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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

18 फ़रवरी, 2018

सीमा संगसार की कविताएं


सीमा संगसार


 काफ़िर
1..

तमाम असहमतियों के पक्ष में
दर्ज होती रही
तुम्हारी सारी गवाहियां
तुम नकारते रहे
उन सारे साक्ष्यों को
जिसमें मुझे खारिज करने के
सारे तथ्य छुपे थे....

तुम्हारे इस नकारने की प्रक्रिया ने
बंद कर दिए
उन सारे दरवाजों को
जो तुम तक पहूंचती थी....

सुनो काफ़िर ,
देह के रास्ते
बंद कर देने से
रूह के रास्ते बंद नहीं हुआ करते!!

बंद करो ये सारे जिरहें
उन सारे आरोपों और प्रत्यारोपों.के
कि प्रेम में मौन हो जाना
मोक्ष के द्वार का
खुल जाना होता है ....




2 ...

प्रेम
उतना ही शुद्ध है
जितना की
जीसस को पाने के लिए
किया गया
बपतिस्मा
जब तुम्हें
लगानी पङ़ती है,
डूबकी
गहरे पानी में
सिर झुकाते हुए
आंखें मूंद कर ....

श्रद्धा और प्रेम का
अन्योन्याश्रय संबंध है
ईश्वर की तरह
जहाँ भरोसा काबिज है
धूप बत्ती के धूएं की तरह ...

सुनो काफ़िर
मेरे खुदा
कहीं न कहीं
तुम खुदा के करीब हो
जब तक कि
मैं तुम्हारे प्रेम में हूँ
कि ईश्वर रकीब है तुम्हारा
और / मैं बाइबिल की तरह
चूम लेना चाहती हूँ
तुम्हारे बेतरतीब कपोलों.को ....







3....

तुम करते रहे घुर्णन
अपनी परिधि में
मैं
देखती रही
अपलक
पृथ्वी का घूमना
मैं
चाहती थी
अक्ष होना
उस धूरी की
जिसम़े
तुम्हारा संसर्ग हो
और / तुम मुझे समझाते रहे
तटस्थता के नियमों को ....

सुनो काफ़िर ,
इश्क़ कोई
उदासीनता वक्र विश्लेषण का सिद्धांत नहीं
जहाँ हम तटस्थ रहे ....

आवेगो़ को
कभी बांध नहीं पाई मैं
अपने जूङे की
उपत्यकाओं म़े
और / तुम्हें पसंद नहीं
मेरा यो़ खुलकर बह जाना ....

मैं
दोनों वक्रों की
 वह संयोग हूँ
जहाँ तुम्हारी
उदासीनता भंग होती है ...

वक्रों के इस
 कुटिल चाल में
मैं चाहती हूँ " संग " होना
और तुम " सार " किए जाते हो ....






इंतज़ार

इंतज़ार
मछलियों की आंखों का
वह सूनापन है
जो छोड़ आती है
पानी में
एक दिन ...

जब उड़ जाती है
उनके
ख्वाहिशों की
आखिरी चिंदीयां
एक दिन ...

छटपटाने लगती हैं
तब
जीवन की अंतिम ख्वाहिशें

कि प्रेम मछलियों का जीवन राग है ....





 ढील मारती लड़कियाँ

तंग गलियों के भीतर
सीलन भरे
तहखाने नुमा घर के भीतर
सीढियों पर बैठी
ढील मारती लड़कियों के
नाखूनों पर
मारे जाते हैं ढील
पटापट
ठीक उसके सपनों की तरह
जो रोज - ब -रोज
मारे जाते हैं
एक - एक करके
अंधेरे में ......

नहीं लिखी जाती हैं
इन पर कोई कहानियां
कविता
और न ही बनती है
इन पर कोई सिनेमा
कि ये कोई पद्मावती नहीं
जो बदल सके
इतिहास के रुख को ....

भूसे की तरह
ठूंस - ठूंस कर
रखे गये संस्कार
उसके माथे में
भर दी जाती हैं
जिसे वे बांध लेती हैं
कस कर
लाल रिबन से ....

कि वह नहीं खेल सकती
खो - खो कबड्डी
नहीं जा सकती स्कूल
गोबर पाथना छोङ़कर...

वह अपने सारे अरमानों का
लगाती हैं छौंक
कड़ाही में
और भून डालती हैं उन्हें
लाल - लाल
अपने सपनों को
जलने से पहले ....







 गर्भ गृह

उंची मीनार पर
लाल - लाल पताके
लहराते हुए
गुंबदों के नीचे
गर्भ गृह में स्थित
ईश्वर को पूजा जाता है!
लाल सिन्दूरों से पोतकर ....

लाल रुधिर से
सना हुआ
गर्भ गृह
फिर अछूत क्यों ??
जहाँ सृजन की प्रक्रियाएं
चलती रहती हैं
नौ मासा ....

हे रत्नगर्भा
जीवनदायिनी
सद्यः प्रसूता
अपने नवांकुर पर
जब उङ़ेलती हो
अपना अमृत कलश
उलट कर !

ईश्वर के समूद्र मंथन से उत्पन्न
सारा का सारा क्षीर
उतर आता है
तुम्हारे स्तनों में ....

हे ईश्वर
बता दो
तुम अपनी
कोई ऐसी मौलिक कृति
जिसे तुमने रचा हो
अपने गर्भ में
स्थित होकर




 सांकल

कुछ दरवाजे
कभी बंद नहीं होते
उन पर सांकल चढ़ा दी जाती है
कुछ देर के लिए
ताकि
आवागमन
बाधित हो जाए
थोड़ी देर ....

कुछ आवाजें
पीछा नहीं छोङ़ती
जब तक कि
बंद कपाटों की
झिड़कियों से
आती रहें उनकी आहटें ...

उन्हें बंद करने के लिए
अपनी आंखें बंद कर
अपनी सांसों को रोक कर
बस एक बार
पीठ टेक कर
कस कर दबा देना पङ़ता है
उन सारे
आवाजाहियों को
जो हमारे सांसों की तरह
आती -जाती रहती है...

शनैः शनैः
वह शोर
सन्नाटे में तब्दील होता जाता है
और /हमारी बंद पङ़ी मुट्ठियाँ
शिथिल पङ़ती जाती हे ....

सांकल लगा देना ही
काफी नहीं
गहरे ध्यान की प्रक्रिया से
गुजरे बिना
स्मृतियों का विलोपन
असंभव.है




 प्रसव कक्ष में

प्रसव कक्ष में चीखती औरतें
असभ्य मानी जाती हैं !
बचपन से ही इनके मुँह में
जड़ दिया जाता है ताला
ताकि वह इसे खोलने की
हिमाकत न कर सके
इसीलिए नाक - कान छेद कर
जकड़ा जाता है इन्हें बेड़ियों में----

प्रसव कक्ष में चीखती औरतें
घुट घुट कर रोती हैं
इनके रूदन और संताप से
जन्म लेते हैं
मुट्ठी भींचे हुए
ललछौंहे नवजात शिशू
लाल लाल गुलाब की तरह---

प्रसव कक्ष में चीखती औरतें
खून के छींटे से लिखती हैं
अपने बलिदान और संघर्ष की गाथा
उनके लाल लहू से
हम उतारते हैं
समूची पृथ्वी का ऋण
ताकि हमारी अगली पीढियां
करें हमारा अनुसरण ---

प्रसव कक्ष में चीखती औरतें
किसी वर्ग में नहीं गिनी जाती हैं
न इनका कोई " वाद " होता है
ये बस " औरतें " होती हैं
और शिशु बस शिशु होता है
वर्ग विहीन / जाति विहीन

इस दुनिया का सबसे पवित्र कक्ष
प्रसव कक्ष है ----






रमरतिया

ध्वस्त हो चुकी
मान्यताओं के ख़िलाफ़
सिर उठाती रमरतिया
पीसा की मीनार की तरह
झुकी जरूर है
पर उसके इरादे बुलंद हैं
आज भी प्राचीन धरोहर की तरह---

जूठन की परंपरा
दुर्गंधयुक्त हो चुकी है
बासी भोजन की तरह

ईश्वर की दासता से मुक्त
देशवासियों ने
बांध ली हैं घुंघरूएँ
अपने पाँवों में
उन्हें तोड़ देने के लिए

रमरतिया महज एक देह नहीं
जिस पर वर्षों से प्रभुत्व था
किसी और का
वह अब एक जीती जागती
प्रतिमूर्ति है , देवी की
जिसे लोग पूजते तो हैं
पर हाथ नहीं लगा सकते ----





 एक स्त्री जब हँसती है.....

एक स्त्री जब हँसती है
पहाड़ों पर
उतर आता है आकाश
अपने नीले पङ़ गए
होठों की
लालिमा के साथ ...

एक स्त्री जब हँसती है
आंखों में
उतर आती हैं नदियां
छलकते हुए सैलाब के साथ ...

एक स्त्री जब हँसती है
अपने एकांत से
चुन लाती हैं
कुछ खामोशियां
लरजते होठों के साथ ...

एक स्त्री जब हँसती है
हवाओं का बहना
रुक जाता है
थम जाती है सांसे
प्रकृति की
कि एक स्त्री का हंसना
सुरम्य स्थलों पर
भू स्खलित होने की एक प्रक्रिया है ....







प्रेम फरवरी 

प्रेम में
शिकायतों को
समेट कर
उंचा उठाकर
जूड़े में
बांध लेना
और अपनी उदासियों को
खोंस लेना
उसमें
कोई बासी फूल
मुझे कभी नहीं आया ....

मैं चाहती हूँ
कि कुछ उदासी ओढ़ लूं
गंभीरता की शक्ल में
गालों पर
झूल आए
जिद्दी लटों को
परे हटा कर !!

लेकिन मेरे बाल
मेरी ही तरह हल्की हैं
जो एक स्पर्श से
खुल कर
खिलखिलाने लगती है
मानो कुछ हुआ ही न हो ...

प्रेम में गर शिकायत न हो तो
तेल से चुपड़े बालों की
दो चुटिया बना डालती
एकदम अनुशासित ....

कि प्रेम में होना
खुले बालों का लहराना होता है ....




आत्म परिचय 

नाम - सीमा संगसार 
जन्म तिथि - ०२ – १२ -१९७८
पता -फुलवड़िया १ , बरौनी , बेगुसराई , (बिहार)
अब तक प्रकाशित : अंतरंग, नया ज्ञानोदय , नया पथ , लहक , लोक विमर्श , दुनिया इन दिनों इन्द्रप्रस्थ भारती (हिंदी अकादमी ) ,लहक , मंतव्य सहित हिन्दुस्तान समाचार पत्र व कई अन्य पत्रिकाओं और शब्द सक्रिय हैं , स्त्री काल पहली बार आदि ब्लॉगों में रचनाएं प्रमुखता से प्रकाशित ...



चित्: गूगल से साभार 

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