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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

29 जुलाई, 2018

परखः दस

एक कवि अपनी हथेली पर कश्मीर रखता है!

गणेश गनी


गणेश गनी

उस शाम ढालपुर में चलते चलते तुम्हारे पांव अचानक रुक गए, तुमने एक विशाल पेड़ की टहनी को छुआ, गोया कोई अपने सबसे करीबी को छूता हो। एक पत्ता तोड़कर अपनी हथेली पर रखा और फिर आंख बन्दकर उसे इस कद्र चूमा, जैसे कोई अपनी मिट्टी को चूमता है। उस पत्ते की खुशबू पहचानी। दरअसल तुमने हथेली पर रख उस कश्मीर को चूमा जिससे तुम्हारा एक ऐसा रिश्ता है जिसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है-

मैंने हब्बाकदल से
झेलम में देखा
मन्द मन्द बहता हुआ
चिनार का हरा पत्ता
मैंने साथ साथ बहकर पढ़ी
उस पर लिखी
खुली धड़कन।

यह चिनार का पेड़ अचानक तो नहीं उगा कहीं अभी अभी, पहले हमारी नज़र क्यों नहीं गई इस पर रोज़ आते जाते? इधर तो देवदार के पेड़ हैं, जिन्हें हम देखकर भी अनदेखा कर देते हैं, जबकि यही देवदार हमारे घरों के अंदर तक हैं, हमारे बिस्तर के नीचे भी। जबकि तुम्हारे कदम यहाँ पड़ते ही चिनार एकदम प्रकट हुआ सामने-

सदियों से
हम उखड़कर अपनी ज़मीन से
पर्वतों के उस तरफ
जा बसते हैं।

परंतु नहीं निकल पाते हम
चिनार की सौंधी स्मृति से
हम जहां जाते हैं, चलता है आसमान में
चाँद की तरह साथ साथ
और घर नहीं लौटता चिनार।

कवि ने हमें बताया कि कुल्लू में बसा यह पेड़ दरअसल कश्मीर का चिनार है। अग्निशेखर भाई यह वही चिनार है जिसके पूर्वज कश्मीर में हैं। इसे तो एक चिड़िया यहां लाई थी। तब, जब चिनार संकट में थे, चिनार काटे जा रहे थे, जलाए जा रहे थे, उनसे ब्लात्कार हो रहे थे। उस वक्त एक चिड़िया अपनी चोंच में एक बीज दबाए उड़ी और  उन्चासों हवाओं ने उसका भरपूर साथ दिया। इधर वर्षा ज़मीन को नम बनाने में जुटी थी-

छलनी छलनी मेरे आकाश के ऊपर से
बह रही है
स्मृतियों की नदी

ओ मातृभूमि!
क्या इस समय हो रही है
मेरे गाँव में वर्षा।

जवाहर टनल कवि ने उस स्याही से लिखी है जो अब किसी कलम की नोक पर नहीं मिलेगी। इस कविता में पीड़ा है, पीड़ा है, बस केवल पीड़ा है-

हमारे सिकुड़े शरीरों के अंदर दबे कोलाहल में
छिपी बैठीं
लहूलुहान स्मृतियां इस समय
क्यों जाग रही थीं
गीले अंधेरे में
शून्य में उभर रही थीं
बलात्कृत हो रही
छटपटाती बिलखती
हमारी बहनें।

शिमला में एक साहित्यिक गोष्ठी में अग्निशेखर आए थे । मैंने अजेय से कहा कि क्या अग्निशेखर कुल्लू आ सकते हैं । कुल्लू में भी दोएक कार्यक्रम पहले ही तय थे। अजेय ने कहा - तुम बुलाना चाहते हो तो मैं आग्रह करूँगा और वो टालेंगे नहीँ ।
मैं बहुत खुश हुआ । अग्निशेखर तुरंत मान गए । यह मई 2012 के दिन थे । यह उनसे मेरी पहली मुलाकात थी । इसके बाद अग्निशेखर का कुल्लू से नाता जुड़ा और हमारे कार्यक्रमों की शोभा बढ़ाते रहे । इस बीच नौ मई 2014 को लिखा उनका एक पत्र आया-

प्रिय गणेश गनी,

तुम्हारे जैकेट को तुम तक वापस पहुंचाने के लिए मेरी अलमारी में कितना इन्तजार करना पड़ा ! कुल्लू से जम्मू तक की उस ठंडी रात में बस-यात्रा में इसने मुझे कितनी आत्मीय ऊष्मा दी , मुझे ठिठुरने से बचाया , तुम्हारे प्यार , तुम्हारी संवेदनशीलता को निरंतर मेरे अंदर जगाए रखा ।
साल भर जब जब में अलमारी खोलता , कपड़े निकालने के लिए हाथ बढ़ाता तो इसी जैकेट को छुए बिना नहीँ रहता । इसे छूने और देखने से लगता तुम्हें देख रहा हूँ । तुम्हारी भाव - प्रवणता से महक उठता ।

तुमने मेरी एक कविता ' एक दोस्त का गरम कोट ' शायद पढ़ी हो । उस गरम कोट का भी ऐसा ही प्रसंग है । कश्मीर से विस्थापन के वर्ष 1990 में जबकि जम्मू पहुंचकर ठण्ड और बरखा के दिनों में मेरे पास कोट नहीँ था । एक दोस्त शैलेन्द्र ऐमा ने अपना कोट पहनाया था ... उसे पहने मैं डेढ़ - दो महीने तक जम्मू शरणार्थियों की बस्तियों में , जलूसों , जलसों में घूमता रहा । उस गरम कोट से मेरी स्मृतियाँ जुड़ी हैं ।
मैंने उस गरम कोट पर कविता लिखी । सम्भव है कभी मैं तुम्हारे जैकेट पर भी लिखूं । यह मुझे देर तक हाँट करता रहेगा ।

अपने जैकेट की जेबों में हाथ डालकर देखना ... मेरी संवेदनशीलता के दस्तावेज मिलेंगे । तुम्हारे जैकेट की जेबों में मैंने ठूंस ठूंस कर कविताएं  रखी हैं ।
ज़हीन को भी सुनाना । भाभी को भी ।
स्नेहांकित
अग्निशेखर
जम्मू , 9.5.2014

तुम्हारे शहर से जाऊंगा एक दिन चुपचाप
सब कुछ यहीं छोड़कर
मेरे साथ जाएगी अलबत्ता
तुम्हारे गर्म कोट की याद।

कितने मौसम हैं उस कोट की जेबों में
जिसके साथ खेलती रहती हैं
मेरी उंगलियां
उदास लम्हों में
मेरी आत्मकथा के कुछ तुड़े मुड़े नोट्स
ताबीजों की तरह पड़े हैं
निर्वासन के अंधेरे कोनों में यहां।

अग्निशेखर की कविताएं मेरी जेबों से पक्की चिपक गई हैं, साथ साथ चलती हैं, जहां जहां रास्ता मुश्किल हो तो मेरा हाथ थाम लेती हैं। आराम करने बैठूं तो किस्से सुनाती हैं ये कविताएं और मुझे झट से उठकर चलना पड़ता है। मेरी सांसें तेज़ तेज़ चलने लगती हैं, समय भी मुझे छलने लगता है-

खुला था आसमान सुरंग से बाहर
और
हम उतरे पर्वतों से शरणार्थी कैम्पों में
फैल गए संविधान के फफोले तंबुओं में
बिलबिलाए कीड़ों की तरह
जलूसों में
धरनों में
हम उछले नारों में
दब गए अत्याचारों में।


अग्निशेखर की कविता आपको जगाए रखती है। यह पीड़ा से गुजर कर निकली आह जैसी होती है, दर्द को छुपाए रहती है-

हम जब लिखते हैं कविताएं
तो हंसते हैं ईश्वर
उधर पागलों ने छीन ली है
उसकी हंसी
पागल लिखते नहीं
जीते हैं कविताएं
और हंसते हैं ईश्वर पर।

कवि ने कठिन दिन जिये हैं, कठोर यथार्थ भोगा है।  अग्निशेखर संवेदनाओं और स्मृतियों से सराबोर कवि हैं-

मैं इस तारीख का क्या करूँ
पहुँचता हूँ बरसों दूर मातृभूमि में
सीढ़ियों पर घर की
फैल रहा है खून अभी तक
मेरी स्मृतियों में।

कवि की कविताएं हमारे समय की कविताएं हैं, इनका एक एक शब्द आप महसूस कर सकते हैं। विद्रोही तेवर की कविताएं अग्निशेखर की पहचान है-

अगर तुम नींद में नहीं चल रहे हो
तो जरूर कहीं सोए पड़े हो
और इस समय जागे होने का
सपना देख रहे हो।


अग्निशेखर की एक लंबी कविता का एक अंश यहां देना इसलिए आवश्यक लगता है कि यह पढ़ने से बहुत सारी बातें साफ़ होंगी कि क्या क्या खोया, क्या क्या ज़ुल्म सहे, क्या क्या हुआ जो टाला जा सकता था-

हर वर्ष 19 जनवरी के साथ बदलता है हमारा निर्वासन संवत्
हम न चाहते हुए भी
पहुँचते हैं 1990 की उस भयावह
हुआँ हुआँ करती घनी अंधेरी रात में
यह अंतिम रात थी
हमारे सामूहिक  लोकगीतों की
हमारे तीज त्योहारों की
हमारे अडोस पड़ोस के साझा दुख सुख की
यह अंतिम रात थी
जैसे प्राचीन पुलों के नीचे से
वितस्ता के बहने की
यह अंतिम रात थी
हमारे आँगनों में बर्फ के गिरने की
यह अंतिम रात थी
चिनारों के नीचे जाकर बैठने की
यह अंतिम रात थी।
 ००

परखः नौ को नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/07/blog-post_33.html?m=1
   
           

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