नीलेश रघुवंशी की कविताएं
गंज बासौदा (म.प्र.) जन्मी नीलेश रघुवंशी 1997 में अपने पहले कविता संग्रह-घर निकासी, से काव्य यात्रा शुरू की तो फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। पानी का स्वाद, अंतिम पंक्ति में, कवि ने कहा, खिड़की खुलने के बाद जैसे महत्वपूर्ण कविता संग्रह तक आ पहुंची।
नीलेश रघुवंशी |
नीलेश रघुवंशी की रचनात्मक यात्रा सिर्फ़ कविताओं के ही नए-नए सोपान से गुज़र रही है, बल्कि उनका उपन्यास-एक कस्बे के नोट, भी खासा चर्चित रहा है। नीलेश ने अनेक नाट्य लेखन लिखें है । कविता संग्रह, उपन्यास और नाट्य लेख पर उन्हें अनेक सम्मान और पुरस्कार से नवाजा जा रहा है। यहां हम बिजूका के पाठकों के लिए उनके नए कविता संग्रह - खिड़की खुलने के बाद, से कुछ कविताएं साझा कर रहे हैं। आशा है कि बिजूका के पाठकों को इन्हें पढ़कर अच्छा लगेगा।
ग्यारह कविताएँ
चक्र
1.... भूख का चक्र
सबके हिस्से मजदूरी भी नहीं अब
षरीर में ताकत नहीं तो मजदूरी कैसे
छोटे नोट और सिक्के हैं चलन से बाहर
पाँच सौ के नोट पर छपी
पोपले मुँह वाली तस्वीर भी
कई दिन से भूखी है
वो भी शिकार है तंत्र के चक्र में भूख की ।
2....फैशन का चक्र
फैशन आजकल में
क्या छोडूँ और क्या तो पहनूँ
मैचिंग बीते जमाने की बात है
अब जमाना है कंट्रास्ट का
डिफरेंट मिक्स एंड मैच
लेकिन
लाल के साथ नीला बिल्कुल नहीं
रेड का फोबिया खत्म हो चुका है अब
आजादी के मायने की बात न करना
ये गुलामी बड़ी मोहक है ।
एकदम घुप्प अंधेरे में चलता है चाक
न कुम्हार दिखता है न दिखता है आकार
घूम-घूमकर लौटता है फैशन
फसल कोई बोता है
काटता है कोई और
यही है फैशन का चक्र ।
3....झूठ का चक्र
एक झूठ बोला
बचते-बचाते दो-चार झूठ और बोले
एक नहीं, सौ नहीं, हज़ारों-हज़ार झूठ बोले
आखिर में लड़खड़ाती जुबान में
थक हारकर सच बोला ।
सच र्धेर्य नहीं खोता
झूठ की मृत्यु की प्रतीक्षा भी नहीं करता
झूठ करता है वो सब कुछ
जिसे करने की सच सोचता भी नहीं
तर्क में नहीं
कुतर्क में घुटता है दम झूठ का ।
4....मौसम का चक्र
थोड़ा-थोड़ा सब कुछ लेने के फेर में
नहीं मिलता कुछ भी
मौसम बदलता है तो बदलती है सोच
अपने चरम पर पहुँचता
हर चार माह में बदलता
मौसम भी बनाता है हमें निकम्मा ।
5.....प्यार का चक्र
उछालती जब उसे बाँहों में
दिल काँपता था मेरा
उसकी दूध की उल्टी से
सूखता था मेरे भीतर का पानी
एक वृक्ष की तरह
उसकी जड़ें मेरे भीतर तक फैलती चली गईं ।
सोचती
जब अठारह का हो जाएगा
छोड़ दूँगी घने जंगल में
बर्फीले पहाड़ों के ऊपर होगा उसका मचान
अन्तहीन आकाश में उड़ते देख
पीठ फेर लूँगी ।
बदलती दुनिया, जोखि़म, रोमांच से प्यार
बड़ी लम्बी उछाल है उसकी
जाने क्या होता है अब मेरे भीतर
फड़फड़ाती हूँ उसे उड़ते देख
अपने हाथों को ढाल बना
उड़ना चाहती हूँ उसके संग ।
प्यार का ये चक्र
घूमकर आ ठहरता है उसी जगह
जहाँ...मैं सोचती हूँ
बस एक बरस और ।
6....हँसने का चक्र
हँसने हँसाने का दूसरा नाम है जीवन
लेकिन जाने कब कैसे और क्यों
हँसना छोड़ दिया हमने
हँसी को छोड़ दौड़ के पीछे लग गए
धीरे-धीरे हँसी सेल्समेन, सेल्सगर्ल्स और
क्रेडिट कार्ड बेचने वालों की हो गई
हँसी को शिष्टाचार के संग रोजगार बनाया उन्होंने
ठगे जाने के भय से न हँसे न मुस्कुराए
रो भी न सके हम ।
हँसना जरूरी है निरोगी काया के लिए
हँसी क्लब में प्रवेश के लिए मोटी फीस भरी
हँसने के नाम पर
कैसी डरावनी आवाजें निकालने लगे हम
हमेषा बुरा माना जाता है बिना वजह दाँत दिखाना
नदी किनारे मिलती है सच्ची हँसी
नदियों को हमने जाने कब का बेच दिया
हँसने का कोई चक्र नहीं
बिकने की कोई उम्र नहीं ।
7.....रोने का चक्र
तुमने जन्म लिया तो रोए
भूख लगी तो रोए
मन की कोई चीज न मिली तो रोए
अपनों से बिछुड़ने पर रोए, खूब रोए
खुशी में फूट-फूटकर नहीं रोए कभी
आँखें गीलीं हुईं और तुमने कहा
ये आँसू खुशी के आँसू हैं ।
फिर
तुमसे कहा गया
बात-बात पर रोना अच्छी बात नहीं
रोने से नहीं मिलता कुछ भी
तुमने
अपने भीतर आँसूओं का कुआँ बना लिया
जो मारे ठंडक के जम गया
बहुत दिन से नहीं रोए सोचकर
अचानक तुम रोए खूब रोए
जीवन में रोने से नफरत करना भी
एक रोना है ।
8....सोचने का चक्र
जब
महानगरों को देखा
चकाचौंध में उनकी घिग्गी बँध गई मेरी
भाषा ने साथ छोड़ दिया
खुद की भाषा को छोड़
लपलपाने लगी दूसरे की भाषा में
स्वचालित सीढ़ियों से डरते
पानी को बिकते, खुद को फिकते देख
अपनी जगह लौट आई
लौटकर
गाँवों, नगरों को महानगर में बसाने का सोचने लगी
नगर, उपनगर, गाँव, देहात, कस्बे महानगर
चकाचौंध, धिग्गी, लपलपाहट, सनसनाहट
नींद ने मेरा साथ छोड़ दिया
नींद को बुलाने के लिए
एक से हज़ार तक गिनती गिनने लगी
गिनते हुए गिनती के बारे में सोचने लगी ।
9....यात्रा का चक्र
बंजर जिंदगी को पीछे छोड़ देना
बारिश को छूना चाँद बादलों से यारी
नंगे पाँव घास पर चलकर ओस से भीग जाना
खाना-बदोष और बंजारों के छोड़े गए घरों को देखना
खुद को तलाशना उन जैसा हो जाना
न होने पर ईर्ष्या का उपजना
प्राचीन इमारतों के पीछे भागना
स्थापत्य मूर्तियों को निहारना
एक पल में कई बरस का जीवन जी लेना
ट्रेन का छूट जाना जेब का कट जाना
किसी के छूटे सामान को देखकर
बम आर.डी.एक्स. की आषंका से सिहर जाना
घर पहुँचना और पहुँचकर घर को गले लगा लेना
यात्रा का पहला नाम डर, दूसरा फकीरी ।
बहुत दिनों से जाना चाहती हूँ यात्रा पर
लेकिन जा नहीं पा रही हूँ
एक हरे भरे मैदान में
तेज, बहुत तेज गोल चक्कर काट रही हूँ
यात्रा के चक्र को पूरा करते
खुद को अधूरा छोड़ रही हूँ ।
10....नींद और स्वप्न का चक्र
नींद के गुण दोष
स्वप्न के गुण दोष हैं
अनिद्रा की षिकार नहीं
फिर भी
नींद नहीं मेरे पास ।
कहती है नींद
खुद के लिए जियो
स्वप्न कहते हैं
औरों के लिए जियो ।
न जागती हूँ न रोती हूँ
नींद से भरी
स्वप्न की पगडंडी पर चलती हूँ ।
11...जीवन का चक्र
जीवन क्या है
कभी हँसना कभी रोना
कभी मिलना कभी बिछड़ना
कभी सुख की कामना करना
कभी दुख को परे धकेलना
कभी दुनिया पर तंज कसना
कभी मोह माया को गले लगाना
कभी नंगे पाँव
इस भवसागर से कूच कर जाना ।
जीवन की शुरुआत तुमसे
अंत भी तुमसे
बीच में मध्यांतर
मध्यांतर में एक नहीं, कई मोड़
किसी एक मोड़ का जिक्र
चक्र को अधबीच में रोक देगा ।
तुमने
एक नहीं, हज़ार इच्छाओं को जन्म दिया
हर इच्छा ने पूरे होने तक
कई बार गिराया, उठाया कई बार तुम्हें
कुछ ने तुम्हें बौना कर अपना कद बढ़ाया
किसी एक को जन्म लेने से पहले
तुमने मार डाला
कौन था वो
जिसे जन्म लेने से पहले तुमने पैनेपन के साथ मारा
रोते हो हर रात उसके संग
कि तुमने उसे जन्म नहीं लेने दिया
बेल की तरह तुमसे लिपटी
तुम्हें तनकर रहना जो सिखाती
उस अजन्मी इच्छा का नाम है
जीवन का चक्र ।
कहने सुनने से जो छूट गया
जो कहा नहीं गया अभी तक
जो रचा नहीं गया अभी तक
हर बार कहने में जो छूटता है
वहीं से शुरूरू होता है जीवन का चक्र ।
०००
06 जनवरी बुधवार से 09 मार्च मंगलवार 2010 भोपाल
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