मार्क्स की स्मृतियां
गतांक से आगे
4. मार्क्स की शैली
यह कहा जाता है कि मार्क्स की कोई शैली नहीं थी या बड़ी बुरी शैली थी। यह वे लोग कहते हैं जिन्हें यह नहीं मालूम कि शैली है क्या-मीठे मीठे भाषण देने वाले और नारेबाज जो मार्क्स को समझ नहीं सके और समझने के अयोग्य थे; मानवी दुख और मानवी नीचता के गहनतम गर्त से विज्ञान और भावना के उच्चतम शिखर तक मार्क्स की बुद्धि की उड़ान को समझने में असमर्थ थे। बुफौं का कथन-शैली ही मनुष्य है-यदि किसी के बारे में सच है तो मार्क्स के बारे में। मार्क्स की शैली से स्वयं मार्क्स का सच्चा रूप प्रगट होता है। उन्हें सचाई से ऐसा प्रेम था कि वह सत्य के अलावा कोई धर्म न जानते थे। यह जानते ही कि उनका सिद्धांत गलत है वह तुरंत उसे बदल देते थे फिर वह उन्हें चाहे जितना प्रिय हो और चाहे जितने परिश्रम का फल हो। ऐसा आदमी अपनी लेखनी से अपने सत्य स्वरूप के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखा सकता था। दिखावा, बनावट या ढोंग करने में असमर्थ, अपने जीवन के समान अपने लेखों में भी वह सदा सच्चे रहते थे। यह सच है कि इतना विविधतापूर्ण, विशाल और बहुमुखी स्वभाव होने के कारण उनकी शैली दूसरे कम, जटिल और संकीर्ण चित्त वाले आदमियों जैसी अपरिर्वतनशील, एक सी और नीरस नहीं हो सकती। 'कैपीटल' का मार्क्स, '18वीं ब्रूमेअर' का मार्क्स और 'हर वोग्ट' का मार्क्स तीन अलग-अलग आदमी हैं। परन्तु अपनी विभिन्नता में भी वही एक मार्क्स है, उस त्रिमूर्ति में एक ही व्यक्तित्व है-एक ऐसा महान व्यक्तित्व जो विभिन्न क्षेत्रों में अपने को विभिन्न प्रकार से अभिव्यक्त करता है परंतु फिर भी रहता हमेशा वही है। कैपीटल की शैली मुश्किल जरूर है परन्तु क्या उसका विषय आसानी से समझ में आनेवाला है? शैली मनुष्य के अनुसार ही नहीं, विषयानुसार भी होती है, उसे विषय के अनुकूल बनाना पड़ता है। विज्ञान का कोई आसान राजमार्ग नहीं है, सबसे कुशल गुरु को भी परिश्रम से जूझना और ऊपर चढ़ना पढ़ता है। कैपीटल की शैली के कठिन, जटिल या अपरिमार्जित होने की शिकायत करना तो सिर्फ विचार शिथिलता और सोचने की अयोग्यता को स्वीकार करना है।
क्या '18वीं ब्रूमेअर' जटिल है? क्या वह बाण गूढ़ होता है जो सीधा अपने निशाने पर जाता है और मांस में घुस जाता है? क्या मजबूत हाथ से फेंका हुआ वह भाला जटिल होता है जो दुश्मन के ठीक हृदय में लगता है? '18वीं ब्रूमेअर' के शब्द तीर हैं, भाले हैं। वह शैली आग की तरह प्रचण्ड और घातक है। यदि घृणा, या स्वतंत्रता का उज्ज्वल प्रेम कभी जलते हुए, तीक्ष्ण और महान शब्दों में व्यक्त हुआ है तो '18वीं ब्रूमेअर' में। उसमें टैसिटस का रोष और कठोरता जूवेनल के तीक्ष्ण व्यंग और दान्ते के पवित्र क्रोध से मिला हुआ है। इसमें शैली का वही रूप है जो रोमवासियों के लिये था, यानी लोहे के एक तेज यंत्र का जो लिखने और भौंकने के लिये काम में आता था। शैली हृदय पर आघात करने के लिये अस्त्र के समान है।
और हर वोग्ट में-वह हास्य, वह प्रसन्नता है जो फालस्टाफ को और उसमें व्यंग के अनन्त कोष को खोज निकालने पर शेक्सपियर को हुई होगी।
खैर, अब मैं मार्क्स की शैली के बोर में और कुछ नहीं कहूँगा। मार्क्स की शैली सचमुच मार्क्स है। उन पर छोटी से छोटी जगह में ज्यादा से ज्यादा सामग्री ठूँसने की कोशिश करने का दोष लगाया गया है, परन्तु यही तो मार्क्स का स्वरूप है।
मार्क्स शुद्ध और सत्य अभिव्यंजना के असाधारण मूल्य को समझते थे और गेटे, लेसिंग, शेक्सपियर, दांते और सरवेन्टीज के रूप में, जिन्हें वह रोज पढ़ते थे, उन्होंने सबसे बड़े कलाकारों को छाँटा था। भाषा की शुद्धता और सत्यता का वे हमेशा ध्यान रखते थे और उसके लिये बड़ी मेहनत करते थे।
मार्क्स कट्टर शुद्धतावादी थे और बहुधा सही मुहावरे के लिये वह देर तक और बड़े परिश्रम से खोज करते थे। वह जरूरत से ज्यादा विदेशी शब्दों के प्रयोग को नापसन्द करते थे। यदि फिर भी जहाँ विषय के लिये आवश्यक नहीं था वहाँ उन्होंने स्वयं बहुधा विदेशी शब्दों का प्रयोग किया है तो यह शायद इसीलिये कि वह बहुत समय तक विदेश में, खासकर इंग्लैण्ड में रहे थे। मार्क्स ने अपने जीवन के दो तिहाई से ज्यादा हिस्से को विदेश में बिताया पर उन्होंने हमारी जर्मन भाषा के हमारे जर्मन निर्माताओं के लिये बहुमूल्य काम किया। नये और शुद्ध जर्मन शब्दों और शब्दों के प्रयोग में वह अद्वितीय हैं।
5. राजनीतिज्ञ, अध्यापक और मनुष्य के रूप में मार्क्स
मार्क्स के लिये राजनीति एक अध्ययन की वस्तु थी। कोरी राजनीतिक बातचीत और उसे करनेवालों से वह विष के समान घृणा करते थे। वास्तव में इससे ज्यादा मूर्खता की दूसरी चीज क्या हो सकती है? इतिहास मानव-जगत और प्रकृति की सब कार्यशील शक्तियों का फल है, मनुष्य के विचारों, भावों और आवश्यकताओं का फल है। परन्तु राजनीति सैद्धांतिक रूप में, 'समय के कर्घे' में काम करती हुई इन लाखों-करोड़ों शक्तियों का ज्ञान है, और व्यावहारिक रूप में वह इस ज्ञान द्वारा निश्चित कर्म है। इसलिए राजनीति सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों तरह का विज्ञान है।
जब मार्क्स उन कूड़मगजों की बात करते थे जो कुछ पुराने घिसे-पिटे वाक्यों के द्वारा मामला तै कर देते है, और जो अपने उल्टे-सीधे विचारों और इच्छाओं को सच मानकर होटल की मेज पर, अखबारों में, जन-सभाओं में और पार्लियामेंटों में, दुनिया के भाग्य का निबटारा कर देते हैं, तो वह बड़े नाराज हो जाते थे। वह सौभाग्य की बात है कि दुनिया ऐसे आदमियों की ओर ज्यादा ध्यान नहीं देती। उक्त कूड़दिमागों में कुछ बड़े मशहूर, बड़े सम्मानित ''महापुरुष'' भी थे।
इस विषय में मार्क्स ने केवल आलोचना ही नहीं की है, उन्होंने एक आदर्श भी उपस्थित किया है। खासकर हाल में फ्रांस की घटनाओं और नेपोलियन की राजसी क्रांति के बारे में अपने लेखों में और ''न्यूयार्क ट्रिब्यून'' को लिखे अपने पत्रों में उन्होंने इतिहास की राजनीतिक लेखन शैली के उत्कृष्ट नमूने दिये हैं।
यहाँ एक तुलना के बारे में मुझे लिखना ही पड़ेगा। बोनापार्ट की जिस राजसी क्रांति के बारे में मार्क्स ने अपनी '18 वीं ब्रूमेअर' लिखी, उसी के ऊपर फ्रांस के रोमांटिक और शब्दावली के कलाकारों में सर्वश्रेष्ठ लेखक, विक्टर ह्यूगो ने भी एक मशहूर किताब लिखी थी। इन दोनों आदमियों और उनकी रचनाओं में कितना महान अंतर है? एक तरफ तो भयानक शब्दावली और शब्दों का दानव, दूसरी ओर नियमानुसार सजी हुई सच्ची घटनाएँ और एक शांत और गंभीर राजनीतिज्ञ और वैज्ञानिक जो क्रुद्ध है परंतु जो अपने क्रोध से अपने फैसले को कभी बिगड़ने नहीं देता।
एक ओर समुद्र-फेन की तरह उड़ती छलछलाती भाषा, करुण शब्दावली, वीभत्स व्यंग-चित्र हैं, और दूसरी ओर है सघे हुए तीर के समान प्रत्येक शब्द, अपनी नम्रता से ही विश्वास उत्पन्न करने वाला नग्र सत्य-क्रोध नहीं बल्कि सत्य की स्थापना और उसकी आलोचना। विक्टर हयूगो लिखित 'छोटा नैपोलियन' के उस समय दस संस्करण छपे पर आज उसका नाम भी कोई नहीं लेता। दूसरी ओर आज से हजार वर्ष बाद भी मार्क्स की '18वीं ब्रूमेअर' प्रशंसा के साथ पढ़ी जायगी। विक्टर ह्यूगो की 'छोटा नैपोलिन' एक आतिशाबाजी थी, मार्क्स की '18वीं ब्रूमेअर' एक ऐतिहासिक ग्रंथ है जो सभ्यता के भावी इतिहासकार के लिये-और भविष्य में सभ्यता के इतिहास के अतिरिक्त कोई विश्व का इतिहास नहीं होगा- उतना ही आवश्यक होगा जितनी थूसिड़ाइडीज का पेलोपोनीशियन युद्ध का इतिहास।
जैसा मैं एक और जगह समझा चुका हूँ मार्क्स जैसे बने, वैसे वह केवल इंग्लैण्ड में ही बन सकते थे। इस सदी के मध्य तक जर्मनी आर्थिक रूप से जैसी अविकसित दशा में था, उसमें मार्क्स पूँजीवादी अर्थशास्त्र के आलोचक नहीं बन सकते थे और न पूँजीवादी उत्पादन की जानकारी प्राप्त कर सकते थे-उसी तरह जैसे इस आर्थिक रूप से अविकसित जर्मनी में आर्थिक रूप से विकसित इंग्लैण्ड की सी राजनीतिक संस्थाएँ नहीं हो सकती थीं। मार्क्स भी अपने वातावरण और रहने की परिस्थितियों पर उतने ही निर्भर थे जितना कोई और मनुष्य, और इस वातावरण और परिस्थिति के बिना वह वैसे न बन सकते जैसे हम उन्हें पाते हैं।
ऐसी बुद्धि पर परिस्थिति का असर पड़ते हुए और प्रकृति तथा समाज के अंदर उसे अधिकाधिक गहराई से पैठते हुए देखना, स्वयं अपने आप में एक गंभीर बौद्धिक सुख है। यह मेरे बड़े सौभाग्य की बात थी कि मुझ जैसे ज्ञान के भूखे अनुभवहीन युवक को मार्क्स के साथ रहने और उनसे सीखने का अवसर मिला। उनकी ऐसी बहुमुखी अथवा यों कहें कि सर्वतोमुखी प्रतिभा थी कि उसमें दुनिया भर के ज्ञान को आकलन करने की सामर्थ्य थी। वह प्रत्येक महत्वपूर्ण पहलू को देखते थे और किसी चीज को भी मामूली तथा बेकार नहीं समझते थे। ऐसी प्रतिभा के द्वारा मेरी शिक्षा का बहुमुखी होना अवश्यम्भावी था।
मार्क्स उन लोगों में थे जिन्होंने सबसे पहले डार्विन की छानबीन का महत्व समझा। सन 1859 के साल से पहले ही-वह साल जब ''जातियों की उत्पत्ति'' (Origin of Species) छपी और एक अद्भुत संयोग से उसी साल ''अर्थशास्त्र की आलोचना'' भी छपी-मार्क्स ने डार्विन के नवयुग की घोषणा करने वाले कार्य के महत्व को समझ लिया था। डार्विन शहर के शोरगुल से दूर अपने शांत ग्रामीण घर में वैसी ही क्रांति की तैयारी कर रहे थे जैसी दुनिया के तूफानी केंद्र में स्वयं मार्क्स कर रहे थे। फर्क सिर्फ यही था कि दोनों का क्षेत्र अलग-अलग था।
खासकर प्राकृतिक विज्ञान-जिसमें भौतिक विज्ञान और रसायनशास्त्र सम्मिलित हैं-और इतिहास के क्षेत्र में मार्क्स ने हर नयी चीज को, हर प्रगति को समझा। मोल शोट, लीबिंग हक्सले, आदि के जन-प्रिय भाषणों में हम नियमित रूप से जाते थे। इनके नाम हमारी गोष्टी में उतनी ही बार आते थे जितने रिकार्डो, एडम स्मिथ, मैककुलौख और स्कॉटिश तथा इटालियन अर्थशास्त्रियों के। जब डार्विन ने अपनी छानबीन से निष्कर्ष निकाले और उनकी घोषणा की तो महीनों तक डार्विन और उसके वैज्ञानिक कार्य की क्रांतिकारी शक्ति को छोड़कर हम लोग कुछ और बात ही नहीं करते थे। मैं यह बात खास तौर पर जोर देकर कह रहा हूँ क्योंकि कुछ ''उग्रपंथी'' दुश्मनों ने यह कहानी फैलायी है कि ईर्षा के कारण मार्क्स ने बड़ी अनिच्छा से और सिर्फ कुछ हद तक ही डार्विन के गुणों को माना था।
जहाँ दूसरे के गुणों की प्रशंसा का सवाल था वहाँ मार्क्स बड़े उदार और न्यायप्रिय थे। ईर्षा, द्वेष और घमंड से वह परे थे। झूठे बड़प्पन से, बनावटी यश से जिसकी आड़ में अयोग्यता व नीचता फैलाते हैं, उन्हें बड़ी घृणा थी। यही बात हर एक झूठ और झूठी चीज के लिये थी।
मेरी जान-पहचान के बड़े, छोटे और साधारण व्यक्तियों में मार्क्स उन थोड़े से आदमियों में से थे जो दंभी नहीं थे। उनके जैसे महान और बलवान और अभिमानी व्यक्ति के लिये दंभी होना असंभव था। वह कभी ढोंग नहीं करते थे और हमेशा अपने सच्चे स्वरूप में रहते थे। अपने को छिपाने या बनावटी चेहरा पहनने में वह एक बच्चे के समान असमर्थ थे। जब तक सामाजिक या राजनीतिक कारणों से जरूरी न हो वह अपने भावों और विचारों को बिना कुछ छिपाये पूरी तरह प्रकट कर देते थे और उनके विचार, उनके चेहरे पर झलक जाते थे। अगर कुछ छिपाने की जरूरत होती थी तो वह बच्चों की तरह घबरा जाते थे जिस पर उनके मित्रों को बड़ी हँसी आती थी।
मार्क्स से ज्यादा सच्चा कोई आदमी नहीं हुआ। वे सत्य की साक्षात मूर्ति थे। उनको देखने से ही व्यक्ति को अपनी असलियत मालूम हो जाती थी। हमारे निरंतर संघर्षपूर्ण ''सभ्य समाज'' में हमेशा सच नहीं बोला जा सकता। उससे तो दुश्मन के फंदे में पड़ने या समाज से बहिष्कार होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा। परन्तु यदि बहुधा हम सच नहीं बोल सकते तो इस कारण से झूठ बोलना जरूरी नहीं है। मैं अपने विचारों और भावों को शब्दों में प्रकट नहीं कर सकता, पर इसका यह मतलब नहीं है कि जो मेरे विचार तथा भाव नहीं हैं मुझे उन्हें प्रकट करना चाहिये या करना ही पड़ेगा। पहली बात बुद्धिमानी है, दूसरी ढोंग है। और मार्क्स कभी ढोंगी नहीं थे। वह यह कर ही न सकते थे बिल्कुल न बिगड़े हुए बालक की तरह। और सचमुच उनकी स्त्री बहुत बार उन्हें 'मेरा बड़ा बच्चा' कहा करती थी। उनसे ज्यादा न कोई मार्क्स को जानता था और न समझता था, एंगेल्स भी नहीं। यह सच्ची बात है कि जब वह 'सभ्य समाज' में निकलते, जहाँ बाहरी रूप पर बड़ा ध्यान दिया जाता है और सँभल कर बात करनी पड़ती है तब हमारा 'मूर' वास्तव में एक बड़ा बालक था। वह एक छोटे बच्चे की तरह झेंपते और लाल हो जाते थे।
बनावटी लोग उन्हें बड़े बुरे लगते थे। मुझे अभी तक याद है कि किस तरह उन्होंने हँसते हुए लुई ब्लाँक के साथ अपनी पहली मुठभेड़ का किस्सा सुनाया था। यह तब की बात है जब वह डीन स्ट्रीट में ही थे। उस छोटे से घर में सामने का कमरा मिलनेवालों के लिये और काम करने को लिये था। और पीछे का बाकी सब कामों के लिये। लुई ब्लाँक ने लेन्वेन को अपना नाम बताया। वह उन्हें सामने के कमरे में ले गयी और दूसरे कमरे में मार्क्स जल्दी से कपड़े पहनने लगे। पर दोनों कमरों के बीच का दरवाजा थोड़ा सा खुला था और उस दरार में से एक मजेदार दृश्य दिखाई पड़ा। वह महान इतिहासकार और राजनीतिज्ञ बहुत ठिगना सा आदमी था, मुश्किल से आठ बरस के लड़के से लंबा। लेकिन वैसे वह बड़ा घमंडी था। उस मजदूरों जैसे गोल कमरे में चारों तरफ देखने के बाद एक कोने में उसे एक बड़ा पुराना आईना मिला और वह फौरन उसके सामने जाकर डट गया। वह शान से खड़ा हो गया और अपने बौने कद को अकड़कर जितना लम्बा कर सकता था कर लिया। (इतनी ऊँची एड़ी के जूते पहने मैंने और किसी को नहीं देखा) और बड़े संतोष से अपने को देखते हुए वसंतकाल के प्रेम से पागल खरगोश की तरह चलने और भरसक शानदार दिखाई पड़ने की कोशिश करने लगा। श्रीमती मार्क्स, जो इस मजेदार दृश्य को देख रही थी, मुश्किल से अपनी हँसी का ठहाका रोक सकीं। जब उसका श्रृंगार खत्म हो गया तो मार्क्स ने जोर से खाँसकर अपने आने की सूचना दी जिससे वह ढोंगी आईने से एक कदम पीछे हटकर आगन्तुक का शान से झुककर स्वागत कर सका। परंतु मार्क्स के सामने बनावट या दिखावट से कुछ फायदा नहीं हो सकता था। और इसलिये छोटा लुई (जैसा कि बोनापार्ट से फर्क दिखाने के लिये पैरिस के मजदूर उसे कहते थे) शीघ्र ही यथासंभव स्वाभाविकता से बातें करने लगा।
गतांक से आगे
4. मार्क्स की शैली
यह कहा जाता है कि मार्क्स की कोई शैली नहीं थी या बड़ी बुरी शैली थी। यह वे लोग कहते हैं जिन्हें यह नहीं मालूम कि शैली है क्या-मीठे मीठे भाषण देने वाले और नारेबाज जो मार्क्स को समझ नहीं सके और समझने के अयोग्य थे; मानवी दुख और मानवी नीचता के गहनतम गर्त से विज्ञान और भावना के उच्चतम शिखर तक मार्क्स की बुद्धि की उड़ान को समझने में असमर्थ थे। बुफौं का कथन-शैली ही मनुष्य है-यदि किसी के बारे में सच है तो मार्क्स के बारे में। मार्क्स की शैली से स्वयं मार्क्स का सच्चा रूप प्रगट होता है। उन्हें सचाई से ऐसा प्रेम था कि वह सत्य के अलावा कोई धर्म न जानते थे। यह जानते ही कि उनका सिद्धांत गलत है वह तुरंत उसे बदल देते थे फिर वह उन्हें चाहे जितना प्रिय हो और चाहे जितने परिश्रम का फल हो। ऐसा आदमी अपनी लेखनी से अपने सत्य स्वरूप के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखा सकता था। दिखावा, बनावट या ढोंग करने में असमर्थ, अपने जीवन के समान अपने लेखों में भी वह सदा सच्चे रहते थे। यह सच है कि इतना विविधतापूर्ण, विशाल और बहुमुखी स्वभाव होने के कारण उनकी शैली दूसरे कम, जटिल और संकीर्ण चित्त वाले आदमियों जैसी अपरिर्वतनशील, एक सी और नीरस नहीं हो सकती। 'कैपीटल' का मार्क्स, '18वीं ब्रूमेअर' का मार्क्स और 'हर वोग्ट' का मार्क्स तीन अलग-अलग आदमी हैं। परन्तु अपनी विभिन्नता में भी वही एक मार्क्स है, उस त्रिमूर्ति में एक ही व्यक्तित्व है-एक ऐसा महान व्यक्तित्व जो विभिन्न क्षेत्रों में अपने को विभिन्न प्रकार से अभिव्यक्त करता है परंतु फिर भी रहता हमेशा वही है। कैपीटल की शैली मुश्किल जरूर है परन्तु क्या उसका विषय आसानी से समझ में आनेवाला है? शैली मनुष्य के अनुसार ही नहीं, विषयानुसार भी होती है, उसे विषय के अनुकूल बनाना पड़ता है। विज्ञान का कोई आसान राजमार्ग नहीं है, सबसे कुशल गुरु को भी परिश्रम से जूझना और ऊपर चढ़ना पढ़ता है। कैपीटल की शैली के कठिन, जटिल या अपरिमार्जित होने की शिकायत करना तो सिर्फ विचार शिथिलता और सोचने की अयोग्यता को स्वीकार करना है।
क्या '18वीं ब्रूमेअर' जटिल है? क्या वह बाण गूढ़ होता है जो सीधा अपने निशाने पर जाता है और मांस में घुस जाता है? क्या मजबूत हाथ से फेंका हुआ वह भाला जटिल होता है जो दुश्मन के ठीक हृदय में लगता है? '18वीं ब्रूमेअर' के शब्द तीर हैं, भाले हैं। वह शैली आग की तरह प्रचण्ड और घातक है। यदि घृणा, या स्वतंत्रता का उज्ज्वल प्रेम कभी जलते हुए, तीक्ष्ण और महान शब्दों में व्यक्त हुआ है तो '18वीं ब्रूमेअर' में। उसमें टैसिटस का रोष और कठोरता जूवेनल के तीक्ष्ण व्यंग और दान्ते के पवित्र क्रोध से मिला हुआ है। इसमें शैली का वही रूप है जो रोमवासियों के लिये था, यानी लोहे के एक तेज यंत्र का जो लिखने और भौंकने के लिये काम में आता था। शैली हृदय पर आघात करने के लिये अस्त्र के समान है।
और हर वोग्ट में-वह हास्य, वह प्रसन्नता है जो फालस्टाफ को और उसमें व्यंग के अनन्त कोष को खोज निकालने पर शेक्सपियर को हुई होगी।
खैर, अब मैं मार्क्स की शैली के बोर में और कुछ नहीं कहूँगा। मार्क्स की शैली सचमुच मार्क्स है। उन पर छोटी से छोटी जगह में ज्यादा से ज्यादा सामग्री ठूँसने की कोशिश करने का दोष लगाया गया है, परन्तु यही तो मार्क्स का स्वरूप है।
मार्क्स शुद्ध और सत्य अभिव्यंजना के असाधारण मूल्य को समझते थे और गेटे, लेसिंग, शेक्सपियर, दांते और सरवेन्टीज के रूप में, जिन्हें वह रोज पढ़ते थे, उन्होंने सबसे बड़े कलाकारों को छाँटा था। भाषा की शुद्धता और सत्यता का वे हमेशा ध्यान रखते थे और उसके लिये बड़ी मेहनत करते थे।
मार्क्स कट्टर शुद्धतावादी थे और बहुधा सही मुहावरे के लिये वह देर तक और बड़े परिश्रम से खोज करते थे। वह जरूरत से ज्यादा विदेशी शब्दों के प्रयोग को नापसन्द करते थे। यदि फिर भी जहाँ विषय के लिये आवश्यक नहीं था वहाँ उन्होंने स्वयं बहुधा विदेशी शब्दों का प्रयोग किया है तो यह शायद इसीलिये कि वह बहुत समय तक विदेश में, खासकर इंग्लैण्ड में रहे थे। मार्क्स ने अपने जीवन के दो तिहाई से ज्यादा हिस्से को विदेश में बिताया पर उन्होंने हमारी जर्मन भाषा के हमारे जर्मन निर्माताओं के लिये बहुमूल्य काम किया। नये और शुद्ध जर्मन शब्दों और शब्दों के प्रयोग में वह अद्वितीय हैं।
5. राजनीतिज्ञ, अध्यापक और मनुष्य के रूप में मार्क्स
मार्क्स के लिये राजनीति एक अध्ययन की वस्तु थी। कोरी राजनीतिक बातचीत और उसे करनेवालों से वह विष के समान घृणा करते थे। वास्तव में इससे ज्यादा मूर्खता की दूसरी चीज क्या हो सकती है? इतिहास मानव-जगत और प्रकृति की सब कार्यशील शक्तियों का फल है, मनुष्य के विचारों, भावों और आवश्यकताओं का फल है। परन्तु राजनीति सैद्धांतिक रूप में, 'समय के कर्घे' में काम करती हुई इन लाखों-करोड़ों शक्तियों का ज्ञान है, और व्यावहारिक रूप में वह इस ज्ञान द्वारा निश्चित कर्म है। इसलिए राजनीति सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों तरह का विज्ञान है।
जब मार्क्स उन कूड़मगजों की बात करते थे जो कुछ पुराने घिसे-पिटे वाक्यों के द्वारा मामला तै कर देते है, और जो अपने उल्टे-सीधे विचारों और इच्छाओं को सच मानकर होटल की मेज पर, अखबारों में, जन-सभाओं में और पार्लियामेंटों में, दुनिया के भाग्य का निबटारा कर देते हैं, तो वह बड़े नाराज हो जाते थे। वह सौभाग्य की बात है कि दुनिया ऐसे आदमियों की ओर ज्यादा ध्यान नहीं देती। उक्त कूड़दिमागों में कुछ बड़े मशहूर, बड़े सम्मानित ''महापुरुष'' भी थे।
इस विषय में मार्क्स ने केवल आलोचना ही नहीं की है, उन्होंने एक आदर्श भी उपस्थित किया है। खासकर हाल में फ्रांस की घटनाओं और नेपोलियन की राजसी क्रांति के बारे में अपने लेखों में और ''न्यूयार्क ट्रिब्यून'' को लिखे अपने पत्रों में उन्होंने इतिहास की राजनीतिक लेखन शैली के उत्कृष्ट नमूने दिये हैं।
यहाँ एक तुलना के बारे में मुझे लिखना ही पड़ेगा। बोनापार्ट की जिस राजसी क्रांति के बारे में मार्क्स ने अपनी '18 वीं ब्रूमेअर' लिखी, उसी के ऊपर फ्रांस के रोमांटिक और शब्दावली के कलाकारों में सर्वश्रेष्ठ लेखक, विक्टर ह्यूगो ने भी एक मशहूर किताब लिखी थी। इन दोनों आदमियों और उनकी रचनाओं में कितना महान अंतर है? एक तरफ तो भयानक शब्दावली और शब्दों का दानव, दूसरी ओर नियमानुसार सजी हुई सच्ची घटनाएँ और एक शांत और गंभीर राजनीतिज्ञ और वैज्ञानिक जो क्रुद्ध है परंतु जो अपने क्रोध से अपने फैसले को कभी बिगड़ने नहीं देता।
एक ओर समुद्र-फेन की तरह उड़ती छलछलाती भाषा, करुण शब्दावली, वीभत्स व्यंग-चित्र हैं, और दूसरी ओर है सघे हुए तीर के समान प्रत्येक शब्द, अपनी नम्रता से ही विश्वास उत्पन्न करने वाला नग्र सत्य-क्रोध नहीं बल्कि सत्य की स्थापना और उसकी आलोचना। विक्टर हयूगो लिखित 'छोटा नैपोलियन' के उस समय दस संस्करण छपे पर आज उसका नाम भी कोई नहीं लेता। दूसरी ओर आज से हजार वर्ष बाद भी मार्क्स की '18वीं ब्रूमेअर' प्रशंसा के साथ पढ़ी जायगी। विक्टर ह्यूगो की 'छोटा नैपोलिन' एक आतिशाबाजी थी, मार्क्स की '18वीं ब्रूमेअर' एक ऐतिहासिक ग्रंथ है जो सभ्यता के भावी इतिहासकार के लिये-और भविष्य में सभ्यता के इतिहास के अतिरिक्त कोई विश्व का इतिहास नहीं होगा- उतना ही आवश्यक होगा जितनी थूसिड़ाइडीज का पेलोपोनीशियन युद्ध का इतिहास।
जैसा मैं एक और जगह समझा चुका हूँ मार्क्स जैसे बने, वैसे वह केवल इंग्लैण्ड में ही बन सकते थे। इस सदी के मध्य तक जर्मनी आर्थिक रूप से जैसी अविकसित दशा में था, उसमें मार्क्स पूँजीवादी अर्थशास्त्र के आलोचक नहीं बन सकते थे और न पूँजीवादी उत्पादन की जानकारी प्राप्त कर सकते थे-उसी तरह जैसे इस आर्थिक रूप से अविकसित जर्मनी में आर्थिक रूप से विकसित इंग्लैण्ड की सी राजनीतिक संस्थाएँ नहीं हो सकती थीं। मार्क्स भी अपने वातावरण और रहने की परिस्थितियों पर उतने ही निर्भर थे जितना कोई और मनुष्य, और इस वातावरण और परिस्थिति के बिना वह वैसे न बन सकते जैसे हम उन्हें पाते हैं।
ऐसी बुद्धि पर परिस्थिति का असर पड़ते हुए और प्रकृति तथा समाज के अंदर उसे अधिकाधिक गहराई से पैठते हुए देखना, स्वयं अपने आप में एक गंभीर बौद्धिक सुख है। यह मेरे बड़े सौभाग्य की बात थी कि मुझ जैसे ज्ञान के भूखे अनुभवहीन युवक को मार्क्स के साथ रहने और उनसे सीखने का अवसर मिला। उनकी ऐसी बहुमुखी अथवा यों कहें कि सर्वतोमुखी प्रतिभा थी कि उसमें दुनिया भर के ज्ञान को आकलन करने की सामर्थ्य थी। वह प्रत्येक महत्वपूर्ण पहलू को देखते थे और किसी चीज को भी मामूली तथा बेकार नहीं समझते थे। ऐसी प्रतिभा के द्वारा मेरी शिक्षा का बहुमुखी होना अवश्यम्भावी था।
मार्क्स उन लोगों में थे जिन्होंने सबसे पहले डार्विन की छानबीन का महत्व समझा। सन 1859 के साल से पहले ही-वह साल जब ''जातियों की उत्पत्ति'' (Origin of Species) छपी और एक अद्भुत संयोग से उसी साल ''अर्थशास्त्र की आलोचना'' भी छपी-मार्क्स ने डार्विन के नवयुग की घोषणा करने वाले कार्य के महत्व को समझ लिया था। डार्विन शहर के शोरगुल से दूर अपने शांत ग्रामीण घर में वैसी ही क्रांति की तैयारी कर रहे थे जैसी दुनिया के तूफानी केंद्र में स्वयं मार्क्स कर रहे थे। फर्क सिर्फ यही था कि दोनों का क्षेत्र अलग-अलग था।
खासकर प्राकृतिक विज्ञान-जिसमें भौतिक विज्ञान और रसायनशास्त्र सम्मिलित हैं-और इतिहास के क्षेत्र में मार्क्स ने हर नयी चीज को, हर प्रगति को समझा। मोल शोट, लीबिंग हक्सले, आदि के जन-प्रिय भाषणों में हम नियमित रूप से जाते थे। इनके नाम हमारी गोष्टी में उतनी ही बार आते थे जितने रिकार्डो, एडम स्मिथ, मैककुलौख और स्कॉटिश तथा इटालियन अर्थशास्त्रियों के। जब डार्विन ने अपनी छानबीन से निष्कर्ष निकाले और उनकी घोषणा की तो महीनों तक डार्विन और उसके वैज्ञानिक कार्य की क्रांतिकारी शक्ति को छोड़कर हम लोग कुछ और बात ही नहीं करते थे। मैं यह बात खास तौर पर जोर देकर कह रहा हूँ क्योंकि कुछ ''उग्रपंथी'' दुश्मनों ने यह कहानी फैलायी है कि ईर्षा के कारण मार्क्स ने बड़ी अनिच्छा से और सिर्फ कुछ हद तक ही डार्विन के गुणों को माना था।
जहाँ दूसरे के गुणों की प्रशंसा का सवाल था वहाँ मार्क्स बड़े उदार और न्यायप्रिय थे। ईर्षा, द्वेष और घमंड से वह परे थे। झूठे बड़प्पन से, बनावटी यश से जिसकी आड़ में अयोग्यता व नीचता फैलाते हैं, उन्हें बड़ी घृणा थी। यही बात हर एक झूठ और झूठी चीज के लिये थी।
मेरी जान-पहचान के बड़े, छोटे और साधारण व्यक्तियों में मार्क्स उन थोड़े से आदमियों में से थे जो दंभी नहीं थे। उनके जैसे महान और बलवान और अभिमानी व्यक्ति के लिये दंभी होना असंभव था। वह कभी ढोंग नहीं करते थे और हमेशा अपने सच्चे स्वरूप में रहते थे। अपने को छिपाने या बनावटी चेहरा पहनने में वह एक बच्चे के समान असमर्थ थे। जब तक सामाजिक या राजनीतिक कारणों से जरूरी न हो वह अपने भावों और विचारों को बिना कुछ छिपाये पूरी तरह प्रकट कर देते थे और उनके विचार, उनके चेहरे पर झलक जाते थे। अगर कुछ छिपाने की जरूरत होती थी तो वह बच्चों की तरह घबरा जाते थे जिस पर उनके मित्रों को बड़ी हँसी आती थी।
मार्क्स से ज्यादा सच्चा कोई आदमी नहीं हुआ। वे सत्य की साक्षात मूर्ति थे। उनको देखने से ही व्यक्ति को अपनी असलियत मालूम हो जाती थी। हमारे निरंतर संघर्षपूर्ण ''सभ्य समाज'' में हमेशा सच नहीं बोला जा सकता। उससे तो दुश्मन के फंदे में पड़ने या समाज से बहिष्कार होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा। परन्तु यदि बहुधा हम सच नहीं बोल सकते तो इस कारण से झूठ बोलना जरूरी नहीं है। मैं अपने विचारों और भावों को शब्दों में प्रकट नहीं कर सकता, पर इसका यह मतलब नहीं है कि जो मेरे विचार तथा भाव नहीं हैं मुझे उन्हें प्रकट करना चाहिये या करना ही पड़ेगा। पहली बात बुद्धिमानी है, दूसरी ढोंग है। और मार्क्स कभी ढोंगी नहीं थे। वह यह कर ही न सकते थे बिल्कुल न बिगड़े हुए बालक की तरह। और सचमुच उनकी स्त्री बहुत बार उन्हें 'मेरा बड़ा बच्चा' कहा करती थी। उनसे ज्यादा न कोई मार्क्स को जानता था और न समझता था, एंगेल्स भी नहीं। यह सच्ची बात है कि जब वह 'सभ्य समाज' में निकलते, जहाँ बाहरी रूप पर बड़ा ध्यान दिया जाता है और सँभल कर बात करनी पड़ती है तब हमारा 'मूर' वास्तव में एक बड़ा बालक था। वह एक छोटे बच्चे की तरह झेंपते और लाल हो जाते थे।
बनावटी लोग उन्हें बड़े बुरे लगते थे। मुझे अभी तक याद है कि किस तरह उन्होंने हँसते हुए लुई ब्लाँक के साथ अपनी पहली मुठभेड़ का किस्सा सुनाया था। यह तब की बात है जब वह डीन स्ट्रीट में ही थे। उस छोटे से घर में सामने का कमरा मिलनेवालों के लिये और काम करने को लिये था। और पीछे का बाकी सब कामों के लिये। लुई ब्लाँक ने लेन्वेन को अपना नाम बताया। वह उन्हें सामने के कमरे में ले गयी और दूसरे कमरे में मार्क्स जल्दी से कपड़े पहनने लगे। पर दोनों कमरों के बीच का दरवाजा थोड़ा सा खुला था और उस दरार में से एक मजेदार दृश्य दिखाई पड़ा। वह महान इतिहासकार और राजनीतिज्ञ बहुत ठिगना सा आदमी था, मुश्किल से आठ बरस के लड़के से लंबा। लेकिन वैसे वह बड़ा घमंडी था। उस मजदूरों जैसे गोल कमरे में चारों तरफ देखने के बाद एक कोने में उसे एक बड़ा पुराना आईना मिला और वह फौरन उसके सामने जाकर डट गया। वह शान से खड़ा हो गया और अपने बौने कद को अकड़कर जितना लम्बा कर सकता था कर लिया। (इतनी ऊँची एड़ी के जूते पहने मैंने और किसी को नहीं देखा) और बड़े संतोष से अपने को देखते हुए वसंतकाल के प्रेम से पागल खरगोश की तरह चलने और भरसक शानदार दिखाई पड़ने की कोशिश करने लगा। श्रीमती मार्क्स, जो इस मजेदार दृश्य को देख रही थी, मुश्किल से अपनी हँसी का ठहाका रोक सकीं। जब उसका श्रृंगार खत्म हो गया तो मार्क्स ने जोर से खाँसकर अपने आने की सूचना दी जिससे वह ढोंगी आईने से एक कदम पीछे हटकर आगन्तुक का शान से झुककर स्वागत कर सका। परंतु मार्क्स के सामने बनावट या दिखावट से कुछ फायदा नहीं हो सकता था। और इसलिये छोटा लुई (जैसा कि बोनापार्ट से फर्क दिखाने के लिये पैरिस के मजदूर उसे कहते थे) शीघ्र ही यथासंभव स्वाभाविकता से बातें करने लगा।
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