अनुप्रिया की कविताएं
अनुप्रिया ने एम. ए.अंग्रेजी व बी. एड. की पढ़ाई की है। वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में एम. ए. हिंदी (उत्तरार्द्ध) की छात्रा है। कविताएं लिखती-पढ़ती है। इनकी कविताओं में प्रेम प्रमुखता से प्रकट होता है।
अनुप्रिया ने अब तक चालीस-पचास कविताएं कही है और कुछ संस्करण भी लिखे हैं। हम यहां उनकी चंद कविताएं साझा कर रहे हैं।
-----------
एक
मेरा गांव मेरा देश
---------
तुम बहुत याद आते हो
जब ढूंढना पड़ता है,
एक छांव
वो नल
जो बिन पैसे के ही
प्यास बुझाती है।
तो तुम
बहुत याद आते हो ।
निगाहें टिक गई,
उन भागते फिरते लोगों को देखकर
पर हृदय में कोई रुदन
करता है कि क्यों...
मैं भी आज इसका हिस्सा हूँ।
तब मेरे गाँव,
तुम बहुत याद
बहुत याद आते हो।
मुस्कुराना चाहती थी आज,
यही तो दुनियां है
एडवांस्ड दुनिया,
जिसका हिस्सा मैं भी हूँ;
पर भीतर कोई हमेशा
गुमसुम सा रहता है
कि नहीं,
कहीं और लेके चलो मुझे
जहाँ मुस्कुराहट का दाम
मुस्कुराहट ही हो।
ये अप्राकृतिक चीज़ें
मुझे प्राकृतिक नहीं होने देती।
तब मेरे छांव, मेरे गॉव,
तुम बहुत याद
बहुत याद आते हो।
जब सीधे साधे लोगो को
ये शहर नासमझ का दर्जा देता है
जब निश्छल भावनाओं को भी
लोग
एक तमाशबीन का नाम देते है ।
तब मेरे गाँव...
कितनी बदली है दुनियां
ये आज समझ में आता है,
जब आदमी में
आदमियत को खोजती हूँ;
जब बातें खुद से ही करने पर
आंखों में आँसू
आ जाते हैं।
तब मेरे गांव
तुम बहुत याद आते हो।
कुछ तो खोया है मेरा ,
जो इस शहर में नहीं मिलता है;
कुछ को पाने में
खुद को ही
खो रही हूँ मैं।
जब ऐसी बातों से मन
घबराता है,
तब तुम बहुत याद
आते हो मेरे गाँव;
कभी कभी
ठहर जाना चाहती हूँ
कोई आंख ऐसी ढूंढती हूँ
जो कह दे की हाँ
बस यहीं रुक जाओ
ठहर जाओ।
तब तुम मेरे गाँव, मेरे छांव
बहुत याद आते हो।
०००
दो
मैं भी तो आगे बढ़ नहीं पायी
-----------
जब गुजरती हूँ
उन राहों से,
मेरी तेज धड़कने
आज भी
तेरे होने का एहसास
करा जाती है ।
जब गुज़रती हूँ
उन गलियों से,
मेरे खामोश कदमों से भी
आहट तुम्हारी आती है ।
देखो...
देखो ....
उन सीढ़ियों पर बैठकर,
तुम आज भी मेरा हाथ
थाम लेते हो;
देखो ....
उन गुजरते हुए पलों में,
आज भी तुम
साथ मेरे
चलते हो ।
सोचती हूँ
ऐसे गुजर जाऊ
उन पलों में कि
कुछ याद ही ना आये;
कभी कदमों को तेज
कर लेती
तो कभी मोबाइल से
खुद को
भुलावा देती;
फिर भी वो एक आवाज
आ ही जाती
कि "ठहर जाओ" ।
जैसे किसी की निगाह
फिर से ऐसे पड़ी हो,
कि मुझे अपना
बनाना चाहती हो
कि जैसे फिर से
किसी ने हाथ मेरा
वैसे ही थामा हो
जैसे....
कभी जुदा होना नहीं चाहता,
वो फिक्र
अब किसी और के चेहरे में
नज़र आती नहीं।
जो उसकी आँखों में
देखा था कभी
ख़ुद के लिए;
और कहता हो
देखो...
मैं आज भी
वहीं खड़ा हूँ ।
निगाहों में वही प्यार लिए;
और मैं चुपचाप
जेहन में पाबंदियों की परवाह
लिए
नयनों में जज़्बात
बस
यही कह पाती हूँ
कि मैं भी तो आगे बढ़ नहीं पायी।।
०००
तीन
वो लड़की ,जो इतनी चुपचाप बैठी है
-----------
पर ना जानें कितनों में ,खुद को साथ लेकर बैठी है
उसके होने में एक अमिट छाप है
पर उसके होठों की हँसी
और आंखों की नमी की तरम्यता में कुछ हास् है
जैसे उसके लबों को आज भी हँसी की तलाश है
वो लड़की जो इतनी चुपचाप.….
उसके हाथ में एक कलम है
ना जानें वो कलम कैसी है
और ना जाने उस कलम का अलम कैसा है
शायद सूरज की उस रोशनी में वो
खुद का एक निगहबान रचना चाहती है
जैसे उन ठंडी हवाओं में
अपनी सांस को ढूंढना चाहती है
वो लड़की जो इतनी.......
पर ना जानें कितनों........
सहसा एक सिकन सी उसके चहरे पर मंडराई है
मानो मन के भीतर ,फिर से कोई आफत आयी है
फेसबुक, ट्विटर ,सेल्फी ,व्हाट्सएप
ये कहाँ दर्शाते हैं उन स्थितियों को
जब बात भावनाओं की हो,तो
डी पी , की मुस्कुराहट भी कहाँ सुलझा पाती है ,उन संवेदनाओ को ।
अरे..... देखो कहाँ उठ चली है वो फिर से ...
अंतर की लड़ाई में बाहर कदमों से भागे ।
हाँ शायद समझौता का तूफान लिए
अपने कदमों को नापे।
वो लड़की जो बैठी थी चुपचाप....
उठ चली है देखो फिर से आज ....
०००
संपर्क:
anupriyanshuman@gmail.com
अनुप्रिया ने एम. ए.अंग्रेजी व बी. एड. की पढ़ाई की है। वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में एम. ए. हिंदी (उत्तरार्द्ध) की छात्रा है। कविताएं लिखती-पढ़ती है। इनकी कविताओं में प्रेम प्रमुखता से प्रकट होता है।
अनुप्रिया ने अब तक चालीस-पचास कविताएं कही है और कुछ संस्करण भी लिखे हैं। हम यहां उनकी चंद कविताएं साझा कर रहे हैं।
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एक
मेरा गांव मेरा देश
---------
तुम बहुत याद आते हो
जब ढूंढना पड़ता है,
एक छांव
वो नल
जो बिन पैसे के ही
प्यास बुझाती है।
तो तुम
बहुत याद आते हो ।
निगाहें टिक गई,
उन भागते फिरते लोगों को देखकर
पर हृदय में कोई रुदन
करता है कि क्यों...
मैं भी आज इसका हिस्सा हूँ।
तब मेरे गाँव,
तुम बहुत याद
बहुत याद आते हो।
मुस्कुराना चाहती थी आज,
यही तो दुनियां है
एडवांस्ड दुनिया,
जिसका हिस्सा मैं भी हूँ;
पर भीतर कोई हमेशा
गुमसुम सा रहता है
कि नहीं,
कहीं और लेके चलो मुझे
जहाँ मुस्कुराहट का दाम
मुस्कुराहट ही हो।
ये अप्राकृतिक चीज़ें
मुझे प्राकृतिक नहीं होने देती।
तब मेरे छांव, मेरे गॉव,
तुम बहुत याद
बहुत याद आते हो।
जब सीधे साधे लोगो को
ये शहर नासमझ का दर्जा देता है
जब निश्छल भावनाओं को भी
लोग
एक तमाशबीन का नाम देते है ।
तब मेरे गाँव...
कितनी बदली है दुनियां
ये आज समझ में आता है,
जब आदमी में
आदमियत को खोजती हूँ;
जब बातें खुद से ही करने पर
आंखों में आँसू
आ जाते हैं।
तब मेरे गांव
तुम बहुत याद आते हो।
कुछ तो खोया है मेरा ,
जो इस शहर में नहीं मिलता है;
कुछ को पाने में
खुद को ही
खो रही हूँ मैं।
जब ऐसी बातों से मन
घबराता है,
तब तुम बहुत याद
आते हो मेरे गाँव;
कभी कभी
ठहर जाना चाहती हूँ
कोई आंख ऐसी ढूंढती हूँ
जो कह दे की हाँ
बस यहीं रुक जाओ
ठहर जाओ।
तब तुम मेरे गाँव, मेरे छांव
बहुत याद आते हो।
०००
दो
मैं भी तो आगे बढ़ नहीं पायी
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जब गुजरती हूँ
उन राहों से,
मेरी तेज धड़कने
आज भी
तेरे होने का एहसास
करा जाती है ।
जब गुज़रती हूँ
उन गलियों से,
मेरे खामोश कदमों से भी
आहट तुम्हारी आती है ।
देखो...
देखो ....
उन सीढ़ियों पर बैठकर,
तुम आज भी मेरा हाथ
थाम लेते हो;
देखो ....
उन गुजरते हुए पलों में,
आज भी तुम
साथ मेरे
चलते हो ।
सोचती हूँ
ऐसे गुजर जाऊ
उन पलों में कि
कुछ याद ही ना आये;
कभी कदमों को तेज
कर लेती
तो कभी मोबाइल से
खुद को
भुलावा देती;
फिर भी वो एक आवाज
आ ही जाती
कि "ठहर जाओ" ।
जैसे किसी की निगाह
फिर से ऐसे पड़ी हो,
कि मुझे अपना
बनाना चाहती हो
कि जैसे फिर से
किसी ने हाथ मेरा
वैसे ही थामा हो
जैसे....
कभी जुदा होना नहीं चाहता,
वो फिक्र
अब किसी और के चेहरे में
नज़र आती नहीं।
जो उसकी आँखों में
देखा था कभी
ख़ुद के लिए;
और कहता हो
देखो...
मैं आज भी
वहीं खड़ा हूँ ।
निगाहों में वही प्यार लिए;
और मैं चुपचाप
जेहन में पाबंदियों की परवाह
लिए
नयनों में जज़्बात
बस
यही कह पाती हूँ
कि मैं भी तो आगे बढ़ नहीं पायी।।
०००
तीन
वो लड़की ,जो इतनी चुपचाप बैठी है
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पर ना जानें कितनों में ,खुद को साथ लेकर बैठी है
उसके होने में एक अमिट छाप है
पर उसके होठों की हँसी
और आंखों की नमी की तरम्यता में कुछ हास् है
जैसे उसके लबों को आज भी हँसी की तलाश है
वो लड़की जो इतनी चुपचाप.….
उसके हाथ में एक कलम है
ना जानें वो कलम कैसी है
और ना जाने उस कलम का अलम कैसा है
शायद सूरज की उस रोशनी में वो
खुद का एक निगहबान रचना चाहती है
जैसे उन ठंडी हवाओं में
अपनी सांस को ढूंढना चाहती है
वो लड़की जो इतनी.......
पर ना जानें कितनों........
सहसा एक सिकन सी उसके चहरे पर मंडराई है
मानो मन के भीतर ,फिर से कोई आफत आयी है
फेसबुक, ट्विटर ,सेल्फी ,व्हाट्सएप
ये कहाँ दर्शाते हैं उन स्थितियों को
जब बात भावनाओं की हो,तो
डी पी , की मुस्कुराहट भी कहाँ सुलझा पाती है ,उन संवेदनाओ को ।
अरे..... देखो कहाँ उठ चली है वो फिर से ...
अंतर की लड़ाई में बाहर कदमों से भागे ।
हाँ शायद समझौता का तूफान लिए
अपने कदमों को नापे।
वो लड़की जो बैठी थी चुपचाप....
उठ चली है देखो फिर से आज ....
०००
संपर्क:
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