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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

12 फ़रवरी, 2018

‘पकौड़ा‘ रोजगार:  एक पकौड़े वाली की जुबानी


- सुनील कुमार



आज कल पकौड़े बेचने की चर्चा काफी हो रही है। छात्र विरोध स्वरूप पकौड़े का स्टाल लगा रहे हैं। इस तरह की चर्चा की शुरूआत भारत के प्रधानमंत्री के उस बयान से हुआ जिसमें उन्होंने कहा कि कोई पकौड़ा बेच कर 200 रूपये कमा लेता है, वह भी रोजगार है। आखिर मोदी को इस तरह का बयान क्यों देना पड़ा ? हम सभी जानते हैं कि भारत के ‘प्रधान सेवक उर्फ फकीर उर्फ मजदूर उर्फ चैकीदार’, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब भारत के प्रधानमंत्री बनने के लिए चुनाव मैदान में थे तो अपने चुनावी सभाओं में घोषणा किए थे कि अगर उनकी सरकार बनाती हैं तो वे हर साल 2 करोड़ लोगों को रोजगार देंगे। लेकिन मोदी काल में रोजगार प्रदान करने की दर मनमोहन सरकार के दोनांे कार्यकाल से भी कम रही है। 2013 में मनमोहन सरकार 19 लाख रोजगार उत्पन्न कर पाई थी वहीं 2015में मोदी सरकार मात्र 1.35 लाख रोजगार ही उत्पन्न कर सकी है। रोजगार उत्पन्न नहीं होने के कारण देश में बेरोजगार युवाओं की कतार लम्बी होती जा रही है। ऐसे प्रश्नों से बचने के लिए मोदी ने पकौड़े बेचने व चाय बेचने को भी रोजगार की श्रेणी में रख दिया है। मोदी जी कहने लगे कि ‘स्टार्ट अप’ करो ताकि लोगों को रोजगार मिले। इसी तरह की मनमोहनी बात सुना-सुना कर मोदी जी लोगों को असली मुद्दों से भटकाते रहे हैं।



सिद्धशरण साहू 




भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने राज्य सभा में अपने पहले भाषण के दौरान कांग्रेस पर बरसते हुए (भाजपा के लोग बात नहीं रखते दूसरे पर बरसते हैं) पकौड़े बेचने के बयान पर कहा- ‘‘कोई बेरोजगार पकौड़ा बना रहा है तो उसकी दूसरी पीढ़ी आगे आएगी। एक चाय वाला प्रधानमंत्री बन कर इस सदन में बैठा है।’’ हमलोगोें को पता करना चाहिए कि 2014 के बाद कितने चाय वाले के अच्छे दिन आ गए हैं। हमने मोदी जी के बयान के बाद एक पकौड़े बेचेने वाले से बात की, जो दिल्ली-हरियाणा बाॅर्डर पर उद्योग विहार में 15जनवरी, 2018 से पकोडे़ बेच रहा है। अगर मोदी जी जनता से बहुत सरलता से मिलते तो हम यह सोच सकते थे कि उनके 19जनवरी, 2018 के साक्षात्कार में पकौड़े वाले रोजगार का आइडिया शायद इसी व्यक्ति से मिला हो।

म. प्र. के पन्ना जिले के रहने वाले सिद्धशरण साहू कई साल पहले गांव छोड़कर दिल्ली, हरियाणा, महाराष्ट्र में कभी परिवार के साथ तो कभी अकेले, परिवार के पेट पालने के लिए निकले। सिद्धशरण साहू का कच्चा मकान था वह भी दो साल पहले बारिश में गिर चुका है। उनकी पत्नी भी उनके साथ कभी कंस्ट्रक्शन में साथ-साथ मजदूरी करती है तो कभी एक्सपोर्ट लाईन में हेल्पर का काम करती है। इसी तरह के रोजगार की तलाश में साहू के दो बच्चों की पढ़ाई भी नहीं हो पाई। आखिर 2013 में सिद्धशरण साहू ने सभी अनुभवों के बाद तय किया कि वह उद्योग विहार में ही काम करेंगे। उन्हांेने हरियाणा के डुंडाहेड़ा गांव को अपना बसेरा़ बनाया। काम के अनुभव के बल पर सिद्धशरण साहू एक्सपोर्ट में चेकर बन गए और कई कम्पनियों में काम करने लगे। वहीं उनकी पत्नी इमरती बाई एक्सपोर्ट में धागा कटिंग का काम करने लगी। घर और कम्पनी में काम के दबाव के कारण इमरती बाई ने काम छोड़ दिया। दबाव के कारण इमरती बाई के स्वभाव में चिड़चिड़ापन आने लगा था। साहू चेकर का काम करते रहे लेकिन एक साल पहले नोटबंदी के समय उनका भी काम छूट गया। वे उद्योग विहार फेस 1 में सिक्युरिटी गाॅर्ड का काम करने लगे,जिसके लिए उन्हें 9,334 रूपये ईएसआई और पीएफ काट कर मिलता था। साहू की पहले तो आठ घंटे की ड्यूटी थी, बाद में उसे बदल कर 12 घंटे का कर दिया गया और तनख्वाह वही रही। इसी बीच उनकी सिक्यूरिटी एजेंसी का नाम भी चेंज हो गया। उनका पीएफ कटने के बावजूद कभी भी उनकी सिक्यूरिटी एजेंसी ने उनको पीएफ एकाउंट नहीं दिया और ना ही काम छोड़ने के बाद उनका पीएफ फाॅर्म भरा जा रहा है। साहू फिर से कम्पनी में लग गए, लेकिन उनकी नौकरी छूट गई। साहू बताते हैं कि काफी कोशिश के बाद भी नौकरी नहीं मिली, क्योंकि जीएसटी के बाद काम कम हो गया है।






सिद्धशरण साहू काम नहीं मिलने के बाद ठेले (रेहड़ी) पर चाय, समौसे, पकौड़े बेचने लगे। दुकान लगाने के लिए दस-बारह हजार रू. खर्च कर रेहड़ी, बर्तन, गैस का छोटा सिलेण्डर, चुल्हा और दुकानदारी के लिए समान खरीदा। सिद्धशरण सुबह 5 बजे जाग कर दुकानदारी के लिए सारे सामान तैयार करते थे। सुबह अपने ठेहा (दुकान लगाने की जगह) पर 9 बजे पहुंच जाते थे और वहां शाम 7बजे तक रहते थे। 7 बजे घर आने के बाद दूसरे दिन की  दुकानदारी के लिए बाजार जाते थे और बाजार से लौटने के बाद लहसून, धनिया की चटनी तैयार करते थे। इस तरह से रोज रात के 9-10बज जाया करता था। इन कामों में उनकी पत्नी और बच्चे भी हाथ बंटाते थे। 16-17 घंटे परिश्रम कर 15 दिन दुकान लगाए, जिसमें2,000 रूपये घाटा उठाना पड़ा। इसके बाद वे उद्योग विहार फेस 1में 24 कम्पनी के पास रोड के किनारे रेहड़ी लगाने लगे। रोड के किनारे रेहड़ी लगाने के लिए भी सिद्धशरण को 24, फेस 1,एल्युबिल्ड इंजिनियर के मालिक, डब्ल्यूएफएम के सिक्युरिटी सुपरवाईजर, मुकेश शर्मा के द्वारा 2,500 रूपये एडवांस में लिया गया। इसके अलावा लोकल दादा, पुलिस और गुड़गांव अॅथोरिटी को पैसे देने पड़तेे है (सिद्धशरण के पास अभी तो यह लोग नहीं आए हैं क्योंकि दुकान नई है, लेकिन दूसरे दुकानदार इन लोगों को पैसा देते हंै)। यहां की दुकानदारी से 300-400 रूपये की रोजना बचत होने लगी। इस बचत के लिए सिद्धशरण साहू को सुबह 5 से रात के10 बजे तक काम करना पड़ता है और पत्नी का पहले से अधिक समय लगने लगा। सिद्धशरण साहू से 20 दिन बाद सिक्युरिटी सुपरवाईजर ने कहा - ‘‘मालिक 4000 रूपये प्रति माह मांग रहा है, इतना पैसा दोगे तो दुकान लगाओ नहीं तो अपनी रेहड़ी हटा लो।’’ सि़द्धशरण साहू बताते हैं कि 15 फरवरी तक के लिए एडवांस पैसे दे रखे हैं तबतक दुकान लगाएंगे, उसके बाद वह अपनी दुकान बंद कर देंगे। वे सोचते हैं कि अब जब शहर में नौकरी नहीं है, रेहड़ी लगा कर पकौड़े, समौसे नहीं बेच सकते तो गांव जाकर मजदूरी करेंगे। एल्युबिल्ड इंजिनियर (फेस 1, 24 उद्योग बिहार) कम्पनी आज के‘देश प्रेम’ में अभिभूत होकर कम्पनी के ऊपर तिरंगा फहरा रहा है।

मोदी जी ने बहुत आसानी से यह बता दिया कि पकौड़ा बेचने वाला200 रूपये कमा लेता है, लेकिन उनको यह पता नहीं कि इस 200 रूपये में से भी कितना बंदर बांटा होता है। सिद्धशरण साहू ने नौकरी नहीं मिलने पर अपना स्टार्ट अप किया, जो अब उन्हंे गांव की तरफ लौटने पर मजबूर कर रहा है। गांव से उजड़ कर शहर आने वाले सिद्धशरण को क्या वापस गांव जाने पर काम मिल पाएगा? क्या केवल तिरंगा फहराने से ही देश भक्ति आ जाती है? एल्युब्लिड इंजिनियरि जैसे कितने भूठे देश प्रेम में अभिभूत होकर सरकारी जमीन का भी किराया वसूल रहे होंगे।

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