अमृता सिन्हा की कविताएं
.
दो
दिन धुला-धुला सा,
सुर्ख़ चटख़ रंगों में आफ़ताब
नीले सुफ़ेद अचकन पहने मुस्काता फलक़ ,
कुछ बतियाते, कुछ खिलखिलाते
हरे -हरे पत्ते , पेड़ों से।
दीवारें झक्क़ सफ़ेद
छतें भी उजली,
बिस्तरों की सलवटें नदारद
होंठों पे मुस्कान ,
दिन का उजाला साज़िश करता हुअा
लील जाता है ,तिलिस्मी शहर की अंधेरगर्दी
हाड़-मांस के गंध,पाप-पुण्य
बीती रात की हर बात को
गुज़रे लम्हे के हर राज़ को।
मनाता है जश्न,
अंधेरे की कहानी का ,
लरजती साँसों का,धड़कती दीवारों का
काँपती छतों का , ज़मीन की ख़ामोशी का,
झींगुरों के गीत का , हवाओं के संगीत का
पेड़ों की ऊँघ का , पत्तों की नींद का ।
-------रातजीवन _साजिश__
ज़िन्दगी _ एक _ फ़लसफ़ा
अमूमन
सुबहें नहीं हुआ करतीं
उदास ,
अक्सर शामों को ही
घेरा करती है उदासी
किन्तु, जो अल्लस्सुबह ही
जो ,ढेरों बादल इक्टठा
हो जाएँ कंठ में
और
मिलते ही ,मन की ऊष्मा
पिघल जाएँ ,
ढुलक आएँ ,
आँखों की कोर से
तो कैसे हों सुबह ख़ुशनुमा ?
सूख जाए जो अंत: सलिला
भीतर ही भीतर,
बची हो जो रेत ही रेत
सुफ़ेद नमकीन रेत
और उन रेतों में गुम हों ज़िन्दगी के निशाँ
तो कैसे हों सुबहें ख़ुशनुमा ?
विराम
जीवन में जो कुछ उथला था,
उसे बहना ही था
सो बह गया,
बह कर दूर छिटक जाना
उसकी नियति , जिसे नकारना
तर्कसंगत भी नहीं ।
जो तलछट में बचा
वही सच है
वही शाश्वत् ।
याद है , तुमने कहा था
जीवन में जब
सब अबूझ लगने लगे
तब प्रेम करना -
प्रेम
ज़िन्दगी के अनमनेपन से
आसमान की गंभीरता से
धरती के धीरज से
समंदर की गहराई से
धूप की गरमाहट से
दरख़्तों के हरे रहने की ज़िद्द से
परिंदों की शोख़ी से
प्रेम
जो भाषाओं से परे हो
जहाँ सारे शब्द बेमानी हों !
अथाह सागर जैसे
होता है प्रेम के अनाम रिश्ते में
बाँधता जाता है प्रीत की रेशमी डोर
अपने आग़ोश में सिमटी
तिरती क़श्ती से
पर क़श्ती को इसका इल्म कहाँ !
उसे तो सागर की लहरों से अठखेलियाँ करना भर है
उसे उन ख़ामोश अल्फ़ाज़ों
का कहाँ अंदाज़ !
न ही एहसास है उसे
सागर के स्नेहिल स्पर्श का
न उसके प्रगाढ़ आलिंगन का
ना प्रगल्भ सागर के अतल में छुपे गूढ़ रहस्यों का
कश्ती को कौन समझाए
सागर की गीली आत्मा का मर्म
प्रेम के मौसमों के चटख़ रंगों की शिद्दत ,
तिरती जाती है वह अपनी ही धुन में
जुड़ती जाती है क्षितिज से
अपने आसमान से जुड़ पाने के भ्रम में
और , सागर ख़ामोशी से
क़श्ती के प्रेम में पिघलता
यादों को समेटता
सामीप्य को उसके अपनी
पलकों में सहेजता
महबूब सा उसे सजाता
खिले चाँद को उसके जूड़े में खोंस
तारों की नीली चादर ओढ़ाए
ख़ुद स्याह रात में डूबा
लहरों को चीरता
पहुँचा देता है अपनी जान
अपनी क़श्ती को
उसके मुक़ाम तक
और
लग जाता है विराम
फिर एक बार
इक
प्रेम कहानी पर ।
ज़िन्दगी एक इल्तिजा
मन पर पड़ी
किरचें
जब मुखर होने
लगती हैं,
पंक्तिबद्ध
होने लगती हैं, तब
दर्द में पिरोयी टीसती चुप्पियाँ
एकांत की महीन बुनावट
कहती हैं बहुत कुछ
धरो कान , सुन सको तो सुनो
कभी मन के खोह में
कभी देह के इर्द-गिर्द
स्मृतियों के
मज़बूत धागों
से बुना , तुम्हारा अहसास
कभी मेरी मूँदी पलकों पर नर्म तितलियों सा
कभी गर्म धूप सा मुट्ठियों में
कभी सुराही मे रखे शीतल जल सा
और
कभी सिरहाने रखे सुनहरे ख्वाब सा
मिट्टी का एक
घर
जो बनाया है , मैंने
अपने भीतर
तकती हैं निगाहें
शायद हों किसी की मुंतज़िर
कभी आओ, तो आना
अपने उन्हीं पुख़्ता एहसासों के साथ
जो था कभी हमारा संबल
टोहते हुए
मन की इन्हीं कच्ची दीवारों को,
हो सके तो लाना
हमारे घर की
गुमशुदा
छत ,अपने साथ ।
मौसम सर्द है
सेमल के फाहों से उड़ते
सपनों को लपक,
क़ैद कर लिया है तितलियों की झुंड ने
अपनी नर्म पंखों की
कोमलता में ।
बाहर, जम जाने वाली बर्फ़ीली
ठिठुरती ठंड में
झरते, पनीले, ढुलकते आँसू भी
बर्फ़ बन , ज्यों के त्यों, वहीं
ठहर गए हैं ,
और
इन बर्फ़ सी पथरायी
आँखों में अनायास ही स्थिर हो
जमने लगी हैं तैरती, सुनहरी, जीवित
मछलियाँ भी ।
शुष्क मौसम के सर्द प्रहार
ने सोख लिये हैं
पँखुरियों से होंठों की दीप्त तरलता भी
कोरों पर बिछा है अनमना रूखापन
पर कुछ शेष है अब भी तहों में
शायद
सिर्फ एक
बचा-खुचा नमकीन सा
बासी स्वाद ।
तुम्हारे चेहरे से टपकता
दर्प भी
टपकने से पहले ही ,देखो ! कैसा
जम गया है,
कैसा ठहरा सा है, लटका, अधर में
बेलौस, हवा में झूलता
बर्फ़ में तब्दील
लकीर सा दर्प ! बूँद-बूँद टपकता
रिसता , धूल में मिलता
पर एकटक देखने पर
अब भी
चौंधिया जाती हैं
आँखें , धोखे में ही सही
कौंध जाता है
बिजली सा अब भी
तुम्हारा वही
ठोस सा, नुकीला दर्प !
सोच
नदी का बहना
और बहते ही रहना
स्वभाव है उसका
फिर एक दिन सूख
जाना , प्रारब्ध ।
समंदर में अनगिन लहरें,
हलचल , उठना गिरना
जीवंतता का प्रतीक
कभी ना सूखना
उसकी नियति ।
तुम कहती हो
बंधन ही प्रारब्ध ,
मैं कहता हूँ प्रेम
स्वच्छंदता मुक्ति
ही नियति ।
कुछ जग की कुछ मन की
उसने
अपनी इच्छा के विरूद्ध
काट-छाँट कर
बराबर किया
ख़ुद को
एक नियत फ़्रेम में समाने के लिए
एेसा करना लाज़िम था ।
हद में रहने की तहज़ीब की तहत
तस्वीर के अनचाहे हिस्से
की क़तरव्योंत
और
उससे हासिल
वजूद, की पुख़्ता ज़मीन
इतना कुछ ,
शायद भ्रम ही था उसका ।
ये सच है कि
एक पिलपिला , मरियल बिरवा
हरा हुआ, मरने से भी बचा
पर
भीतर उसके गहरे, कहीं कुछ मर गया,
कहीं नील पड़ गया , गाढ़ा , विषाक्त नीला ।
नसीहतों ने कहा
लीक से हट कर
चलने वाली नदियाँ , अक्सर
सूख जाया करती हैं,
छोड़ जाती हैं ,सिर्फ अपना निशान,
थोड़ी
धूल- मिट्टी, रेत की ढेर, चंद लकीरें
कुछ घिसे पत्थर और सूखे ठूँठ ।
कि सारी
हरहराती नदियाँ अपनी पूरी वेग के दौरान भी
अनुशासित ही भली लगती है
चूमता है फलक झुक कर उसे
दौड़ती हैं हवाएँ घुलती हैं उसकी साँसों में
पर , उन झरनों का क्या
उतरा करते हैं जो उफनते हुए
अपने फेनिल यौवन
में झूमते , टकराते , धकेलते हुए
कभी चट्टानों को , कभी पहाड़ों को
और
पूरे आवेग में
झरते हैं अपने चरम पर
बेरोकटोक , पूरे कोलाहल के साथ ।
जंगलों में भी
बेतरतीबी से पसरते हैं ये जंगली पेड़
बेलौस, बिंदास , बेपरवाह
अपनी मौज में जीते हुए
पर
भूलते नहीं
बाँधना अपने आसमानों को
कि कभी
सर से न टकरा जाएँ
ये आसमान ।
मुक्ति
विरक्ति,
मुक्ति का प्रथम सोपान
हो जैसे,
विरक्त होना मुक्त होना ही है
मुक्ति बंधन से, मुक्ति विरह मन से
मुक्ति अनचाहे सपनों से
दुस्वपनों से
मुक्ति शूल-बिंध शब्दों से ।
मुक्त होना
हवा होना है
धूप सा
छितराना है
ख़ुशबू सा
घुलना है
मन की कारा से
शब्दों की मुक्ति
आत्मा का उनमुक्त होना है ।
भीड़
हुजूम , लोगों का
भीड़ से घिरे
तुम
और
एकांत की टोह में
मुंतज़िर मैं,
अपनी दुखती पीठ
एक उदास दरख़्त से टिकाए,
बड़े बेमन से
उबाऊ दिन की सलाइयों पर
बुनने लगी हूँ
कुछ ख्वाब
अतीत को उधेड़ती
भविष्य बुनती
वर्तमान के कंधे पर सर रख
करती हूँ , इंतज़ार
कि
कब भीड़ छटे
एकांत मिले
और
मिलो तुम मुझसे
अपनी उद्दात्त राग लिये
पूरे आवेग के साथ
हों आलिंगनबद्ध हम
लरजते होंठ
और गूँगे शब्दों
की आड़ में ।
फूट कर
बह निकलूँ मैं
पके घाव की पीव सी
ताकि
डूब सको तुम
उसकी लिजलिजी मवाद में
और महसूस कर सको
मर्म
मेरे विरहमन का ।
सोख सको
अपनी गीली पलकों से
गिन-गिन
पीर
मेरा , जैसे चुगता है
पंछी
दाना ,,,, एक-एक ।
मेरी कराह पर
मेरी आह पर
तुम्हारे प्यार की फूँक
नर्म सेमल की फाहों सी
मख़मली मरहम में
लिथड़ा पूरा जिस्म
तुम फैलो मेरी देह पर
पसरते किसी तरल से
चूमते मेरे कानों की लौ को
बरसो तुम
सावन की किसी पहली फुहार से ।
निर्बाध बहो तुम
शुष्क, पपड़ी पड़े,सर्द होंठों के कोरों तक
सूखा पड़ा है जो अबतक गहरे
शापित कुँए सा ।
धँस जाओ मेरे मन के
हरे दलदल में
ताकि ढहती दीवारों से
झरते स्वप्न, ठहर जायें ठिठक कर
और
बच जायें पिघलने से
वे सारे
नमकीन पहाड़
जो उग आये हैं
मेरी
आँखों के आँगन में,
प्रेम के उगते सूरज के साथ ।
कभी खोलूँ मैं भी
अपने घर की जंगाती खिड़कियाँ
और सुनूँ बाहरी
हवा की सुरीली तान
क्योंकि
अरसा बीत गया
कोई
राग डूबी नहीं
सुर संध्या के
रंग में ।
पर ,
ऐसा तो तब हो
जब भीड़ हटे
तम छटे
एकांत मिले
तुम बनो हरे-भरे दरख़्त
और
मैं लिपटूँ तुमसे लता सी
अमर बेल बन ,,,,,!
पर,ऐसा तो तब हो जब
भीड़ छटे ,,,,,,एकांत मिले ,,,,!
##वेदना ## बिरह## मन## की ##
दस्तक बसंत का
बसंत सिरफिरा है
आगमन से पूर्व
बौराया फिर रहा है
इधर-उधर, ताक-झाँक करता
आवारा बसंत
पर
ये आवारगी बसंत की
बड़ी मनभावन है,
सम्मोहित कर रही है
जीवन की हर शै को
निर्मोही हवा भी
बसंत
के खेमे की हो चली है
शायद तभी
मचल-मचल कर
जाने कितनी बार ,
दे गई है दस्तक
खटखटा कर , मन की साँकल
बंद किवाड़
ज़रा उढ़का कर क्या देखा
मन ,,,,स्लेटी चिड़िया सा
पंखों
पर हो कर सवार
फुर्र पार
ओझल हो नज़रों से
भरने लगा परवाज़, उन्मुक्त ऊँची उड़ान
आसमान की भरने लगी गोद
कभी गुदगुदाते, पंख पखारते
नीली नदी में तैरते , गोते लगाते
और फिर उतर धरती पर
लहलहाती सरसों के खेत में
भटकता
आबोदाना की तलाश में
सरसों के झरते कोमल फूल
पंखों से चिपके
पीले रंग की झालर सा
जैसे , मन की देह पर उग
आये हों
अनगिन सरसों के फूल
तभी तो
मन की तहों में सिमटी
स्लेटी चिड़िया
प्रीत में डूबी, दीवानी,
बसंत की
प्यारी , पीतवसना हो चली है ,,,,,,!
नाम - अमृता सिन्हा
जन्म- ६ जुलाई १९६२
शिक्षा- पोस्ट ग्रेजुएट , पटना विश्वविद्यालय
राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित
संप्रति - स्वतंत्र लेखन
email - a.sinhamaxlife@gmail.com
Add -
F/2
सेक्टर न - 2
सृष्टि काम्प्लेक्स
मीरा रोड
मुंबई- 401107
अमृता सिन्हा |
वजूद
गहराती रात
हर तरफ़ चुप्पी का डेरा,
सन्नाटा मुजरिम ,प्रहरी बना अंधेरा
झींगुरों का संगीत,
मेह की धमक,ऊँची-ऊँची इमारतें,
इमारतों में लोग , सब ख़ामोश,
इ्सानी जमात में पसरा
मरघटी सन्नाटा ।
जारी है घुलना हवा में
मादक सुगंधों का ,
लरजती साँसों का , गंधाते देह का,
रात रानी का ।
सचमुच कितना गोपनीय है, अंधेरा
छत और दीवारों का मिलन,
ख़ामोशी के अंतरंग क्षण ।
निशा शनै: शनै: सरक कर
जा बैठी है मुँडेर पर,
ऊँघते पेड़ ,सोये पत्ते,सचमुच
कितना अलग , कितना सुख़द,
है , ये अंधेरा ।
.
दो
दिन धुला-धुला सा,
सुर्ख़ चटख़ रंगों में आफ़ताब
नीले सुफ़ेद अचकन पहने मुस्काता फलक़ ,
कुछ बतियाते, कुछ खिलखिलाते
हरे -हरे पत्ते , पेड़ों से।
दीवारें झक्क़ सफ़ेद
छतें भी उजली,
बिस्तरों की सलवटें नदारद
होंठों पे मुस्कान ,
दिन का उजाला साज़िश करता हुअा
लील जाता है ,तिलिस्मी शहर की अंधेरगर्दी
हाड़-मांस के गंध,पाप-पुण्य
बीती रात की हर बात को
गुज़रे लम्हे के हर राज़ को।
मनाता है जश्न,
अंधेरे की कहानी का ,
लरजती साँसों का,धड़कती दीवारों का
काँपती छतों का , ज़मीन की ख़ामोशी का,
झींगुरों के गीत का , हवाओं के संगीत का
पेड़ों की ऊँघ का , पत्तों की नींद का ।
-------रातजीवन _साजिश__
ज़िन्दगी _ एक _ फ़लसफ़ा
अमूमन
सुबहें नहीं हुआ करतीं
उदास ,
अक्सर शामों को ही
घेरा करती है उदासी
किन्तु, जो अल्लस्सुबह ही
जो ,ढेरों बादल इक्टठा
हो जाएँ कंठ में
और
मिलते ही ,मन की ऊष्मा
पिघल जाएँ ,
ढुलक आएँ ,
आँखों की कोर से
तो कैसे हों सुबह ख़ुशनुमा ?
सूख जाए जो अंत: सलिला
भीतर ही भीतर,
बची हो जो रेत ही रेत
सुफ़ेद नमकीन रेत
और उन रेतों में गुम हों ज़िन्दगी के निशाँ
तो कैसे हों सुबहें ख़ुशनुमा ?
विराम
जीवन में जो कुछ उथला था,
उसे बहना ही था
सो बह गया,
बह कर दूर छिटक जाना
उसकी नियति , जिसे नकारना
तर्कसंगत भी नहीं ।
जो तलछट में बचा
वही सच है
वही शाश्वत् ।
याद है , तुमने कहा था
जीवन में जब
सब अबूझ लगने लगे
तब प्रेम करना -
प्रेम
ज़िन्दगी के अनमनेपन से
आसमान की गंभीरता से
धरती के धीरज से
समंदर की गहराई से
धूप की गरमाहट से
दरख़्तों के हरे रहने की ज़िद्द से
परिंदों की शोख़ी से
प्रेम
जो भाषाओं से परे हो
जहाँ सारे शब्द बेमानी हों !
अथाह सागर जैसे
होता है प्रेम के अनाम रिश्ते में
बाँधता जाता है प्रीत की रेशमी डोर
अपने आग़ोश में सिमटी
तिरती क़श्ती से
पर क़श्ती को इसका इल्म कहाँ !
उसे तो सागर की लहरों से अठखेलियाँ करना भर है
उसे उन ख़ामोश अल्फ़ाज़ों
का कहाँ अंदाज़ !
न ही एहसास है उसे
सागर के स्नेहिल स्पर्श का
न उसके प्रगाढ़ आलिंगन का
ना प्रगल्भ सागर के अतल में छुपे गूढ़ रहस्यों का
कश्ती को कौन समझाए
सागर की गीली आत्मा का मर्म
प्रेम के मौसमों के चटख़ रंगों की शिद्दत ,
तिरती जाती है वह अपनी ही धुन में
जुड़ती जाती है क्षितिज से
अपने आसमान से जुड़ पाने के भ्रम में
और , सागर ख़ामोशी से
क़श्ती के प्रेम में पिघलता
यादों को समेटता
सामीप्य को उसके अपनी
पलकों में सहेजता
महबूब सा उसे सजाता
खिले चाँद को उसके जूड़े में खोंस
तारों की नीली चादर ओढ़ाए
ख़ुद स्याह रात में डूबा
लहरों को चीरता
पहुँचा देता है अपनी जान
अपनी क़श्ती को
उसके मुक़ाम तक
और
लग जाता है विराम
फिर एक बार
इक
प्रेम कहानी पर ।
ज़िन्दगी एक इल्तिजा
मन पर पड़ी
किरचें
जब मुखर होने
लगती हैं,
पंक्तिबद्ध
होने लगती हैं, तब
दर्द में पिरोयी टीसती चुप्पियाँ
एकांत की महीन बुनावट
कहती हैं बहुत कुछ
धरो कान , सुन सको तो सुनो
कभी मन के खोह में
कभी देह के इर्द-गिर्द
स्मृतियों के
मज़बूत धागों
से बुना , तुम्हारा अहसास
कभी मेरी मूँदी पलकों पर नर्म तितलियों सा
कभी गर्म धूप सा मुट्ठियों में
कभी सुराही मे रखे शीतल जल सा
और
कभी सिरहाने रखे सुनहरे ख्वाब सा
मिट्टी का एक
घर
जो बनाया है , मैंने
अपने भीतर
तकती हैं निगाहें
शायद हों किसी की मुंतज़िर
कभी आओ, तो आना
अपने उन्हीं पुख़्ता एहसासों के साथ
जो था कभी हमारा संबल
टोहते हुए
मन की इन्हीं कच्ची दीवारों को,
हो सके तो लाना
हमारे घर की
गुमशुदा
छत ,अपने साथ ।
मौसम सर्द है
सेमल के फाहों से उड़ते
सपनों को लपक,
क़ैद कर लिया है तितलियों की झुंड ने
अपनी नर्म पंखों की
कोमलता में ।
बाहर, जम जाने वाली बर्फ़ीली
ठिठुरती ठंड में
झरते, पनीले, ढुलकते आँसू भी
बर्फ़ बन , ज्यों के त्यों, वहीं
ठहर गए हैं ,
और
इन बर्फ़ सी पथरायी
आँखों में अनायास ही स्थिर हो
जमने लगी हैं तैरती, सुनहरी, जीवित
मछलियाँ भी ।
शुष्क मौसम के सर्द प्रहार
ने सोख लिये हैं
पँखुरियों से होंठों की दीप्त तरलता भी
कोरों पर बिछा है अनमना रूखापन
पर कुछ शेष है अब भी तहों में
शायद
सिर्फ एक
बचा-खुचा नमकीन सा
बासी स्वाद ।
तुम्हारे चेहरे से टपकता
दर्प भी
टपकने से पहले ही ,देखो ! कैसा
जम गया है,
कैसा ठहरा सा है, लटका, अधर में
बेलौस, हवा में झूलता
बर्फ़ में तब्दील
लकीर सा दर्प ! बूँद-बूँद टपकता
रिसता , धूल में मिलता
पर एकटक देखने पर
अब भी
चौंधिया जाती हैं
आँखें , धोखे में ही सही
कौंध जाता है
बिजली सा अब भी
तुम्हारा वही
ठोस सा, नुकीला दर्प !
सोच
नदी का बहना
और बहते ही रहना
स्वभाव है उसका
फिर एक दिन सूख
जाना , प्रारब्ध ।
समंदर में अनगिन लहरें,
हलचल , उठना गिरना
जीवंतता का प्रतीक
कभी ना सूखना
उसकी नियति ।
तुम कहती हो
बंधन ही प्रारब्ध ,
मैं कहता हूँ प्रेम
स्वच्छंदता मुक्ति
ही नियति ।
कुछ जग की कुछ मन की
उसने
अपनी इच्छा के विरूद्ध
काट-छाँट कर
बराबर किया
ख़ुद को
एक नियत फ़्रेम में समाने के लिए
एेसा करना लाज़िम था ।
हद में रहने की तहज़ीब की तहत
तस्वीर के अनचाहे हिस्से
की क़तरव्योंत
और
उससे हासिल
वजूद, की पुख़्ता ज़मीन
इतना कुछ ,
शायद भ्रम ही था उसका ।
ये सच है कि
एक पिलपिला , मरियल बिरवा
हरा हुआ, मरने से भी बचा
पर
भीतर उसके गहरे, कहीं कुछ मर गया,
कहीं नील पड़ गया , गाढ़ा , विषाक्त नीला ।
नसीहतों ने कहा
लीक से हट कर
चलने वाली नदियाँ , अक्सर
सूख जाया करती हैं,
छोड़ जाती हैं ,सिर्फ अपना निशान,
थोड़ी
धूल- मिट्टी, रेत की ढेर, चंद लकीरें
कुछ घिसे पत्थर और सूखे ठूँठ ।
कि सारी
हरहराती नदियाँ अपनी पूरी वेग के दौरान भी
अनुशासित ही भली लगती है
चूमता है फलक झुक कर उसे
दौड़ती हैं हवाएँ घुलती हैं उसकी साँसों में
पर , उन झरनों का क्या
उतरा करते हैं जो उफनते हुए
अपने फेनिल यौवन
में झूमते , टकराते , धकेलते हुए
कभी चट्टानों को , कभी पहाड़ों को
और
पूरे आवेग में
झरते हैं अपने चरम पर
बेरोकटोक , पूरे कोलाहल के साथ ।
जंगलों में भी
बेतरतीबी से पसरते हैं ये जंगली पेड़
बेलौस, बिंदास , बेपरवाह
अपनी मौज में जीते हुए
पर
भूलते नहीं
बाँधना अपने आसमानों को
कि कभी
सर से न टकरा जाएँ
ये आसमान ।
मुक्ति
विरक्ति,
मुक्ति का प्रथम सोपान
हो जैसे,
विरक्त होना मुक्त होना ही है
मुक्ति बंधन से, मुक्ति विरह मन से
मुक्ति अनचाहे सपनों से
दुस्वपनों से
मुक्ति शूल-बिंध शब्दों से ।
मुक्त होना
हवा होना है
धूप सा
छितराना है
ख़ुशबू सा
घुलना है
मन की कारा से
शब्दों की मुक्ति
आत्मा का उनमुक्त होना है ।
भीड़
हुजूम , लोगों का
भीड़ से घिरे
तुम
और
एकांत की टोह में
मुंतज़िर मैं,
अपनी दुखती पीठ
एक उदास दरख़्त से टिकाए,
बड़े बेमन से
उबाऊ दिन की सलाइयों पर
बुनने लगी हूँ
कुछ ख्वाब
अतीत को उधेड़ती
भविष्य बुनती
वर्तमान के कंधे पर सर रख
करती हूँ , इंतज़ार
कि
कब भीड़ छटे
एकांत मिले
और
मिलो तुम मुझसे
अपनी उद्दात्त राग लिये
पूरे आवेग के साथ
हों आलिंगनबद्ध हम
लरजते होंठ
और गूँगे शब्दों
की आड़ में ।
फूट कर
बह निकलूँ मैं
पके घाव की पीव सी
ताकि
डूब सको तुम
उसकी लिजलिजी मवाद में
और महसूस कर सको
मर्म
मेरे विरहमन का ।
सोख सको
अपनी गीली पलकों से
गिन-गिन
पीर
मेरा , जैसे चुगता है
पंछी
दाना ,,,, एक-एक ।
मेरी कराह पर
मेरी आह पर
तुम्हारे प्यार की फूँक
नर्म सेमल की फाहों सी
मख़मली मरहम में
लिथड़ा पूरा जिस्म
तुम फैलो मेरी देह पर
पसरते किसी तरल से
चूमते मेरे कानों की लौ को
बरसो तुम
सावन की किसी पहली फुहार से ।
निर्बाध बहो तुम
शुष्क, पपड़ी पड़े,सर्द होंठों के कोरों तक
सूखा पड़ा है जो अबतक गहरे
शापित कुँए सा ।
धँस जाओ मेरे मन के
हरे दलदल में
ताकि ढहती दीवारों से
झरते स्वप्न, ठहर जायें ठिठक कर
और
बच जायें पिघलने से
वे सारे
नमकीन पहाड़
जो उग आये हैं
मेरी
आँखों के आँगन में,
प्रेम के उगते सूरज के साथ ।
कभी खोलूँ मैं भी
अपने घर की जंगाती खिड़कियाँ
और सुनूँ बाहरी
हवा की सुरीली तान
क्योंकि
अरसा बीत गया
कोई
राग डूबी नहीं
सुर संध्या के
रंग में ।
पर ,
ऐसा तो तब हो
जब भीड़ हटे
तम छटे
एकांत मिले
तुम बनो हरे-भरे दरख़्त
और
मैं लिपटूँ तुमसे लता सी
अमर बेल बन ,,,,,!
पर,ऐसा तो तब हो जब
भीड़ छटे ,,,,,,एकांत मिले ,,,,!
##वेदना ## बिरह## मन## की ##
दस्तक बसंत का
बसंत सिरफिरा है
आगमन से पूर्व
बौराया फिर रहा है
इधर-उधर, ताक-झाँक करता
आवारा बसंत
पर
ये आवारगी बसंत की
बड़ी मनभावन है,
सम्मोहित कर रही है
जीवन की हर शै को
निर्मोही हवा भी
बसंत
के खेमे की हो चली है
शायद तभी
मचल-मचल कर
जाने कितनी बार ,
दे गई है दस्तक
खटखटा कर , मन की साँकल
बंद किवाड़
ज़रा उढ़का कर क्या देखा
मन ,,,,स्लेटी चिड़िया सा
पंखों
पर हो कर सवार
फुर्र पार
ओझल हो नज़रों से
भरने लगा परवाज़, उन्मुक्त ऊँची उड़ान
आसमान की भरने लगी गोद
कभी गुदगुदाते, पंख पखारते
नीली नदी में तैरते , गोते लगाते
और फिर उतर धरती पर
लहलहाती सरसों के खेत में
भटकता
आबोदाना की तलाश में
सरसों के झरते कोमल फूल
पंखों से चिपके
पीले रंग की झालर सा
जैसे , मन की देह पर उग
आये हों
अनगिन सरसों के फूल
तभी तो
मन की तहों में सिमटी
स्लेटी चिड़िया
प्रीत में डूबी, दीवानी,
बसंत की
प्यारी , पीतवसना हो चली है ,,,,,,!
नाम - अमृता सिन्हा
जन्म- ६ जुलाई १९६२
शिक्षा- पोस्ट ग्रेजुएट , पटना विश्वविद्यालय
राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित
संप्रति - स्वतंत्र लेखन
email - a.sinhamaxlife@gmail.com
Add -
F/2
सेक्टर न - 2
सृष्टि काम्प्लेक्स
मीरा रोड
मुंबई- 401107
अमृता की कविताएं पढ़ी बहुत खूबसूरत बिंब हैं इन कविताओं में और वह तमाम भी बहुत सूक्ष्म सम्वेदनाओं के साथ यहां पर उपस्थित हुए हैं इन कविताओं में थोड़ी आत्मपरकता है लेकिन वह कहीं-कहीं विस्तार भी लेती इस तरह कविता को थोड़ा सामाजिकता के साथ भी जुड़ना चाहिए क्योंकि निज का विस्तार भी जरूरी है
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