें तो हमने इन 26 वर्षों में अच्छी तरक्की की है। दूसरी चीज है - ग्रोथ, यानी कि आर्थिक विकास। पहले हमारे ग्रोथ 3% के आसपास हुआ करती थी जो अब 7.8%  तक पहुंच गई है। शेयर बाजार सूचकांक 1000 से बढ़कर 30,000 से भी ज्यादा पर पहुंच गया है। उस समय मैसेज 50 लाख फोन हुआ करते थे, आज 106 करोड़ फोन हैं। यानी कि सब बढ़िया चल रहा है! है कि नहीं?
  उस समय विदेशी मुद्रा भंडार एक बिलियन डॉलर भी नहीं था, आज हमारे पास 380 बिलियन डॉलर की फॉरेन एक्सचेंज है। हम बेहद ताकतवर हो चुके हैं! तो क्या अब यह मान लिया जाए कि अब हम महाशक्ति बन चुके हैं? आइए यह माल लेने से पहले कुछ और आंकड़े देखते हैं।
    सब कुछ अच्छा चल रहा है! उत्सव जारी है! परंतु इस सारी चमक-दमक के बीच में हमारे शासकों को बस एक ही बात चुभ रही है कि कुछ लोग दबे-छुपे या जोर से, चुपके-चुपके या सरे-आम, अलग-थलग या एक साथ, ये बातें कर रहे हैं कि यह सारा विकास गरीबो तक पहुंचा ही नहीं है। अब इस मर्ज की दवा भी वे लोग कर ही लेते अगर उनको पता चल जाता कि ये गरीब कौन हैं। पिछले 7-8 सालों में गरीबी को समझने के लिए अनेकों कमेटियां बनीं :- तेंदुलकर कमेटी, रंगराजन कमेटी, वर्ल्ड बैंक की कमेटी, यूएनडीपी, आदि-आदि! कमेटी पेब कमेटी! कोई कह रहा है कि 10 में से एक गरीब है तो कोई कह रहा है कि 10 में से 8 गरीब हैं। अब 130 करोड़ की आबादी में एक गरीब होने का मतलब है 13 करोड़ गरीब! और 8 गरीब होने का मतलब है कि 130 में से 100 करोड़  लोग गरीब हैं।
      अब सन् 1991 में उन्होंने जो नीति बनाई, उसका प्यार से, पुचकार से LPG - Liberalization,  Privatisation, & Globalisation यानी कि उदारीकरण, निजीकरण, तथा वैश्वीकरण नाम रखा गया।  इसे उन्होंने दवाई की तरह पेश किया, जिसका असर हमें आज देखने को मिल रहा है।
   लेकिन किसी भी देश के विकास को मापने का एक और पैमाना है जिसे मानव विकास सूचकांक ( HDI - Human Development Index) कहते हैं। इसकी अवधारणा एक पाकिस्तानी अर्थशास्त्री महबूब -उल -हक ने दी थी। उन्होंने कहा कि सिर्फ जीडीपी से किसी देश की जनता के सही विकास का पता नहीं चलता। कुछ और पैमाने भी होनी चाहिएं। उन्होंने दो पैमाने जोड़े। पहला था - लोगों का स्वास्थ्य और दूसरा लोगों की शिक्षा।
     आज भारत दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। केवल पांच देश हमारे से ऊपर हैं। परंतु HDI में हमारा स्थान एकदम से 131 वां हो जाता है!  श्रीलंका 70 वें स्थान पर है और चीन 90 वें स्थान पर।  हमें सिर्फ एक बात की खुशी रहती है कि पाकिस्तान हमसे पीछे है ! वह 147 वें पायदान पर है। इस 'सुपरपावर' देश में हर साल जन्म लेने वाले बच्चों में से 20 लाा बच्चे 5 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते अकाल मृत्यु के गाल में समा जाते हैं! यानी कि हर 15 सेकंड में एक बच्चा दम तोड़ देता है। हमारे देश में 50% बच्चे कुपोषित हैं (इसका मतलब है कि उनकी उम्र के हिसाब से उनका वजन और कद दोनों कम है)। 75% बच्चों में खून की कमी है। दुनिया में हर साल एक करोड़ लोग TB से ग्रसित होते हैं।  उनमें से 28 लाख लोग अकेले हमारे देश में हर साल चपेट में आते हैं। यह एक ऐसी बीमारी है जो कुपोषण की वजह से फैलती है। अगर बढ़िया खाना और स्वच्छ वातावरण मिले तो यह आसानी से ठीक हो सकती है। यह मात्र एक मर्ज के बारे में जिक्र नहीं है, बल्कि हमारे प्रदूषित वातावरण और पौष्टिकता विहीन व अपर्याप्त खाने के बारे में एक टिप्पणी है।
   दुनिया के सबसे ज्यादा अशिक्षित लोग हमारे देश में हैं। देश की 30% जनता तो निरक्षर है। ये लोग अपना नाम तक लिखना नहीं जानते। मतलब यह है कि अपना नाम तक लिखना भी हमारे देश में 39 करोड़ लोगों को नहीं आता!
  औद्योगिक  क्षेत्र में 80 के दशक में अगर मुनाफे का एक रुपया मालिक की जेब में जाता था तो 2 रुपए 70 पैसे कर्मचारियों (मजदूर व प्रबंधन) के पास जाते थे। कर्मचारियों में बंटने वाली यह राशि अब घटकर सिर्फ 27 पैसे रह गई है।
  पिछले 20 सालों में तीन लाख से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की है। इसमें महिला किसानों और खेतिहर मजदूरों की संख्या शामिल नहीं है। हर साल 50 लाख किसान खेती छोड़कर कुछ और काम करने को मजबूर हो रहे हैं।
  आजादी के बाद, विकास के नाम पर देश में 6.5 करोड लोग विस्थापित हुए हैं। यानी कि सन् 1947 के बाद हर साल 10 लाा लोग बेकार-बेघर-वेदर हुए। विभाजन के समय में भी सिर्फ एक करोड़ लोग विस्थापित हुए थे।

     पिछले 25 सालों में दंगे भी खूब हुए हैं। सन् 2013 में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में 6.5 करोड़ लोग टेंपो में गुजर -बसर कर रहे थे। उनमें 40% दलित थे और 40% आदिवासी !
    तस्वीर का दूसरा पहलू यह है किस देश का अमीर तबका पिछले 25 सालों में और अमीर हुआ है। बहुत अधिक अमीर हुआ है। देश की ऊपर की 10% आबादी के पास 80% धन-संपदा है और बाकी की 90% जनता के पास सिर्फ 20% धन-संपदा है। देश के सबसे अमीर 1% लोगों के पास देश की 60% धन-संपदा है। मात्र 57 (सत्तावन) लोगों के पास उतनी संपत्ति है, जितनी देश के नीचे के 70% (91 करोड़)  लोगों के पास है!  खरबपतियों क्लब में तो हम छा ही गए हैं! सन् 1991 में हमारे पास केवल 2 खरबपति थे, और अब पूरी दुनिया के तकरीबन 2000 खरबपतियों में से 101 खरबपति हमारे हैं!

  समाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य

दुनिया के विकसित देश अपनी जीडीपी का 30 से 35% जनता की बुनियादी सुविधाओं पर खर्च करते हैं। हमारा देश मात्र 2.39 प्रतिशत खर्च करता है। आज के दिन हमारा बजट जीडीपी का सिर्फ 10 से 12% तक है। इस साल का बजट तकरीबन 20 लाख करोड रुपए का है। इसमें से एक चौथाई हिस्सा, लगभग 5 लाख करोड़ रुपए सरकार ने ब्याज दे दिया है - पुराने कर्जे का! एक चौथाई रक्षा पर खर्च किया है, लगभग 4.5 लाख करोड रुपए।
  कृषि पर देश की लगभग 50% जनता निर्भर है। सरकार की तरफ से कृषि के लिए न्यूनतम वेतन 328 रुपए प्रतिमाह है!
   देश में 42% बच्चे आज भी स्कूल नहीं जा पाते! 50% सरकारी स्कूलों में टॉयलेट तक नहीं है। एक चौथाई स्कूलों में पीने का पानी नहीं मिलता है। शिक्षा पर जीडीपी का मात्रा आधा प्रतिशत ही खर्च किया जाता है। उच्च शिक्षा का बजट केवल 33000 करोड़ रुपए का है।  उसमें से भी 12000 करोड़ रुपए आईआईटी और एनआईटी संस्थानों को दे दिए गए हैं, जो केवल 64 है पूरे देश में। दूसरी तरफ, AICTE (ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन) को सिर्फ 485 करोड रुपए दिए गए हैं।
 
स्वास्थ्य में जीडीपी का मात्र 0.3 प्रतिशत खर्च किया गया है। उसमें भी ज्यादातर राशि नए-नए AIIMS खोलने में लगा दी है।
   जब भी किसानों या मजदूरों को कोई सब्सिडी दी जाती है या उनके लिए कोई कल्याणकारी योजना बनाई जाती है तो मीडिया तथा उपरी तबकों द्वारा खूब हो-हल्ला मचायाह जाता है। कहा जाता है इनको यह जो खैरात दी जा रही है,  वह पूरे देश की अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठा रही है। लेकिन अमीरों को दी जाने वाली सब्सिडी या छूट पर बात ही नहीं की जाती उसे छुपा कर रखा जाता है।
   आओ जरा धन्नासेठों को दी जानेवाली टैक्स रियायतों पर बात करें। बजट में 'रिवेन्यू फॉरगोन ' के नाम से एक कालम होता है, जिसमें वर्ष भर में माफ किए गए कुल राजस्व का विवरण  होता है । याा की 'बड़े दिलवाली' सरकारों ने बेचारे अडाणीयों -अंबानियों, माल्या-मोदियों का कितना टैक्स माफ कर दिया। इस साल का रेवेन्यू फॉरगोन 6.3 लाख करोड़ रुपए है। सन् 2005-6  से लेकर  अब तक धनिकों का 55 लाख करोड़ रुपए का रेवेन्यू माफ किया जा चुका है।
    बैंकों का 6.5 लाख करोड़ का एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट) है। यानी कि बड़े-बड़े लोग बैंकों से उधार लिया गया इतना पैसा वापस नहीं देने वाले। सबसे ज्यादा लोन लेने वाले वाले ऊपर के केवल 400 लोगों के पास 16 लाख करोड़ रुपये का लोन है!
  दोस्तों क्या आपको कभी कभी ऐसा नहीं लगता कि यह एक ही देश की बात हो रही है या फिर दो देशों की! 'हमारी' सरकार 90% जनता के लिए काम करती है या फिर मात्र 10% के लिए।  क्या इन सब आंकड़ों से एक बात पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो जाती कि देश की गरीबी का मसला आर्थिक नहीं, बल्कि पूरे तौर पर राजनीतिक है?


- मनाली बर्मन (IIT कानपुर)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें