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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

19 सितंबर, 2017

आदित्‍य कमल की कुछ रचनाएं



             एक

कोई गारंटी नहीं
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मिल ही जाएगी दिहाड़ी , कोई गारंटी नहीं
क्या अगाड़ी ,क्या पिछाड़ी ; कोई गारंटी नहीं।

तिनके-तिनके जुटा करके बाँधी है एक झोंपड़ी
नहीं जाएगी उजाड़ी , कोई गारंटी नहीँ ।

ना ठिकाना खाने का,पीने का, जीने-मरने का
खिंचेगी कैसे ये गाड़ी , कोई गारंटी नहीं ।

योजना की भात-रोटी , के भरोसे क्या जिएँ
तीस रुपए वाली साड़ी , कोई गारंटी नहीं ।

क्या सुनेगा, क्या कहेगा,जाने क्या फरमान दे
क्या करेगा ये खिलाड़ी , कोई गारंटी नहीं ।

कबतलक हमको बंदरिया की तरह नचवाएगा
डुगडुगी लेकर मदारी , कोई गारंटी नहीं !

          दो

पूछ लीजे
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मुसाफ़िर हवा से पता पूछ लीजे
है कैसी किधर की हवा , पूछ लीजे ।

है लंबा सफ़र , है बहुत दूर जाना
ठहर कर ज़रा रास्ता , पूछ लीजे ।

समय की पेशानी पे उभरी लकीरों
से भोगी गई हर व्यथा, पूछ लीजे।

लोगों के ख़्वाबों का नन्हा वो बच्चा
कहाँ हो गया लापता , पूछ लीजे।

सेठों के घर में उजालों की ख़ातिर
हमारा ही घर क्यूँ जला, पूछ लीजे।

ख़तरे में है मुल्क या मिलकियत है
आखिर है क्या माजरा, पूछ लीजे।

ख़ता है तो खुलकर सजा क्यूँ न देता
यूँ लटका है क्यूँ फैसला , पूछ लीजे ।

बगल से गुजरते गए बेख़बर सब
'कमल' चीखता रह गया , पूछ लीजे ।

             तीन

ठगेरों का नग़मा
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तू भाषण करके लूटा कर , हम शीर्षासन करके लूटें
तू आँख से अँधा करता रह , हम मुंडी में भूसा ठूसें ।

हम दोनों सहोदर भाई हैं आओ मिलकर मस्ती काटें
तू वोट का बैंक बढ़ा भाई , हम गाड़ें धर्म-ध्वजा -खूंटे ।

तू अपना माल भंजा मेरे इस स्वर्ग-नरक की दूकां में
तू आँसू टपका कर झीटे , हम आँख पोंछ दौलत पीटें ।

तू पेट पे सब उलझाए रख; दर्शन और भजन सुनाऊँ मैं
बस ध्यान यही रखना प्यारे,चंगुल से कोई भी ना छूटें ।

इस लूट-पाट की नगरी में तेरा और मेरा राज रहे
तुम धरती के सपने बेचो , हम ज़न्नत के सपने बेचें ।

          चार

ग़ज़ल
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दिल्ली की नालियाँ भी , मेरे घर की तरह हैं
बरसात में उफनाई हर गटर की तरह हैं ।

लुटियन , कनाट-प्लेस की जगमग न देखिए
सब खोलियों की छत,मेरी छप्पर की तरह हैं ।

शहरों को , मैंने सुना था कि सभ्य हो गए
पर कारनामे क्यूँ सभी बर्बर की तरह हैं !

इंसानों के माथे पे चढ़ गए हैं देवता
इन चेहरों को देखो , किसी पत्थर की तरह हैं ।

हाँ , पूँछ कट गई है समय के विकास में
पर आप अभी तक उसी बन्दर की तरह हैं ।

हर शख्स के भीतर हो मानो भीड़ एक जमा
सबलोग , एक अंदर मची भगदड़ की तरह हैं ।

         पांच

तू ही बोल !
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तू हाकिम1 ,तू मुंसिफ़2 ,तू ही नायब3 है...तू ही बोल !
हमारे मुल्क का ऑक्सीजन कहाँ गायब है...तू ही बोल !!

साँस लेने में बहुत तकलीफ होती है अब
क्या हवा को कोई ख़ास हिदायद है ?... तू ही बोल !!

बात करता है जैसे ज़न्नत लाकर रख देगा
यहाँ तो , ज़िंदगी की ही अब-तब है .....तू ही बोल !!

रोज़ भद्दी सी शरारत मेरे वज़ूद के साथ
कौन करता है ?? ?.....बड़ा ss साहब है ....तू ही बोल !!

1. हाकिम- हुकूमत करने वाला, हुक्म चलाने वाला , शासन करने वाला ।
2. मुंसिफ़ - न्याय करने वाला ।
3. नायब - इन कामों में मुख्य पदों पर आसीन लोगों का प्रतिनिधि , उप ( जैसे उपायुक्त ) , Deputy

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