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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

02 फ़रवरी, 2018

पड़ताल: क्रिस्टेनिया मेरी जान

डॉ अनिल अविश्रांत 





उर्मिलेश 


मन बेस्वाद हो उठता है| तब ढलते हुए सूरज से मिन्नतें करता हूँ कि वह थोड़ी देर रुक जाए पर तमाम मिन्नतों के बाद भी सूरज बेतवा के किनारे-किनारे चलते हुए पश्चिम की ओर चला गया| अब अंधेरा घिर गया है और मैं निपट अकेला हूं | सामने नई छपी किताबों का सेट है.मैं उन्हें बेबस-सा देखता हूं | हाथ बढ़ाता हूं कि उठाऊं.कुछ पढ़ूं पर ऊंगलियां जिल्द का स्पर्श कर हाथ को लौटा लाती हैं|
शाम को दो घंटे बिजली ठप्प रहती है, पर इंवर्टर खुब अच्छा काम कर रहा है| दो-दो पंखें पूरी तेजी के साथ चल रहे हैं, कमरे में सी एफ एल की दूधिया रौशनी फैली है | खुब साफ.अचानक मेरी निगाह उर्मिलेश जी की किताब पर जाती है और मुझे लगता है कि तलाश पूरी हुई | मेरे हाथ में 'क्रिस्टेनिया मेरी जान'है और मैं फिलहाल दूर देशों के अनजाने और अनदेखे सत्यों-तथ्यों के सम्मोहन में हूं जो क्रिस्टेनिया की पहचान है|

उर्मिलेश उन थोड़े से पत्रकारों में हैं जिनपर गहरा भरोसा है |उनकी विद्वता के साथ-साथ प्रतिबद्धता के कारण भी | इसलिए उनके यात्रा वृतांत को पढ़ते हुए सहज ही मैं उनका सहयात्री बन जाता हूँ | सफर का पहला पड़ाव क्रिस्टेनिया है जिसकी अराजकता सम्मोहित करती है और मन बाल्टिक की लहरों में बसी लय पर झूमने लगता है | यह कोपेनहेगन से बाल्टिक सागर की तरफ जाने वाली रोड पर शहर से कुछ दूर बसा एक छोटा-सा कस्बा है जिसे यहां के लोग'फ्री टाउन'कहना नहीं भूलते और बाहर वाले इसे 'अराजकतावादियों का द्वीप', हिप्पियों का अड्डा, खस्ताहाल साहित्यकारों-कलाकारों का कम्यून और तरह-तरह के नशाखोरों का स्वर्ग' कहते हैं | लेकिन उसकी धूल भरी सड़कों पर चलते हुए मन यह मानने को तैयार ही नहीं था कि यह कोई तफरीह की जगह है | और जब जैकब साहब के संपादकीय से वह उद्धृत करते हुए इसे 'सेना की खाली जगह पर आम लोगों की फतह का मुकाम'बताया तो यह पता चल गया कि आखिर क्रिस्टेनिया उनकी स्मृति में क्यों स्थाई रूप से बस गया |

     किताब का दूसरा लेख हमें डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन ले चलता है |  जहां की सड़कों पर चमचमाती साईकिलों की संख्या अभीभूत कर देती है | डेनिश लोग इसे दुनिया की  'साइकिल -राजधानी' कहते हैं और यहां विश्व की पहली 'साइक्लिंग एम्बेसी 'स्थापित की गई है | उर्मिलेश जी ने दर्ज किया है कि 'ये साइकिलें यहां महज आवागमन का साधन नहीं हैं, ये डेनिश समाज और यहां की समृद्ध सभ्यता में नए मूल्य जोड़ रही हैं |जीने का पूरा सलीका बदल चुकी हैं. ' अब यह डेनमार्क की पहचान है|

             चूंकि उर्मिलेश जी एक वरिष्ठ पत्रकार हैं और उनकी ज्यादातर यात्राएं किसी न किसी मीडिया संस्थान के एसाइनमेंट के तहत या विभिन्न देशों की शासकीय, सांस्कृतिक या अन्य आधिकारिक संस्थाओं के निमंत्रण पर संभव हुई हैं इसलिए वह महज पर्यटक की भूमिका में नहीं हैं  और उनकी दृष्टि केवल प्राकृतिक सुषमा में ही उलझ कर नहीं रह जाती | उनका जोर सूचनाओं और तथ्यों पर अधिक रहता है. उनकी नजर में दो देशों के रिश्ते ,उसे प्रभावित करने वाली घटनाएं और उसके किरदार अधिक हैं|  वह डेनमार्क के अपने दौरे के दौरान पुरुलिया आर्म्स ड्राप कांड के डेनिश अभियुक्त किम डेवी की चर्चा करते हैं जिसके कारण भारत और डेनमार्क के रिश्तों में खटास आई तो वहीं वह दो डेनिश युवा इंजीनियरों -एच लार्सन और एस के टुब्रो को भी नहीं भूलते जिनकी कंपनी एल एन टी  आज देश की शान है|

              उर्मिलेश जी ने यूरोपीय समाज का पर्यवेक्षण भी बहुत गहराई से किया है और उसे भारतीय समाज के बरक्स परखा है |  पर उनका मन प्रवासी भारतीयों के मनोविज्ञान को समझने में खुब लगा है |  जहां उनकी सफलता और सामाजिक स्वीकृति से वह संतुष्ट हैं तो उनकी कुंठाओं को लेकर सजग भी हैं | मसलन डेनमार्क में मिले एक प्रवासी भारतीय का उर्मिलेश जी के सरनेम में उत्सुकता दिखाना और कांशीराम, लालू यादव,या करुणानिधि जैसे नेताओं की राजनीतिक सक्रियता पर यह कहना कि ऐसे लोग सत्ता में आते रहे तो भारतीय संस्कृति का विनाश हो जायेगा, ऐसे ही उदाहरण है |

यह चिंताजनक है कि प्रवासी भारतीय हिन्दुत्व की पहचान को लेकर मुखर हैं और दक्षिणपंथी, अनुदारवादी विचारों के प्रभाव में हैं | एक तरफ यूरोपीय विचारक भारत से अपेक्षा रखते हैं कि उसमे दुनिया का भला करने की अपार संभावनाएं हैं और इस महादेश को करूणा और सहिष्णुता की महाशक्ति बनकर उभरना चाहिए |  जबकि दूसरी ओर हम भारतीय लोकतंत्र और स्वतंत्रता का दायरा लगातार संकुचित करते जा रहे हैं |

         ठीक इस समय जब भारतीय मीडिया की रिपोर्टिंग सवालों के घेरे में है  और उसपर विश्वस्नीयता का गंभीर संकट है, 'लोकतंत्र और मीडिया-आजादी का डेनिश मॉडल' पढ़ा जाना चाहिए  | यहां के अखबार अपने कंटेंट, विश्वसनीयता और संपादकीय स्वायत्ता को लेकर बेहद सजग हैं |  जब भारतीय मीडिया हाऊसेस में संपादक नाम की संस्था दम तोड़ रही है और इनकी जगह मैनेजर ले रहे हैं  तब यह जानकर आश्चर्य होता है कि डेनमार्क के सभी प्रमुख मीडिया संस्थानों में संपादक ही नहीं, ओम्बुड्समैन भी नियुक्त होते हैं  और वहां पत्रकारों की यूनियनें काफी ताकतवर हैं |  और ये संस्थान सरकारी हस्तक्षेप से पूरी तरह मुक्त हैं |

         इसका अर्थ यह नही है कि वहां सबकुछ अच्छा ही है |  प्राय:डेनिश मीडिया में स्वच्छंदता की हद तक स्वतंत्रता का मजा लेने की मानसिकता मौजूद है और यहां भी एथनिक और अल्पसंख्यक समुदायों के पत्रकार नहीं हैं और इन मसलों पर एक तरह की अग्यानता ही नजर आती है |  फिर भी भारतीय मीडिया की तुलना में यह अपने प्रोफेशन के प्रति ज्यादा जिम्मेदार है |

       किताब के आरम्भिक 6लेख उर्मिलेश जी की डेनमार्क यात्रा से संचित अनुभव पर आधारित हैं तो अगले तीन लेख अमेरिकी यात्रा के अनुभव को साझा करते हैं | 'पहली बार न्यूयार्क ' उनकी नेपाल के बाद पहली विदेश यात्रा का वृतांत है जिसे उन्होंने विश्व हिंदी सम्मेलन में प्रतिभाग करने के लिए किया था |  यह यात्रा वृतांत से अधिक मीडिया हाऊस के अंदर की उठा-पटक को सामने लाता है | जहां प्रतिभा और अनुभव से अधिक चापलूस और सजातीय होना ज्यादा महत्वपूर्ण है | वह लिखते हैं -'शायद पूरे ब्यूरे में मैं अकेला हूँ जिसे किसी संपादक ने कभी विदेश दौरे पर नहीं भेजा, लेकिन बड़े जोखिम वाले, युद्ध, भूकंप या दक्षिण के सुदूर राज्यों के दौरे की जब भी बात आई, मेरा नाम बार-बार प्रस्तावित हुआ |  'यह हमारी मीडिया का वास्तविक चरित्र है जहां ऐसे 'खेल'खेले जाते हैं |  इसके बावजूद भी बतौर लेखक जब भारत सरकार उनका चयन करती है तो भी बॉस को नागवार गुजरता है और बड़ी जद्दोजहद के बाद जब उन्हें अनुमति मिलती भी है तो इस शर्त के साथ कि वह विश्व हिंदी सम्मेलन पर कुछ भी नहीं लिखेगें |  प्रतिभाओं को हतोत्साहित करने के ये षड़यन्त्र हर जगह चलते रहते हैं |






          सरकारी कर्मकांडों के बीच लेखक कुछ समय अपने लिए भी निकाल ही लेते हैं .न्यूयार्क में बिकता बोतल बंद पानी अब अपने देश का भी सच है जिसे उर्मिलेश वेलफेयर स्टेट की सबसे बड़ी विफलता के रूप में लेते हैं .वाशिंगटन लेन उन्हे आकर्षित करती है तो टैक्सी ड्राइवर के रूप में मिला एक बंग्ला देशी उन्हें प्रभावित करता है पर लेख के अंत में अमेरिका पर की गई यह टिप्पणी बड़ी मानीखेज़ है-'अमेरिका समंदरों के अँधेरे में चमकते छोटे-बड़े टापुओं का ऐसा ताकतवर झुंड है, जो मनुष्यता के बड़े हिस्से को अंधेरे में बनाए रखता है ताकि वह अपने वैभव का लगातार अट्टहास करता रहे!'

       अगले पांच लेखों में लेखक की ब्रिटिश यात्रा के संदर्भ हैं जिसे उन्होंने एफ सी ओ के बुलावे पर की है |  यह एक लोकतांत्रिक देश है पर विसंगतियों से मुक्त नहीं है |  मसलन अश्वेतों और प्रवासियों के प्रति समाज में विभेद भरा रवैया है | शासकीय स्तर पर भी प्रवासियों की धार्मिक पहचान को ज्यादा महत्वपूर्ण  माना गया है |इन लेखों में लंदन की ट्यूब रेलवे का रोमांचक सफर है तो औद्योगिक क्रांति के शुरुआती केन्द्र बर्मिंघम में सोहो रोड के समोसे और गोलगप्पों में भारतीय स्वाद की तलाश दर्ज है |  बर्मिंघम में टहलते हुए ही लेखक को लॉरी बेकर याद आते हैं  जिनकी दिलचस्प दास्तान उन्होंने 'केरल के लॉरी बेकर का बर्मिंघम' लेख में लिखी है | बर्मिंघम में जन्में लॉरी बेकर महान भवन-निर्माता थे जिनका जुड़ाव फैजाबाद, पिथौरागढ़ और केरल से रहा |  उन्होंने इलाहाबाद कृषि विवि, चित्रलेखा स्टूडियो, स्लिम अली केंद्र सहित बहुत से महत्वपूर्ण भारतीय भवनों का निर्माण किया |

     मंडेला के सपने और जोहान्सबर्ग के हवाई गलियारे और सोवैटो में चार हिंदुस्तानी लेखक की दक्षिण अफ़्रीका विशेषकर जोहान्सबर्ग की यात्रा का संस्मरण है | यह गांधी और मंडेला की धरती है जहां मनुष्यता की मुक्ति की इबारत लिखी गई पर लेखक को यह देखकर अफसोस होता है कि मंडेला के सपने कहीं पीछे छूट गये हैं | नई सरकारों ने निजीकरण आधारित पूंजीपरस्ती का रास्ता चुना | लेखक सोवैटो शहर से भी परिचय कराते हैं  जो मंडेला की अगुवाई में चले मुक्ति संग्राम का प्रमुख केन्द्र था पर देशी मिजाज के इस शहर में अपना शासन पा लेने की गर्मजोशी दिखाई नहीं पड़ती |  यह मोहभंग की स्थिति है जिससे पूरी की पूरी पीढ़ियां ग्रसित हैं और यह किसी भी बनते हुए राष्ट्र के लिए बड़ी खतरनाक स्थिति है |

       सोवैटो यदि विद्रोह का प्रतीक है तो आस्ट्रेलिया का रोत्तनेस्ट द्वीप गुनाहों की अमिट निशानियों से भरा हुआ है जहां चूहों की तरह मूल निवासियों को मार दिया गया|  अब यह श्वेत लोगों का देश है और कोई नहीं जानता कि चालीस पचास हजार साल से वजूद में रहे आदिवासी कहां गायब हो गये और बड़ी-बड़ी जेलें तथा मिलिट्री बैरकें किसके खून से नहलाई गईं थी |

       कुछ सच्चाइयां दूर से नहीं दिखती | उसके लिए बहुत निकट जाना पड़ता है तब पता चलता है कि लुभावने चेहरे पर भी दाग हैं| लेखक की भूटान यात्रा का कुल निष्कर्ष इस शीर्षक से स्पष्ट है| हालाकि भूटान हमारा निकटतम सहयोगी है और हर अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर वह हमारे साथ है|
उसके ग्रास नेशनल हैपीनेस की अवधारणा का पूरे विश्व में स्वागत हुआ और युवा राजा द्वारा 2008में कराये गये चुनाव को जनतंत्र के आगमन के रूप में प्रचारित किया गया | बावजूद इसके यह भी सच है कि चुनाव से ठीक पहले तीन प्रमुख राजनीतिक दलों को प्रतिबन्धित कर दिया गया |  पूंजी और सम्पत्ति का संकेन्द्रण राजसी परिवार के सदस्यों के इर्द-गिर्द है और आम लोग सरकार की किसी भी मुद्दे पर आलोचना करने से परहेज करते हैं|

       उन्नीस अध्यायों में बंटी यह किताब पांच महादेशों का सफरनामा है| यह यात्रा वृतांत से अधिक एक यात्रा संस्मरण है | इसे लेखक का संस्कृतियों से संवाद भी कहा जा सकता है | 

 इसमें प्रकृति के रूमानी दृश्य न होकर संस्कृति के उलझे धागों को सुलझाकर सचेतन ढ़ंग से मनुष्यता की एक साझी रेशमी डोर बुनने का सायास प्रयत्न है|
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सभी चित्र: गूगल से साभार




       

अनिल अविश्रांत 


आलोचक का संक्षिप्त परिचय:


डा.अनिल कुमार सिंह राजकीय महिला महाविद्यालय झाँसी में हिन्दी विषय में सहायक प्राध्यापक और विभाग प्रभारी के रूप में कार्यरत हैं ।वह 'अविश्रांत' नाम से रचनात्मक लेखन करते हैं ।शैक्षिक सरोकारों से जुड़ाव और पुस्तक पढने की संस्कृति के विकास के लिए 'आगाज़ मंच' का गठन कर लोगों के बीच काम कर रहे हैं




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