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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

26 सितंबर, 2017

मार्क्स और आज का समय

एरिक हॉब्सबाम

भाग एक


सन 2007 में, मार्क्स की मृत्जयु 14 मार्च से भी लगभग दो सप्ताह पहले, एक यहूदी पुस्तक सप्ताह का आयेाजन किया गया था। आयोजन-स्थल उस स्थान से अर्थात ब्रिटिश म्यूजियम के राउण्ड टेबिल रूम से चंद कदमों पर ही था जिसके साथ मार्क्स का नाम अभिन्न रूप से आज भी जुड़ा हुआ है और जो उनका चहेता स्थान था। आयेाजन में दो बिल्कुल ही अलग किस्म के समाजवादियों को अर्थात मुझे और याक अताली को मार्क्स को श्रद्धांजलि देने के लिए खास तौर से बुलाया गया था। लेकिन अगर आयोजन की तारीख और स्थल पर आप विचार करें तो दोनों ही बहुत चौंकानेवाले थे। कोई यह नहीं कह सकता कि 1883 में मार्क्स की मृत्यु एक असफल और हताश व्यक्ति की मृत्यु थी क्योंकि उनका लेखन जर्मन और खासकर रूसी बुद्धिजीवियों पर अपना रंग पहले ही जमाना शुरू कर चुका था और मार्क्स के प्रशंसक और समर्थक जर्मनी के मजदूर आन्दोलन का नेतृत्व सम्हालने की कोशिश में लगे हुए थे। लेकिन 1883 में मार्क्स के लेखन और विचारों को ले कर सुगबुगाहट अपेक्षकृत काफी कम थी। उन्होंने कुछ बहुत ही प्रखर और मुखर पैम्फलेटों का लेखन कर लिया था और 'पूँजी' का खाका भी तैयार कर लिया था। यह सारा कुछ मार्क्स के जीवन काल के अंतिम दशक तक हो चुका था। और जब उनसे मिलने गए एक व्यक्ति ने उनकी पुस्तकों के बारे में पूछा तो उनका सीधा सा जवाब था, 'कौन-सी पुस्तकें?' 1848 की असफल क्रान्ति के बाद 1864-73 का तथाकथित प्रथम इण्टरनेशनल भी बहुत कुछ उपलब्ध नहीं कर पाया था। उनकी आधी जिदंगी ब्रिटेन में बीती थी लेकिन वहाँ की राजनीति और बौद्धिक परंपरा में वे तब तक अपने लिए कोई खास स्थान नहीं बना पाए थे।
इस सबको देखते हुए उनकी मृत्यु-उपरांत सफलता और ख्याति चकित करती है। उनकी मृत्यु के बीस-पच्चीस वर्षों के भीतर यूरोप के मजदूर वर्गों के हिमायती राजनैतिक दल, जो या तो उनके नाम पर जन्मे थे अथवा जो उनका नाम लिए बिना उनके विचारों से प्रभावित थे, जनतांत्रिक प्रणालीवाले देशों में - ब्रिटेन अपवाद था - चुनावों में 15 से 47 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करने में सफल हो चुके थे। 1918 आते-आते ये दल, जो अभी तक विपक्ष में रहते आए थे, या तो अपने आप सत्ता हथियाने में कामयाब हो चुके थे अथवा सत्ता पक्ष के प्रमुख घटक बन गए थे। फासीवाद के उदय और समाप्ति तक उनकी यह स्थिति बनी रही हालाँकि इनमें से तमाम दल अपनी प्रारंभिक प्रेरणा का नाम लेने से बचने का भी प्रयास करने लगे थे। ये सारे दल आज भी मौजूद हैं। इस बीच मार्क्स से प्रेरणा ग्रहण करनेवाले लोगों ने उन देशों में भी मार्क्स की विचारधारा के आधार पर बनाए गए दलों और समूहों की स्थापना कर ली है जहाँ जनतांत्रिक शासन प्रणालियाँ नहीं थीं / हैं और साथ ही तीसरी दुनिया के देशों में भी उनका विस्तार और प्रचार हुआ है। मार्क्स की मृत्यु के सत्तर वर्ष बाद दुनिया की एक तिहाई आबादी कम्युनिस्ट पार्टियों की सरकारोंवाले देशों में रह रही थी। इन सरकारों का घोषित उद्देश्य था मार्क्स के विचारों को व्यावहारिक स्तर पर साकार करना, उनकी जनोन्मुखी आकांक्षाओं को मूर्त रूप देना। कम्युनिस्ट समर्थित सरकारों और दलों की संख्या घटी है, इसमें कोई शक नहीं, लेकिन दुनिया की लगभग बीस फीसदी आबादी अभी भी मार्क्स-प्रेरित व्यवस्थाओं में रह रही है। बावजूद इसके कि इन व्यवस्थाओं के कर्त्ता-धर्ता और संचालक अपनी नीतियों में मार्क्सवाद से अथवा मार्क्स के विचारों से काफी दूर चलते जा रहे हैं। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि बीसवीं सदी पर अगर किसी एक चिंतक की कभी न मिटनेवाली छाप पड़ी है तो उसका नाम है कार्ल मार्क्स। इग्लैंण्ड में हाईगेट कब्रगाह में हर्बर्ट स्पेंसर और कार्ल मार्क्स एक दूसरे से थोड़ी ही दूरी पर दफनाए हुए हैं। जब दोनों जीवित थे तब हर्बर्ट स्पेंसर को अपने युग का अरस्तू होने का सम्मान प्राप्त था और कार्ल मार्क्स, उन्हें तो बस लोग एक ऐसे मामूली आदमी के रूप में जानते थे जो हैम्पस्टेड के निचले इलाके में एक छोटे से मकान में रहते थे और अपने एक दोस्त की मेहरबानी से अपना खर्चा-पानी चलाते थे। और आज हर्बर्ट स्पेंसर को शायद ही कोई जानता हो जबकि जापान अथवा भारत से आनेवाले उम्रदराज सैलानी मार्क्स की कब्र पर जाए बिना अपनी यात्रा पूरी नहीं मानते और ईरान तथा इराक के निर्वासित कम्युनिस्टों की दिली ख्वाहिश यही होती है कि मरने के बाद उन्हें भी मार्क्स के आस-पास ही दफनाया जाय।
संयुक्त समाजवादी सोवियत गणतंत्र के भहराने के बाद कम्युनिस्ट सरकारों और कम्युनिस्ट राजनैतिक दलों के युग का अंत हो गया लगता है। जहाँ वे आज अस्तित्व में हैं भी जैसे चीन और भारत, में, वहाँ उन्होंने लेनिनवादी-मार्क्सवादी विचारधारा की पुरानी परियोजना को लगभग छोड़ चुके हैं। सोवियत संघ के पतन के बाद कार्ल मार्क्स एक बार फिर 'नो मैन्स लैण्ड' में चले गए। कम्युनिज्म अपने को उनका एक मात्र असली वारिस होने का दावा करता था और मार्क्स के विचारों को मुख्यतः इसी कम्युनिज्म के साथ जोड़ा जाता था। 1956 में जब खुश्चेव ने स्तालिन की निन्दा करते हुए सार्वजनिक तौर पर उनसे अपने को अलग किया तो मार्क्स और लेनिन से असहमति व्यक्त करनेवाली प्रवृत्तियों की बाढ़ सी आ गयी लेकिन इन प्रवृत्तियों को संचालित करने और हवा देनेवाले लोगों में सर्वाधिक ऐसे ही लोग थे जो कभी मार्क्स अथवा लेनिन के नाम की कसमें खाया करते थे अर्थात वे सबके सब भूतपूर्व कम्युनिस्ट थे। इस तरह अपनी मृत्यु की शतवार्षिकी के बाद पहले बीस वर्षों के दौरान उन्हें बीते हुए कल का आदमी माना जाने लगा था जिसकी वर्तमान दुनिया में कोई संगत भूमिका नहीं रह गई थी। जिस आयोजन का उल्लेख मैंने लेख के आरंभ में किया है उसकी चर्चा करते हुए एक पत्रकार ने लिखा कि आयोजकों का उद्देश्य, शायद, इतिहास की रद्दी की टोकरी से मार्क्स को बाहर लाना था। इसके बावजूद मुझे विश्वास है कि मार्क्स इक्कीसवीं सदी के चिंतक हैं।
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अनुवाद - रामकीर्ति शुक्ल


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