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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

23 सितंबर, 2017

सीमा आज़ाद की कविताएं
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स्वतंत्र पत्रकार सीमा आज़ाद सामाजिक राजनैतिक पत्रिका- दस्तक धरे समय की' की सम्पादक है। आप पीयूसीएल उत्तर प्रदेश की संगठन सचिव है। सीमा को माओवादियों से संबंध होने के आरोप लगाया गया और इस वजह ढाई साल जेल में रखा गया।

जेल प्रवास के दौरान सीमा ने डायरी ' ज़िन्दगीनामा-चांद तारों के बग़ैर एक दुनिया' लिखी है। जो इधर किताब के रूप प्रकाशित हुई है और चर्चित भी रही है। आज हम संघर्षशील कवि-कथाकार सीमा आज़ाद की कविताएं पोस्ट कर रहे हैं। आगे उनकी डायरी पोस्ट करेंगे।

सीमा आज़ाद की कविताएं


आदिवासी-1

पत्थर को
दूध पिलाते हो
तुम
इस धरती के
विकसित और सभ्य वासी हो

हम
इस धरती के
पिछड़े और आदिवासी हैं
पूरे पहाड़ को ही देवता मानते हैं
००

आदिवासी-2

सूरज को
हम जानते हैं सबसे ज्यादा
उसका सोना-जगना
साथ है हमारे
उसके ताप को
शीतलता को
गुनगुनेपन को
महसूस करतें हैं
हम ही सबसे ज्यादा।

नदियों को
हम जानते हैं सबसे ज्यादा
हमारी संगिनी है यह
इसकी कल-कल आवाज
बसती है
हमारे गले में,
हमारी हंसी में गीतों में
इसके दुबलाने- मोटाने पर
रहती है हमारी नजर बराबर
और उसकी नजर रहती है
हमारी प्यास पर।

जंगल को
हम जानते हैं सबसे ज्यादा
हरियाली और सूखेपन के साथ
अपने रहस्यों को भी
साझा करता है यह हमारे साथ।

धरती को
हम जानते है सबसे ज्यादा
हम सुन सकते हैं
इसकी धड़कनों को।
अपनी ममता
गोद में बिठाकर
सबसे ज्यादा हम पर ही लुटाती है यह।


इस पूरी प्रकृति को
सबसे अधिक हम ही जानते हैं
इसके सबसे करीब हम ही हैं
इसलिए ही
तुमने नाम दिया है हमें
‘आदिवासी’
और खुद को तुमने माना है
पृथ्वी के नये वासी।

अपने दिये गये इस नाम के साथ
हमें भले ही देखो तुम
नफरत और तिरस्कार से
पर जब तुम्हारी वहशी नजर
पड़ती है हमारी इस धरती पर
तो सच मानो
खुद-ब-खुद फड़कने लगती हैं
हमारी भुजाएं।
इस पर नजर डालते हुए
तुम बार-बार भूल जाते हो हमारा इतिहास
कि
किसी भी हद तक जा सकते हैं हम
बचाने के लिए
अपनी नदी पहाड़ धरती ।
फिर भी
तुम बार-बार करते हो हमले
असफल होने पर
नयी चाल चलते हो,
नया नामकरण करते हो हमारा
‘आदिवासी’ से ‘माओवादी’
जैसे कि इससे
हम ‘हम’ नही रह जायेंगे
जैसे कि
इससे ही
तुम्हारे हमले जायज हो जायेंगे।

याद रखो
हम सबसे करीब हैं प्रकृति के
पाल-पोष कर इसने ही हमें बनाया है
जुझारू और लड़ाकू ,
नही बख्शती जैसे प्रकृति
अपने से छेड़-छाड़ करने वालों को,
वैसे ही हम भी
और
धरती को बचाने के लिए
धरती में मिल जाने की हद तक
हम जूझते हैं
लड़ते हैं।
००

चुनाव

1
इन दिनों
काफी चर्चा है
अधिकारों की
यह चुनाव का मौसम है।
आप भूखें हों, बेरोजगार हांे
पितृसत्ता, जातीय
और धार्मिक उत्पीड़न के मारे हों
सब कुछ सहन करें
इन अधिकारों की बात
करेंगे फिर कभी
या नहीं भी
फिलहाल
सबसे मूल्यवान है
अधिकार वोट का
आप जैसे भी हों
जिस भी हाल में हों
लुटेरा चुनने के
इस मूल्यवान
अधिकार का प्रयोग
अवश्य करें
यह चुनाव का समय है।

2
उंगली पर निशान
नीली स्याही का
मुहर है इस बात की
कि
लोकतन्त्र को बचाने के लिए
अमुक व्यक्ति ने
सौंप दिया अपना सारा अधिकार
एक व्यक्ति को-
छल को

अब
अधिकार छीनने के लिए
जरूरी नहीं कि
एकलव्यों का अंगूठा काटा जाय,
उंगली पर
स्याही का नीला निशान ही काफी है।

3
लोकतन्त्र में
स्थगित है
सभी नागरिक अधिकार
लागू है
सिर्फ
वोट का अधिकार
००

चुप्पी

वह चुप्पी
हैरान करने वाली थी,
मामला खुद का हो
या दूसरों का,
चुप रहने से बेहतर है
कुछ बोलना
कुछ बोलने से बेहतर है
प्रतिरोध के लिये बोलना
प्रतिरोध के लिये ‘बोलने‘ से बेहतर है
डट कर खड़े होना  लड़ना ।
डट कर खड़े होने का मतलब है -
जीत
प्रतिरोध में बोलने का मतलब है -
उम्मीद जिन्दा है
कुछ भी बोलने का मतलब है -
समाज जिन्दा है
जबकि
चुप्पी का मतलब है -
समाज मर चुका है।
वह चुप्पी
सचमुच हैरान करने वाली थी।
००

लोहा

मोम समझा था तुमने मुझे
खूब तपाया
मैं लोहा बन गयी।
००


योगा डे एक

प्यास के साथ चमचम
भूख के साथ तारे
घड़े के साथ पत्थर
छालों के साथ सड़क की बात करूंगी,
तो हंसेंगे आप।
हंस सकते हैं तो हंस ही लीजिये
क्योंकि गायब होती जा रही है हंसी
दुनिया से,
बचा रह गया है सिर्फ अट्टहास,
बेतुकी और बेमेल बातें हो चुकी हैं इतनी
कि हंसी नहीं आती अब इन पर
अट्टहासियों ने जब
गाय के साथ आधार कार्ड
भोजन के साथ राष्ट्रवाद
प्रेम के साथ जेहाद
स्वच्छता के चश्मा
और जाति के साथ साबुन कहा-
तो कहां हंसे थे हम?
हमें हंसी नहीं आती इन बातों पर अब।
यकीन मानिये असामान्य है यह
एक सामूहिक रोग का लक्षण,
जिसका नाम है-
फासीवाद।
प्रेम बांटने वालों से नफरत
और नफरत बांटने वालों से प्रेम
अपनों पर सन्देह
और अट्टहासियों पर भरोसा
न हंसने वाली बात पर हंसना
और हंसने वाली बातों पर न हंसना-
लक्षण है इसके।
अट्टहासी समझते हैं इसे
क्योंकि
वे ही वायरस हैं इस बीमारी के,
इस वक्त वे घुस रहे हैं हर शरीर में
अनुलोम-विलोम के द्वारा।
वे मन में सोचते हैं-
‘नियन्त्रण और योग’
और जोर से बोलते हैं-
‘योग’ और ‘राष्ट्र’
हंसता नहीं है कोई।
मैं कहती हूं-
‘योग’ और ‘फासीवाद’
हंसी आ जाती है बहुतों को।
इस बात पर हंसना
उतना ही खतरनाक है
जितना कि
अट्टहासियों की बातों पर न हंसना।
००

योगा डे दो


‘योगा’ सुनते ही
सब कहेंगे-
‘स्वास्थ्य’
मैं कहती हूं
‘जेल’
जहां तमाम फरमानों में
योगा भी होता है शामिल,
जेलरों के आतंक से परेशान
तनावग्रस्त कैदियों में
‘आध्यात्मिक संचार’ के लिए।

देश भर के आन्दोलनों से तनावग्रस्त
सरकार का फरमान आया-
‘21 जून- योगा डे’
और मैंने देखा
पूरा देश ही जेल हो गया।

सीमा आज़ाद

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