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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

19 सितंबर, 2017

कहानी: न्याव




                                                   
                                                        सत्यनारायण पटेल

—ओय इधर आ!

उन्होंने मुझे आवाज दी। वे तीन थे, और यशोदा-कृष्ण द्वार के पास वाली गुमटी के सामने खड़े सिगरेट पी रहे थे। उनमें से कोई भी मेरा दोस्त या दुश्मन नहीं। लेकिन वे जानते हैं कि मैं कौन हूँ! मैं जानता हूँ कि वे कौन हैं! पूरा मोहल्ला जानता है कि मैं किस्से-कहानी सुनाता हूँ! उन्हें पूरा वार्ड जानता है। जाने भी क्यों नहीं भला! उनके ईश्वर ने उन्हें हुनर ही ऐसा बख्शा है। वे किसी के भी गाल व कूल्हे पर ब्लेड से कमल खिला सकते हैं। जब तब खिलाते भी रहते हैं। उनका आका तीसरी बार मंत्री बन चुका है। उन बापड़ों पर काम का दबाव बढ़ता ही जा रहा है। क्या गाँव और क्या शहर! सब कुछ उनकी जद में! फिर भी वे जब कभी मस्ती में होते हैं या यूँ ही किसी के मजे लेने का मन होता है बहुत प्रेम से लेते हैं। उस दिन मैं सामने पड़ गया। तो मुझे आवाज दे दी, और मैं उनके पास गया। उन्होंने मुझे भेरू बाबा के ओटले पर बैठा लिया। फिर एक ने सिगरेट का कश लेने के बाद पूछा - कहाँ जा रिया बे


मैंने कहा कि मैं गाँव जा रिया हूँ!

—  क्यों?

—  शिकारी के प्याऊ पर!

—  अबे घनचक्कर... तेरे नल में नर्मदा का पानी नी आ रिया क्या! दूसरे ने पूछा और गुमटी वाले से कहा - अरे जरा पानी का पाउच दे...।

मैंने कहा कि नहीं... मुझे प्यास नहीं! चल हमें भी सुना! भोत दिन से तूने कुछ नी सुनाया! तीसरे ने कहा।

मुझे उनकी बात सुन ताज्जुब हुआ! किसी को भी होगा ही! क्योंकि आज जब आबादी का बड़ा हिस्सा फेसबुक, व्हॉट्स एप्प, हाईक और टेलीग्राम में उलझा है, वे किस्सा सुनाने की जिद कर रहे हैं, जबकि खुद अनेक किस्सों के जनक है। हालाँकि लंबे अर्से के बाद यह जिद की थी। मुझे यकीन नहीं हुआ, तो फिर पूछा - क्या कहा।



—  अबे बहरा है क्या? पहले कहा और आगे बोला - कि ज्यादा भाव खा रिया। कुल्हे पर फूल खिलाऊँ अभी...। चल... किस्सा सुना। और हाँ... नया सुनाना।

अब मेरे सामने यकीन के सिवाय कोई चारा न था। खुद से कहा कि हम वक्त की जिस बुलेट ट्रेन में सफर कर रहे हैं उसमें कुछ भी संभव है। कुछ भी का मतलब, कुछ भी। फिर भी मन में एक सवाल था कि आखिर आज ऐसा क्या है जो ये इतने फुरसत में हैं, और किस्से की जिद कर रहे हैं। याद आया कि आज इकतीस अक्टूबर है। और फिर यह भी कि आज सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म दिन है, और इंदिरा गांधी की पुण्य तिथि भी। लेकिन फिर भीतर सवाल ने सिर उठाया कि इन सब से इनका क्या लेना-देना। मैंने कहा कि चलो, मैं एक किस्सा सुनाता हूँ। और शिकारी का ही सुनाता हूँ। लेकिन आप ये बताओ कि आज आपको इतनी फुरसत कैसे है।

—  अबे आज इकतीस अक्टूबर है न। दूसरे ने मेरे घुटने पर हाथ मारते हुए कहा।

—  हाँ तो...!

—  तो क्या! जंगल में रेह रिया है तू! फेसबुक, व्हॉट्स एप्प कुछ देखता है कि नी! आज सब इंटरनेट का त्याग कर रिये हैं, तो हमने भी गोली मार दी! तीसरे ने कहा और बताया - आज हम भी नी चला रिये! ...स्साला दिन भर पका देता है! टुचुक... टुचुक... लगे रहो! और फिर कोई वीडियो क्लीप ऐसी आ जाती है कि दिन भर मगज भन्नाता रहता है।

अरे हाँ..., मुझे भी कुछ महीने से ये लत लग गई... आज फुरसत मिली, तो सोचा कि गाँव हो आऊँ! देखूँ... शिकारी की डोकरी के न्याव के बाद क्या हुआ! हालाँकि एक-दो बार गाँव फोन पर बात हुई थी। मैंने सुना कि बाद में भीड़ शिकारी को अस्पताल ले गई। शिकारी की जान बच गई, लेकिन शिकार करने लायक नहीं रहा! और फिर मैंने यह भी सुना कि शिकारी ने गाँव में स्कूल के सामने प्याऊ खोला है! वहाँ पहले से सरपंच के भाई की एक दुकान है! जिसमें कोल्ड्रिंग, चिप्प, बीड़ी, सिगरेट, माचीस आदि चीजें रखता है! ठीक उसकी दुकान की बगल में शिकारी ने प्लाऊ खोला है! मैंने सोचा कि देख तो आऊँ! कोल्ड्रिंग की दुकान की बगल में प्याऊ कैसा दिखता है! और प्याऊ पर बैठा शिकारी कैसा लगता है! क्या उसके प्याऊ पर पानी पीने प्रियंका भी आती है? मैं अपनी रो में बहने लगा।

—  अबे तू महको ये क्या सुना रिया! प्रियंका क्या किसी प्याऊ पर पानी पिएगी! पहले ने मुझे टोका!

—  अरे वो तो नहाएगी भी मिनरल वॉडटर से... और धोएगी भी मिनरल वॉटर से! दूसरे ने पहले की हथेली पर हथेली मारते हुए कहा।

—  नी भिया... मैं उस वाली प्रियंका की बात नी कर रिया हूँ... मैंने कहा।

—  अबे तू कहीं... आटा चक्की वाले की लड़की की बात तो नी कर रिया। उसका नाम भी प्रियंका है...! तीसरे ने कहा और फिर दूसरे की हथेली पर हथेली मारने और बाईं पलक झपकाने के बाद दबे सुर में बोला - अब उसका तो भंडारा हो गया... और व्हॉट्स एप्प पर भी डल गया।

— नी भिया आटा चक्की वाले की लड़की के बारे में कुछ नी जानता। मैंने कहा।

—  तो तू सुना क्या रिया बे। हमें तो कुछ पल्ले नी पड़ रिया! दूसरे ने कहा, और फिर सिर के बालों में खुजलाते हुए पूछा - ये शिकारी कौन है! और फिर ये वाली प्रियंका कौन है! शिकारी की डोकरी का न्याव क्या है! तू ऐसे अपनी धुन में बह रिया...! जैसे खुद को सुना रिया!

—  अरे हाँ, माफी चाहता हूँ! मैंने कान पकड़ते हुए कहा, और बोला - मुझे लगा कि शिकारी के बारे में मैं पहले कभी बता चुका हूँ! पर शायद नहीं बताया होगा! किस्सा ज्यादा पुराना नहीं है, और पहली बार ही सुना रिया हूँ! और शिकारी से ही शुरू करता हूँ!

शिकारी का नाम सुरेश है। सुरेश जैसे शिकार करने को ही जन्मा हो! हाँ, शिकार! पक्का शिकारी! जैसे छिपकली होती है न, जन्मजात शिकारी! बस... समझ लो..., कुछ ऐसा ही सुरेश भी! छिपकली और उसमें फर्क..., केवल इतना कि छिपकली पेट भरने के लिए शिकार करती, और सुरेश...! उसे पेट की चिंता नहीं। वो सब जुगाड़ था उसके पास! किसी और के पेट की भी चिंता नहीं, क्योंकि वह शिकार के पीछे इतना दीवाना, पागल था कि शादी-ब्याह, गृहस्थी के पचड़े में ही न पड़ा!

हाँ, उसकी डोकरी थी। डोकरी ही पैतृक जायदाद सँभालती। हाली-नौकर से काम कराती। डोकरी चिंता भी करती। उसके बारे में बहुत-कुछ सोचती, और कभी कहती भी —  बाप के नक्शे कदम छोड़ दे। घर बसा ले। नी तो मिट जाएगा। गारे को गारे में मिलते देर नी लगती।

लेकिन सुरेश मनमौजी। छुट्टा। डोकरी अंकुश लगाती। वह हर अंकुश, बंधन तोड़ देता। क्योंकि जैसे उनका डीएनए शिकारी का था, और वह शिकार के सिवा कुछ और नहीं कर सकता। शिकारी के नाम से इतना ठावा कि लोग उसका असल नाम लगभग भूल ही गए। वैसे तो उसका भले लोगों से कम ही पाला पड़ता, लेकिन फिर भी कभी पीपल के नीचे ओटले पर ताश-पत्ते खेलने बैठ जाता, तो साथी खिलाड़ी उसे शिकारी के नाम से ही पुकारते। हालाँकि उनकी पुकार में पैना व्यंग्य होता, और किसी की पुकार में उपेक्षा का पुट भी। उसे सहर्ष कोई अपना भिडू नहीं बनाता, जब मौके पर कोई और न होता, तो उसे बैठा लेते। लेकिन जब वह खेलता, बेगम पर उसकी खास नजर होती। जैसे ही खिलाड़ियों के बीच बेगम नमूदार होती, तो वह दुक्की, गुलाम, बादशाह और इक्का तक की पूरी फौज लगा देता, पर बेगम को जाने न देता। यानी शिकारी बेगम का शौकीन। शौक का गुलाम - लती भी कह लो, शिकारी को कोई फर्क नहीं पड़ता। हाँ... एक बात है। शिकारी बदनाम जरूर था, पर किसी माई के लाल ने उसे शिकार करते कभी देखा नहीं। या कह लो कि रंगे हाथों पकड़ा नहीं। यानी जब वह शिकार करता, तो फिर चुपके से, धोके से, गुपचुप ही करता। खुलेआम तो हमला किया जाता। डाका डाला जाता। लूट की जाती। जो गाँव का सरपंच, या देश-प्रदेश के चौकीदार, सेवक आदि करे, तो करे। लेकिन शिकारी नहीं करता।

और तो और वह किसी प्राचीन शिकारी की तरह दिखता भी नहीं। न बड़े-बड़े बाल, न मूँछे। न घोड़े पर सवार। न हाथ में तलवार या भाला। न पैरों में चैन वाले लांग बूट। वह तो क्लीन सेव रहता। सोबर पैंट-शर्ट पहनता। और जो भी उसे नहीं जानता, वह पहली नजर में उसे शिकारी मान ही नहीं सकता। वह करीब सैंतीस-अड़तीस का, और इतना भला-भोला लगता कि कोई छोटी बच्ची भी उसके गाल पर चुम्मी देते नहीं झिझकती। और बच्चियों के लिए तो उसकी जेब में सदा ही चॉकलेट भरी रहती।

प्रियंका का तो जैसे सुरेश की जेब पर एकाधिकार था। उसकी गली की थी वह। स्कूल आते-जाते। सुरेश की जेब पर डाका डाल देती। प्रियंका डाका डालते-डालते ही किशोर हुई। कक्षा नौवीं में जाने लगी। आसमानी बुशर्ट और गहरे नीले रंग की स्कर्ट उसकी स्कूली ड्रेस थी। प्रियंका के बाल बहुत लंबे थे। उसकी डोकरी जब दो चोटी बनाती, तो चोटी स्कर्ट तक लंबी बनती। फिर वह चोटियों की घड़ी करती। लाल रिबन से बाँछती। और फिर लाल रिबन से ही दोनों चोटियों पर एक-एक फूल खिला देती। और उसकी आँखें। खैर छोड़ो। नौवीं की छात्रा की आँखों की क्या बात करें। बस... इतना समझ लो, प्रियंका की आँखों के सामने हिरनी की आँखें पानी भरती। और डील-डौल भी पंद्रह-सोलह की उम्र-सा निकल आया। स्वस्थ! सुंदर! पढ़ने में भी होशियार! माँ-बाप की नाक! लाड़ली लक्ष्मी। पिछले बरस स्कूल में रस्सी कूद, लंगड़ी कूद, और नीबू रेस में प्रथम आई थी।

चूँकि उस दिन इतवार था इसलिए प्रियंका ने स्कूली ड्रेस नहीं पहनी थी। गुलाबी बुश्शर्ट और काला पेटीकोट पहना था। दो चोटियाँ पेटीकोट तक झूल रही थीं, और उन पर नीले रिबन से दो फूल खिले थे। वक्त टीवी पर सत्यमेव जयते के खत्म, और रेडियो पर मन की बात शुरू होने का था। सरपंच की दुकान से प्रियंका अपने बापू के लिए बीड़ी-माचिस खरीद लौट रही थी। तितली-सी बेफिक्र... और कुछ गुनगुनाती भी!

शिकारी का मन टीवी पर कुछ भी देखने का नहीं था। हाँ..., उसकी डोकरी जरूर किसी चैनल पर द्रोपदी का चीरहरण देख रही थी। शिकारी अपने घर के सामने यूँ ही खड़ा था। चार-छ दिन से उसका मन किसी चीज में नहीं लग रहा। शिकार किए भी पंद्रह-बीस दिन हो गए। आखिरी शिकार चालीस साल की विधवा स्त्री का किया था। अब मन फिर से शिकार करने का हो रहा। मोबाइल फोन में आने वाली पोर्न क्लीप भीतर सुलगती आग में घी का काम कर रही। वह ऐसे लग रहा, जैसे पंख फड़फड़ाती फुद्दी के शिकार के इंतजार में छिपकली दीवार में चिपकी हो! दम साधे! जीभ भीतर-बाहर करती! मरकुरी या सीएफएल के आस-पास मंडराती फुद्दी। कब छिपकली के सामने दीवार पर बैठे..., और छिपकली झट-से मुँह खोले... लप्प से दबोच ले! शिकारी की मनःस्थिति ऐसी ही कुछ रही होगी उस वक्त!

शिकारी ने लप्प से फुद्दी की तरह प्रियंका को दबोच लिया। ठीक उस क्षण गली में कोई था नहीं। प्रियंका अचानक कुछ समझ न सकी। न सँभल सकी। हाथ से बीड़ी का बंडल छूट गया।

वहीं शिकारी के मवेशी बाँधने का कोठा था, जिसमें उस वक्त मवेशी नहीं थे। प्रियंका को कोठे में ले जाकर शिकारी किंवाड़ बंद करने लगा। प्रियंका अपनी कलाई छुड़ाने की कोशिश करने लगी - अंकल छोड़ो...। मैं डर गई...। छोड़ो...। क्या कर रहे हो। छोड़ो... अंकल।

लेकिन शिकारी ने छोड़ने के लिए नहीं लपकी थी। हायबाप में प्रियंका की बुशर्ट के बटन टूट गए।

प्रियंका जोर से चीखती दरवाजे तरफ भागी। भागी कि कूंदी खोल गली में, सेरी में चीखे-चिल्लाए। मगर उसका पैर वहीं बँधी पाड़ी के पोंटे पर पड़ा और वह फिसल पड़ी। तभी शिकारी ने फिर से जफोत ली। प्रियंका के मुँह को हथेली से दबाने लगा, ताकि उसकी चीख भीतर ही दम तोड़ दे। मगर प्रियंका ने हथेली में दाँत फँसा दिए। दूसरे हाथ से शिकारी प्रियंका की पीठ पर मुक्के मारने लगा। प्रियंका फिर चीखती किंवाड़ की ओर भागी। लेकिन शिकारी ने कस कर दबोच लिया।

दूरदर्शन पर सत्यमेव जयते खत्म हो चुका था, रेडियो पर मन की बात शुरू होने को थी। तभी प्रियंका की चीखें कुछ लोगों को घरों से बाहर खींच लाई। किंवाड़ पर एक साथ कई लात पड़ी, तो किंवाड़ भी खुल गया। लोगों ने देखा कि प्रियंका किसी बाघिन की तरह शिकारी से संघर्ष कर रही है। हालाँकि प्रियंका के होंठ से खून रिस रहा था। उसकी खुली छातियाँ दो सुलगते अंगार-सी धधक रही थीं।

अब तक पूरी गली में जैसे हलातौल-सी मच गई। शिकारी की डोकरी। प्रियंका के माँ-बाप और बहुत सारे लोग-बाग जमा हो गए। शिकारी पहली बार रंगे हाथों धराया था। लोगों का गुस्सा उस पर बेतहाशा बरसने लगा। मार-मार कर अधमरा कर दिया। कपड़े फाड़ डाले। और घसीटते हुए पीपल के नीचे, सीतला माता के ओटले पर ला पटका।

कोई मोबाइल से शिकारी की तस्वीर खींचने लगा। कोई वीडियो बनाने लगा। कोई फेसबुक पर पोस्ट करता। कोई व्हॉट्स एप्प पर। किसी ने कहा कि पुलिस के सुपुर्द कर दो। तो किसी ने कहा कि देश में रोज सैकड़ों शिकार होती हैं। कितनी को पुलिस के जरिए और कोर्ट से न्याव मिला। बल्कि पुलिस और जज को मौका मिले तो, वे भी शिकार करने से नहीं चूकते। जब न्याव और लोकतंत्र के मंदिर में भी बलात्कारी, हत्यारों और डकैतों का बोल बाला हो तब फिर न्याव की उम्मीद किससे करें...? क्यों करें?

किसी ने कहा कि घासलेट डाल कर आग लगा दो। तो बहुतों ने कहा कि हाँ... हाँ... आग लगा दो।

भीड़ में खड़ी शिकारी की डोकरी को औरतें गाली बकती कि कैसा पूत जना। कोई नहीं जानता कि डोकरी पर क्या बीत रही। वह क्या सोच रही। आखिर वह माँ है।

डोकरी ने कई बार शिकारी को समझाया था। घर बसाने की सलाह दी थी। लेकिन शिकारी ने कभी उसकी नहीं सुनी। वह पूरा अपने बाप पर गया था। डोकरी शिकारी के बाप पर भी अंकुश नहीं लगा सकी थी। बाप की भी ऐसे ही मामले में पैंतीस साल पहले हत्या हुई थी। डोकरी को लगा कि पैंतीस साल पहले पति खोया था, अब बेटा खोऊँगी। सोचने लगी कि क्या फिर कोई शिकारी नहीं जन्मेगा? शिकारी की माँ की कोख से जन्मता है कि व्यवस्था की कोख से। हत्या से क्या होगा। पति की हत्या से क्या हुआ। लोक पति की हत्या को भूल गए। इसे भी भूल जाएगे। फिर! यह तो एक तरह का मुक्ति-मार्ग होगा। पहले पति मुक्त हुआ, अब सुरेश होगा। भला... किसी की सजा मुक्ति क्यों हो। सजा से सीख क्यों न हो। पैंतीस साल पहले तो कुछ न कर सकी, पर आज चुप नहीं रह सकती।

—  माँ हूँ तो कईं हुओ... वह बुदबुदाई —  क्या माँ.. सिर्फ रोने-गिड़गिड़ाने भर को हावे।

भीड़ देख रही डोकरी की तरफ। डोकरी की आँखों में आँसू का कतरा तक नहीं। दिल भी जैसे पत्थर का ही हो गया। वह ओटले पर चढ़ गई। सुरेश के पास खड़ी होकर भीड़ से कहने लगी - कोई पुलिस को नी बुलावेगा। कोई घासलेट डाली के नी बाळेगा! इको न्याव हूँ करूँगी।

— तु कई करेगी। तने ही तो यो साँप जण्यो! भीड़ में से एक विधवा औरत बो ली। उसके चेहरे पर जैसे शिकार होने की पीड़ा थी।

 — हाँ... इके मार दो, म्यारी छोरी भी इका डँसना से मरी थी। दूसरी औरत ने कहा।

— अरे जाने कित्ती बहन, बेटी और बहू लोक-लाज से मुँह सिले बैठी होगी। इना पापी ने जाने कित्ती के शिकार बनाई होगी। तीसरी औरत बोली। - हाँ... हाँ... मार दो, मार दो... भीड़ का सामूहिक स्वर फिर गूँजने लगा।

घायल सुरेश अभी ओटले पर पड़ा था। उसके मुँह से लार, और कपाल से खून रिस रहा, लेकिन बेहोश नहीं था। वह पड़ा-पड़ा सब सुन रहा, लेकिन जैसे उठ भागने की ताकत नहीं बची। या फिर शायद अपनी मुक्ति की प्रतीक्षा कर रहा हो। या फिर भागने के मौके की ताक में ही हो।

फिर प्रियंका का भाई घासलेट की केन लेकर ओटले पर चढ़ने लगा। तभी डोकरी ने जोर से उसे कहा - रुक! नीचे रुक!

वह घासलेट की केन के साथ ओटल पर चढ़ते-चढ़ते रुक गया। उसे लगा कि डोकरी नहीं, सीतला माता ने उसे रोका। वह भौंचक्क और सवालिया नजरों से डोकरी की तरफ देखने लगा। फिर लगा कि डोकरी नहीं, सीतला माता ही बोल रही - इके बाळीन (जलाकर) तू क्यों अपनी जिनगी राख करने पे तुल्यो है। मह्ने क्यो नी कि हूँ न्याव करूँगी।

फिर डोकरी भीड़ से मुखातिब हो बोली - म्हारा पे भरोसा करो। म्यारे न्याव करने को मौको दो। न्याव नी जँचे... तो फिर इकी साथ म्यारे भी फूँकी दी जो।

भीड़ शांत हो गई। प्रियंका की डोकरी बोली - तू कई न्याव करेगी..? कर ले..., हम भी देखाँ। एक माई को न्याव कसो होय।

डोकरी पीपल के तने तरफ बढ़ी। पीपल के तने में सीतला माता रखी थी। शीतला माता की मूर्ति नहीं थी। करीब दस-पंद्रह सफेद चकमक पत्थरों का एक ढेर था, वही सीतला माता थी। डोकरी ने दो पत्थर उठाए। एक चपटा और लगभग समतल। दूसरा मसलू जैसा कुछ लंबा-चिकना। पलटी तो भीड़ खुसुर-फुसुर करने लगी कि डोकरी के डील में साक्षात सीतला माता उतर आई। आज सीतला माता ही न्याव करेगी।

डोकरी का चेहरा भावहीन। जैसे गरदन पर चेहरा नहीं, सीतला माता का एक चकमक पत्थर ही धरा हो। भीड़ की आँखें उसी पर टीकी। डोकरी ने दोनों पत्थर ओटले के फर्श पर धरे। औंधे पड़े सुरेश को पलट कर जित किया। उसकी जाँखों को फैला कर चौड़ी की और फिर जाँघों के बीच ही बैठ गई। भीड़ के स्तब्ध चेहरे और फटी आँखों से मुखातिब हो डोकरी बोली - कोई कित्ता ही बड़ा शिकार हो। पर उकी ताकत उसका हथियार होवे। अगर शेर का भी दाँत तोड़ दो तो पंजा का नाखून उखाड़ दो, तो फिर वो भी किसी बूढ़े, निरीह बिल्ले-सा हो जाता है।

शिकारी ने बात समझ ली। फिर उसने डोकरी के चेहरे तरफ देखा, डोकरी के चेहरे में उसे अपनी माँ नजर नहीं आई। शिकारी भीतर काँप उठा। उसने डोकरी को धकियाने और उठ भागने की कोशिश की। लेकिन डोकरी ने दाएँ हाथ में पकड़े मूसली जैसे पत्थर से शिकारी के कपाल पर वार किया। वह जोर से चीखता हुआ, फिर चीत गिर पड़ा। फिर डोकरी ने उसकी कलाइयों के जोड़ पर वार कर उन्हें तोड़ दिया।

शिकारी की चीखों से पूरा माहौल काँप उठा। पीपल के पत्ते और डगाले तक धूजने लगी। लेकिन डोकरी के चेहरे पर सल नहीं पड़ा। भीड़ में अपनी डोकरी के पास प्रियंका खड़ी थी। उसे याद आ रहा कि वह कैसे अंकल की जेब से चॉकलेट लूट लेती। वह सुबकती बुदबुदाने लगी - अंकल..., ऐसा क्यों किया।

फिर डोकरी ने अपनी टाँगे भी शिकारी की जाँघों पर रख दी। ताकि शिकारी हिले-डुले नहीं। हालाँकि अब शिकारी लगभग मूर्छित अवस्था में था।

डोकरी ने चिकने और समतल पत्थर को ठीक से जमाया। फिर शिकारी के उस हथियार को जो शिकार के लिए जरूरी था, पकड़ कर एक बाजू किया। फिर पत्थर पर जैसे टिटोड़ी के दो अंडे रख लिए हों। खेत के गारे के रंग के अँडे। डोकरी ने मूसली के आकार वाले पत्थर को फिर से मजबूत पकड़ा। साँस भीतर खींची। हाथ ऊपर उठाया। और फिर टिटोड़ी के अँड़ों को... कच्चाऽऽक से फोड़ दिए।

कुछ क्षण के लिए हवा को लकवा मार गया। भीड़ की सिसकियों का दम घुट गया। लेकिन डोकरी का चेहरा और आँखें भी शांत रहीं। शिकारी तड़पता, छपपटाता ओटले पर पड़ा रहा। डोकरी उठी और अपने घर तरफ चल पड़ी।

— च्च च्च भौत खतरनाक किस्सा है बे। पहले ने कहा और बोला - छोरियों को छेड़-छाड़ अपने यहाँ भी करते हैं। कभी बात बिगड़ती है, और रिपोर्ट-इपोर्ट लिखा देते हैं... दो जमानत हो जाती है। ये कोई न्याव है क्या। शिकारी को बधिया बैल बना दिया। इससे तो अच्छा वही होता कि उसे मार देते।

— अरे वो था न... क्या नाम। दूसरा याद करता बोला - एमआयजी थाने के सामने रहता था। चार साल की लड़की को रपेट दी... बाद में मार भी दी स्साले ने। वो आठ दिन पहले बरी हो गया।

— अरे ऐसे भौत किस्से... रोज ही होते हैं। अब ये आटा चक्की वाले की प्रियंका के भंडारे की क्लीप... व्हॉट्स एप्प पर जाने कितने समूहों में धक्के खा रही...। पहला ने कहा और बोला - अब क्या करे बाप...। ज्यादा से ज्यादा रिपोर्ट लिखा दे...। सबको खस्सी थोड़ी कर सकता।

— और वो छोरा नी है...। जो इमरान हाशमी बना फिरता...। तीसरा भी याद दिलाता बोला - उसने साँची पाईंट वाले की छोकरी पर तेजाब फेंक दिया था...। उसकी भी जमानत हो गई...।

— सही बात ताते ये है... अब थाने, कोर्ट-कचहरी से लोगों का भरोसा उठ रिया है! पहला कुछ सोचता और महसूस करता बोला - स्साला न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। क्यों। अच्छा करा कि अंडे फोड़ दिए।

— अच्छा फिर क्या हुआ...? तूने शुरू में बताया था कि लोग शिकारी को अस्पताल ले गए। वह बच गया। ठीक होने के बाद शिकारी ने कुछ किया कि नी। तीसरे ने पूछा!

मैंने कहा कि कहा तो! शिकारी ने प्याऊ खोला!

— अच्छाऽऽ! तो किस्सा खत्म। दूसरे ने पूछा।

मैंने कहा कि मैं गाँव जा रहा हूँ। लौट के आऊँगा... फिर सुनाऊँगा!

पहले ने अपनी जेब से बाइक की चाबी निकाली। तीसरे के हाथ में चाबी देता बोला - जा इसको बस में बैठा के आ।

और फिर मुझसे मुखातिब हो बोला - आके पूरा किस्सा सुनाना! कोई बहाना मत सुनाना। झूठ-मूठ की किस्सेबाजी भी नही चलेगी। हाँ। तू जानता है मेरको। भेजा सटक गया तो फिर अच्छे-अच्छे किस्सेबाज को ठिकाने लगा देता हूँ।

फिर मैं साँझ ढले गाँव से लौट आया। मैंने यशोदा-कृष्ण द्वार के पास गुमटी तरफ देखा, वे वहाँ नहीं थे। मैंने राहत की साँस ली कि चलो, घर चलकर हाथ मुँह धोऊँगा। चाय-वाय पियूँगा। तभी बाईं बाजू से आवाज आई - ओय... कलटी खा रिया बे।

मैंने देखा कि वे तीनों एक बाइक पर चले आ रहे हैं। मैं रुक गया। वे भी मेरे पास आकर रुके, और पहला बोला - चल बे आ... भेरू बाबा के ओटले पर... क्या देख-सुन के आया, सुना।

भेरू बाबा के ओटले पर बैठने के बाद, मैंने बताया कि जब मैं गाँव पहुँचा। मैंने क्या देखा-सुना। देखा कि स्कूल के सामने कोल्ड्रिंक की दुकान तो खुली थी। लेकिन शिकारी का प्याऊ बंद था। शिकारी के घर गया, तो देखा कि ताला लगा है। गाँव में लोगों से पूछा, तो किसी को मालूम नहीं कि शिकारी और उसकी डोकरी कहाँ है। नहीं, ऐसा भी किसी ने नहीं कहा कि दोनों गाँव छोड़ किसी अनजानी जगह चले गए।

— फिर! पहले ने पूछा।

मैंने कहा कि हाँ, यूँ कुछ पता चला, कि प्याऊ खोलने के बाद शिकारी का प्याऊ, सिर्फ प्याऊ भर न रहा। शिकारी ने टॉफी, बिस्कुट, पेन, पेन्सिल, कॉपी आदि बच्चों की जरूरत की चीजें भी रखनी शुरू कर दी। वह फ्रीज में छाछ भी भरकर रखने लगा। घर के बने चिप्स भी। वह बच्चों को टॉफी मुफ्त खिलाता। छाछ और पानी मुफ्त पिलाता। धीरे-दीरे उसके प्याऊ ने अच्छी-खासी दुकान का रूप ले लिया। फिर वह किराना सामान भी रखने लगा। शिकारी की दुकान की वजह से, सरपंच के भाई की दुकान की बिक्री पर असर पड़ने लगा।

चूँकि शिकारी टॉफी, छाछ और पानी मुफ्त पिलाता, तो बच्चे और बड़े भी उसके पास ज्यादा आते। तब वह यह भी समझाता कि पेप्सी, कोकाकोला, थम्सअप्प आदि जैसे कोल्ड्रिंक क्यों नहीं पीना चाहिए। कंपनियों की चिप्स क्यों नहीं खानी चाहिए। सरपंच के भाई की दुकान की बिक्री पर शिकारी की ऐसी बातों का ज्यादा असर पड़ने लगा। बारी-बारी से सरपंच ने, सरपंच के भाई ने शिकारी को समझाया! उसे वहाँ से अपना टीन-टप्पर उठाने की सलाह भी दी। धमकाया भी। लेकिन चूँकि शिकारी की माली हालत ठीक-ठाक थी, और वह गाँव में इज्जत हासिल करने लगा था सो वह न धमका, और न वहाँ से हिला-डुला।

और फिर सुनने में आया कि गाँव में कुछ ऐसी सुगबुगाहट चलने लगी, जो गाँव के सरपंच और उसके भाई को हजम नहीं हो रही थी। दरअसल गाँव के अधिकांश लोग सोचने लगे थे कि शिकारी गृहस्थ जीवन जीने लायक तो रहा नहीं। घर में डोकरी के सिवा कोई दूसरा है भी नहीं। बाप-दादा की पैतृक संपत्ति, जमीन-जायदात है ही। शिकारी के मन में पैसा कमाने का लालच वैसे भी कभी नहीं रहा। तो क्यों न, शिकारी को गाँव का सरपंच बना दें। वह जो कुछ करेगा, गाँव के भले के लिए करेगा। अभी तो जो सरपंच है, उसे अपना और अपनों का घर भरने से ही फुरसत नहीं।

यही एक बात थी, जो सरपंच और उसके भाई पर संदेह पैदा करती है। लेकिन यकीन करना मुश्किल है। भला इत्ती-सी बात के पीछे, शिकारी और उसकी डोकरी को गायब भी किया जा सकता है।

जब उनके गायब होने की खबर फैली, तो पूरे गाँव ने ढूँढ़ा। पुलिस ने ढूँढ़ा। लेकिन न शिकारी मिला न डोकरी मिली। न ही उनमें से किसी की लाश मिली। बस यूँ ही कोई फुसफुसाता कि शिकारी और उसकी डोकरी का शिकार बड़ी चतुराई से किया है। शायद सरपंच और उसके भाई ने करवा दिया हो। मैंने पूछा कि भई क्या प्रमाण है तो फुसफुसाने वालों की फुस निकल गई। इधर-उधर आते-जाते से राम-राम, श्याम-श्याम करने लगे। एक ने तो मुझसे कह दिया कि तू जा यार। थारो काम कर, थारे शहर में कोई काम नी है, जो उठ कर गाँव चला आता।

 — फिर...!

— फिर मैं भी चला आया। सोचा कि चुनाव बाद फिर गाँव का चक्कर लगाऊँगा।

— अपन से गलत हो गया बे। पहले ने दूसरे की आँखों में देखते हुए कहा। और फिर दोनों की पलकें धीरे से झुक गईं, जैसे उन्हें कुछ याद आ गया हो।

उनमें से तीसरा सिगरेट सुलगाने लगा। पहला-दूसरा इधर-उधर देखने लगे। मैं उठा और घर चला आया।

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