यात्रा वृतांत:
लाहुल स्पीती
(चंडीगढ़, शिमला, नारकंडा )
लाहुल स्पीती
(चंडीगढ़, शिमला, नारकंडा )
रश्मि रविजा
रश्मि रविजा |
भाग दो
लाहुल स्पीती
यात्रा वृतांत -- 3
( रेकॉंग पियो, काल्पा, नाको, टाबो )
( रेकॉंग पियो, काल्पा, नाको, टाबो )
सांगला के बाद
हमारा अगला पड़ाव काल्पा था. चंडीगढ़ से ही हमें खूबसूरत रास्ते मिल रहे थे पर
काल्पा तक का रास्ता तो वर्णनातीत था. काल्पा से पहले एक छोटा सा शहर है ,रेकौंग पियो (Reckong Peo ) . अगर 'लव एट फर्स्ट साईट' जैसा कुछ होता है
तो वो पहली बार महसूस किया मैंने. इस शहर को देखते ही मैं इसके प्यार में पड़ गई.
चारों तरफ से झुके झुके से पहाड़ ,उनके नीचे फूलों से लदे पेड़ और इन सबसे घिरा ये
खुबसूरत छोटा सा कस्बा. लिटरली पहाड़ों
की गोद में बसा लग रहा था .पहली
बार इच्छा हुई कि बस यहीं बस जाऊं. थोड़ी देर ही रुके वहां, चमचमाती सडकें थीं, बड़ी बड़ी दुकानें थीं....यानि अनुपम प्राकृतिक छटा के साथ सारी आधुनिक सुविधाएं
भी मौजूद थीं. एकाध घंटे वहाँ बिता बाद बड़े बेमन से हम कार में सवार हुए .
काल्पा
काल्पा पहुँच कर
होटल की खिड़की से पर्दा हटाया और सामने
नजर आती कैलाश किन्नर की बर्फ ढंकी
चोटियों ने विस्मय विमुग्ध कर दिया. इतने
पास से हिमालय की चोटियों को देखने का
पहला अवसर था.. काल्पा सतलज नदी के किनारे समुद्र तल से 9,711 फीट की उंचाई पर बसा हुआ है. यहाँ सेब और चिलगोज़े के बड़े बड़े बाग़ हैं. ऊँची नीची पहाड़ियों पर घर और होटल बने हुए
हैं. .यहाँ रहने वाले हिन्दू और बौद्ध
धर्म दोनों के अनुयायी हैं ,इसी वजह से बहुत भव्य मन्दिर और बौद्ध मठ हैं.
शिक्षा का स्तर काफी अच्छा है .करीब 83.75% लोग साक्षर हैं. काल्पा के साथ एक बहुत रोचक जानकारी जुडी
हुई है. भारत के पहले वोटर ''शायम शरण नेगी' काल्पा से ही थे
.२५ अक्टूबर १९५१ के सर्वप्रथम चुनाव में सबसे पहले वोट उन्होंने ही डाला था .
काल्पा से
टूरिस्ट 'चाक ट्रेकिंग' के लिए जाते हैं, सुंदर पेड़ पौधों और झरनों से घिरा ये छोटा सा ट्रेक है. ऊपर
से बहुत ही नयनाभिराम दृश्य देखने को मिलते हैं.
हिमाचल के ग्रामवासियों का जीवन करीब से देखने के लिए 'रोघी गाँव 'भी जाया जा सकता है. वहीँ बीच में सुसाइड पॉइंट भी है .वहाँ
से बहुत सुंदर सूर्योदय-सूर्यास्त दिखते हैं. शायद किसी ने आत्महत्या कर ली होगी
या फिर वहाँ से गिर कर बचा नहीं जा सकता,
शायद इसीलिए इसका नाम सुसाइड पॉइंट है. काल्पा
में बहुत ही पुराना 'नारायण नागिनी मन्दिर' और' हू-बू-लान-कार मॉनेस्ट्री' भी देखने योग्य हैं. ये मॉनेस्ट्री (950-1055 AD) में स्थापित किया गया था पर बाद में इसका नवीनीकरण भी होता
रहा है, क्यूंकि यह बहुत ही अच्छी
अवस्था में था . मॉनेस्ट्री शहर के बिलकुल बीच में है या शायद इसके गिर्द ही शहर
बस गए होंगें.खूब चटख रंगों में दीवारे पेंट की हुई थीं और रंगीन प्ताके,(प्रेयर फ्लैग्स ) बंधे थे .मॉनेस्ट्री देखते
हुए हम हम कस्बे के मार्केट की तरफ निकल गए. पतले से रास्ते के किनारे किनारे बने
लकड़ी के मकान .कुछ मकान बहुत ही जर्जर अवस्था में नजर आरहे थे.पता नहीं उसमें लोग
कैसे रहते होंगे .एक घर के बाहर चार महिलायें अपने काम से फुर्सत पाकर बैठीं गपशप
कर रही थीं .सबने हिमाचली टोपी पहनी हुई थी.मैं उनकी तस्वीरें लेने का लोभ संवरण
नहीं कर पाई.
मार्केट से निकल
कर हम नीचे जाने वाले सडक पर निकल गए. खुले में आते ही किन्नर कैलाश की खूबसूरत चोटी बिलकुल साफ़ नजर
आने लगी , देखकर ऐसा लगता, जैसे बिल्कुल पास ही हो .इस स्थान को शिव जी का
शीतकालीन प्रवास माना जाता है. . शायद जीवन की पहली सेल्फी मैंने किन्नर कैलाश के
साथ ली :) . सामने सर्पीला रास्ता और बिलकुल सुनसान पर किसी तरह का डर नहीं. इक्का
दुक्का लोग आते दिखते या फिर गाड़ी में सर्र से पार हो जाते. शाम ढल रही थी ,ढलान पर फैले चीड़ के वृक्षों के बीच से हवा
सिटी बजाती हुई निकल जा रही थी. इतना सुहाना लग रहा था कि मेरा लौटने का मन ही
नहीं हो रहा था और मैं नीचे उतरती चली गई .जबकि पता था ,वापसी में इतनी ही चढाई चढनी पड़ेगी पर उपाय सोच लिया था ,जब बिलकुल थक जाउंगी या अन्धेरा हो जाएगा तो
ड्राइवर को फोन कर बुला लूँगी . बेटे को
मेरा साथ देना पड़ा. कहते बुरा लग रहा है
पर शायद अपने जाने पहचाने शहरों में हम यूँ अन्धेरा होते वक्त सुनसान सडक पर नहीं
घूम पाते. हमारे पास महंगे मोबाइल फोन्स और महंगे
कैमरे भी थे पर पहाड़ों में ज़रा भी खतरा नहीं है . एक मित्र ने विस्तार से
व्याख्या कि थी कि पहाड़ में कम जनसंख्या होती है. पुलिस करीब करीब सबको जानती है.
फिर कोई वारदात, चोरी वगैरह करके
वे भाग भी नहीं सकते , सुरक्षा की इन
वजहों के साथ पहाड़ियों का ईमानदार होना भी एक बहुत बड़ा कारण है.अक्सर खाली सड़कों
के बिलकुल बीच में बैठकर ,या डांस का पोज
देते हुए लोगों की तस्वीरें देखी हैं. मैंने सोचा, मेरी उम्र वो सब करने नहीं पर हिमालय की चोटियों की
पृष्ठभूमि में घने जंगलों के बीच से गुजरती सडक पर योगा तो किया ही जा सकता अहै :)
और मैंने कई योग मुद्रा में फोटो खिंचवा लीं. जब बिलकुल ही अँधेरा हो गया तो
ड्राइवर आकर हमें वापस होटल ले गया. हमें एक घर के अहाते में नाशपाती से लदा एक
बहुत बड़ा पेड़ मिला. नाशपाती के पेड़ देखने का भी मेरा पहला अवसर था.सेब के पेड़ तो
हर गली कुचे में थे .
हिमाचल में मैंने
एक चीज़ गौर की.वहां बहुत शराब पीते हैं लोग .अब शायद निठल्लापन भी इसकी वजह
हो.पहाड़ों पर बहुत सुस्त जीवन है और ढेर सारा वक्त है .हर जगह सडक के किनारे खाली
बोतल पड़े हुए मिले. एक छोटे से टीले पर चढ़कर हमने फोटो लेने की सोची ,पर चढने के बाद देखा, एक पत्थर की आड़ में दो लोग शराब पी रहे हैं, हम झट से उतर गए.
टाबो
अगले दिन नाश्ते
के बाद अब हम 'टाबो' के लिए निकल पड़े. अब तक बहुत ही ख़ूबसूरत रास्ते मिल रहे थे
.दोनों तरफ सेब के पेड़, ढेर सारी हरियाली और कलकल बहती नदी.पर अब
डेजर्ट माउन्टेन' यानि पहाड़ों का रेगिस्तान
शुरू हो गया था . सडक भी बहुत खराब थी. ज्यादातर धूल और पत्थर भरी कच्ची सडक और
बहुत ही पतली ,पहाड़ के किनारे
बस एक गाड़ी चलने भर जगह. गाड़ी का एक तरफ का पहिया बिलकुल रास्ते के किनारे होता और
नीचे गहरी खाई . गाड़ी की स्पीड बीस-तीस से ज्यादा नहीं होती . कहीं कहीं नदी मिलती
भी तो बिलकुल मटमैले पानी वाली उफनती हुई। यह विश्व का सबसे लहटरनाक रास्ता है।यू
ट्यूब पर कई वीडियो हैं।देखकर कलेजा मुँह को आ जाता है और विश्वास नहीं होता
इन्हीं रास्तों
पर हम भी चलकर गए है . हमारे साथ ही एक गाड़ी और थी जिसमें तीन लडकियां और एक लड़का
था . ये लोग भी हमारी तरह ही लाहुल स्पीती ट्रिप पर थे.दोनों ड्राइवर की दोस्ती हो
गई थी और दोनों एक ही जगह चाय पानी के लिए गाड़ी रोकते. इस इलाके में हर होटल के
सामने हमें 'थुक्पा ' लिखा हुआ दिखता
.यहाँ की लोकल डिश है. हमने एक जगह ऑर्डर की .पतले से सूप में नूडल्स थे ,कुछ बारीक कटी सब्जियां डली थीं .हमें तो स्वाद
पसंद नहीं आया . उस रेस्टोरेंट को दो बहनें चला रही थीं ,बड़े इसरार से हमें खिला रही थीं पर हमसे पूरा खत्म नहीं
हुआ. हिमाचल में ज्यादातर स्त्रियाँ दुकानदार ही दिखीं. टाबो जाने के लिए हमें एक
पहाड़ के ऊपर जाकर फिर दूसरी तरफ नीचे उतरना था .पहाड़ पर गोल गोल गाड़ी चढ़ते देख
रोमांच हो रहा था. ऊपर हवाएं खूब ठंढी हुई जा रही थीं और बादल जैसे राह रोक ले रहे
थे. करीब 12,014 फीट की उंचाई पर
एक गाव 'नाको 'स्थित है. . नाको में हमने गरमागरम राजमा और
चावल खाया ..इतनी ऊँचाई पर ऐसा खाना खाकर मजा आ गया . कुछ ही देर में रेस्टोरेंट
कहकहों से गुलज़ार हो गया. किसी शादी से
लौटते हुए एक ग्रुप आया. सब रिश्तेदार बहुत चहक रहे थे . एक जैसे जेवर और
हिम्ह्क्ली टोपी पहने स्त्रियाँ बहुत सुंदर लग रही थीं. दूसरी कार वाले लोग 'नाको' में ही रुक कर अगले दिन 'टाबो' पहुँचने वाले थे. उनका ट्रिप तेरह दिन का था
जबकि हमार ग्यारह दिन का. नाको झील बहुत खूबसूरत है ,जिसे देखने से हम वंचित रह गए . पहाड़ पर से उतरते हुए मन
बड़ा उदास हो गया.
'टाबो' पहुँचते हमें शाम हो गई. टाबो 10,760 फीट की ऊँचाई पर स्थित है. इसलिए यहाँ अन्धेरा
8.15 के बाद ही होता है. ये
एक छोटा सा गाँव है. होटल पहुंच कर हमने बालकनी से एक अद्भुत नज़ारा देखा . आसमान
में चाँद टंगा हुआ था , पहाड़ों के नीचे
अंधेरा उतर आया था पर ऊपर के हिस्से सूरज की
रौशनी में नहाये हुए थे .यानि एक ही फ्रेम में चाँद, सूरज की रौशनी और
अंधेरा सब थे :) .पता चला हज़ार वर्ष पुरानी मॉनेस्ट्री बिलकुल पांच मिनट की दूरी
पर है . पतली गलियों से होते हुए हम 996 में स्थापित भव्य मॉनेस्ट्री द्वार तक पहुँच गए. यह स्पीती नदी के किनारे
स्थित है. इसकी भव्यता और शांति अभिभूत कर देती है. 1996 में दलाई लामा ने यहाँ 'कालचक्र समारोह'
का आयोजन किया था जिसमें दुनिया भर से बौध्द
भिक्षु आये थे . अन्धेरा हो गया था ,इलिए उनलोगों ने कमरे नहीं खोले .हमें अगले दिन सुबह आने के लिए कहा .हम बाहर
स यही घूम घूम कर मॉनेस्ट्री देखते रहे.मॉनेस्ट्री के पीछे बड़े बड़े स्तूप बने हुए हैं. हल्के घिरते अंधियारे में
एक विदेशी युगल हाथों में हाथ डाले बहुत गंभीरता से कुछ बातें करते टहल रहा था. एक
झाडी पर कई सारी गौरय्या चहचहा रही थीं, घड़ी देखी साढ़े सात बज गए थे ,पर पर्याप्त
उजाला था . काफी देर तक मॉनेस्ट्री की दिव्य शांति की अनुभूति ले हम लौट पड़े.
संकरे रास्ते पर मोबाइल का टॉर्च जलाना चाहा पर जरूरत नहीं थी. चटख चांदनी बिछी
हुई थी .
होटल में हमारे
बगल वाले कमरे में दो लडके ठहरे हुए थे .डिनर के वक्त देखा वे हाथ से दाल चावल खा
रहे हैं .मुझे लगा वे जरूर बिहार के होंगें.पर बात की तो पता चला, वे दक्षिण के हैं. दक्षिण में भी लोग हाथों से
ही दाल-चावल खाते हैं. दोनों लडके एक महीने की छुट्टी लेकर बैंगलोर से अपनी बाईक
पर निकल पड़े हैं. उन्होंने अपनी यात्रा की कोई रूपरेखा नहीं बनाई थी .जहाँ मन हो
जाता रुक जाते . रोहतांग से वे लद्दाख की तरफ निकल जाने वाले थे .
अगले दिन सुबह हम
फिर मॉनेस्ट्री में हाज़िर थे . आज उन्होंने सारे कमरे खोल कर दिखाए . मॉनेस्ट्री
की भीतरी दीवारों पर बुद्ध के जीवन से संबंधित भव्य विशाल पेंटिंग्स लगी हुई
थीं.जो सिल्क के कपड़ों पर की हुई है, पर उनका रंग वैसा ही बना हुआ है.छत भी
पेंटिंग से ढके हुए थे. उन सबको निरखते एक दिव्य अनुभूति हो रही थी. वहाँ से हमने
कुछ सुवेनियर्स खरीदे. एक सुंदर सी महिला की
दूकान थी. वहाँ हमने एक प्रेयर बाउल खरीदा . ये एक बड़ा सा कटोरा होता है,
जिसकी बाहरी सतह पर लकड़ी का एक छोटा सा स्टिक
धीरे धीरे फिराने से बहुत ही मधुर ध्वनि उत्पन्न होती है. इन ध्वनि की तरंगों पर
ध्यान लगाते हैं . हमने भी कर के देखा और
उस मधुर संगीत पर मुग्ध हो गए .पर जब मुंबई वापस आकर वही क्रिया दुहराई तो बड़ी
क्षीण सी आवाज़ निकली . हमें लगा हमने ठीक से नहीं किया पर बार बार लकड़ी फिराने के
बाद भी टाबो जैसी गूंजती आवाज़ नहीं निकली तब ध्यान आया .वह हिमालय की गोद में बसा
एक छोटा सा शांत गाँव था . फिजां बिलकुल शांत थी, कहीं कोई शोर नहीं. मुम्बई में खिड़की दरवाजे बंद करने के
बाद भी वातावरण में इतना शोर घुला हुआ है कि उतनी मधुर ध्वनि सुनाई पड़ ही नहीं
सकती . पर अब यही मधुर ध्वनि बहुत प्यारी
लगती है ,टाबो वाली ध्वनि हम भूल
चुके हैं :
लाहुल- स्पीती
यात्रा-वृत्तांत -- 4
(काज़ा, की मॉनेस्ट्री, किब्बर गाँव )
(काज़ा, की मॉनेस्ट्री, किब्बर गाँव )
टाबो से दस बजे
के करीब हम 'काज़ा' के लिए निकल पड़े. रास्ता वैसा ही भयावह था .
ऊँचे पहाड़ के किनारे किनारे कच्चे से संकरे रास्ते .एक तरफ खाई और दूसरी तरफ
पहाड़ों से गिरते छोटे छोटे पत्थर .
हरियाली का नामोनिशान नहीं . चारों तरफ सिर्फ भीमकाय पहाड़. यह सोच कि हम हिमालय के
अंदर ही अंदर पहाड़ों के बीच घूम रहे हैं, एक अलग सा रोमांच हो रहा था .
स्पीती नदी के
किनारे करीब 11,980 फीट की उंचाई पर
'काज़ा' स्थित है .यहाँ सम्भवतः स्पीती घाटी का सबसे
बड़ा मार्केट है. यहाँ एशिया का तीसरा सबसे उंचाई पर स्थित गाँव 'किब्बर' और एक पहाड़ी पर बना 'की मॉनेस्ट्री ' टूरिस्ट के लिए सबसे बड़ा आकर्षण है .हमार
ड्राइवर थका हुआ था .उसने कहा, 'आपलोग आज काज़ा मार्केट, बौध्द मठ वगैरह घूम लीजिये .अगले दिन किब्बर और की
मॉनेस्ट्री देखने चलेंगे . हम होटल में सामान रख तुरंत ही मार्केट की तरफ निकल
पड़े. बाज़ार सचमुच बहुत बड़ा था , हर तरह की चीज़ें
उपलब्ध थीं . चारों तरफ विदेशी टूरिस्ट नजर आ रहे थे . एक बड़े से ग्रुप में से एक
विदेशी बहुत अच्छी हिंदी बोल रहा था .उसने बड़े साफ़ हिंदी में कहा , 'पांच चाय देना' . एंटिक चीज़ों की एक बड़ी सी दूकान थी पर वहाँ हर चीज़ दो हज़ार
से ऊपर की थी. शायद विदेशियों के लिए ही थी . एक जगह बोर्ड लगा था ,'इजरायली डिशेज़ ' हमने भी एक अजीब से नाम वाला कुछ ऑर्डर किया.पाया वो
मैदे का मीठा चीला था .उसे डोसा के आकार
में मोड़कर उसके ऊपर चॉकलेट सॉस से सुंदर डिजाइन उकेरा गया था. (अच्छा ख़ासा महंगा
व्यंजन था ) .एक दूकान के बाहर कुछ कप्स बिक रहे थे, उसपर ड्रैगन की आकृति बनी हुई थी .चाय के कप्स खरीदने
की मुझे अजब सी खब्त है, खरीद लिए (और बाद में एक्स्ट्रा लगेज़ हो जाने
पर खुद को कोस रही थी )
हमने ड्राइवर को
लौटा दिया था और पैदल ही घूमते हुए होटल लौटने की सोच रखी थी . रास्ते में एक
सुंदर सा बौद्ध मठ था . सभी मठ खूब चटकीले रंग से पेंट किये हुए होते हैं, लाल ,सुनहरे ,हरे और नीले
रंग बंजर पहाड़ों के मध्य बहुत खूबसूरत लगते हैं . मठ में जर्मनी के एक
विदेशी युगल मिले. बातें होने लगीं, हम टाबो से आये थे और काज़ा ,रोहतांग पास
होते हुए मनाली जा रहे थे .इन युगल को
मनाली से काज़ा होते हुए टाबो जाना था .महिला रास्ते के बारे में पूछने लगीं.
उन्हें इन खतरनाक पहाड़ी रास्तों पर बहुत
डर लग रहा था .मैंने उन्हें आसान सा उपाय बताया ,'कानों में इयरफोन लगा, आँखें मूंदे बैठे
रहिये...आँखें खोलिए ही नहीं कि रास्ता
नजर आये ' पुरुष खूब हो हो
कर हंसे और बोले...''बिलकुल ऐसा ही
करना ' :)
मठ के पीछे एक
पहाड़ी थी और पहाड़ी पर एक मंदिर था .हमारे पास समय था ,मन्दिर में श्रद्धा से ज्यादा हमें उस पहाड़ी पर चढने और ऊपर
से पूरा 'काज़ा' देखने की इच्छा थी . सीढियां बनी हुई थीं पर
चट्टानों की ही और बहुत ही बेतरतीब .किसी तरह चढ़ ही गए . ऊपर से ढलते सूरज की
सुनहरी रोशनी में नहाया काज़ा देख मंत्रमुग्ध हो गए . दो तीन झबरीले कुत्ते भी
हमारे साथ ही आये थे . पहाड़ के लोग अपने कुत्तों का बहुत ख्याल रखते हैं. सब
कुत्ते हमें बहुत ही हृष्ट पुष्ट और सुंदर नजर आये .अपने यहाँ जैसे सडक पर घूमते
उभरी हड्डियों वाला एक भी कुत्ता नहीं दिखा . होटल की तरफ लौटते हुए अन्धेरा हो
गया था पर बादलों से लुका छिपी खेलते चाँद भरपूर रौशनी बिखेर रहा था .मैं तस्वीर
लेने की कोशिश कर रही थी. पास से गुजरते
एक बुजुर्ग सज्जन ने कहा, कल तस्वीर लेना...कल
पूर्णिमा का चाँद होगा .तस्वीर ज्यादा अच्छी आएगी ." मैं तो जैसे खुशी से झूम उठी .अगले दिन हम चंद्रताल
देखने जाने वाले थे यानि कि पूरे चाँद की रात हम चंद्रताल देख पायेंगे .ऐसा संयोग
देख ,अपनी किस्मत पर नाज़ हो
उठा (और इसका फल भी मिल गया ...आगे बताउंगी ) .
उन सज्जन का भी
एक होटल था पर लगभग खाली था .वह बाज़ार से कुछ दूरी पर था और सडक से नीचे .वे बहुत
चिंतित थे कि लोगों को उनके होटल के बारे में पता ही नहीं चलता .बहुत आग्रह से वे
हमें अपना अहोत्ल दिखाने ले गए .साफ़ सुथरे सभी सुविधाओं से युक्त सुंदर कमरे थे
.हमने उन्हें सलाह दी कि आप अपने होटल का ऑनलाइन विज्ञापन करें .दूर बैठे लोग
सिर्फ कमरा और होटल देखकर बुकिंग कर देते हैं . वे बुजुर्ग इतने नेट सैव्वी नहीं
थे फिर भी हमने उन्हें काफी समझाया .वे कितना कर पाए,नहीं पता .उनके कॉफ़ी के आग्रह को नम्रतापूर्वक ना कहना पड़ा
.अनजान जगह थी,रात हो रही थी और
हमें होटल वापस लौटना था .
दुसरे दिन जल्दी
ही तैयार हो हम ,'की मॉनेस्ट्री',
देखने निकल पड़े. ऊँची पहाड़ी पर बना यह किसी
धार्मिक स्थल से ज्यादा एक किले सा लगता
है. हज़ारों वर्ष पुराना ,स्पीती घाटी का
यह सबसे बड़ा मॉनेस्ट्री है. 13,668 फीट की उंचाई पर
स्थित इस मॉनेस्ट्री कि स्थापना 1000 AD में हुई थी. यहाँ लामाओं का प्रशिक्षण केंद्र भी है. दूर से यह घरों का एक
गुच्छा सा लगता है. एक के ऊपर एक बने ,एक दूसरे से सटे हुए ढेरों घर इस
मॉनेस्ट्री को एक अनोखा रूप प्रदान करते हैं. एक लामा हमें मोनेस्ट्री घुमाने ले
गए .अंदर बहुत सारे कमरे थे और एक बड़ा सा प्रार्थन भवन था .ध्यानावस्थित बुद्ध की
बड़ी सी मूर्ति थी. हमने भी आँखें बंद कर थोड़ी देर प्रार्थना की .वहाँ से लामा हमें
एक दूसरे प्रार्थना भवन में ले गए और एक
बिस्तर की तरफ दिखाया कि 'दलाई लामा'
जब भी आते हैं, यहीं पर आराम करते हैं. अद्भुत शांति थी चारों तरफ . कई
कमरों में घुमाते हुए वे हमें मॉनेस्ट्री की छत पर ले गए .वहाँ से चारों तरफ का
दृश्य अनिवर्चनीय था .एक तरफ बर्फ से लदी हिमालय की चोटियाँ ,दूसरी तरफ बहती हुई स्पीती नदी के किनारे फैली
विस्तृत घाटी ..."की गाँव' के छोटे छोटे घर और उसके सामने हरे भरे खेत .
अपूर्व दृश्य था .
वहाँ से घुमावदार
रास्ते से होते हुए हम 'किब्बर गाँव'
की तरफ बढे .यह एशिया का तीसरा सबसे अधिक ऊँचाई(14,200 फीट) पर स्थित गाँव है. शायद यह स्पीती घाटी का सबसे हरा
भरा क्षेत्र है. पहाड़ों पर खूब हरियाली फैली थी. सफेद दीवारों और लाल छतों वाले
करीब सौ घरों का एक छोटा सा गाँव है 'किब्बर' .यहाँ एक छोटा
अस्पताल और स्कूल भी हैं . गाँव में बिजली रहती है और छत पर लगा डिश एंटेना बता
रहा था कि कई घरों में टी वी भी है..गाँव से ऊपर दूर तक फैला समतल क्षेत्र है,जहां गाँव वाले खेती करते हैं .धान की फसल
लहलहा रही थी. घरों के बाहर याक के खाल और सींग भी सूखते दिखे. ठंढ नहीं थी पर
बहुत ही तेज हवा चल रही थी. एक बस से कुछ युवा आये हुए थे .वे लोग हाथ फैला ,शाहरुख और काजोल के पोज में गाना गाते हुए फोटो
खिंचवा रहे थे .सुदूर सफेद बर्फीली चोटियों के नीचे लाल छतों वाले घर और उनके
सामने फैले लहलहाते हरे खेत बहुत मनमोहक लग रहे थे. हमें देर तक वहीँ बैठे रहने का
मन था पर अब चंद्रताल के लिए निकलना था .सो वापस लौटना पड़ा रास्ते में पैदल चलते एक स्पेनिश युवा जोड़े ने लिफ्ट
मांगी .
.लड़की तो नान नक्श
और रंग से बिल्कुल भारतीय लग रही थी .वे
लोग ट्रेक करते हुए किब्बर गाँव तक गए थे पर वापस लौटते हुए उनका पानी खत्म हो गया था और सूरज
की तेज किरणें भी
बेहाल कर रही थीं . पूछने पर बताया कि उन्हें भारत बहुत अच्छा लगा और अक्सर आया
करेंगे (एक भारतीय से भारत में लिफ्ट और क्या कहते...वैसे अच्छा भी लगा ही होगा :
लाहुल -स्पीती
यात्रा वृत्तांत -- 5
(चंद्रताल )
(चंद्रताल )
काज़ा से हम चंद्रताल झील देखने के लिए रवाना हुए. इस
ट्रिप पर आने से पहले मैंने लाहुल स्पीती पर कुछ यात्रा संस्मरण पढ़े थे .उसमे सबसे
ज्यादा जिन स्थानों को देखने की इच्छा थी
वो था भारत-तिब्बत सीमा पर बसा अंतिम गाँव
'चितकुल' और 'चंद्रताल झील'. झील का सबने ऐसा
वर्णन किया था कि बस लग रहा था कब वो घड़ी आये और मैं झील के सामने हूँ . चंद्रताल
में चन्द्रभागा पहाड़ियों में स्थित चन्द्रा ग्लेशियर की वजह से हमेशा पानी भरा
रहता है . कहा जाता है कि युधिष्ठिर सशरीर
स्वर्ग जाने के लिए इंद्र के रथ पर सवार होकर
यहीं से चले थे . इस झील का पानी पल पल रंग बदलता है. कभी गहरा नीला,
कभी फिरोजी नीला तो कभी आसमानी .नीले रंग के हर
शेड इस पानी में दिखते हैं. पानी इतना साफ़ है कि बगल की हिमाच्छादित चोटयों की
परछाईं पानी में ऐसी लगती हैं मानो झील में ही कोई पहाड़ उग आया हो.
रास्ते में एकाध
विदेशी तो इन पहाड़ी रास्तों पर साइकिल से जाते दिखे. कुछ दूर जाने पर एक लम्बे
चौड़े ,बढ़ी हुई दाढ़ी और लम्बे
बालों वाले विदेशी ने गाड़ी को हाथ दिखाया . बिलकुल आदि मानव लग रहा था. हमने गाड़ी
रोक कर उन्हें और उनके पार्टनर को लिफ्ट दी . पुरुष ऑस्ट्रिया से थे और महिला
ऑस्ट्रेलिया की थीं. बातचीत होने लगी.पता
चला पुरुष का ये भारत का आठवां ट्रिप है .
वे हमारे देश के बारे में हमसे ज्यादा जानते थे ,सुदूर दक्षिण, उत्तरांचल, सभी जगहों के
छोटे छोटे शहरों का नाम वे इतनी सहजता से ले रहे थे कि हमें ही झेंप हो आई. मैं जब
भी विदेशियों को इस तरह घूमते देखती थी तो सोचती थी आखिर ये इतने लम्बे लम्बे
ट्रिप मैनेज कैसे कर लेते हैं. इसमें तो बहुत पैसे लगते हैं और नौकरी में इतनी
छुट्टी तो मिलती नहीं.अपने देश में तो यही देखती हूँ, मुश्किल से हफ्ते-पन्द्रह दिनों की छुट्टी लोग निकाल पाते
हैं . उनलोगों ने बताया कि वे नौकरी कर पैसे जमा कर लेते हैं और फिर घूमने निकल
जाते हैं. जिस देश में जाते हैं,वहाँ भी काम कर
लेते हैं. महिला ने बतया कि तमिलनाडू में पन्द्रह दिनों तक उसने वृक्षारोपण का
कार्य किया .फ्रांस में दोनों जन घोड़ों की देखभाल कर लेते थे .और फिर इनके ज्यादा
खर्चे भी नहीं. भी नहीं .वे लोग ज्यादा से ज्यादा लिफ्ट लेकर ही चलते हैं या फिर
बसों में सफर करते हैं. होटल में नहीं रुकते,अक्सर 'होम स्टे'
करते हैं. जिसमे बहुत कम पैसे लगते हैं. पर्यटन
स्थलों पर ;होम स्टे' का बहुत चलन है.
स्थानीय लोग अपने घर में एकाध कमरे यात्रियों को होटलों की अपेक्षा बहुत कम किराए
पर दे देते हैं .खाने का भी इंतजाम कर देते हैं. इस तरह उन्हें भी घर बैठे अच्छे पैसे मिल जाते हैं और
घुमक्कड़ लोगों के पैसे भी बच जाते हैं. 2 बजे के करीब हम 'लोसार' पहुँच गए. इन विदेशी युगल को वहीँ उतरना था
.वहाँ से वे मनाली जाने के लिए लिफ्ट का इंतज़ार करने लगे . स्टेफी को मेरी एक अंगूठी
बहुत अच्छी लगी .सफर में मैं हमेशा नकली टॉप्स, अंगूठी ही पहनती हूँ..कहीं गिर भी जाए तो चिंता नहीं. और
यूँ ही नहीं कहते नकली चीज़ें ज्यादा चमकती है. अंगूठी के नग की चमक स्टेफी को भा
गई थी. और मैंने वो अंगूठी उतार कर उसे पहना दी. वो बिलकुल घबरा कर ना ना कहने लगी
.फिर मैंने समझाया कि असली नहीं है, बहुत सस्ती है . स्टेफी बार बार गले
मिल कर थैंक्स कहने लगी . वो ऑस्ट्रियन भी मुस्करा रहा था.
मैंने ड्राइवर
सौरभ से कहा, 'यहीं खाना खा
लेते हैं पर वो बोला, 'नहीं नहीं आगे
खायेंगे ' .मैंने सोचा ,'ये तो इसी रास्ते पर आता जाता है...इसे ज्यादा
पता होगा,शायद इसकी कोई फेवरेट जगह
भी हो " .पर आगे ऐसा सुनसान और बीहड़
रास्ता था ,कि एक चाय की टपरी भी
नहीं थी .सौरभ का भूख से बुरा हाल था . हमलोग बिस्किट,नमकीन लेकर चलते थे. पर ऐसे सुनसान खतरनाक पहाड़ी रास्तों पर
धूप में मजदूरों को काम करते देख मुझे इतना बुरा लगता कि हर बार मैं गाड़ी रोक कर
उन्हें सबकुछ दे देती .बल्कि उन्हें देने के लिए ,स्पेशली जूस, बिस्किट वगैरह खरीद कर रखने भी लगी थी . थोड़ी देर पहले ही मैंने गुलाबी
दुपट्टे ओढ़े, कुम्हलाये चेहरे
वाली कुछ कोमलांगियों को सब दे दिया था .'कुंजुम पास ' के पास दूर से ही
रंग बिरंगे प्रेयर फ्लैग्स टंगे देख हमें आस बंधी .सौरभ ने कहा, 'यहाँ जरूर कोई ढाबा होगा' . पर वहाँ सिर्फ बड़े बड़े प्रेयर ड्रम्स जिन्हें गोल गोल घुमाते हैं ,लगे हुए थे .बुद्ध की एक मूर्ति थी और रंगीन
पताके टंगे हुए थे. हिमालय की सफेद चोटियाँ ,इतनी पास लग रही
थीं कि लग रहा था बस कुछ कदम की दूरी पर हैं (जबकि काफी दूर थीं ) .थोड़ी
फोटोग्राफी कर हम आगे चल दिए. लाहुल स्पीती के सारे रास्ते तो खराब ही हैं पर
चंद्रताल का रास्ता ख़ासा ऊबड़खाबड़ है .कई जगह रास्ते पर ही झरना बह रहा था .कहीं कहीं हमें उतर कर पैदल चल रास्ता
पार करना पड़ा. पानी इतना बर्फीला था कि दो
मिनट में ही जान निकल गई . चंद्रताल के पास पहुँचते दूर से ही कुछ टेंट नजर आने
लगे पर हमने कहा कि झील के बिलकुल पास वाले टेंट में रुकेंगे . हलांकि झील के पास
टेंट लगाने की मनाही है ताकि झील की
प्राकृतिक सुन्दरता बरकरार रहे और मानव
जाति उसे कोई नुक्सान ना पहुंचा सकें. यह एक बहुत ही अच्छा कदम है . थोडा और आगे
बढ़ने पर कई सारे रंग बिरंगे टेंट लगे हुए
दिखे..कहीं जीप ,मोटरसाइकिल ,
मिनी बस लगी हुई थी .काफी सारे लोग नजर आ रहे
थे . पूछने पर पता चाल, यही अंतिम पड़ाव
है.इसके बाद टेंट लगाने की मनाही है. तेंग
जिंग ने हमें टेंट दिखाया .हमने सामान रखा और उस से फरमाईश की जो कुछ भी सबसे
जल्दी बन सकता है, बना कर हमें
खिलाये 'उसने कहा, सब्जी डली खिचड़ी बनवा दे रहा है. हम सहर्ष
तैयार हो गए. मिनी बस के लोग 'चंद्रताल'
देखने
जाने के लिए बस में सवार हो रहे थे . सौरभ को भूख भी लगी थी और थोड़ी देर
में रात हो जाती. तेंग जिंग ने मेरी दुविधा देख कर कहा , ' आज तो पूर्णिमा है...चांदनी में चंद्रताल झील देखना एक
अनोखा अनुभव है ' कैम्प के सारे
लोग जायेंगे . वो लकडियाँ ले कर चलेगा. झील के किनारे कैम्प फायर भी होगा.
हम भी खुश हो गए
बल्कि अपने भाग्य पर इतराने ही लगे .अब
चारों तरफ नजर डाली . जहाँ टेंट लगा था वो जगह चारों तरफ पहाड़ियों से घिरी हुई थी
. लग रहा था कोई बड़ा सा कटोरा है और हम सब उसके अंदर चल फिर रहे हैं. घिरे खूब तेज हवा चल रही थी . मैं आँखें मूँद सब
आत्मसात करने की कोशिश कर रही थी. कभी सपने में भी नहीं सोचा था .आबादी से इतनी
दूर पहाड़ियों के मध्य खुले आसमान तले ऐसे टेंट में कभी रह पाउंगी .वहाँ सारी
सुविधाएं थी. एक बड़े से टेंट को डायनिंग हॉल का रूप दे दिया गया था . छोटी छोटी
चौकियों सी मेजें लगी हुई थीं..जमीन पर बैठकर खाना था .कुछ और युवा लडके लडकियां भी आ गई थीं. वे लोग मनाली से आ रहे थे
.एक नई चीज़ भी लगी और देखकर ख़ुशी भी हुई. लड़के लड़कियों का मिला जुला ग्रुप था .दो
ग्रुप मुंबई से ही थे. एक ग्रुप में तीन लडकियां और एक लड़का. एक में तीन लड़के और
एक लडकी थी.एक ग्रुप हैदराबाद से था उनमें पांच लडके और एक लडकी थी. हैदराबाद का
ग्रुप प्लान कर पूर्णिमा के दिन ही चंद्रताल देखने आया था .बाकियों का संयोग था .
खाना खा कर टेंट में थोड़ी देर आराम किया ,फिर चाय पी और आठ बजे के करीब बीस पच्चीस लोगों
का दल चंद्रताल झील की तरफ चल पड़ा....झील बिलकुल पास नहीं थी.
.थोड़ी दूर तक गाड़ी से जाकर फिर एक छोटी सी पहाड़ी और फिर
एक छोटा सा नाला पार कर झील के पास पहुंचा जा सकता था ..पूर्णिमा तो थी पर चाँद बादलों की ओट में
था .मैंने आशंका जताई तो तेंग जिंग ने कहा, 'अभी हवा चलेगी और बादलों को उड़ा ले जायेगी .मुश्किल से घंटे
भर में चाँद पूरी तरह निकल आएगा '.तेंग जिंग के साथ
काम करने वालों ने कम्बल ,लकडियाँ, मिटटी तेल की बोतल उठा रखी थी. झील अँधेरे में डूबी थी . मोबाईल के टॉर्च
से पानी देखा...पानी में हाथ डाला....पानी इतना ठंढा था ,मानो करेंट लग गया हो. तब तक लकड़ियों को जमा कर जला दिया
गया था और सब घेर कर बैठ गए थे . गाना बजाना भी होने लगा .तेंग जिंग के साथ के एक
छोटे लड़के ने बड़ी मीठी आवाज़ में एक के बाद एक पहाड़ी गाने सुनाये . पर मेरा मन नहीं
लग रहा था.बार बार नजर बादलों की तरफ चली जाती . सब मुझे आश्वस्त करते...बस थोड़ी
देर में ही बादल उड़ जायेगे . लेकिन घंटे पर घंटे गुजरते गए . ऐसे खुले में पहाड़ों
के बीच ,अनजान लोगों के साथ कैम्प
फायर करना भी कम रोमांचक नहीं था .पर मुझे तो चंद्रताल देखना था :( .आखिर घड़ी का
काँटा बारह पार कर गया तो हैदराबाद वाल
ग्रुप उठ गया .उन्हें सुबह मनाली के लिए निकलना था और रात में मनाली से दिल्ली की
बस पकडनी थी . उनके ड्राइवर और सौरभ में अच्छी दोस्ती हो गई थी .सौरभ ने कहा ,
'हम भी साथ ही निकल चलेंगे.रास्ते में कहीं गाड़ी
अटकी तो एक दूसरे की सहायता कर पायेंगे .'
मन मसोस कर मैं भी उठ गई .मुंबई वाल ग्रुप तेंग
जिंग के साथ वहीँ रुक गया .उन्हें काज़ा जाना था, सुबह निकलने की कोई जल्दी नहीं थी. मैंने सौरभ से कहा,
'जाने से पहले सुबह एक बार झील तक ले आना "
उसने हामी भरी . फिर मोबाइल के टॉर्च की रौशनी में हम वही नाला और पहाड़ी पार करते
टेंट में आकर सो गए .
हमलोग तो सुबह
उठकर झील से मिलने के लिए तैयार हो गए पर 'सौरभ महाशय' उठें ही ना.
तेंग्ज़िंग,उसके साथ के सारे लडके भी
सो रहे थे .जब दूसरा ग्रुप मनाली जाने के
लिए बिलकुल तैयार हो गया तो सौरभ हडबडाते हुए उठा और बड़े रुआंसे स्वर में बोला...' ऐसे रास्ते पर ड्राइव कर शरीर इतना थक गया था ,उठ नहीं पाया .अब अगर इनलोगों के साथ नहीं गए
और गाड़ी कहीं फंस गई तो बहुत मुश्किल
होगी. आपलोगों ने देखा ही है, दूर दूर तक दूसरी
गाड़ी नहीं दिखती .वैसे आप जैसा कहें, लेकिन गाड़ी चार चार घंटे फंसी रह जाती है. " उसकी बात सुन,.सब वापस जाने के लिए तैयार हो गए . उलटा मुझे
समझाते रहे, ' टेंट में रही,
बारह बजे रात में ट्रेकिंग की ,झील के के किनारे
कैप फायर किया, ये क्या कम है
" ....कम तो नहीं है फिर भी चंद्रताल तो नहीं देख पाई ना :( (मेरा छोटा बेटा
अपूर्व अपने दोस्तों संग 'चंद्रताल'
देख
आया ) शायद कभी मैं भी जाऊं .
लाहुल स्पीती
यात्रा वृत्तांत -- 6
(रोहतांग पास, मनाली )
(रोहतांग पास, मनाली )
मनाली के पास आते
ही सडकें अच्छी मिलने लगीं और आस पास सब कुछ धुंध में लिपटा हुआ .नीचे सारी घाटी
बादलों से ढकी नजर आ रही थी .मनाली में हमारा होटल माल रोड पर ही था . माल रोड पर
कोई ऑटो,कार कोई भी सवारी नहीं आ
सकती . ढेरों के ढेर लोग पैदल ही घूमते फिरते नजर आ रहे थे .हम भी होटल में फ्रेश
होकर नीचे आ गए . कहीं चाट खाते, कहीं कुछ शोपिंग
करते ,आइस्क्रीम खाते माल रोड
पर ही टहलते रहे . मालिश करने वाले हाथों में तरह तरह की तेल की शीशियाँ लिए घूम रहे थे .कई लोग उनसे अपने थके पैरों की
मालिश करवा थकान उतरवा रहे थे. यह देख अच्छा
लग रहा था ,भारतीयों में अब घुमने
का शौक काफी बढ़ गया है और लोग परिवार सहित घुमने निकलते हैं. घर के बड़े बुजुर्ग को
भी साथ लेकर चलते हैं . एक दस-पन्द्रह लोगों का ग्रुप था .हर उम्र के लोग थे
.उनमें एक बूढी महिला जो जरूर माँ और दादी माँ होंगी.उनके पैरों की मालिश करवाई जा
रही थी .पूरा परिवार उन्हें घेर कर खड़ा था और हंसी मजाक कर रहा था. बारह बजे रात
तक बहुत गहमागहमी थी ,बाद मे भी रही
होगी पर हम वापस होटल चले आये .
मनाली शहर 6,726 फीट की उंचाई पर कुल्लू घाटी के उत्तरी छोर के निकट व्यास
नदी की घाटी में स्थित है .यह हिमाचल प्रदेश
की पहाड़ियों का एक महत्वपूर्ण हिल स्टेशन है। प्रशासकीय तौर पर मनाली
कुल्लू जिले का एक हिस्सा है, जिसकी जनसंख्या
लगभग 30,000 है। यह छोटा सा शहर
लद्दाख और वहां से होते हुए काराकोरम मार्ग के आगे तारिम बेसिन में यारकंद
और खोतान तक के एक अतिप्राचीन व्यापार मार्ग का शुरुआत था।
मनाली और उसके
आस-पास के क्षेत्र भारतीय संस्कृति और विरासत के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि
इसे सप्तर्षि का घर बताया गया है। मनाली
शहर का नाम मनु के नाम पर पड़ा है। मनाली शब्द का शाब्दिक अर्थ "मनु का
निवास-स्थान" होता है। पौराणिक कथा है कि जल-प्रलय से दुनिया की तबाही के बाद
मनुष्य जीवन को दुबारा निर्मित करने के लिए साधु मनु अपने जहाज से यही पर उतरे थे।
मनाली को "देवताओं की घाटी" के रूप में जाना जाता है। पुराने मनाली गांव
में ऋषि मनु को समर्पित एक अति प्राचीन मंदिर हैं।
1980 के शेष दशक में
कश्मीर में बढ़ते आतंकवाद के बाद मनाली के पर्यटन को जबरदस्त बढ़ावा मिला. जो गांव
कभी सुनसान रहा करता था वो अब कई होटलों और रेस्तरों वाले एक भीड़-भाड़ वाले शहर
में परिवर्तित हो गया।
हिडिम्बा मन्दिर
लोगों ने बताय कि
हिडिम्बा मंदिर और मनु मंदिर तक पैदल ही जाया जा सकता है . हमने पैदल ही जाने का
निश्चय किया. ज़रा मनाली कि ऊँची नीची सुरम्य पहाड़ी रास्तों पर तसल्ली से घूमने का
मन था. माल रोड से मात्र दो किलोमीटर की दूरी
पर है .,यह मंदिर परिसर
ऊँचे ऊँचे घने देवदार के वृक्षों से घिरा हुआ है और मन्दिर तक का रास्ता बहुत ही
खूबसूरत बगीचे से होकर जाता है. मंदिर एक
ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है. ,हिडिम्बा मंदिर
पगोडा शैली में काष्ठ कला से निर्मित बहुत
ही प्राचीन मन्दिर है.इस मन्दिर का निर्माण १५५३ में हुआ था.मन्दिर की उंचाई लगभग
४० मीटर . चौकोर छत हैं और सबसे ऊपर शंकु सी आकृति पीतल से मढ़ी हुई है. मन्दिर के
बाहर और छत से कई जंगली जानवरों, बारहसिंघा आदि के
सींग टंगे हुए हैं.गर्भ गृह के अंदर हिडिम्बा देवी की प्रतिमा एक बड़े शिला के रूप
में विराजमान है.मनाली के लोग और कुल्लू राजवंश के लोग हिडिम्बा देवी को कुलदेवी के रूप में पूजते हैं.सदियों
से उनकी पूजा करते चले आ रहे हैं. हिडिम्बा मंदिर से कुछ ही दूरी पर घटोत्कच का
मंदिर भी है.
मन्दिर के बाहर
कुछ पहाड़ी औरतें रुई के बड़े गोले से खरगोश लेकर खड़ी थीं. वे सबसे जिद कर रही थीं
कि दस रुपये देकर खरगोश को लेकर फोटो खिंचवायें.हमलोगों की इच्छा नहीं थी .जब उन महिलाओं की तस्वीरें लेनी चाही तो
उनलोगों ने मुंह फेर लिया :) फिर मैंने भी दस रुपये देकर फोटो खिंचवा ली .
हिडिम्बा मन्दिर
के पास म्यूजियम ऑफ ट्रेडीशनल हिमाचल कल्चर है। इस संग्रहालय से हिमाचल के हस्तशिल्प तथा कला के नमूने खरीद सकते हैं।
मनु मंदिर
इसके बाद हम मनु
मंदिर की तरफ चले .मनु मंदिर बहुत उंचाई पर स्थित है, यह अक्सर बादलों से
घिरा रहता है. यहाँ से पूरी मनाली को देखा
जा सकता है.मंदिर लकड़ी और पत्थर से बना हुआ है और उसपर बहुत सुंदर नक्काशी की हुई है. जमीन संगमरमर का है. पुराणों के अनुसार
जब पूरा संसार जल प्रलय में डूब गया था तो मनु, सप्तऋषियों के साथ एक नाव पर सवार हो उंचाई पर स्थित मनाली
आ गए थे . और इसे अपना निवास स्थान बनाया. ये भी कहा जाता है कि ऋषियों ने यज्ञ कर एक स्त्री 'श्रद्धा ' का निर्माण किया और मनु और श्रद्धा के के सन्तान से इस संसार का निर्माण हुआ. हम सब मनु की सन्तान हैं. मनाली शब्द मनु + आलय से बना है यानि ये मनु का निवासस्थान है.
मनाली में माल
रोड से करीब चार किलोमीटर दूरी पर वशिष्ठ नामक एक छोटा-सा गांव बसा हुआ है। इस
गांव में मुनि वशिष्ठ और भगवान राम को समर्पित कई पुराने मंदिर हैं। ‘सतयुग में महाऋषि वशिष्ठ ने मनाली में रह कर
पूजा की थी। उनका एक आश्रम अयोध्या में भी था। भगवान राम के समय वे अयोध्या में रह
कर उनकी शिक्षा का काम देखते थे। उसके बाद वे पुन: मनाली आ गये थे। पांच हजार साल
पहले वे अंतर ध्यान हो गये। तब यह मूर्ति प्रकट हुई। जो इस मंदिर में स्थापित है।’यहीं पर ठंडे और गर्म चश्मे हैं, जहां आप भी स्नान कर सकते हैं। महिलाओं के लिए
बने कुण्ड में बहुत सारी स्त्रियाँ स्नान कर रही थीं. उनमे ज्यादातर विदेशी महिलायें थीं. मुझे
अल्बर्ट का कथन याद आ गया कि वे लोग होम स्टे करते हैं,सस्ते जगहों पर रहते हैं. होटल में नहीं टिकते कि नहाने की
अच्छी सुविधा हो.इसीलिए विदेशी,इन गर्म कुण्ड का
सबसे ज्यादा लाभ उठाते हैं. मैं तो सिर्फ पानी में पैर डालकर आ गई.
इसके बगल में राम
मंदिर है। यहां के पुजारी के अनुसार यह मंदिर लगभग चार हजार साल पहले बना था। १६००
ई० में राजा जगत सिंह ने इसका उद्घार किया।
पास में ही तिब्बती शरणार्थियों द्वारा 1960 में निर्मित गाधन थेकचोलिंग गोम्पा स्थित है।
पारम्परिक गोम्पाओं की तरह चटख सुनहरे और लाल रंग से सजे इस बौद्ध मंदिर में शाक्य
मुनि बुद्ध की प्रतिमा विराजमान है। गोम्पा की बाहरी दीवार पर तिब्बत में 1987 से 1989 के बीच चीनी कार्रवाई में मारे गए नागरिकों के नाम लिखे
हुए हैं। मंदिर बना हुआ है। जो कि १८०० साल पुराना कहा जाता है।
थोड़ी दूर पर ही
व्यास नदी के किनारे क्लब हाउस है . क्लब हाउस में मनोरंजन की बहुत सारी चीज़ें हैं
. पर मुंबई से हम खुले में पहाड़ों और नदी के सान्निध्य के लिएय आये थे. बंद कमरे
के अंदर एक पल भी बिताने की इच्छा नहीं थी. हम क्लब हाउस नहीं गए वहीँ.बहती व्यास
नदी के किनारे थोड़ी देर बैठकर वापस आ गए.
सुबह जल्दी ही हम
तैयार होकर चंडीगढ़ के लिए निकल पड़े. अब वापसी थी. पूरे रास्ते व्यास नदी साथ साथ
बहती रही. सडक के एक तरफ कलकल बहती साफ़ पानी वाली व्यास नदी और दूसरी तरफ पेड़ों के
झुरमुट. रास्ते में एक रेस्टोरेंट में हमने चाय पी. रेस्टोरेंट का ज्यादा हिस्सा
नदी पर ही बना हुआ था . ऐसा आभास हो रहा था मानो नाव पर बैठ कर चाय भजिये खा रहे
हों.इतना खूबसूरत रास्ता था कि मन हो रहा था ,चलते जाएँ और हमें चलते ही जाना था.आज पूरे दिन सफर ही करना
था. मंडी पहुँचते रात हो गई .वहीँ एक होटल
में हमने आराम किया और फिर अगली सुबह चंडीगढ़ के लिए निकल पड़े. मुंबई की फ्लाईट शाम
की थी पर हम काफी जल्दी पहुँच गए थे . चंडीगढ़ का मशहूर जुबली पार्क देखा, जहां अक्सर फिल्मों की शूटिंग होती है. पार्क
बहुत खूबसूरत था पर पर पार्क शाम को ही घूमना चाहिए, दिन की चटख धूप में नहीं. फिर भी हमारी तरह कुछ और सिरफिरे
भी घूम रहे थे थे ,पता नहीं उनकी
क्या मजबूरी थी,हमें तो समय
काटना था .
एयरपोर्ट पर पता चला हमारा लगेज ज्यादा हो गया
है . टाबो से, प्रेयर बाउल, लोहे और काष्ठ की कुछ आकृतियाँ, काज़ा से चाय के कप्स, मनाली से भी लकड़ी
का मध्यम आकार का सजाने के लिए एक प्रेयर
ड्रम ( ,जिसके भीतर हज़ार बुद्ध
मन्त्र लिख कर रखे हुए होते हैं. ऐसी मान्यता है कि ड्रम को एक बार घुमाने का अर्थ
है, हज़ार मन्त्रों को पढ़ लेना
.इसी से पूरे हिमाचल में जगह जगह बीच सडक ,चौराहे पर प्रेयर ड्रम्स लगे हुए हैं
और आते जाते लोग इन्हें क्लॉकवाइज़ घुमाते रहते हैं.) सेबों की तीन पेटियां जिनमें चार चार किलो सेब थे ,खरीद लिए थे . बाक़ी सारे सामान तो अटैची के
अंदर थे .सेब ही बाहर थे . (शुक्र है सतलज नदी के किनारे से चुने सुंदर आकृति वाले
गोल-चिकने पत्थर गाड़ी में ही छूट गए थे,वरना कुछ वजन वे और बढ़ा देते .अधिकारी ने छह हजार का बिल बना कर दे दिया.
जितने का सामान नहीं ,उतने का तो ले
जाने का किराया हो जाता. मन मसोस कर सेबों को ही छोड़ देने का निश्चय किया .सोचा था ,पड़ोसियों को, दोस्तों को ताजे-मीठे हिमाचली सेब
खिलाऊँगी पर सोचा कब पूरा होता है. उदास मन से वहीँ ट्रॉली में पड़े सेबों को
निहारते वापस चले आये
00
समाप्त
यात्रा वृत्तांत की पहली कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए
यात्रा वृत्तांत: लाहुल स्पीती यात्रा-1 भाग एक
http://bizooka2009.blogspot.com/2018/07/1_22.html
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परिचय
रश्मि रविजा
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आलेख एवं कहानियाँ प्रकाशित।
आकाशवाणी मुंबई से कहानियों एवम वार्ताओं का नियमित प्रसारण।
उपन्यास 'काँच के शामियाने ' ,
महाराष्ट्र साहित्य अकादमी के प्रथम पुरस्कार से पुरस्कृत।
Sarthak yatra
जवाब देंहटाएंवाह..यात्रा वृतांत इतना सजीव है कि आपके साथ हमारी भी यात्रा हो गयी और पढ़ते हुए चंद्रताल में चाँद न दिखना अखर गया...सेब का छूट जाना भी पर वो सेब शायद वहीं रहना चाहते होंगें।
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