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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

26 सितंबर, 2017

विनय सौरभ की कविताएं
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विनय सौरभ


बचपन की कोई ब्लैक एण्ड ह्वाईट तस्वीर

अब तो उस मकान की स्मृति भर है
जिसके आगे मेरी वह तस्वीर है

एक घोड़ा बँधा दिखता है थोड़ी दूर में
और मेरा बड़ा भाई बैलगाड़ी के पीछे
कैमरे से छुपने की कोशिश में लजाता हुआ

आह, वह दृश्य !
मफ़लर और फूल वाले स्वेटर में
बुआ का हाथ थामे मैं अपने पुराने खपड़ैल वाले
घर के चबूतरे पर
और मेमने अपनी माँ के स्तन पर थूथन अपनी मारते हुए !

कितनी विह्वलता भरी है उस तस्वीर में !
कितना जीवन रस !

अब तो वह मकान भी नहीं रहा,और टोले में वह घोड़ा किसका था ?

सब कहते हैं -
तब तो हर घर में गायें भी होती थीं !

क्या आपके पास बचपन की कोई ब्लैक एण्ड वाइट तस्वीर है,
जिसके खेंचे जाने की याद ज़ेहन में नहीं के बराबर है ?

क्या उस फोटूग्राफ़र के बारे में यकीन से कुछ बता सकते हैं, जो शहर से गाँव फोटू
खेंचने के लिए ही आता था ?
०००


हाट की बात
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हाट जाना मुझे मेरे पिता ने सिखाया

एकदम बचपन की बात बताता हूँ
वे रविवार की सुबह मुझे अपने साथ
कर लेते थे
मै झोला अपनी नन्हीं मुट्ठियों में भींचे
उनकी उँगली थामे होता था

मैंने उनके साथ कई शहर बदले
पर हाट जाने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा

अच्छे किस्म के आलू और दूसरी सब्जियों  की पहचान मैंने एकदम छोटी उम्र में  कर ली थी
क्या आपको पता है, बैगन हल्के अच्छे  होते हैं ?
मछलियों के फेफड़े से उनके ताज़ेपन की पहचान होती है ?

सोलह बरस पहले,
जिस दिन आख़िरी साँस ली पिता ने
वह रविवार का दिन था और मैं  अपने गाँव की हाट गया था

तीस बत्तीस का हो गया हूँ
हफ़्ते की हाट जाना मुझे आज भी अच्छा लगता है
हरी सब्जियों से भरे खोमचे मुझे जीवन में  देखे गये सुन्दर दृश्यों में  से लगते हैं

पिंजरों में प्यारे  कबूतर सिर निकालकर देखते हैं हाट आए लोगों को
बिक जाने के बाद उनका क्या होगा, थोड़े ही जानते हैं

अजीबोगरीब शक्ल के पगड़ी वाले जो अपने को परदेशी बताते हैं
बेचते हैं  कई किस्मों के तेल और जड़ी बूटियाँ
मौक़ा ताड़कर लोगों को रातों की हताशा और बेचारगी का निदान सुझाते हैं

कहते हैं -
सांडे का तेल लगाओ, सब ठीक हो जावेगा
बीवी खुश हो जावेगी

बच्चों  की आमद देख कर कहते हैं -
बाबू साब, तुम्हारी  उमर नहीं हुई ये सब सुनने की, चल खिसक ले

                      °°°


एक कवि का अंतर्द्वंद्व
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वह बहुत उदास-सी शाम थी
जब मैं उस स्त्री से मिला

मैंने कहा - मैं तुमसे प्रेम करता हूं
फिर सोचा - यह कहना कितना नाकाफ़ी है

वह स्त्री एक वृक्ष में बदल गई
फिर पहाड़ में
फिर नदी में
धरती तो वह पहले से थी ही

मैं उस स्त्री का बदलना देखता रहा !

ए‍क साथ इतनी चीज़ों से,
प्रेम कर पाना कितना कठिन है
कितना मुश्किल,
एक कवि का जीवन जीना

वह प्रेम करना चाहता है एक साथ कई चीज़ों से
और चीज़ें हैं कि बदल जाती हैं
प्रत्येक क्षण में !
०००

अगर मैं परदेश में मरा
(1997)
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(पहल पुस्तिका में नाज़िम हिक़मत की एक कविता मेरा ज़नाज़ा से प्रेरित)

मुझे यक़ीन है
किसी रोज गहरी आकस्मिकता के साथ यह देह छूट जाएगी

दिन जब ऊपर को आ चुका होगा
पड़ोसियों को बहुत देर के बाद
मिलेंगे संकेत

तब तक बच्चे स्कूल
और कामगार अपने काम को जा चुके होंगे, घरेलू स्त्रियाँ रसोई की खटपट में जुटी होंगी

रोशनदान से कोई फुर्तीला आदमी भीतर आएगा और खोलेगा सामने का दरवाज़ा

अगर मैं परदेश में मरा तो
निश्चित ही थोड़ी दिक्कत आ सकती है

पड़ोसी मेरे स्थायी पते के लिए परेशान होंगे, वे शहर में मेरे किसी भी परिचय का हर संभव चिह्न ढूँढेंगे

मुरदे को बहुत देर तक
यूँ ही नहीं छोड़ा जा सकता !
वे एक परदेशी के वास्ते जरूरी औपचारिकता और अपना धर्म निभायेंगे ही

बच्चों में मृतकों को लेकर थोड़ा कौतुहल होता ही है
वे मेरी शवयात्रा को औचक नज़रों से देखेंगे, जिसमें यक़ीनन गिनती के लोग होंगे !

वह एक कवि की शवयात्रा नहीं होगी !!

यह स्वीकार कर लेने में क्या हर्ज है कि उस शवयात्रा में एक मुरदे को शमशान तक पहुँचाने की हड़बड़ी में सभी लोग भरे होंगे !

हालाँकि-

मृत्यु के बारे में कुछ निश्चित नहीं है
और आत्मा के बारे में ठीक -ठीक कुछ भी कहना कठिन जैसा है

आत्मा अगर है तो-
वह मेरी शवयात्रा को जाता हुआ देखेगी
अगर वह हँसती है तो-
आशंका है कि वह मृत्यु के बाद की
मेरी नियति पर हँसेगी !

कहेगी ही-
कि परदेश में भी मरे
और अंत तक कविता के कोई मित्र नहीं  बना सके !
 •••


परिचय
विनय सौरभ: 22 जुलाई 1972 को  संथाल परगना के एक गाँव *नोनीहाट* में जन्म।

  टी एन बी कालेज, भागलपुर  से स्नातक और भारतीय जन संचार संस्थान, नयी दिल्ली से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा‌

देश की शीर्ष पत्र पत्रिकाओं में तीन सौ के करीब कविताओं और लेखों का प्रकाशन।

संपर्क:
मोबाइल: 7274078832
9431944937

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