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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

20 फ़रवरी, 2018

द इनसाइडर: सत्य की कीमत 
विजय शर्मा




विजय शर्मा 


‘आर यू ए बिजनेसमैन ओर ए न्यूजमैन?’

यह एक बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण प्रश्न है। खासकर आज के समय में जब न्यूज पेड न्यूज हो गई है और पत्रकार बड़े मीडिया हाउस घरानों के गुलाम। एक समय था जब पत्रकरिता का मतलब मिशन था। लोग जोखिम ले कर यह काम किया करते थे। अधिकतर देशों में यह उनकी आजादी के प्रश्न से जुड़ा हुआ था, उनके स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख हिस्सा था। अब प्रतिबद्ध और खोजी पत्रकारिता के दिन लद गए हैं, नैतिकता को बाय-बाय किया जा चुका है, तिलांजलि दी जा चुकी है। आज पत्रकारिता स्वतंत्र मिशन नहीं एक उद्योग में परिणत हो चुकी है। आज की पत्रकारिता भी फ़ैशन की चकाचौंध से ग्रस्त है। खासकर टीवी पत्रकारिता पर टीआरपी तथा गंदी प्रतियोगिता हावी है। एक्सक्लूसिव न्यूज, पहली बार, इतिहास में पहली बार शब्दों से अपना डंका खुद पीटा जाता है। इंफ़ोटेनमेंट, खबर सब को मनोरंजक बना कर प्रस्तुत करना चलन में है। चेनल वालों का कर्मचारियों से स्पष्ट कहना है, यदि खबर के पीछे पड़ना है तो अपना रास्ता नापों, बहुत खड़े हैं लाइन में, कौड़ी के चार मिलते हैं पत्रकार। बेरोजगारी का जमाना है और परिवार का पेट पालना है तो कैसा मालिक कहे वैसा करने में ही भलाई है।

दूसरी ओर हैं भ्रष्ट उद्योगपति। मुनाफ़े के लिए ये कुछ भी कर सकते हैं। व्यापार में मुनाफ़ा इनका ईश्वर है। इन्हें झूठी कसमें खाने से भी परहेज नहीं होता है। पैसे के बल पर ये सबको खरीदने का मुगालता पाले बैठे हैं। मजाल क्या कोई अखबार, टीवी इनके खिलाफ़ कोई खबर प्रसारित करे। इनके काले कारनामे सबको पता हैं। लेकिन बिल्ली के गले में कौन घंटी बाँधे। मोटी सैलरी दे कर इसीलिए लोगों को काम पर रखते हैं ताकि लोग इनके काम पर परदा डाले रहें। ऐसे में कोई कर्मचारी भले ही वह कितने ऊँचे पद पर हो से वफ़ादारी की उम्मीद पालना गलत कैसे? फ़िर भला कोई ऑफ़ीसर कंपनी के हित को ताक पर रख कर अपनी आत्मा की बात सुनने लगे तो ऐसे व्यक्ति के साथ कंपनी की सहानुभूति क्यों हो? और क्यों भूल जाते हो नौकरी ज्वाइन करते समय गोपनीयता की शपथ नहीं खाई थी? वह भी मौखिक नहीं लिखित रूप में। और हस्ताक्षर करते समय बारीक लिखावट में दिए नियम नहीं पढ़े थे क्या? अगर इसके बाद भी कंपनी की पोल खोलने पर तुले हो तो कंपनी से क्या उम्मीद करते हो? वह तुम्हें सिर-माथे पर बैठाएगी? नहीं, कदापि नहीं। वह तुम्हें पहले चेतावनी देगी और न माने तो धमकी देगी और इस पर भी न सुना तो धमकी को कारगर करेगी। इसके बावजूद कुछ लोग जीवन और परिवार को दाँव पर लगा कर सत्य का पक्ष लेते हैं। परिणाम उन्हें ज्ञात है, मगर बिगाड़ के भय से वे क्या ईमान की बात न करेंगे?






कुछ इसी तरह की घटना कुछ साल पहले अमेरिका में घटी थी। जेफ़री विगैंड अमेरिका की एक बहुत बड़ी तम्बाखू कम्पनी ब्राउन एंद विलियमसन में एक बहुत ऊँचे ओहदे पर काम कर रहे थे। वे वैज्ञानिक हैं। कंपनी के तम्बाखू में खतरनाक रसायन मिलाने के खिलाफ़ थे नतीजन उन्हें कंपनी से १९९३ में निकाल दिया गया। वैसे उन्हें निकालने का कारण उनकी संप्रेषण कुशलता अच्छी न होना बताया गया। इतना ही नहीं उन्हें चेतावनी दी गई, वे कंपनी की गोपनीयता के नियमों का पालन करने का ध्यान रखे वरना उन पर कानूनी कार्यवाही की जाएगी, उनके परिवार को मिलने वाली स्वास्थ्य सुविधाएँ रोक दी जाएँगी। इसके बावजूद उन्होंने एंटी टोबाको इन्वेसीगेटर्स के साथ सहयोग करने का निर्णय लिया। खबर फ़ैलते ही उन्हें धमकियाँ मिलने लगीं। जान की परवाह न करते हुए उन्होंने जूरी के सामने अपनी बात रखी। इतना ही नहीं अमेरिका के सीबीएस चेनल के प्रसिद्ध टीवी शो ’६० मिनट्स’ पर भी साक्षात्कार दिया। १९९६ में उनका केस ‘कोरपोरेट विसल ब्लोअर’ के नाम से विख्यात हो गया। टीवी साक्षात्कार, कोर्ट (फ़िल्म में वास्तविक मिसिसिपी कोर्ट में यह दृश्य फ़िल्माया गया है) तथा ‘वॉल स्ट्रीट जरनल’ में उन्होंने कहा कि ब्राउन एंड विलियमसन जानबूझ कर तम्बाखू में अमोनिया जैसे रसायन मिलाते हैं ताकि सिगरेट धूँए में निकोटिन का प्रभाव बढ़ जाए। साथ ही ये कंपनियाँ इन बातों को छिपाने और अपने उत्पाद्य के प्रचार-प्रसार के लिए कई अभियान चलाती हैं। लेकिन ऐसी सिगरेट की लत पड़ जाती है और यह फ़ेंफ़ड़ों के कैंसर का प्रमुख कारण बनती है। नतीजा हुआ, ब्राउन एंड विलियमसन कंपनी पर मुकदमा चला और कंपनी को २४६ बिलियन डॉलर का हरजाना राज्य को देना पड़ा।

यह सत्य था, ब्राउन एंड विलियमसन सिगरेट कंपनी स्वास्थ्य के खतरों को जानते हुए भी रसायन मिला कर निकोटिन की मात्रा बढ़ाती थी। साथ ही कई तम्बाखू कंपनियों के सीओ ने कॉन्ग्रेस के समक्ष शपथ ग्रहण कर कहा था कि उनका उत्पाद्य स्वास्थ्य की दृष्टि से सुरक्षित है। जेफ़री ने यह काम नैतिकता के दवाब में किया, कहीं प्रतिकार की भावना भी अवश्य थी। जेफ़री को अपने लिए ‘विसल ब्लोअर’ शब्द अच्छा नहीं लगता है लेकिन यह उनसे जुड़ गया है। न ही वे खुद को शहीद के रूप में देखते हैं। कंपनी में वाइस प्रेसीडेंट के पद पर रहते हुए उन्हें न केवल बहुत मोटा वेतन मिलता था वरन लीसविले के एक बहुत पॉश इलाके में बहुत बड़ा घर (८,३०० वर्गफ़ुट), महँगी कार, कीमती गोल्फ़ क्लब की सदस्यता और अन्य तमाम सुविधाएँ मिली हुई थीं। उनकी दोनों बेटियाँ खूब अच्छे-महँगे स्कूल में पढ़ रही थीं।

अब उनका जीवन पूरी तौर पर बदल चुका है। वे बच्चों को तम्बाखू के खतरों से आगाह करने के लिए एक फ़ाउंडेशन ‘स्मोक-फ़्री किड्स’ चलाते हैं। सत्य बहुत महँगा होता है और जेफ़री सत्य का मूल्य चुका रहे हैं। अपने खर्च के लिए एक समय वे ड्युपोंट मैनुअल मैग्नेट हाई स्कूल में जापानी भाषा और केमिस्ट्री पढ़ा रहे थे। उन्हें १९९६ में केंटकी राज्य का टीचर ऑफ़ दि इयर का नाम मिला। इन परेशानियों के बावजूद उनका कहना है यदि मौका आया तो वे फ़िर से बिना किसी हिचकिचाहट के ऐसा ही करेंगे। वे अपनी आंतरिक शांति से संतुष्ट है। उन्हें अच्छा नाम मिला है, वे इस नाम की रक्षा करना चाहते हैं।

इसी सत्य घटना पर मिशेल मान ने ‘दि इनसाइडर’ फ़िल्म बनाई है। मिशेल मान के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म में जेफ़री विगैंड की भूमिका में हैं रसल क्रो। लेकिन फ़िल्म का सारा शो ले गए हैं, ‘६० मिनिट्स’ के प्रोड्यूसर  लोवेल बर्गमैन बने एल पैचिनो ने। पिछली सदी के छठवें दशक में हर्बर्ट मारकस का नव वाम पर बड़ा प्रभाव था, बर्गमैन उसे अपना मेंटर मानता है। वह एक बार कहता है कि वह अब भी कठिन स्टोरीज करता है और ’६० मिनिट्स’ बहुत सारे लोगों तक पहुँचता है। पत्रकारिता के नियमों तथा नैतिकता की रक्षा के लिए वह अपना सब कुछ दाँव पर लगा देता है। वैसे वह भी दूध का धुला नहीं है। अपने काम के लिए लोगों का भावात्मक दोहन करता है।







लोवेल बर्गमन जेफ़री विगैंड को अपने शो ‘६० मिनिट्स’  के द्वारा जनता के सामने जाने के लिए प्रेरिक,  एक तरह से मजबूर करता है। वह जेफ़री पर सत्य उगलने के लिए मनोवैज्ञानिक दबाव बनाता है। अंतत: जेफ़री तैयार हो जाता है। इस तरह जेफ़री के साक्षात्कार की रिकॉर्डिंग तो हो जाती है लेकिन तभी टीवी चेनल के सामने मुसीबत खड़ी हो जाती है। यदि वे इसे प्रसारित करेंगे तो उनके चेनल की खैर नहीं। इस समस्या का असर होता है और चेनल के बिग बॉस, प्रेसीडेंट शो का प्रसारण रोक देते हैं। बर्गमैन नैतिकता के नाम पर पत्रकारिता के नियमों का हवाला देते हुए शो के प्रसारण के लिए लड़ता है। उसकी अपनी नौकरी खतरे में पड़ जाती है, उसे लंबी छुट्टी पर जाने का आदेश दे दिया जाता है। लेकिन वह पीछे नहीं हटता है। इसके लिए वह अखबारों की सहायता लेता है। फ़िल्म ‘दि इनसाइडर’ दिखाती है कि अंतत: शो का प्रसारण होता है। लेकिन बर्गमैन का मन खट्टा हो जाता है और प्रसारण के बाद जब सब उसे बधाई दे रहे हैं वह चेनल से इस्तीफ़ा दे देता है। एल पैचिनो का अभिनय सदैव की भाँति लाजवाब है। एक परेशान, मानसिक द्वंद्व में फ़ँसे व्यक्ति जेफ़री विगैंड का अभिनय रसल क्रो ने भी बखूबी किया है।

खुद जेफ़री विगैंड इस फ़िल्म को देख कर बहुत खुश हैं और अपनी बेटियों को भी दिखाना चाहते हैं। उनके बच्चे उनको ले कर बहुत गर्वित हैं। होना ही चाहिए। हालाँकि उनकी पत्नी से उनका तलाक हो गया है। उनका यह तलाक सामान्य नहीं था। उनके लिए तलाक की घटना बहुत दर्दनाक और कटु अनुभव सिद्ध हुई।  इस फ़िल्म के लिए उन्होंने कोई रकम नहीं ली है, उनके अनुसार उनको इससे मनोवैज्ञानिक लाभ मिला है। उन्होंने जीवन में बहुत उथल-पुथल देखी है, अब वे अपना जीवन शांतिपूर्ण ढ़ंग से बिताना चाहते हैं। वे कैंटकी से निकल आए हैं और अब वे चार्ल्सटन में रहते हैं। सत्य का खुलासा करना बहुत कठिन कार्य है। यह समय उनके लिए बहुत तनावपूर्ण था। वे खूब शराब पीने लगे थे। कंपनी ने उनकी इन आदतों का खूब फ़ायदा उठाया और उन्हें बदनाम करने का कोई मौका नहीं छोड़ा, इसका खूब प्रचार-प्रसार किया। जान बचाने के लिए उन्हें बहुत दिनों तक छिप कर रहना पड़ा, बॉडीगार्ड रखना पड़ा। इन सारी घटनाओं के दौरान कुछ लोग उनके साथ थे, उनका बचाव कर रहे थे तो कुछ लोग उनके खिलाफ़ थे, उन पर आक्रमण कर रहे थे। अब उनके मन में कोई भय नहीं है। जेफ़री का कहना है, उन्होंने वही किया जो उन्हें करना चाहिए था, उन्हें किसी तरह का अफ़सोस नहीं है जरूरत पड़ी तो वे फ़िर से यही करेगे। उनका मानना है कि वे सामान्य लोग हैं जो असामान्य परिस्थिति में पड़ गए हैं और उन्होंने जो किया वह ठीक है...सबको ऐसा करना चाहिए।

असल में फ़िल्म सत्य घटना पर आधारित है लेकिन इसका आधार एक आलेख भी है। मारी ब्रेनर ने एक लेख वेनिटी फ़ेयर में लिखा था, ‘द मैन हू नो टू मच’। इसी के आधार पर मिशेल मान तथा एरिक रॉथ ने फ़िल्म ‘दि इनसाइडर’ की पटकथा लिखी है। १९४२ में न्यू यॉर्क सिटी में पैदा हुए जेफ़री विगैंड ने बायोकेमिस्ट्री में मास्टर्स डिग्री ली तथा पीएच डी भी की है। प्रतिभाशाली जेफ़री का स्वप्न डॉक्टर बनने का था। उन्होंने कुछ समय तक वैसार ब्रदर्स हॉस्पीटल में नर्स का काम किया। कुछ समय उन्होंने मिलिट्री में रहते हुए वियतनाम में भी समय व्यतीत किया। उनके अनुसार उन्होंने किसी को मारा नहीं। उन्होंने जापान में रहते हुए जापानी भाषा और जूडो भी सीखा हुआ है। अब उन्हें कई अन्य देशों से सम्मानित डिग्रियाँ मिल चुकी हैं। १९८९ में ब्राउन एंड विलियमसन में काम शुरु करने से पहले जेफ़री ने फ़ेज़र, जॉनसन एंड जॉनसन जैसी स्वास्थ्य संबंधित कंपनियों में काम किया था। जापान में वे यूनियन कार्बाइड के जनरल मैनेजर तथा मार्केटिंग डायरेक्टर थे। टेक्नोकोन इंस्ट्रूमेंट्स में उन्होंने सीनियर वाइस प्रेसीडेंट के रूप में काम किया था। अब तो उन्हें विभिन्न देशों तथा संस्थानों से लेक्चर देने के लिए आमंत्रण मिलते हैं। कनाडा, स्कॉटलैंड, इजरायल, इटली, जर्मनी, फ़्रांस, नीदरलैंड, जापान की सरकारें तम्बाखू नियंत्रण नियम बनाने के लिए उनसे सलाह लेती हैं।







फ़िल्म प्रारंभ होती है जेफ़री की द्वंद्वात्मक मानसिक स्थिति से लेकिन एक बार टीवी पर साक्षात्कार रिकॉर्ड होते ही फ़िल्म चेनल वालों के आंतरिक संघर्ष की ओर मुड़ जाती है। खोजी पत्रकारिता एक लंबी, उबाऊ, धीमी और परेशान करने वाली प्रक्रिया है। इसके तमाम जोखिम हैं। फ़िल्म दिखाती है चेनल पत्रकारिता के नियमों और नैतिकता को ताक पर रख कर अपना हित बचाना चाहता है। वे अपने स्टॉक को बचाना चाहते हैं। उनका बाजार भाव न गिर जाए इसकी चिंता करते हैं। यहीं पर आ कर चेनल हेड और चेनल प्रोड्यूसर में तकरार होती है। इस फ़िल्म की एक विशेषता है, इसे बनाने से पहले किया गया शोध कार्य। मिशेल मान तथा एरिक रॉथ ने खूब शोध करके स्क्रिप्ट लिखी है। इसकी सफ़लता के पीछे इन लोगों की मेहनत है, जो फ़िल्म में स्पष्ट नजर आती है।

फ़िल्म एक थिलर की भाँति आगे बढ़ती है। कई दृश्य बहुत डरावने लगते हैं। यह डान्टे स्पिनोटी के कैमरे का कमाल है, जब जेफ़री रात को अकेले गोल्फ़ मैदान में है, पूरा दृश्य बहुत डरावना और तनावपूर्ण हो जाता है। दर्शक सांस रोक कर कुछ बहुत भयंकर होने की प्रतीक्षा करता है और सारे समय लीसा जेरॉल्ड तथा पीटर बौर्क का बैकग्राउंड म्युजिक इस दृश्य की सघनता को बढ़ा देता है। रात का समय खूब बड़ा मैदान, जेफ़री गोल्फ़ स्टिक से गेंद पूरी ताकत से फ़ेंक रहा है। थोड़ी देर बाद एक अन्य व्यक्ति भी गोल्फ़ क्लब का उपयोग कर रहा है। दोनों एक-दूसरे को जिस तरह देखते हैं, कुछ भी हो सकता है। प्रकाश और अंधकार सीन को रहस्यमयता प्रदान करते हैं। इसी तरह जब जेफ़री की बेटी रात को कुछ आवाज सुन कर उसे जगाती है और वह पिस्तौल ले कर अपने घर के पिछवाड़े जाता है, हर कदम पर दर्शक साँस रोक कर किसी अनहोनी की प्रतीक्षा करता है। इसमें शक नहीं वहाँ कोई था। और जब बर्गमैन निराश-हताश समुद्र किनारे एकाकी खड़ा है, समुद्र स्वयं एक चरित्र बन जाता है। जेट में बैठे हुए व्यक्ति से फ़ोन पर बात करने के लिए जिस व्यक्तित्व की आवश्यकता है वह व्यक्तित्व एल पैचिनो जैसे अभिनेता में है। और जब विगैंड मानसिक ऊहापोह में है, कोर्ट जाए अथवा नहीं तय नहीं कर पा रहा है तब वह भी समुद्र तट पर है। लेकिन दोनों तटों में अंतर है। यह चाक्षुष अंतर लिख कर बताने का नहीं देख कर अनुभव करने का है। इसी तरह जब सरकारी एजेंट जेफ़री का निजी कम्प्यूटर उठा कर ले जा रहे हैं, कम्प्यूटर जिसमें उसकी तमाम जानकारियाँ हैं, वह बहुत बेबस है। सरकारी लोग न केवल उसका कम्प्यूटर ले जा रहे हैं वरन धक्का दे कर जेफ़री को गिरा भी देते हैं। अड़ौसी-पड़ौसी सब देख रहे हैं, रसल क्रो का अभिनय बहुत सहज-स्वाभाविक है। कैमरे का कमाल है कि वह फ़िल्म की गुणवत्ता बढ़ा देता है।
अभिनय के मामले में रसल क्रो और एल पैचिनो में कौन उन्नीस है और कौन बीस बातना कठिन है। १९९९ में जब फ़िल्म बनी रसल क्रो मात्र ३३ साल के थे लेकिन अपनी प्रतिभा के बल पर, साथ ही वजन बढ़ा कर, मेकअप की सहायता और जेफ़री का अध्ययन करके उन्होंने पचास साल से ऊपर के व्यक्ति का अभिनय बड़ी कुशलतापूर्वक किया है। उन्होंने उसकी चाल-ढ़ाल तथा बोलने का तरीका और आवाज सबको बड़ी कुशलता के साथ अंजाम दिया है। जेफ़री की पत्नी की भूमिका में डायने वेनोरा ने टिपिकल अमेरिकी पत्नी की भूमिका निभाई है, जिसे पति की चिंता नहीं है बल्कि उसे चिंता है उसके पद और पैसे तथा उससे मिलने वाली ढ़ेर सारी सुविधाओं की। हालाँकि वह कहती है, मैं अपने पति के साथ रहना चाहती हूँ, लेकिन उसकी बॉडी लैंग्वेज और चेहरे के हाव-भाव से ऐसा कभी भी प्रकट नहीं होता है। कंपनी की लीगल एडवाइजर हेलेन कैपेरेली के रूप में जीना गर्शोन बहुत कम देर के लिए परदे पर आती है लेकिन वह बड़ी त्वरा, कुशलता और आधिकरिक तरीके से कंपनी को इस प्रसारण से होने वाले खतरों से आगाह कर देती है। वह कहती है विगैंड का स्टेटमैंट जितना सत्य होगा, उतना ज्यादा चेनल को नुकसान होगा। और कोई भी व्यापारिक घराना (चेनल व्यापार है) क्यों नुकसान उठाना चाहेगा। बर्गमैन (एल अपिचिनो) जब देखता है कि चेनल विगैंड का इंटरव्यू प्रसारित नहीं करने जा रहा है तो वह साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाता है। वह डॉन हेविट (फ़िलिप बेकर हॉल) को यह भी बता देता है कि इस तरह के इंटरव्यू के प्रसारण से १५ मिनट की ख्याति मिलती है और कुख्याति इससे लंबी होती है। माइक वैलास के रूप में क्रिस्टोफ़र प्लमर का अभिनय भी बहुत अच्छा है।







१६० मिनट की इस फ़िल्म की प्रशंसा करते हुए फ़िल्म समीक्षक रोजर एबर्ट कहते हैं, ‘दि इनसाइड’ का मुझ पर ‘ऑल द प्रेसीडेंट्स मेन’ से अधिक असर पड़ा, जानते हैं क्यो? मेरे पेरेंट्स को वाटर्गेट ने नहीं मारा था। सिगरेट ने मारा था।’ इस फ़िल्म को सात श्रेणियों में अकादमी पुरस्कार के लिए नामित किया गया था। फ़िल्म में कुछ तो खास है तभी तो प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक क्वेन्टिन टैरनटीनो इसे अपनी पसंद की २० फ़िल्मों की सूचि में शामिल करते हैं। पत्रकारिता पर. वह भी सच्ची घटना पर बहुत कम फ़िल्में बनी हैं। इस विषय पर अच्छी फ़िल्में तो और भी कम बनी हैं। ‘दि इनसाइडर’ उनमें बनी एक बहुत अच्छी फ़िल्म है।
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डॉ. विजय शर्मा, ३२६, न्यू सीतारामडेरा, एग्रीको, जमशेदपुर ८३१००९

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