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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

27 सितंबर, 2017



मार्क्स और आज का समय

एरिक हॉब्सबाम


अभी हाल ही में बीबीसी द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार बी.बी.सी. के कार्यक्रम के श्रोताओं ने कार्ल मार्क्स को महानतम दार्शनिक बताया है। इस बात की सच्चाई को ले कर सवाल उठाए जा सकते हैं लेकिन अगर गूगल के सर्च कालम में मार्क्स का नाम टाइप करके बटन दबाएँ तो आपको मालूम हो जाएगा कि डार्विन और आइन्स्टीन के साथ मार्क्स ही महानतम बुद्धिजीवी के रूप में सामने आएँगे। एडम स्मिथ (पश्चिमी दुनिया के आधुनिक अर्थशास्त्रियों के आदि पूर्वज) और फ्रायड उनसे मीलों पीछे हैं।

मेरे विचार से इसके पीछे दो कारण हैं। पहला कारण यह है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद सैद्धांतिक स्तर पर मार्क्स सोवियत संघ के उस सरकारी मार्क्सवाद से मुक्त हो गए जिसे लेनिनवाद से जोड़ कर ही हमेशा देखा जाता था। इसी तरह वे राज्य - व्यावहारिक स्तर पर जहाँ मार्क्सवाद के नाम पर लेनिनवादी अथवा इसी तरह की राज्य-व्यवस्थाएँ बनी थीं, उनसे भी मार्क्स मुक्त हो गए। यह साफ जाहिर हो गया कि दुनिया के बारे में मार्क्स ने जो कुछ कहा-सोचा था उसमें से अभी तक काफी कुछ ऐसा बचा हुआ है जो हमारे लिए महत्वपूर्ण है और काम का है। दूसरा कारण भी बहुत महत्वपूर्ण है। 1990 के दशक में जो भूमण्डलीकृत पूँजीवादी दुनिया उभर कर सामने आई वह बड़े अजीब तरीके से उसी दुनिया की तरह थी जिसका पूर्वानुमान अथवा पूर्वाभास मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणपत्र में किया था। सार्वजनिक रूप से इसका खुलासा तब हुआ जब इस नन्ही-मुन्नी किताब की डेढ़ सौंवी जयंती मनाई जा रही थी अर्थात 1998 में और, संयोग कह लीजिए, यह वही साल था जब भूमण्डलीय अर्थ-व्यवस्था में एक नाटकीय उछाल आया था। विरोधाभास यह था कि इस बार समाजवादियों के बजाय पूँजीवादियों ने मार्क्स का पुनराविष्कार किया क्येांकि समाजवादी इतने हताश और मायूस थे कि उन्होंने अवसर के अनुरूप समारोह भी नहीं मनाया। मुझे आज भी याद करके अचंभा होता है जब मेरे पास संयुक्त राज्य अमेरिका की एक इन-फ्लाइट पत्रिका (ऐसी पत्रिका जो हवाई यात्रा करनेवाले मुसाफिरों के लिए ही होती है) ने मुझसे मार्क्सवाद पर एक लेख लिखने का अनुरोध किया। इस पत्रिका के अस्सी फीसदी पाठक बड़ी-बड़ी कम्पनियों के एग्जीक्यूटिव होते हैं। वास्तव में इस पत्रिका के संपादक ने कहीं मेरा एक छोटा सा लेख घोषणापत्र पर पढ़ा था और उसने सोचा कि पत्रिका के पाठकों को इसमें रुचि हो सकती है। वह नया लेख नहीं चाहता था बल्कि उसी लेख को अपनी पत्रिका में फिर से छापने के लिए मेरी मंजूरी चाहता था। इससे भी अधिक अचंभा मुझे तब हुआ जब नई शताब्दी की शुरुआत में जॉर्ज सोरोस ने मार्क्स के बारे में मेरी राय जानना चाहा। यह जानते हुए कि हमारे विचारों में जमीन-आसमान का अंतर है, मैंने सोरोस को कोई जवाब नहीं दिया। थोड़ी देर बाद सोरोस ने ही कहा, ''उस आदमी ने (मार्क्स ने) डेढ़ सौ साल पहले ही उस पूँजीवाद को देख लिया था जिस पर आज हमें गंभीरता से सोचना चाहिए।'' और सोरोस ने स्वंय मार्क्स को गंभीरता से पढ़ना और उन पर सोचना शुरू किया। उस समय जो लेखक कम्युनिज्म और मार्क्स के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ लिया करते थे उन्होंने भी बाद में अपना रवैया बदल दिया। और इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण नाम है याक अताली का जिन्होंने मार्क्स के जीवन और लेखन पर लिखना शुरू कर दिया। अताली यह भी सोचते हैं कि हम में से वे लोग जो दुनिया का अलग किस्म का और बेहतर रूप देखना चाहते हैं उनसे कहने के लिए मार्क्स के पास बहुत कुछ है। इस हिसाब से भी मार्क्स की ओर लौटने की इच्छा का स्वागत किया जाना चाहिए।

अक्टूबर 2008 में जब लंदन के फाइनेन्सियल टाइम्स में ''पूँजीवाद की मृत्युपीड़ा'' जैसी हेडलाइन छपी तब इस बात में कोई संदेह नहीं रह गया कि मार्क्स सार्वजनिक बौद्धिक परिदृश्य पर वापस आ गए हैं। एक ओर जिस तरह भूमंण्डलीय पूँजीवाद 1930 के दशक के बाद सबसे बड़ी उठा-पटक और संकट से गुजर रहा है उससे यह सिद्ध होता है कि मार्क्स मंच पर बने रहेंगे, दूसरी ओर, नई सदी के मार्क्स पिछली सदी के मार्क्स से निश्चित ही अलग दिखेंगे।

पिछली सदी में लोग मार्क्स के बारे में जो सोच रहे थे उस पर तीन बातों का असर बहुत ज्यादा था। पहला था दुनिया का दो प्रकार के देशों में विभाजन - वे देश जहाँ क्रान्ति उनकी कार्य-सूची में था और वे देश जहाँ ऐसा नहीं था अर्थात उत्तरी अटलांटिक और प्रशांत महासागर क्षेत्र के विकसित पूँजीवादी देश और शेष विश्व के देश। इसी तथ्य से जुड़ा और इसका अनुवर्ती दूसरा तथ्य है - मार्क्स की विरासत स्वाभाविक रूप से जनतांत्रिक और सुधारवादी विरासत और रूसी क्रांति से अत्यधिक प्रभावित क्रान्तिकारी विरासत में विभाजित हो गई। 1917 के पश्चात् तीसरे कारण के चलते यह और अधिक स्पष्ट हो गया : 19वीं सदी के पूँजीवादी और बुर्जुआ समाज का, जिसे मैंने महाविपत्ति का युग कहा है उसमें पर्यवसान जो 1914 और 1940 के बीच के वर्षों में घटित हुआ। संकट इतना जोरदार था कि तमाम लोग यह संदेह करने लगे कि क्या पूँजीवाद इससे कभी भी उभर पाएगा। क्या यह समाजवादी अर्थव्यवस्था के सामने पराजित हो जाएगा जैसा कि मार्क्सवाद से बहुत दूर रहनेवाले जोसेफ शुम्पीटर 1940 में सोच रहे थे? पूँजीवाद फिर उठ खड़ा हुआ लेकिन अपने पुराने रूप को बचा नहीं पाया। इसी समय विकल्प के रूप में सामने आई समाजवादी अर्थव्यवस्था उस समय अभेद्य लग रही थी। 1929 और 1940 के बीच समाजवादी राजनीति को अस्वीकार करनेवाले गैर-समाजवादी लोगों के लिए भी यह विश्वास करना असंगत नहीं लग रहा था कि पूँजीवाद अपनी अंतिम साँसें गिन रहा है और सोवियत संघ यह सिद्ध करने में लगा था कि वह पूँजीवाद को इतिहास में ढकेलने में सफल हो जाएगा। स्पुतनिक उपग्रह के वर्ष में इस विश्वास में काफी दम लग रहा था। लेकिन 1960 के बाद इस विश्वास का खोखलापन धीरे-धीरे लोगों के सामने जाहिर होने लगा।

ये घटनाएँ और नीति तथा सिद्धांत के क्षेत्र में इनका प्रभाव मार्क्स और एंगिल्स की मृत्यु के बाद की कथा का अंश है। मार्क्स के अपने अनुभवों और आकलनों की सीमा से ये बाहर हैं। बीसवीं सदी के मार्क्सवाद का हमारा आकलन स्वंय मार्क्स के चिंतन पर आधारित न हो कर उनके लेखन के उनके मृत्यु-उपरांत की गई व्याख्याओं और संशोधनों पर आधारित है। अधिक से अधिक हम यह दावा कर सकते हैं कि 1890 के अंतिम वर्षों में, अर्थात मार्क्सवाद के पहले बौद्धिक संकट के दौरान, मार्क्सवादियों की पहली पीढ़ी के वे लोग जो मार्क्स और उनसे भी अधिक एंगिल्स के व्यक्तिगत सम्पर्क में आए थे, संशोधनवाद, साम्राज्यवाद और राष्ट्रवाद जैसे बीसवीं शताब्दी में सामने आनेवाले मुद्दों पर बहस प्रारंभ कर चुके थे। मार्क्सवाद से संबंधित बहस का अधिकांश भाग बीसवीं सदी से जुड़ा हुआ है, खासकर समाजवादी अर्थव्यवस्था के भावी स्वरूप को ले कर चलनेवाली बहस जो मुख्य रूप से पहले विश्व युद्ध की अर्थव्यवस्था और युद्धोत्तर वर्षों की अर्ध-क्रांतिकारी अथवा क्रांतिकारी संकटों की उपज थी। इस बहस के रेशे मार्क्स में मौजूद नहीं हैं।
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अनुवाद - रामकीर्ति शुक्ल

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