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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

26 फ़रवरी, 2018

संतोष श्रीवास्तव की कविताएँ


संतोष श्रीवास्तव 

कविताएँ


हथेलियों का कर्ज

जिस दिन मेहंदी लगी
एक एक रंग चढ़ता गया
मन के कुंवारे
कैनवास पर
चित्रित हुई वे सारी
ठोस परते
समय जिन्हें
आश्वस्त करता रहा
कुछ देखे अनदेखे
ख्वाबों से
वजूद मेरा
सिमटने लगा
हथेली पर सजे
मेहंदी के बूटे में
मै मै न रही
मेहंदी ने कर दिया
खुद से पराया
मिटाकर मुझे
सारी उम्र भ्रम में रही
निज को सौंपकर
मेहंदी के नाम
आज आईने में
खुद को देख चौंक पडी
मेहंदी सर चढ़कर
हथेलियों का कर्ज
वसूल रही थी
और मेरा मधुमास
विदा ले रहा था
आहिस्ता आहिस्ता

मेरी धड़कनों की
आकुल धुन में बजते रहे
उसके पदचाप
लगातार........




कैनवास पर बादल

मैंने तुम्हें अपने ब्रश से
कैनवास पर क्या उतारा
तुम तो रेखाओं को तोड़
रंगों को चुरा उड़ गए
और छा गए आकाश पर
अभिसार का गुलाबी रंग
एक धमक के साथ
खड़ा है सामने
और कैनवास पर बिखरे
रंगों में खलबली
मच गई है
काले ,सलेटी ,सफ़ेद
रंगो का अट्टहास
सहा नहीं जाता
आहत है गुलाबी रंग
चित्र से बिछड़कर
व्याकुल भी
और इसीलिए
मेरे चित्र में
उठा है तूफान
जिसे तुम और भी
डरावना कर रहे हो
बार-बार बिजली
चमका कर
बार बार गरजकर
ये कैसा परिहास है बादल
मेरे चित्र को अधूरा कर
तुम कौन सा सुख
पा रहे हो
जब कि पूरा आसमान
तुम्हें धारे रहेगा
पूरी एक ऋतु










गीत चल पड़ा है

मेरे मन के कोने में
इक गीत कब से दबा हुआ है

सुना है
जल से भरे खेतों में
रोपे जाते धान के पौधों की कतार से
होकर गुजरता था गीत

बौर से लदी आम की डाल पर
बैठी कोयल के
कंठ से होकर गुजरता था गीत

गाँव की मड़ई में
गुड़ की लईया और महुआ की
महक से मतवाले ,थिरकते
किसानों के होठों से
होकर गुजरता था गीत

अब गीत चल पड़ा है
सरहद की ओर
प्रेम का खेत बोने
ताकि खत्म हो बर्बरता

अब गीत चल पड़ा है
अंधे राजपथ और
सत्ता के गलियारों की ओर
ताकि बची रहे सभ्यता




गोधूलि

उजाला ,जो कभी नष्ट नहीं होता
उजाले की उंगली पकड़
अंधेरा पसर जाता है
घुप्प अंधेरे में भी आंखें
टटोल लेती हैं
अपने हिस्से का उजाला

आंगन में उतर आती है सुबह
सुनहले मोहक रंगों से
बुनती है एक पुल
थके पांव
अपनी संवेदनाओ को ढोते
पार कर ही लेते हैं
दिन के बीहड़ रास्ते

बड़ी उदास लगती है सांझ
दो वक्तों का मिलन
एक सवाल की तरह मंडराता है

न जाने कौन सा संदेशा
ले आती है गोधूलि बेला
कि अंतहीन प्रतीक्षा में
हम गुजरते रहते हैं अंतिम सांस तक





 जिल्द

मेरी जिंदगी के साल दर साल
जैसे किताब के पन्ने.....
हर पन्ना आश्चर्य ,हादसा और पीड़ा की
समवेत दास्तान............
कब खत्म होगी यह किताब ???
कब मेरे नज़दीक होगा
आँख मूंदकर खोला गया वो पन्ना
जिस पर ज़ख्मों के सिरे
सिरे से गायब होंगे
और मेरी टूटन गवाह होगी
कि जुगनुओं को करीब ले
मैंने अंधेरे पार किए हैं
और अरमानों को गलाकर,कूटकर ,छानकर
उसके रेशों से
किताब की जिल्द बनाई है








 शहादत

कुछ कलियां है रातरानी में
खिलेंगी रात तलक
गूंथ दूंगा तुम्हारे बालों में
हम मना लेंगे बीसवां साल शादी का
कहा था तुमने

मैं हैरान ,परेशान
ये क्या हुआ तुमको
सूखे सूखे से रहे बीस बरस
अब ये मौसम की ,बहारों की
दस्तक कैसी

जमा था खून रगों में
बह चला जैसे
मेरा वनवास
खत्म हो चला जैसे
गुनगुनाती सी लगी बाद-ए-सबा
हर तरफ शम्मा जल उठी जैसे

खुशी से खाली
सूनी आंखों में
हसीन ख़्वाब तैरने से लगे

कि फट पड़ा बादल
खून से तर तुम्हारी वर्दी पर
आतंकी हमले का खौफनाक मंजर था
सुलग उठी थी मुबंई
कि ढह गया था ताज

पोलीस की आला अफसरी में तैनात
झेली थी गोलियां तुमने
ये शहादत बहुत खूब
मेरे मौला
गर्व से उठ गया था सर मेरा

चढ़ा दिए थे खिले फूल रातरानी के
तुम्हारे चरणों में
कि बीस बरस की शहादत
मेरी भी तो थी
साथ हमसफ़र मेरे




परिचय 
संतोष श्रीवास्तव
 जन्म....23 नवँबर
जबलपुर शिक्षा...एम.ए(हिन्दी,इतिहास) बी.एड.पत्रकारिता मेँ बी.ए
प्रकाशित पुस्तके....बहके बसँत तुम,बहते ग्लेशियर,प्रेम सम्बन्धोँ की कहानियाँ आसमानी आँखों का मौसम (कथा सँग्रह) मालवगढ की मालविका.दबे पाँव प्यार,टेम्स की सरगम,हवा मे बँद मुट्ठियाँ, लौट आओ दीपशिखा,ख्वाबों के पैरहन (उपन्यास) मुझे जन्म दो माँ(स्त्री विमर्श) फागुन का मन(ललित निबँध सँग्रह) नही अब और नही तथा बाबुल हम तोरे अँगना की चिडिया  (सँपादित सँग्रह) नीले पानियोँ की शायराना हरारत(यात्रा सँस्मरण)

विभिन्न भाषाओ मेँ रचनाएँ अनूदित,पुस्तको पर एम फिल तथा शाह्जहाँपुर की छात्रा द्वारा पी.एच.डी,रचनाओ पर फिल्माँकन,कई पत्र पत्रिकाओ मेँ स्तम्भ लेखन व सामाजिक,मीडिया,महिला एवँ साहित्यिक सँस्थाओ से सँबध्द, प्रतिवर्ष हेमंत फाउँडेशन की ओर से हेमंत स्मृति कविता सम्मान एवं विजय वर्मा कथा सम्मान का आयोजन,महिला सँस्था विश्व मैत्री मँच की संस्थापक,अध्यक्ष पुरस्कार.... अठारह राष्ट्रीय एवं दो अँतरराष्ट्रीय साहित्य एवँ पत्रकारिता पुरस्कार जिनमे महाराष्ट्र के गवर्नर के हाथो राजभवन मेँ लाइफ टाइम अचीव्हमेंट अवार्ड तथा म.प्र. राष्ट्र भाषा प्रचार समिति द्वारा मध्य प्रदेश के गवर्नर के हाथों नारी लेखन पुरस्कार ,महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी का राज्य स्तरीय हिन्दी सेवा सम्मान विशेष उल्लेखनीय है। एस.आर.एम.विश्वविद्यालय चैन्नई के  बी.ए.के कोर्स में कहानी “एक मुट्ठी आकाश” सम्मिलित।
 मुझे जन्म दो माँ पुस्तक पर राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा पीएचडी की मानद उपाधि।  महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी का राज्यस्तरीय हिन्दी सेवा सम्मान।भारत सरकार अंतरराष्टीय पत्रकार मित्रता सँघ की ओर से 25 देशो की प्रतिनिधी के रूप मेँ यात्रा।

संप्रति लेखन,पत्रकारिता सँपर्क..
505 सुरेन्द्र रेज़िडेंसी
दाना पानी रेस्टारेंट के सामने
बावड़ियां कलां
भोपाल 462039 (मध्य प्रदेश)
 मो .09769023188
Email Kalamkar.santosh@gmail.com

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