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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

26 फ़रवरी, 2018

यह खोखलापन अब तो जीवन की भी बलि लेने लगा  है

रमेश शर्मा

समाज का नजरिया इस कदर नीचे चला गया है कि किसी भी कीमत पर सुंदर दिखना आज बेहद जरूरी है । सुंदर दिखने का यह दबाव आज के बाजारू सामाजिक परिस्थितियों में स्त्रियों के ऊपर इतना अधिक बढ़ा है कि स्त्रियों के लिए यह विषय जीवन-मृत्यु से भी ऊपर का विषय बनकर उभरा है ।






हाल ही में फिल्मी अदाकारा श्रीदेवी की मृत्यु ने इस प्रसंग पर सोचने को हमें मजबूर किया है कि सुंदर दिखने के लिए क्या हम अपने जीवन को भी दांव पर लगा दें ?? सूत्र बताते हैं कि श्रीदेवी ने 29 कॉस्मेटिक सर्जरियाँ करवाई थीं उनमें से एक सर्जरी असफल हो गई थी जिसके कारण वे एंटीबायोटिक पेनकिलर जैसी तरह तरह की दवाइयां लिया करती थीं । इन दवाइयों के कारण उनका खून गाढ़ा हो गया था और खून गाढ़ा हो जाने के कारण उनको हृदय संबंधी परेशानियों से जूझना पड़ रहा था । यह कितना दुर्भाग्य का विषय है कि महज सुंदर दिखने के लिए एक स्त्री ने अपने जीवन को दांव पर लगा दिया । शायद फिल्मी दुनिया का घिनौना सच यही है कि दर्शकों को हर हालत में सुंदर अदाकारा ही चाहिए । इसी घिनौने सच की दुनिया को अब हम अपना आदर्श मान बैठे हैं और फिल्मी दुनिया से बाहर की स्त्रियां भी इसी राह पर चल पड़ी हैं,  वे भी तरह तरह की सर्जरी  करवा रही हैं और अपने जीवन को उन्होंने भी दांव पर लगा दिया है । विवाह करने के लिए आज हर लड़के को एक सुंदर लड़की ही चाहिए। इसलिए लडकियों के ऊपर सुंदर दिखने का यह दबाव और अधिक सघन हुआ है  । क्या हम वैचारिक रूप से इतने खोखले हो चुके हैं कि महज सुंदर दिखने के लिए अपने जीवन को भी दांव पर लगा दें ?
समाज के लिए यह कितना दुर्भाग्य का विषय है कि समाज बाजार की गिरफ्त में इस कदर आ चुका है कि वह जीवन की भी बलि लेने लगा है । जीवन अगर इतने सस्ते में जाया होता जाएगा तो सोचिए कि हम किस सीमा तक खोखले हो चुके हैं ?



रमेश शर्मा
कहानीकार, समीक्षक

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