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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

08 जुलाई, 2018

मीडिया और समाज: छः

सूचना समाज का छलावा

संजीव जैन



संजीव जैन

सूचना समाज के ठेकेदार यह दावा करते हैं कि सूचनाएं और मनोरंजन सम्पूर्ण मनुष्यों के लिए हैं। इसका व्यापक अर्थ जो वे पैदा करते हैं वह यह कि यह ‘सूचना समाज’ सब के लिए है और सब इसमें शामिल हैं। यह सूचना समाज का वह स्वर्णमृग है जिसके पीछे राम भागे थे और सीता को खो दिया था।
दर असल यह सूचना समाज सबके लिए संबोधित है, सबके लिए है नहीं। दुनिया की आधी से अधिक आबादी तो सिर्फ इसको बनाये रखने के वास्ते अपना हाड़-मांस गलाने के लिए है क्योंकि इसे इसी रूप में बनाए रखना और विकसित करने में करोड़ों इंसानों की बलि की निरंतर जरूरत है। ये करोड़ों लोग भूमंडलीकरण के कत्लखाने का कच्चा माल हैं। इनके हाड़-मांस को गलाये बिना इसका ‘माल’ (सूचना, मनोरंजन, और मुनाफा) पैदा हो ही नहीं सकता।
सूचना समाज के तर्क से सबसे अधिक यही करोंड़ों लोग प्रभावित होते हैं, जो इसमें शामिल नहीं हैं। इसके लाभ या फायदे में जो लोग शामिल हैं, उनकी संख्या ऊपर से नीचे की ओर बहुत कम है। इस पिरामिडीय सूचना समाज में सबसे ऊपर सबसे कम लोग होते हैं जो सबसे अधिक लाभ कमाते हैं, सत्ता, तकात, कानून, सुविधाओं के पहाड़, विशेषाधिकारों के जंगल, सब कुछ इनके लिए रचा जाता है। इनके बाद जो लोग दूसरे-तीसरे लेवल पर  होते हैं वे इन ऊपरवालों के एग्जिक्यूटिव वर्ग के लोग होते हैं, जो वास्तव में होते तो क्रीतदास हैं पर इनका जीवन स्तर ऊपरवालों की रुचि और स्तर से कुछ ही कमतर होता है, इसलिए यह वर्ग स्वयं को ऊपर वाले वर्ग के समान समझने लगता है। इसकी स्थिति अस्तबल के उस घोड़े के समान होती है जिसे इसलिए सजाया संवारा जाता है कयोंकि उस पर राजा को शिकार के लिए निकलना होता है। यह वर्ग पूंजीपति समाज का सिर विहीन दास होता है, जो सिर्फ ‘यस सर’ की भाषा जानता है।
यही वह वर्ग है जो पिरामिड के सबसे ऊपर वाले वर्ग की सामाजिक और राजनीतिक सुरक्षा सुनिश्चित करता है। पिरामिड के सबसे नीचे और मध्यम स्थिति में रहने वाले लोगों के दिमाग को अपने आकाओं के हितों के प्रति अनुकूलित करने की नीति बनाता है, उसे लागू करने के लिए संचार माध्यमों के द्वारा मायाजाल रचता है।
उस वर्ग के अमानवीय और बर्बरतापूर्ण चेहरे पर मानव-कल्याण का मेकअप करता है। संचार माध्यम इस रंगे पुते हिंसक वर्ग को सर्वश्रेष्ठ जीवन मूल्यों को जीने वाले वर्ग के रूम में प्रस्तुत करते हैं। उनकी जीवन शैली को महिमान्वित किया जाता है और निचले और मध्यम वर्गीय जीवन शैली और जीवन स्थितियों को पिछड़ा हुआ और हीनतर बनाकर पेश करते हैं।
संचार माध्यमों का यह उच्च वर्गीय छवियों को प्रस्तुत करने का तरीका कुछ ऐसा होता है जिससे आम जनता अपनी जीवन शैली से घृणा करने लगती है और ऊपर वाले वर्ग की जीवनशैली को अपनाने के लिए लालायित होती है। इस आकर्षण के साथ आते हैं विज्ञापन जो आम जनता को उन उत्पादों को खरीदने के लिए आकर्षित करते हैं जिन्हें वह खरीदने की क्षमता नहीं रखता और उन उत्पादों से जो अच्छे लगने का भ्रम पैदा किया जाता है वह वैसा कुछ भी नहीं करते।
विज्ञापन सबसे बडे़ झूठ को सच बनाकर पेश करने का माध्यम है। विज्ञापन में जो सेलेब्रिटी होते हैं उनकी छवि जनता के दिमाग और दिलों में पहले ही नायक की छवि बनाकर बैठा दी गई होती है। वे जो जनता के कारण नायकत्व तक पहुंचे होते हैं, वे ही जनता को भ्रमित करते हैं और उन उत्पादों को खरीदने के प्रति ललचाते हैं जिन्हें वे स्वयं कभी इस्तेमाल नहीं करते। इस तरह संचार माध्यम झूठ की श्रृंखला गढ़ते हैं जिसमें आम जनता को उत्पादों को खरीदने के लिए मानसिक रूप से तैयार किया जाता है। इसके साथ ही सर्वे और  जांच रिपोर्ट आती रहती हैं जो जनता के दिमाग में उत्पादों को वैधता प्रदान करती हैं। जबकि तमाम सर्वे और जांच उत्पादों के पक्ष में मैनेज किये जाते हैं।
संचार माध्यम सूचनाओं के प्रसार से एक और काम करते हैं जो पूंजीवादी व्यवस्था के हितों  के लिए ही काम करता है वह यह कि ये सूचनाएं आम जनता को विश्लेषण परक बनाती हैं न कि आलोचनात्मक। यह अधिकतम तरीकों से हमें चीजों के प्रति अनालोचनात्मक बनाती हैं। थोड़ी बहुत आलोचना संचार माध्यम अपने चैनलों पर आयोजित करके जनता के अंदर बची-खुची आलोचनात्मक बोध को भी कुंद कर देते हैं। गरमागरम बहस देख कर जनता बहस करने वालों पर बहस करने लगती है, आलोचना के मूल मुद्दों को गायब कर दिया जाता है। इस तरह एक अनालोचनात्मक समाज का निर्माण किया जा रहा है। जब समाज में आलोचनात्मक वृत्ति खत्म होती जाती है तो एक अनर्गल समाज बन जाता है, फूहड़ता ही जीवन बोध होता जाता है। असंगतियां पार्टीगत मोह में चलने दी जाती हैं। पार्टी और व्यक्ति का आभामंडल जीवन की तमाम क्रूरताओं और विडंबनाओं को आच्छादित किये रहता है। यह आभामंडल संचार माध्यम बनाते हैं अनालोचनात्मक समाज बनाकर। कुल मिलाकर आज हम एक फूहड और अनालोचनत्मक समाज में रह रहे हैं और इसे रचने में संचार माध्यमों का सबसे अधिक योगदान है।
संचार माध्यम चूंकि दृश्य-श्रृव्य माध्यम हैं इसलिए वे मानव चेतना को बीहड़ों पर चलकर खुद अपनी दुनिया रचने के श्रमसाध्य मार्ग से आसानी से भटका देते हैं। मानव चेतना अपने से बाह्य जगत से देखने-सुनने और छूने से ही अधिक संपर्क में आती है और विकसित होती है। ये संचार माध्यम मार्क्स की प्रसिद्ध उक्ति -  “भौतिक जगत ही मानव चेतना के विकास को निर्धारित करता है।” को अक्षरश: मानते हैं और लागू करते हैं उसके विकास को रोकने के लिए। ये संचार माध्यम एक कृत्रिम आभासी दुनिया रचकर मानव चेतना के संपर्क में लाते हैं ताकि मानव चेतना वास्तविक ठोस यथार्थ के संपर्क में कम से कम आ सके। इससे चेतना एक आभासी दुनिया में विचरण करने लगती है और श्रम - संबंधों की वास्तविक दुनिया से कट जाती है।
इस तरह संचार माध्यम एक छलावा पैदा करते हैं और पूंजीवाद के तथा उनके दलाल राजनीतिक वर्ग के हितों को फलीभूत करते हैं।
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https://bizooka2009.blogspot.com/2018/07/cognitive-brain-11-1.html?m=1


3 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! आपने दर्पण की तरह वास्तविकता प्रकट कर दी संजीव जी

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  2. वाह! आपने दर्पण की तरह वास्तविकता प्रकट कर दी संजीव जी

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