पड़ताल: प्रवेश सोनी की कविताएं
राकेश पाठक
आप समाज में घटित हो रही चीजों को जैसे देखते है..जिस रूप और स्वरूप में आपके आंखों से गुजरते है वह घटनाक्रम, अगर उन्हें उसी रूप-दृश्य को शब्द रूप में पढ़ना है तो प्रवेश सोनी की कविताएं एक बार आपको पढ़नी चाहिए..
दरअसल कविता और अभिव्यक्ति दोनों के अनुनाश्रिक संबंधों के बीच भी एक बारीक अन्तर है.. भाव प्रकटीकरण और प्रस्तुति का..अभिव्यक्ति प्रस्तुति का हिस्सा है और कविता भाव स्वरूप का..काव्योक्त होना पाठक का शर्त नहीं है बल्कि आलोचक का है पर पाठक को कविता में संवेदना चाहिए और वो सारी चीजें, संवेदना, उत्स, भाव, रस सब प्रवेश सोनी जी कि कविताओं में प्रचुरता से मौजूद है..
बिजूका पर इनकी कविताएँ पढ़ी ..प्रकृति और स्त्री पर लिखी इनकी कविता ग़जब की प्रच्छन्न उच्छ्वास से भरी है..उन बिम्बों को आप पढ़कर बेचैन भी होते है और चिंतित भी..जब पाठक इन चिंताओं से कविता पाठ के क्रम में खुद को जोड़ने लगे तो समझिए कविता अपनी उत्स पा रही है..यह कविता पढ़ते वक्त ऐसा उत्स पाठक को महसूस होता है और यही कवि और उसके रचनाकर्म की विशिष्टता का निरूपण करता है....
इनकी स्त्रियोक्त कविताएँ बेचैनी और भय से संयुक्त है एवम रोष और चिंता से भरी हुई कई सवाल भी खड़े कर रही है..दरअसल इन रचनाओं की प्रकृति और शैली पाठक से सीधे संवाद से जोड़ती है..पहली, दूसरी, तीसरी कोई भी कविता देखे अन्त में कवियत्री एक प्रश्न पाठकों के लिए छोड़ रही है..इतने कम शब्दों में जब पाठक के समक्ष कविता कोई सवाल छोड़े तो मानिये कविता अपना प्राप्य पा चुकी हैं..
बहुत बोलती औरतें कविता भी अपने कहन में अलहदा है...कहा जाता है कि दुनिया का आठवां आश्यर्च दो औरतें का एक साथ चुप बैठना है..यह दिखावटी तौर पर सच है पर इतना बोलने के बाद भी औरतें बहुत कुछ अनकहा रखे रखती है..जज्ब सीने के भीतर..औरत के सीने में कितनी औरतें छिपी है इसके लिये आपको स्त्री का सौंदर्य छोड़ आपको स्त्री को अलग रूप में समझना होगा.. यह औरतों की वाचालता नहीं सहनशीलता की पराकाष्ठा की प्रतीति बता रही है...
इनकी पहली कविता चुप्पी देखिये..कितनी वाचाल है अपने कहन में..इसकी लाउडनेस इनकी अंतिम पंक्तियों में बड़े ही सरलता के साथ ही मन पर उभर आता है एक आश्चर्य मिश्रित संवेदना के साथ..यही इनकी दूसरी और तीसरी कविता में व्यक्त हुआ है..
देह का अवदान रही स्त्रियां.. इस कविता की यह पंक्ति कोई रूपक या अतिश्योक्ति सी नही लिखी गयी है बल्कि स्त्री के समस्त अवदान पर एक लंबी रेख खींच रही है..नर्तकियों, गणिकाओं, गायिकाओं, अप्सरा जैसे शब्दों की प्रतीति कर जब अंत में देह के अवदान पर कवियित्री बात करती है तो स्त्री के समस्त दुःख, पीड़ा, बेबसी, परम्परा औऱ पुरुष भोक्त समाज की स्त्रियों का वेबस चित्र खींच देती है..स्त्री और देह के अनुनाश्रिक संबंधों में जो शोषण और ज़लालत है वह अनायास ही कविता पढ़ते समय पाठक के मन में अनुगुंजित होने लगता है..कविता का बिम्ब प्रधान ज्यादा न होना भले ही आपको खल रहा हो पर कविता पढ़ते से पाठक के अंदर प्रश्न पैदा कर जो लाउडनेस यह कविता भरती है फिर बिम्बों की कहाँ जरूरत रह जाती है कविता में..??
तीसरी कविता कहती है कि पुरुष और स्त्री दो इकाइयां है जो कभी सम नही हो सकते..एक वैचारिकी के लिये एक सवाल भी छोड़ती है कि तुम्हारा नफा जीत था औऱ मेरा..!!!
यह कविता स्त्री पुरुष संबंधों के केंद्र में रखकर लिखी गयी है ..सदियों से चली आ रही परम्पराओं में भी स्त्री का सम न होना ही सृष्टि का नींव है..जब जनन, मातृत्व, समागम और संधान जैसे शब्दों के साथ इस कविता को पढ़ते है तो कविता का भाव आलोचना के लिये मजबूर करता है..इस कविता में एक स्त्री मन को व्यक्त करने का जो प्रयास किया गया है वह उतना सफल नही हो पाया..कविता के भाव और बिम्ब में कई विरोधाभासी तत्व है..स्त्री के पूर्णता का सत्व भी अगर कवियत्री बताती तो यह कविता थोड़ा ज्यादा स्पष्टता से प्रकट होकर सामने आती..होता क्या है स्त्री को नायक बनाकर लिखी जा रही कविताओं में विचार स्पस्ट रूप से उभरकर सामने नही आ पाता परिणामतः कविता अपना सत्व और कवियत्री अपनी कहन में सम्प्रेषणीयता नही ला पाती..
पाँचवी कविता बेचैनी और पीड़ा के साथ शहर में जूझते लोगों की सन्त्रास कथा है..कविता थोड़ा ज्यादा ही सपाट है और एक पाठकीय रिदमता जो कविता में होनी चाहिए उसकी थोड़ी कमी सी लगी हमें..कविता के हर शब्द एक दूसरे से समाधिस्थ होनी चाहिए तब वह पाठक को अपने जद में लिए चलती है..यहां कविता को पुनर्लेखन किया जाए तो एक बेहतरीन कविता पाठक को पढ़ने को मिलेगी..
दरअसल कविता लिखना भी एक समाधी की अवस्था है..भाव में डूबकर ही भावनात्मकता से भरी जाती है..पीड़ा को महसूस कर के ही पीड़ा के बिम्ब उकेरे जा सकते है..यह दुख, संत्रास, प्रेम, गुस्सा आदि कविता की परिधि होते है..यही बाह्य भ्रम रचते है और यही कविता में उत्फुलता लाते है..जब कविता सोची जा रही होती है तो अतीत में होते है इतिहास गुनते हुए..जब कविता लिखी जा रही होती है तो वर्तमान में दुख, सुख, गुस्सा, प्रेम को जी रहा होता है आदमी..समाधिस्थ होकर...जब कविता लिख दी जाती है तो संत और बुद्ध की तरह सुकूँ से भरा हुआ निर्लिप्त होता है आदमी..
बहुत बोलती औरतें कविता हो या उदास अकेले कविता उगा रही स्त्री हो हर स्वरूप में कवियित्री एक प्रयोग कर रही है..एक नया वितान रचने का प्रयास कर रही हैं..कुछ कविताएँ बेहद साधारण है और कुछ गंभीर कविताओं की प्रतीति भी साधारण की तरह हो रही है जिसका कारण कविताओं का सपाट होना है..कवियत्री अगर चाहे तो थोड़े शब्दों के और प्रयोग से कविताओं का अलग वितान मूल भाव के साथ रच सकती है जो शायद पुनर्पाठ में संभव हो जायेगा.. कुछ जो गंभीर कविताएँ है इन्ही सपाट कविताओं के कारण पाठक को साधारण लगेगी परन्तु इसका मूल स्वरूप बेहद सारगर्भित और अर्थपरक है..उनकी अर्थवत्ता भी बिल्कुल ही अलहदा और जुदा है..जरूरत है एक बार इन कविताओं को कवि के नजरिये से पढ़ने समझने की...
कवियत्री की कुछ रचना काव्य की स्थापित विधा से हटकर अलग लकीर खींचती है..मैं इन्हें कला मर्मज्ञ तो मानता ही हूँ और एक कवियत्री के तौर पर बेहद संभावनाशील मानता हूं...
००
प्रवेश सोनी की कविताएं यहां पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.in/2018/02/blog-post_8.html?m=1
संक्षिप्त परिचय..
6 वर्षो तक स्टिंगर के रूप में एक अखबार में काम..फिर नक्सल क्षेत्र में एनजीओ में यायावरी...राजस्थान के एक सीमेंट कंपनी, श्री सीमेंट में एडमिनिस्ट्रेशन एवम बिज़नेस डेवलपमेंट में 6 साल गुजारे... सम्प्रति उत्तर रेलवे के हरिद्वार स्टेशन पर मुख्य स्वास्थ्य निरीक्षक के रूप में कार्यरत..वैदिक साहित्य में गहरी रुचि और इन पुरातन साहित्यों में विज्ञान के तत्वों के अन्वेषण व पड़ताल में रुचिगत शोध...इन शोध के तत्वों पर भास्कर के अहा जिंदगी में एक लेख प्रकाशित..दैनिक जागरण पटना में मगधी भाषा के कॉलम..'अप्पन बात ' का कुछ समय तक लेखन भी किया था....
सादर
राकेश पाठक
मुख्य स्वास्थ्य निरीक्षक
उत्तर रेलवे, हरिद्वार रेलवे स्टेशन
राकेश पाठक
आप समाज में घटित हो रही चीजों को जैसे देखते है..जिस रूप और स्वरूप में आपके आंखों से गुजरते है वह घटनाक्रम, अगर उन्हें उसी रूप-दृश्य को शब्द रूप में पढ़ना है तो प्रवेश सोनी की कविताएं एक बार आपको पढ़नी चाहिए..
दरअसल कविता और अभिव्यक्ति दोनों के अनुनाश्रिक संबंधों के बीच भी एक बारीक अन्तर है.. भाव प्रकटीकरण और प्रस्तुति का..अभिव्यक्ति प्रस्तुति का हिस्सा है और कविता भाव स्वरूप का..काव्योक्त होना पाठक का शर्त नहीं है बल्कि आलोचक का है पर पाठक को कविता में संवेदना चाहिए और वो सारी चीजें, संवेदना, उत्स, भाव, रस सब प्रवेश सोनी जी कि कविताओं में प्रचुरता से मौजूद है..
राकेश पाठक |
बिजूका पर इनकी कविताएँ पढ़ी ..प्रकृति और स्त्री पर लिखी इनकी कविता ग़जब की प्रच्छन्न उच्छ्वास से भरी है..उन बिम्बों को आप पढ़कर बेचैन भी होते है और चिंतित भी..जब पाठक इन चिंताओं से कविता पाठ के क्रम में खुद को जोड़ने लगे तो समझिए कविता अपनी उत्स पा रही है..यह कविता पढ़ते वक्त ऐसा उत्स पाठक को महसूस होता है और यही कवि और उसके रचनाकर्म की विशिष्टता का निरूपण करता है....
इनकी स्त्रियोक्त कविताएँ बेचैनी और भय से संयुक्त है एवम रोष और चिंता से भरी हुई कई सवाल भी खड़े कर रही है..दरअसल इन रचनाओं की प्रकृति और शैली पाठक से सीधे संवाद से जोड़ती है..पहली, दूसरी, तीसरी कोई भी कविता देखे अन्त में कवियत्री एक प्रश्न पाठकों के लिए छोड़ रही है..इतने कम शब्दों में जब पाठक के समक्ष कविता कोई सवाल छोड़े तो मानिये कविता अपना प्राप्य पा चुकी हैं..
बहुत बोलती औरतें कविता भी अपने कहन में अलहदा है...कहा जाता है कि दुनिया का आठवां आश्यर्च दो औरतें का एक साथ चुप बैठना है..यह दिखावटी तौर पर सच है पर इतना बोलने के बाद भी औरतें बहुत कुछ अनकहा रखे रखती है..जज्ब सीने के भीतर..औरत के सीने में कितनी औरतें छिपी है इसके लिये आपको स्त्री का सौंदर्य छोड़ आपको स्त्री को अलग रूप में समझना होगा.. यह औरतों की वाचालता नहीं सहनशीलता की पराकाष्ठा की प्रतीति बता रही है...
इनकी पहली कविता चुप्पी देखिये..कितनी वाचाल है अपने कहन में..इसकी लाउडनेस इनकी अंतिम पंक्तियों में बड़े ही सरलता के साथ ही मन पर उभर आता है एक आश्चर्य मिश्रित संवेदना के साथ..यही इनकी दूसरी और तीसरी कविता में व्यक्त हुआ है..
देह का अवदान रही स्त्रियां.. इस कविता की यह पंक्ति कोई रूपक या अतिश्योक्ति सी नही लिखी गयी है बल्कि स्त्री के समस्त अवदान पर एक लंबी रेख खींच रही है..नर्तकियों, गणिकाओं, गायिकाओं, अप्सरा जैसे शब्दों की प्रतीति कर जब अंत में देह के अवदान पर कवियित्री बात करती है तो स्त्री के समस्त दुःख, पीड़ा, बेबसी, परम्परा औऱ पुरुष भोक्त समाज की स्त्रियों का वेबस चित्र खींच देती है..स्त्री और देह के अनुनाश्रिक संबंधों में जो शोषण और ज़लालत है वह अनायास ही कविता पढ़ते समय पाठक के मन में अनुगुंजित होने लगता है..कविता का बिम्ब प्रधान ज्यादा न होना भले ही आपको खल रहा हो पर कविता पढ़ते से पाठक के अंदर प्रश्न पैदा कर जो लाउडनेस यह कविता भरती है फिर बिम्बों की कहाँ जरूरत रह जाती है कविता में..??
तीसरी कविता कहती है कि पुरुष और स्त्री दो इकाइयां है जो कभी सम नही हो सकते..एक वैचारिकी के लिये एक सवाल भी छोड़ती है कि तुम्हारा नफा जीत था औऱ मेरा..!!!
यह कविता स्त्री पुरुष संबंधों के केंद्र में रखकर लिखी गयी है ..सदियों से चली आ रही परम्पराओं में भी स्त्री का सम न होना ही सृष्टि का नींव है..जब जनन, मातृत्व, समागम और संधान जैसे शब्दों के साथ इस कविता को पढ़ते है तो कविता का भाव आलोचना के लिये मजबूर करता है..इस कविता में एक स्त्री मन को व्यक्त करने का जो प्रयास किया गया है वह उतना सफल नही हो पाया..कविता के भाव और बिम्ब में कई विरोधाभासी तत्व है..स्त्री के पूर्णता का सत्व भी अगर कवियत्री बताती तो यह कविता थोड़ा ज्यादा स्पष्टता से प्रकट होकर सामने आती..होता क्या है स्त्री को नायक बनाकर लिखी जा रही कविताओं में विचार स्पस्ट रूप से उभरकर सामने नही आ पाता परिणामतः कविता अपना सत्व और कवियत्री अपनी कहन में सम्प्रेषणीयता नही ला पाती..
पाँचवी कविता बेचैनी और पीड़ा के साथ शहर में जूझते लोगों की सन्त्रास कथा है..कविता थोड़ा ज्यादा ही सपाट है और एक पाठकीय रिदमता जो कविता में होनी चाहिए उसकी थोड़ी कमी सी लगी हमें..कविता के हर शब्द एक दूसरे से समाधिस्थ होनी चाहिए तब वह पाठक को अपने जद में लिए चलती है..यहां कविता को पुनर्लेखन किया जाए तो एक बेहतरीन कविता पाठक को पढ़ने को मिलेगी..
दरअसल कविता लिखना भी एक समाधी की अवस्था है..भाव में डूबकर ही भावनात्मकता से भरी जाती है..पीड़ा को महसूस कर के ही पीड़ा के बिम्ब उकेरे जा सकते है..यह दुख, संत्रास, प्रेम, गुस्सा आदि कविता की परिधि होते है..यही बाह्य भ्रम रचते है और यही कविता में उत्फुलता लाते है..जब कविता सोची जा रही होती है तो अतीत में होते है इतिहास गुनते हुए..जब कविता लिखी जा रही होती है तो वर्तमान में दुख, सुख, गुस्सा, प्रेम को जी रहा होता है आदमी..समाधिस्थ होकर...जब कविता लिख दी जाती है तो संत और बुद्ध की तरह सुकूँ से भरा हुआ निर्लिप्त होता है आदमी..
बहुत बोलती औरतें कविता हो या उदास अकेले कविता उगा रही स्त्री हो हर स्वरूप में कवियित्री एक प्रयोग कर रही है..एक नया वितान रचने का प्रयास कर रही हैं..कुछ कविताएँ बेहद साधारण है और कुछ गंभीर कविताओं की प्रतीति भी साधारण की तरह हो रही है जिसका कारण कविताओं का सपाट होना है..कवियत्री अगर चाहे तो थोड़े शब्दों के और प्रयोग से कविताओं का अलग वितान मूल भाव के साथ रच सकती है जो शायद पुनर्पाठ में संभव हो जायेगा.. कुछ जो गंभीर कविताएँ है इन्ही सपाट कविताओं के कारण पाठक को साधारण लगेगी परन्तु इसका मूल स्वरूप बेहद सारगर्भित और अर्थपरक है..उनकी अर्थवत्ता भी बिल्कुल ही अलहदा और जुदा है..जरूरत है एक बार इन कविताओं को कवि के नजरिये से पढ़ने समझने की...
कवियत्री की कुछ रचना काव्य की स्थापित विधा से हटकर अलग लकीर खींचती है..मैं इन्हें कला मर्मज्ञ तो मानता ही हूँ और एक कवियत्री के तौर पर बेहद संभावनाशील मानता हूं...
००
प्रवेश सोनी की कविताएं यहां पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.in/2018/02/blog-post_8.html?m=1
संक्षिप्त परिचय..
6 वर्षो तक स्टिंगर के रूप में एक अखबार में काम..फिर नक्सल क्षेत्र में एनजीओ में यायावरी...राजस्थान के एक सीमेंट कंपनी, श्री सीमेंट में एडमिनिस्ट्रेशन एवम बिज़नेस डेवलपमेंट में 6 साल गुजारे... सम्प्रति उत्तर रेलवे के हरिद्वार स्टेशन पर मुख्य स्वास्थ्य निरीक्षक के रूप में कार्यरत..वैदिक साहित्य में गहरी रुचि और इन पुरातन साहित्यों में विज्ञान के तत्वों के अन्वेषण व पड़ताल में रुचिगत शोध...इन शोध के तत्वों पर भास्कर के अहा जिंदगी में एक लेख प्रकाशित..दैनिक जागरण पटना में मगधी भाषा के कॉलम..'अप्पन बात ' का कुछ समय तक लेखन भी किया था....
सादर
राकेश पाठक
मुख्य स्वास्थ्य निरीक्षक
उत्तर रेलवे, हरिद्वार रेलवे स्टेशन
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें