image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

06 फ़रवरी, 2018

 रजनीश आनंद की कहानी: खिलखिलाती शाम

               
मैंने स्कूल के दिनों में एक कहानी पढ़ी थी, इंग्लिश बुक में पर अब चैप्टर का नाम याद नहीं और ना ही लेखक का. अरे हंसिए मत सच कह रही हूं पर इतनी भी भुल्लकड़ नहीं हूं, कुछ-कुछ याद है. हां, तो उस कहानी  में एक स्टोरी टेलर थी उसे नहीं भूल पायी अबतक. कहते हैं स्टोरी टेलिंग या किस्सागोई एक कला है, जो हर किसी के बस का नहीं है.
रजनीश आनंद

तो बात यह थी कि स्टोरी टेलर बहुत खूबसूरत थी और एक चट्टान पर बैठकर स्टोरी सुनाती थी. वह अपने हाथों को घुटनों में लपेट कर रखती थी. उसकी आंखें चमकीली थी और वह गाउन पहनती थी. कहानी की शुरूआत वह यह कहकर करती थी-वंस अपाउन ए टाइम देअर व्हाज ए किंग.

आप यह सोचिए मैं चैप्टर का नाम भूल गयी,लेखक को भूल गयी ,पर वह स्टोरी टेलर याद है. मतलब वह खास थी, तो उसका नाम लूसी रख लेती हूं, बात करने में  आसानी होगी. अब यह कहने का तो कोई मतलब नहीं कि मैं उससे प्रभावित थी. तो आज लूसी मेरे सामने आ गयी है और एक कहानी जो दफन है मेरी यादों में उसे कहने के लिए प्रेरित कर रही है. तो मैं वह कहानी कह रही हूं अच्छा लगे तो सुनिए और ना लगे तो रिमोट आपके हाथ में है...

तो मैं चट्टान पर तो नहीं, हां सोफे पर बैठ गयी हूं और कलम कागज थाम लिया है. लूसी की आत्मा झटके के साथ मेरे अंदर प्रवेश कर चुकी है, तो वंस अपाउन ए टाइम देअर व्हाज ए किंग तो नहीं चलेगा अब, तो लेट मी चेंज, हां वंस अपाउन ए टाइम देअर  व्हेअर टू फ्रेंड्स, दीप्ति एंड तृषा. दोनों  बचपन की सहेली तो नहीं थीं पर कमाल की बांडिंग थी दोनों की. दोनों नौकरीपेशा. दीप्ति काफी लंबी छरहरी, गेहुंए रंग और बोलती आंखों वाली, तो तृषा औसत कद की, सांवली पर आंखें दोनों की बोलती थीं. दीप्ति तृषा को मृगनयिनी कहती और इस संबोधन के बाद दोनों खूब हंसती भी.

जब मिलतीं पहले तो गले लगकर महसूस लेतीं एक दूसरे को फिर का बे से शुरू हुई उनकी बातचीत विदाई के वक्त पलकें गीलीं कर जातीं. बकबक तो दोनों करती एक दूसरे से मन की सारें बातें कह जाने की जल्दी होती थी. ऐसा नहीं था कि दोनों की आदतें बिलकुल एकसमान थीं दोनों कई मायनों में एकदूसरे से अलग थीं लेकिन उनकी दोस्ती बेमिसाल. महीनों ना भी मिलें तो भी दोस्ती पर कोई असर नहीं. दोनों शादीशुदा एक-एक बच्चे की मां. परिवार के प्रति समर्पित, दोनों ने प्रेमविवाह किया. दीप्ति खुशकिस्मत थी पैसों की तंगी में भी पति हाथ थामे खड़ा था, वहीं तृषा को उसके पति ने शादी के कुछ साल बाद ही पैसों के लिए छोड़ दिया. अब वह अपने मायके में रहती है. खैर , यह तो हुई उनके निजी जीवन की चर्चा, पर इस कहानी में आप उनके जीवन के दूसरे पक्ष से रूबरू होंगे. आमतौर पर औरतें परिवार के दायित्वों के बीच अपनी इच्छाओं का दमन करती हैं, लेकिन वही औरतें कभी-कभी कुछ ऐसा कर जाती हैं कि यकीन ही नहीं होता कि यह काम उसी औरत ने किया है.  कोई विलेन नहीं है स्टोरी में, हां सामाजिक तानेबाने में उलझी दो औरतें खुद से कई सवाल करती हैं.

इन दो औरतों के जीवन में एक मर्द भी है, जो उनका सगा नहीं, भाई नहीं और हां कलिग भी नहीं है. तो आप पूछेंगे कि वह कौन है तो चलिए जल्दी से शंका मिटाएं वह दोनों का कॉमन फेसबुक फ्रेंड है, नाम है आरव. दोनों दोस्त उससे प्रभावित, कई बार तो ऐसा भी हुआ कि दोनों जब मिलीं आरव के बारे में ही बातें करती रह गयीं. कभी मुलाकात नहीं हुई थी इस तिकड़ी की, पर ना जानें क्यों फेसबुक का यह रिश्ता आभासी कम, वास्तविक ज्यादा हो गया था. तीनों साथ में हंसते तो परेशानियों में एक दूसरे को सहारा देने के लिए बेचैन भी रहते.

चित्र: सुनीता


एक बार किसी काम से आरव को दीप्ति और तृषा के शहर आना था. फेसबुक पोस्ट में यह बात उजागर हुई तो दीप्ति ने काफी पिलाने का आश्वासन दे दिया था. आखिरकार वो दिन आ ही गया जब तीनों  दोस्त मिलने वाले थे....

कुछ घंटे थे उनके पास. इन घंटों में ही तीनों को जी लेना था , हंस लेना था, खिलखिला लेना था. लेकिन समस्या यह हुई कि तृषा ने मिलने के लिए छुट्टी तो ले रखी थी पर ऐन मौके पर इमरजेंसी हो गयी और उसे आफिस आना पड़ा. दीप्ति को पता चला तो उसने फोन पर ही तृषा को ताने सुनाए- अरे यार यह कोई बात हुई. हम पहले से प्लान कर चुके थे, अब क्या कहूं मैं आरव को तुम आफिस आ गयी हो हम नहीं मिल सकते? तृषा का मूड ऐसे ही आफ था उसे बहुत बुरा लग रहा था. पर क्या करे उसे समझ नहीं आ रहा था.

दीप्ति ने कहा, अरे यार तू कुछ भी कर , झूठ बोल और चली आ. कुछ देर मजे करेंगे, कौन सा आरव रोज- रोज आता है. आरव से मिलने की उससे बात करने की इच्छा खुद तृषा के मन में इतनी ज्यादा थी कि उसकी आंखों में आंसू आ गये. दीप्ति की बातें उसकी कानों में गूंज रहीं थी मानो रेस में वह सबसे आगे रही हो और लगातार पिछड़ती जा रही हो. उसने हिम्मत जुटायी नहीं -नहीं मैं नहीं पिछड़ सकती मैं जीतूंगी. ऐसे मैं अपनी खुशियों को कुरबान नहीं करूंगी मैं आरव से मिलने जाऊंगी.

उसने दीप्ति से कहा- सुन तुम जब घर से निकलियो मुझे फोन करियो,  तब तक मैं कुछ जुगत भिड़ाती हूं. तृषा के जीवन में नौकरी बहुत अहम थी, उसने पूरी ईमानदारी से नौकरी की है. कभी घर पर सोने का मन हो तो ,तो फीलिंग कफ एंड कोल्ड या फीलिंग लिटिल बीट अनफीट का झूठ नहीं बोला. बस लगी रही अपने काम में, यही वजह थी कि छुट्टी लेना हो तो वह सच बोलकर छुट्टी लेती थी, जेनविन कारण बताकर.

लेकिन आज स्थिति दूसरी थी, अगर वह सच कहती तो उसे छुट्टी नहीं मिलती और अगर छुट्टी नहीं मिलेगी तो वह आरव को मिल नहीं पायेगी.

नहीं-नहीं मुझे आरव से मिलना ही है, उससे बात करनी है. वह कितना इंटेलीजेंट है उसे कितने अच्छे से समझता है बिलकुल क्लोज फ्रेंड की तरह, मैं ऐसे दोस्त से मिलने का मौका नहीं खो सकती, मैं उससे मिलने जाऊंगी. काम निपटाते हुए तृषा ने खुद से वादा किया. क्या मैं कुछ पल अपनी जिंदगी से खुद के लिए नहीं खर्च सकती ? इस सवाल के साथ उसने खुद को सात्वंना दी और यह तय कर लिया, मैं आरव से मिलने जाऊंगी.

वह रह -रहकर अपना मोबाइल देख रही थी, दीप्ति ने अभी तक कॉल नहीं किया था.वह सोच रही थी दीप्ति का कॉल नहीं आया अबतक! पता नहीं क्या बात हुई.एक मन हुआ आरव से पूछे फिर उसने पूछना उचित नहीं समझा. उसका मन बेचैन था. सांसें तेज आखिर उसे लक्ष्मण रेखा लांघनी थी, समाज के टैबू पर चोट करनी थी, तभी अचानक उसका फोन बजा. तृषा ने कांपते हाथों से फोन उठाया, देखा आरव लाइन पर था.उसका गला. सूख गया, क्या कहूंगी मैं आरव को? उसने फोन उठा लिया, उधर से आवाज़ आयी, तब तृषा तुम आ रही हो मुझे मिलने, कुछ घंटे ही हैं मेरे पास, फिर मैं निकल जाऊंगा दिल्ली के लिए.

तृषा को लगा जैसे कोई सुअवसर उसे बांहों में समेटना चाह रहा हो और वह इंतजार कर रही हो. पता नहीं कैसे उसके मुंह से निकला 'हां ' आ रही कुछ देर में...

तृषा ने मन में जैसे निश्चय कर लिया कुछ भी हो जाये मैं आरव से मिलने जाऊंगी मैं अपनी चाहत अपनी खुशियों का गला क्यों घोंटू? तब ही उसका फोन फिर घनघनाया, फोन पर दीप्ति थी, तृषा ने हैलो किया, उधर से आवाज आयी मैं निकल गयी हूं तुम जल्दी से चौक तक पहुंचो, हम साथ हो लेंगे. तृषा ने हां कहा और फोन कट कर दिया. एक मिनट उसने खुद को आश्वत किया और फिर अपनी कुर्सी से उठी और बॉस के कमरे तक गयी और कहा- सर मेरे घर से फोन आया था, मुझे जाना होगा. उसकी बातों में इतना आत्मविश्वास और आंखों में इतनी सच्चाई थी कि उसके बॉस ने सिर्फ इजाजत में सिर हिला दिया.

तृषा अपनी सीट पर आयी और कंप्यूटर को ऐसे शटडाउन किया मानो जिंदगी पर लगे तमाम ग्रहण को शटडाउन कर दिया हो. बैग उठाकर वह आफिस की सीढ़यों से यूं उतर रही थी मानो पूरी दुनिया उसकी मुट्ठी में हो.

अॅाटो लेकर तृषा दीप्ति के पास आ गयी. सुर्ख लाल लिपस्टिक में दीप्ति गजब ढा रही थी, तृषा को देखकर वह मुस्कुराई, और कहा- क्या कर रहे हैं हमदोनों? और क्यों बोलो तो? दो शादीशुदा महिला अलग -अलग बसस्टैंड पर एक शादीशुदा पुरूष का इंतजार. दोनों ने एक दूसरे के आंखों में देखा. आरव से मिलने की बेचैनी दोनों को थी दोनों हंस दी. तभी दीप्ति के फोन पर आरव का काल आया, उसने पूछा कहां हैं आपलोग? दीप्ति ने आदतन मजाक किया- अरे दो इतनी सुंदर महिला खड़ी है और आपको दिख नहीं रही. आरव कहां चुप रहने वाला था उसने भी नहले पर दहला मारा, अरे महिलाएं तो कई दिख रहीं पर जिनसे मिलना है वो नहीं दिख रही.

इस बार तीनों हंस पड़े, क्योंकि आरव सामने खड़ा था. हाय- हैलो के बाद तीनों के चेहरे खिले हुए थे, जैसे पता नहीं कब के बिछड़े आज जाकर मिले हों. प्लानिंग के अनुसार तीनों तफरीह के अंदाज में एक अॅाटो में बैठ गये. आरव, दीप्ति और तृषा के बीच में बैठा था, तीनों एकदम कंफर्टेबल कोई संकोच नहीं, हिचक नहीं. दीप्ति उसे शहर के बारे में लगातार बता रही थी, शहर की खासियत, इतिहास. सबकुछ. तृषा देख रही थी कि वह बड़े ध्यान से उसकी बातों को सुन रहा था. बीच -बीच में हंसी के ठहाके भी फूटते जैसे बचपन के साथी मिले हों और खूब महफिल जमी हो.
चित्र: सुनीता


आरव एक पुरूष, दीप्ति और तृषा दो औरतें एक आम परिवार से. जहां बेनाम रिश्तों में इस तरह की छूट नहीं होती, कई बंदिशें होती हैं खासकार औरतों पर. लेकिन आज दीप्ति और तृषा तमाम बंदिशों से परे थीं.  बात करते और घूमते कब शाम हो गयी पता ही नहीं चला. तृषा और दीप्ति के घर से फोन आने लगे थें पर दोनों आरव के साथ और समय बिताना चाहती थीं. तीनों ने आइसक्रीम खाने का प्रोग्राम बनाया. दीप्ति ने कहा मुझे खांसी है मैं काफी पी लूंगी.

तीनों के पास कितनी बातें थीं घर, समाज,राजनीति, साहित्य और बचपन सबकी चर्चा हुई. आरव और तृषा ने टू इन वन. वेनला और स्ट्राबरी री वाला आइसक्रीम खाया,तो दीप्ति ने कैपिचीनो कॉफी. बातों में मशगूल तीनों.

अचानक तृषा का ध्यान घड़ी पर गया,उसने कहा बहुत देर हो गयी है मुझे घर जाना होगा. तीनों चलने के लिए तैयार हो गये. आरव ने कहा, कल तक लगता था जैसे मैं दो औरतों से बात करता हूं , उनसे मेरी पहचान भी उसी तरह की थी , पर आज लग रहा है जैसे दोनों अल्हड़ 18 साल की युवतियां हैं जो घर वालों से डरती भी हैं और मन का करना भी चाहती हैं, जीना चाहती हैं. उसकी इस बात पर तृषा और दीप्ति दोनों हंस पड़ी.

आरव ने ओला कैब बुक किया. गाड़ी आयी तो ड्राइवर ने गाड़ी सड़क की दूसरी ओर लगा दी. इन्हें सड़क क्रास करके जाना था. तृषा जैसे ही सड़क पार करने को हुई, एक कार सामने से आ गयी, तृषा ने देखा आरव ने उसे पकड़ना चाहा, लेकिन फिर अपने हाथों को पीछे करते हुए कहा, देख कर चलो. उसका यह अपनापन तृषा के मन में गहरे उतर गया.

आरव ने दोनों को कैब में बिठाया और घर तक छोड़ने गया. पहले दीप्ति उतरी, उसने हाथ जोड़कर इस शानदार शाम और दोस्ती के लिए शुक्रिया कहा. उसकी आंखें नम थीं, वह बहुत कुछ कहना चाह रही थी पर फिर मिलेंगे मित्र से ज्यादा ना कह पायी. आरव भी भावुक था, उसने कैब वाले को चलने के लिए कहा. गाड़ी में अब सिर्फ आरव और तृषा थे, लेकिन आम पुरुषों की तरह आरव ने मौका नहीं ताड़ा, वह बिलकुल कंफर्टेबल बैठा था, ना उसने जबरदस्ती तृषा से चिपकने की कोशिश की ना अनर्गल बातें की. वह तो बस सड़क को देख रहा था और तृषा उसे. उसने एक बार भी अपनी नजरों से तृषा का अपमान नहीं किया. तृषा के मन में उसके लिए सम्मान बढ़ता जा रहा था, तभी अचानक कैब वाले ने गाड़ी रोक दी. तृषा का घर आ गया था. उसे लगा रोज तो घर इतनी जल्दी नहीं आता पर वह क्या करती . गाड़ी से उतरते हुए उसने आरव.से पूछा, कल की ही ट्रेन है, उसने हां कहा. तृषा के मन में कई बातें थीं, वह बहुत कुछ कहना चाहती थी. उसका मन कर रहा था वह आरव से लिपट कर रो ले कुछ देर, पर ऐसा संभव नहीं था. बस उसने अपना हाथ आरव की ओर बढ़ाया, तो उसने हाथ थामकर दोस्ती के लिए शुक्रिया कहा, साथ ही इतनी अच्छी शाम बिताने के लिए थैंक्स भी कहा और कैब वाले को चलने के लिए कहा. कैब वाले ने गाड़ी चला दी, तृषा के हाथों से आरव का हाथ छूट गया, दोनों की आंखों के कोर गीले थे, लेकिन इस दोस्ती से दोनों सराबोर. कैब को जाता देख तृषा घर की ओर चल पड़ी उसके मन में बस एक ही बात थी अब दीप्ति ही उसकी एकमात्र दोस्त नहीं थी उसमें आरव भी जुड़ गया था...





परिचय 
नाम: रजनीश आनंद,
पेशे से पत्रकार.
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए.
महिला विषयक मुद्दों पर लगातार लेखन.
आईएम4चेंज मीडिया फेलोशिप व झारखंड मीडिया फेलोशिप की फेलो.
कहानी, कविता और लघुकथा लेखन. कुछ कहानियां और कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं.
संप्रति : प्रभात खबर डॉटकॉम में कॉपी राइटर के पद पर कार्यरत.
संपर्क: rajneeshanand42@gmail.com

4 टिप्‍पणियां:

  1. नये मिजाज की कहानी. स्वागत है रजनीश जी का.

    जवाब देंहटाएं
  2. अच्छी लगी कहानी |लेकिन अंत में केब के अन्दर तृषा और आरव को मर्यादित बताना समझ नहीं आया |यह लेखक के लिए क्यों आवश्यक रहा ,जबकि वो अच्छे दोस्त साबित हो चुके थे |दोस्ती में जेंडर वाइस वर्गीकरण खलता है ....शायद यह मेरी अल्प समझ ही हो

    शुभकामनाएं

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. Pravesh Soni जी शुक्रिया कहानी पढ़ने के लिए दरअसल तृषा एक ऐसी महिला है, जो अकसर पुरुषों की संकुचित मानसिकता का शिकार हो जाती है. लोग उसे शरीर तक ही सीमित करते हैं जब आरव ऐसा नहीं करता तो वह उससे बहुत प्रभावित होती है. मैंने यही दर्शाने की कोशिश की थी.

      हटाएं