मैं क्यों लिखता हूँ ?
निरंजन श्रोत्रिय
शायद नब्बे के दशक का कोई साल था। उज्जैन में कहानी पर प्रभाकर श्रोत्रिय ने साहित्य परिषद का एक आयोजन "कथा कुम्भ" आयोजित किया था जिसमें देश के सभी नामचीन कथाकार इकट्ठे हुए थे। उस आयोजन में राजेंद्र यादव ने एक सत्र में ढाई घंटे का भाषण दिया था - समकालीन लेखन पर। मुद्दा उन्होंने वह भी उठाया जो अपनी पत्रिका "हंस" में एक बहस के जरिये उठाया था --न लिखने के कारण। राजेन्द्र जी का वह भाषण सुनने योग्य था, साहित्य की एक धरोहर की तरह। उन्होंने कहा कि अधिकांश लेखक कह रहे हैं कि "नहीं! हम तो लिख रहे हैं, लिखते रहेंगे वगैरह।" तब राजेंन्द्र जी ने इस बहस का मर्म समझाया था कि जब लेखक के सामने ऐसी स्थितियां आ जाए कि उसे लगे कि उसके लिखने से कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा तो उसका लिखना लगभग न लिखने के बराबर है तो बात उस लेखकीय डिप्रेशन की है। उस अवसाद को तोड़ने की, उसकी पड़ताल की पहल थी यह। मैंने वह भाषण प्रत्यक्षतः सुना था और राजेंद्र यादव को गले लगाने का मन हुआ था।
दरअसल "मैं क्यों लिखता हूँ" के मूल में "न लिखने के कारण" हमेशा विद्यमान रहते हैं, रहेंगे बशर्ते इसे आप विरोधाभासी वक्तव्य न मान कर अनुपूरक वक्तव्य मानें। लिखने और उसके प्रभाव को लेकर मेरे पास सैकड़ों उद्धरण हैं। लेकिन ये कोई सामान्यीकृत वक्तव्य नहीं है। हर लेखक के पास लिखने के अपने तर्क-कुतर्क होते हैं।
तो सवाल जब निजी स्तर पर हो तो यह सवाल कहीं न कहीं बड़ा भी हो जाता है। यहाँ पर उस लेखक का निजी व्यक्तित्व, प्रतिबद्धता, प्रयोजन सभी केंद्र में होंगे। उन पर विचार करना भी ज़रूरी होता है। इन्हीं विचार पद्धतियों ने साहित्य में "स्वान्तः सुखाय" और "परिजन हिताय" तथा "कला कला के लिए" या "कला बदलाव के लिए" जैसी बहसों को भी जन्म दिया।
अब इन सभी चीजों को एक तरफ रख कर हमारे समय के ज़रूरी कथाकार सत्यनारायण पटेल का दो टूक सवाल रखूं कि आखिर मैं क्यों लिखता हूँ तो जवाब है कि मैं नहीं जानता। यह अजीब ज़रूर है लेकिन जब संत आगस्टीन से जब पूछा गया कि बताएँ कि समय क्या है? तो उन्होंने कहा कि हाँ मैं जानता हूँ कि समय क्या है, लेकिन तभी तक जब तक कोई यह सवाल मुझसे न पूछे।
दरअसल मेरे लिए लिखना सांस लेने की तरह है।
यह ज़रूरी है जीवन के लिए। लेकिन यह भी सही कि मैं हर वक़्त नहीं लिखता। तो जब नहीं लिखता तो उस समय मैं जी नहीं रहा होता। मेरा मानना है कि कोई भी कला किसी भी बदलाव/क्रांति में अपनी प्रत्यक्ष भूमिका नहीं निभाती। आप एक जलती हुई कविता लिख देंगे और लोग आपके पीछे मशाल लेकर निकल पड़ेंगे, यह विचार ही मूर्खतापूर्ण है। लेकिन हर कला रूप की चाहे वह कविता, कहानी, नाटक, संगीत, चित्रकला, फोटोग्राफी या पत्रकारिता हो (जी हाँ पत्रकारिता भी) उसकी इस बदलाव में भले ही परोक्ष मगर ज़बरदस्त भूमिका होती है। इतिहास इसका गवाह भी है। मुझे अपने साहित्यिक कर्म चाहे वो कविता, कहानी या संपादन (खासकर युवा कविता-स्तम्भ रेखांकित), मुझे लगता है कि मैं इस बदलाव की परोक्ष भूमिका का एक छोटा-सा हिस्सा हूँ। एक सवाल जो मुझसे (और भी लेखकों से) पूछा जाता है कि आप लिख कर क्या कर लेंगे? मेरा जवाब सिर्फ़ यह है कि फिर न लिख कर क्या कर लेंगे?
तो बस!इसीलिए लिखता हूँ, अपने लिखे की उपेक्षा, अवमानना और अपमान के बाद भी लिखता हूँ। क्योंकि यदि नहीं लिखूँगा तो यह अधिक अपमानजनक होगा, अपने होने पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता।
ऐसे कई सवाल हैं जो किए जाने चाहिए थे मगर नहीं किए गए।
औरों ने नहीं किए मगर मैंने भी नहीं किए। मेरे इस न किए गए सवाल का कन्फेशन भी मेरा लेखन है, लेकिन यह सुविधाजनक वक्तव्य कतई नहीं है। क्योंकि यह कंफेशन तो मैं प्रतिरोध की भाषा में लिख ही चुका। तो न लिखने का कारण ही मेरे लिखने का कारण है। दुर्भाग्य यह कि मेरे इस वक्तव्य की पक्ष-विपक्ष में व्याख्या करने वाले राजेन्द्र यादव अब नहीं हैं। होते भी तो क्या व्याख्या करते! यह अलग सवाल है, मगर मुझे लगता है कि शायद करते। मेरी एक कहानी को "हंस" में छापने के पहले उन्होंने मुझसे इतनी बहस की कि क्या कहूँ। यह दीगर बात है कि उस कहानी नंगा आदमी को छापने के बाद 'हंस' के अगले अंक के संपादकीय की शुरुआत ही उन्होंने इस कहानी से की।
लिखने से न प्रतिष्ठा मिलती है, न पैसा! फिर भी अपनी नींद में अटकी हुई कोई पंक्ति रात दो बजे उठा कर कलम पकड़ने को मजबूर कर देती तो मुझे लिखना पड़ता है।
निरंजन श्रोत्रिय
शायद नब्बे के दशक का कोई साल था। उज्जैन में कहानी पर प्रभाकर श्रोत्रिय ने साहित्य परिषद का एक आयोजन "कथा कुम्भ" आयोजित किया था जिसमें देश के सभी नामचीन कथाकार इकट्ठे हुए थे। उस आयोजन में राजेंद्र यादव ने एक सत्र में ढाई घंटे का भाषण दिया था - समकालीन लेखन पर। मुद्दा उन्होंने वह भी उठाया जो अपनी पत्रिका "हंस" में एक बहस के जरिये उठाया था --न लिखने के कारण। राजेन्द्र जी का वह भाषण सुनने योग्य था, साहित्य की एक धरोहर की तरह। उन्होंने कहा कि अधिकांश लेखक कह रहे हैं कि "नहीं! हम तो लिख रहे हैं, लिखते रहेंगे वगैरह।" तब राजेंन्द्र जी ने इस बहस का मर्म समझाया था कि जब लेखक के सामने ऐसी स्थितियां आ जाए कि उसे लगे कि उसके लिखने से कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा तो उसका लिखना लगभग न लिखने के बराबर है तो बात उस लेखकीय डिप्रेशन की है। उस अवसाद को तोड़ने की, उसकी पड़ताल की पहल थी यह। मैंने वह भाषण प्रत्यक्षतः सुना था और राजेंद्र यादव को गले लगाने का मन हुआ था।
निरंजन श्रोत्रिय
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दरअसल "मैं क्यों लिखता हूँ" के मूल में "न लिखने के कारण" हमेशा विद्यमान रहते हैं, रहेंगे बशर्ते इसे आप विरोधाभासी वक्तव्य न मान कर अनुपूरक वक्तव्य मानें। लिखने और उसके प्रभाव को लेकर मेरे पास सैकड़ों उद्धरण हैं। लेकिन ये कोई सामान्यीकृत वक्तव्य नहीं है। हर लेखक के पास लिखने के अपने तर्क-कुतर्क होते हैं।
तो सवाल जब निजी स्तर पर हो तो यह सवाल कहीं न कहीं बड़ा भी हो जाता है। यहाँ पर उस लेखक का निजी व्यक्तित्व, प्रतिबद्धता, प्रयोजन सभी केंद्र में होंगे। उन पर विचार करना भी ज़रूरी होता है। इन्हीं विचार पद्धतियों ने साहित्य में "स्वान्तः सुखाय" और "परिजन हिताय" तथा "कला कला के लिए" या "कला बदलाव के लिए" जैसी बहसों को भी जन्म दिया।
अब इन सभी चीजों को एक तरफ रख कर हमारे समय के ज़रूरी कथाकार सत्यनारायण पटेल का दो टूक सवाल रखूं कि आखिर मैं क्यों लिखता हूँ तो जवाब है कि मैं नहीं जानता। यह अजीब ज़रूर है लेकिन जब संत आगस्टीन से जब पूछा गया कि बताएँ कि समय क्या है? तो उन्होंने कहा कि हाँ मैं जानता हूँ कि समय क्या है, लेकिन तभी तक जब तक कोई यह सवाल मुझसे न पूछे।
दरअसल मेरे लिए लिखना सांस लेने की तरह है।
यह ज़रूरी है जीवन के लिए। लेकिन यह भी सही कि मैं हर वक़्त नहीं लिखता। तो जब नहीं लिखता तो उस समय मैं जी नहीं रहा होता। मेरा मानना है कि कोई भी कला किसी भी बदलाव/क्रांति में अपनी प्रत्यक्ष भूमिका नहीं निभाती। आप एक जलती हुई कविता लिख देंगे और लोग आपके पीछे मशाल लेकर निकल पड़ेंगे, यह विचार ही मूर्खतापूर्ण है। लेकिन हर कला रूप की चाहे वह कविता, कहानी, नाटक, संगीत, चित्रकला, फोटोग्राफी या पत्रकारिता हो (जी हाँ पत्रकारिता भी) उसकी इस बदलाव में भले ही परोक्ष मगर ज़बरदस्त भूमिका होती है। इतिहास इसका गवाह भी है। मुझे अपने साहित्यिक कर्म चाहे वो कविता, कहानी या संपादन (खासकर युवा कविता-स्तम्भ रेखांकित), मुझे लगता है कि मैं इस बदलाव की परोक्ष भूमिका का एक छोटा-सा हिस्सा हूँ। एक सवाल जो मुझसे (और भी लेखकों से) पूछा जाता है कि आप लिख कर क्या कर लेंगे? मेरा जवाब सिर्फ़ यह है कि फिर न लिख कर क्या कर लेंगे?
तो बस!इसीलिए लिखता हूँ, अपने लिखे की उपेक्षा, अवमानना और अपमान के बाद भी लिखता हूँ। क्योंकि यदि नहीं लिखूँगा तो यह अधिक अपमानजनक होगा, अपने होने पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता।
ऐसे कई सवाल हैं जो किए जाने चाहिए थे मगर नहीं किए गए।
औरों ने नहीं किए मगर मैंने भी नहीं किए। मेरे इस न किए गए सवाल का कन्फेशन भी मेरा लेखन है, लेकिन यह सुविधाजनक वक्तव्य कतई नहीं है। क्योंकि यह कंफेशन तो मैं प्रतिरोध की भाषा में लिख ही चुका। तो न लिखने का कारण ही मेरे लिखने का कारण है। दुर्भाग्य यह कि मेरे इस वक्तव्य की पक्ष-विपक्ष में व्याख्या करने वाले राजेन्द्र यादव अब नहीं हैं। होते भी तो क्या व्याख्या करते! यह अलग सवाल है, मगर मुझे लगता है कि शायद करते। मेरी एक कहानी को "हंस" में छापने के पहले उन्होंने मुझसे इतनी बहस की कि क्या कहूँ। यह दीगर बात है कि उस कहानी नंगा आदमी को छापने के बाद 'हंस' के अगले अंक के संपादकीय की शुरुआत ही उन्होंने इस कहानी से की।
लिखने से न प्रतिष्ठा मिलती है, न पैसा! फिर भी अपनी नींद में अटकी हुई कोई पंक्ति रात दो बजे उठा कर कलम पकड़ने को मजबूर कर देती तो मुझे लिखना पड़ता है।
लिखने न लिखने के अकादमिक कारणों से गुजरते हुए कुछ दीगर सवाल लिखने और न लिखने के रिक्त समय पर अंगुली रखने को विवश करते हैं। लिखना और उतना ही न लिखना दोनों ही अकादमिक बहस के बाहर के सवाल हैं और सवाल जीवन के ठोस यथार्थ को मानवीय बनाने के संदर्भ में उठाते जाना चाहिए।
जवाब देंहटाएंBahut badhiya
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार
जवाब देंहटाएं"दरअसल मेरे लिए लिखना सांस लेने की तरह है।" वाह सर वाह । ये instinct आपको साधारण से अप्रतिम की ओर ले जाती है। शुभकामनाएँ । शांति
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