डायरी:
कनॉट प्लेस
कबीर संजय
एक
गाली
शराबी की कसम अक्सर ही दिन भर भी नहीं टिकती। रात को अगर ज्यादा हो जाए तो शमशानी वैराग्य जाग जाता है। यार, इतनी ज्यादा नहीं। ऐसे तो ज्यादा दिन नहीं चल पाएगा। बस अब नहीं। हैंगओवर से सुबह मूड खराब रहता है। चिढ़चिड़ा मन कसम उठा लेता है। अब नहीं पीऊंगा इतनी। लेकिन, सुबह का संकल्प शाम तक ऐसे ही कमजोर पड़ जाता है। पता नही सुबह का भूला शाम को आने वाली कहावत इस पर लागू कर भी सकते हैं कि नहीं।
कबीर संजय |
शाम होती जाती है। दिन भर की सर्दी-गर्मी, रोजी-रोटी दिमाग पर तमाम ऐसी परतें चढ़ा देती है कि उस तरफ कदम खुद ब खुद चल पड़ते हैं, जिधर दुकान होती है। सारे संकल्प ऐसे पिघलते हैं जैसे जरा सी आंच पाकर घी। ऐसा ही उस दिन भी हुआ। पिछली रात ज्यादा हो गई थी। नशे में नींद आ गई। पर नशे के उखड़ने के साथ ही नींद भी उखड़ गई। नशा चाहे कोई भी हो, उसका उखड़ना आदमी को तोड़ देता है। अधनींद में ही अपनी सौ-सौ लानतें-मलामतें करने लगा। आखिर जरूरत क्या है इतनी पीने की। अब क्या तुम रोज पीयोगे। ऐसी क्या आग लगी है। सेहत तो जब खराब होगी. तब होगी। इतना पीने के लिए पैसे भी तो चाहिए। मर जाओगे। रात घर लौटते समय कदम भी ठीक से उठ नहीं रहे थे। मेट्रो में अक्सर ही लोगों की उल्टियों के निशान दिखाई पड़ जाते हैं। खुद तुम्हारी भी हालत ऐसी ही होने वाली है। उल्टियों से सने, गिरे पड़े होओगे कभी। लोग नाक-भौं सिकोड़ते, मुंह फेरकर निकल जाएंगे।
जाहिर है कि मन जब अपने ही मन को इतनी मलामतें देने लगता है तब मन के पास कोई बचाव भी नहीं रहता। तो सुबह उठते-उठते यह संकल्प तो पक्का हो गया। कि नहीं, अब नहीं। इतनी कभी नहीं। ऐसे रोज-रोज नहीं। कभी-कभार पिया करेंगे। वो भी दोस्तों के साथ। ऐसे अकेले-अकेले बैठकर नहीं। ऐसे ही इंसान पियक्कड़ हो जाता है। उसके पतन की शुरुआत हो जाती है।
पर शराबी की कसम दोपहर भर से ज्यादा टिकती है कहीं। दफ्तर खत्म हुआ तो कदम खुद ब खुद उसी तरफ बढ़ चले। खुद को मन में समझाता भी चल रहा था। नहीं, पीना नहीं है। थोड़ी देर बैठकर राम झरोखे जग का मुजरा देखेंगे। फिर चले जाएंगे। अक्सर ही घर इतना ज्यादा आकर्षित नहीं करता कि कदम खुद ब खुद उसकी तरफ चले जाएं। कनॉट प्लेस के एन ब्लाक के मिड सर्कल में शाम होते ही कई अंधेरे कोने अपनी बदमाशियों से रौशन हो जाते हैं। बीयर की बोतल अपने मुंह में लगाए कोई किसी खंबे की ओट लिए खड़ा है। शर्मदार को तिनके की ओट काफी होती है। जो शर्मदार नहीं है। उन्होंने खुले में अपना बार भी सजा लिया है। प्लास्टिक के गिलास में जब व्हिस्की का वो खास रंग उतरता है, तो पीने वालों की आंखों में खुशियों की कलियां खिलने लगती हैं। हर किसी का अपना तरीका है। मेरा तरीका भी अपना है। शराब की दुकान में भीड़ ऐसी थी कि अगर आज नहीं खरीद ली तो पता नहीं कल से शराब मिलेगी भी कि नहीं। धकियाता हुआ हर कोई पहले अपना पैसा पकड़ाने और अपनी मनचाही बोतल हासिल करने की फिराक में था।
अपने को भी आदत है। किसी न किसी तरह पैसा पकड़ाकर अपना वाला हासिल कर ही लेते हैं। वोदका का एक क्वार्टर लिया। बगल की दुकान से पानी की बोतल। बोतल से थोड़ा पानी खाली करने के बाद वोदका उसी में उड़ेल दी। बस अब यह पैग तैयार हो गया। उसी के घूंट चटकते हुए कनॉट प्लेस की एक बेंच पर आकर बैठ गया। अपना मजाक उड़वाने में भी मजा कुछ कम नहीं। खासतौर पर जब अहमन्यता एक स्तर के ऊपर चली जाए। सामने फर्जी कैफे का बोर्ड लगा है। बताइये फर्जी कैफे। क्या कॉफी भी फर्जी होगी। एक तिकोने पर माई बॉर का बोर्ड भी दिख रहा है। कनॉट प्लेस के सस्ते बॉर में इसका नाम भी शामिल है। इसलिए हमेशा ही भीड़ लगी रहती है। कई बार तो सीट के लिए बाहर लोग इंतजार भी करते हैं। खैर अपने को क्या। अपन तो बोतल से घूंट-घूंट वोदका चसकते जा रहे हैं और राम झरोखे बैठकर जग का मुजरा देखते जा रहे हैं।
शराब की तासीर भी सब पर अलग-अलग होती है। हमारे लिए तो इसकी तासीर खासी बुरी है। इधर ढक्कन खुला नहीं, उधर आंखों में खुमारी लोटने लगती है। दो-चार घूंट के बाद दिमाग ‘इन टू द हैवेन’ हो जाता है। सारी दुनियावी चिंताएं काफूर होने लगती है। अरे साला, हम ये सब सोचने के लिए नहीं है। जो होगा, देखा जाएगा। ये दुनिया साली पीतल की है, बेबी डॉल मैं सोने की। इसके चक्करों में पड़ोगे तो यूंही मरते रहोगे। हर दिन। इसलिए ज्यादा सोचने से क्या होगा। मेरे साथ-साथ सीपी के माहौल में भी खुमारी छाने लगी थी। सामने जमीन पर पोस्टर बिछाकर बेचने वाला बैठा था। एक लड़की उसमें से हर एक पोस्टर को हाथों से उठा लेती। आंखों से उसे तौलती। हाथों से उसे तौलती। फिर खुद तौलकर अपने प्रेमी को पकड़ा देती। प्रेमी इसलिए कह रहा हूं कि पति तो शायद ही इतने धैर्य के साथ इस पर तवज्जो दे पाता। प्रेमी उस पोस्टर को लेकर आंखों ही आंखों में तौलता रहता। कैसा लगेगा। तब तक लड़की की पसंद बदल चुकी होती। अब वो दूसरा पोस्टर उठाकर अपनी नजरों और हाथों से तौलने लगती।
पीछे कनॉट सर्कल की पार्किंग में एक जोड़ा कार की डिक्की से अपनी कमर टिकाए हुए था। कोई चौदह-पंद्रह साल की लड़की ने खूब डार्क लिपिस्टिक से अपने होंठ रंगे हुए थे। बाल खुले हुए। माथे पर आ जाने वाली जुल्फों की एक लट को बार-बार झटककर वह पीछे करना नहीं भूल रही थी। बीस-बाइस साल का युवक उसके हाथों को अपने हाथों में पकड़े हुए था। बीच-बीच में वह उसके गालों को हाथ में लेकर चिकोटियां सी काटने लगता था। दोनों एक दूसरे में डूबते जा रहे थे। लड़की को फुसलाने की कवायद में लड़का सफल होता जा रहा था। दोनों कभी गले भी लग जाते और देर तक एक-दूसरे से चिपके रहते। उनके पैर और कमर भी एक-दूसरे से चिपकते जा रहे थे। दूर खड़े दो लड़कों की निगाह सीपी में बस उन्हीं टिकी हुई थी। सिगरेट को अपने हाथों में लेकर वे उसके कश ऐसे भर रहे थे और धुआं ऐसे छोड़ रहे थे कि लगता था कि बस आह ही निकल जाएगी। उनसे बेखबर लड़का और लड़की का फेवीकोल और मजबूत होता जा रहा था। तभी उधर से गुजर रहे दो-तीन लड़कों के समूह ने थोड़ा तेज आवाज में फिकरा कस दिया, यहीं पर दे दोगी आज तुम। घर जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। ले भाई। ले-ले, जब देने को तैयार ही बैठी है तो।
जोड़े ने उनकी बातों पर कान नहीं दिया। उत्तेजना से दोनों के गाल सुर्ख होकर तपने लगे थे। इस रंग के बाद उनपर कोई दूसरा रंग इतनी जल्दी कैसे चढ़ जाता।
रामझरोखे बैठकर मैं जग का यह सब मुजरा देख ही रहा था कि एक सज्जन मेरी बेंच पर मेरी बगल में आकर बैठ गए। कुछ देर आस-पास देखकर कसमसाते रहे। फिर मेरी बोतल की तरफ इशारा करके बोले—
सर, थोड़ा पानी मिलेगा।
पानी नहीं है भाई ये, मैं बोला।
पानी, बोतल है तो जी।
हां, बोतल है लेकिन पानी नहीं है।
तो क्या है।
वोदका है।
ओह-हो। वोदका है।
जानकर शायद उन्हें कुछ हैरत हुई। गौर से बोतल को देखते रहे। मैंने अपनी बोतल उठाई और उसका एक घूंट और चढ़ा लिया। वोदका की कुछ बूंदों ने मेरे होठों को भी भिगो दिया था। मैंने अपनी जीभ फिराकर उसे भी चाट लिया। शराब का कोई भी कण बेकार क्यों जाने दूं। इससे उनको भरोसा हुआ।
कुछ भी कहो, लेकिन आप सच बोलने वाले आदमी हैं। नहीं तो आप झूठ भी कह सकते थे।
भाई आप से झूठ बोलकर मुझे क्या फायदा। आप मुझसे पहली बार मिले हैं। जीवन में दोबारा कभी आप से मुलाकात होगी कि नहीं इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। पता नहीं कभी ऐसा संयोग बनेगा कि नहीं कि आप और मैं दोनों एक ही बेंच पर बैठें हो। फिर मैं आपसे झूठ बोलकर क्या करूंगा। झूठ तो आदमी उससे बोलता है जिससे कुछ फायदा हो या नुकसान। आप से मेरा क्या नफा नुकसान।
मेरी साफगोई उनको और पसंद आई।
वैसे आप करते क्या हैं।
नौकरी। इस तरह के सवालों पर मेरा जवाब संक्षिप्त ही रहता है।
कहां पर।
एक प्राईवेट कंपनी में।
यहीं दिल्ली में रहते हैं।
हां, जी। हूं तो बाहर का लेकिन अब तो दिल्ली का ही हो गया हूं।
कुछ ही देर में साहेब को समझ में आ गया। दरअसल, इन टू द हैवेन होने के बाद दार्शनिक सवालों पर चाहे जितनी भी चर्चा कर लो मुझसे, लेकिन ये छोटे-छोटे, टुटपूंजिया-दुनियादारी वाले सवाल मुझे कतई पसंद नहीं थे। कि कहां काम करते हो। कितना पैसा पाते हो। घर कितना बड़ा है। अरे सालों, छोड़ों इन सब बातों को। इसके आगे भी दुनिया है। खुशी पैसे से नहीं मिलती। पैसा तो केवल माध्यम है। वह परिणाम नहीं है। पैसा खुशी नहीं है। खुशी तो वह है जो उस पैसे से खरीदी जाने वाली है। जहां से तुम्हारी ये टुच्चई खतम होती है, खुशी वहां से शुरू होती है। लेकिन, अब कौन समझाए। ये स्साले तो वही पीतल वाली दुनिया के ही पीछे पड़े रहेंगे। खैर साहब उठकर वहां से चले गए। मेरे संक्षिप्त जवाबों से उन्हें समझ आ गया कि यह आदमी तो अजीब किसम का ढक्कन है। तारीफ करने पर भी नहीं खुलता।
उनके जाने के बाद मैंने फिर से जग का मुजरा देखने की तरफ ध्यान लगाना शुरू किया। अपने पूरे हरामीपने के साथ सिगरेट के कश खींचने वाले दोनों नौजवान वहां से जा चुके थे। पोस्टर देख-देखकर तौलने वाली लड़की अपने प्रेमी के साथ अभी भी एक पोस्टर तौल रही थी। प्रेमी बड़े धैर्य के साथ उसका हैंडबैग अपने कंधों पर लटकाए, पोस्टर छांटने में उसकी मदद कर रहा था। अब तक जितने पोस्टर उसने देखे थे, अगर वो सारे पोस्टर वह लगा देती तो शायद उसके घर की कोई दीवार खाली नहीं रहती। लोगों के ज्यादा उत्तेजक और अश्लील फिकरों से तंग आकर कार की डिकी से कमर टिकाकर एक-दूसरे में सिमटने वाला जोड़ा वहां से जा चुका था। उसे कोई और जगह तलाश लेनी होगी। यहां पर तो लोग बिना पैसे की फिल्म देखने पर उतारू हो गए हैं।
कनॉट प्लेस |
कई बार दृश्य खुद अपनी एकरसता से ऊब जाते हैं। सबकुछ चलते-चलते ब्रेक हो जाता है। कनॉट प्लेस की उस सुहानी शाम को भी कुछ ऐसे ही टूटना था। भाई, हम तो अब तक सातवें आसमान में पहुंच चुके थे और दुनियादारी से हमें खास मतलब रह नहीं गया था। हम तो कभी इधर देखते तो कभी उधर। उस दुनिया से ऊपर उठे हुए। जैसे शायद ऊपरवाला हमें देखता होगा। हमारे सुख-दुख से निर्लिप्त। हमें इधर-उधर भागता-दौड़ता देखता। रोता-गाता देखता। वैसे भी किसी ने लिखा है कि करीब से चीजें बड़ी दिखती हैं। जैसे कि अपना दुख। तो भाई, ऊपर उठ जाओ। दूरी ले लो। दुख दूर हो जाएगा। दिमाग इन टू द हैवेन हो जाएगा। निगाहों में कुछ ऐसी दिलचस्पियां तलाशों।
अचानक से दृश्य बदल गया। फर्जी से आगे चलकर जहां पर सड़क कनॉट सर्कल में प्रवेश करती है वहां पर अचानक ही शोर-शराबा सा कुछ सुनने को मिला। आसपास के लोग उधर की तरफ ही देखने लगें। हम भी अपने लड़खड़ाते हुए कदमों को संभालते हुए वहीं पर पहुंच गए। दृश्य मारधाड़ से भरा हुआ था। एक सरदार जी ने पहले तो एक फेरी वाले को धक्का दिया। फिर उसे दो तमाचे जड़ दिए। सरदार जी परिवार वाले थे। पत्नी बगल में खड़ी थी। दो बच्चे थे। पत्नी उन्हें कोहनी से पकड़कर वहां से चलने की मनुहार कर रही थी। सरदार जी गुस्से से कांप रहे थे और बोलते-बोलते उनके मुंह से फेन भी निकलने लग रहा था।
स्साले, जा रहा है कि एक और दूं लगा के।
फेरी वाला ढीठ था। नहीं जाऊंगा। क्या कर लेगा।
बदले में सरदार जी ने एक तमाचा और जड़ दिया। बताऊं तुझे।
तू मारेगा मुझे। ले मार। और मार। तेरा पूरा कुनबा मर जाए। तू मर जाए। तेरे बच्चे मर जाएं।
इसके बाद तो सरदार जी जैसे आग बबूला हो गए। उन्होंने उसे कंधे से पकड़कर मुक्के मारना शुरू कर दिया। उनके हर मुक्के पर फेरीवाला चीख पड़ता। तेरे पूरे घर का नाश हो जाए। आग लग जाए। मर जाओ तुम लोग।
इधर सरदार जी का मुक्का चलता। उधर फेरीवाला की बद्दुआ चलती। इधर फेरीवाली की बद्दुआ चलती। उधर सरदार जी का मुक्का चलता। हम अपनी तो क्या कहते। हम जिस हालत में थे, उसमें हम तो कुछ हस्तक्षेप करने की स्थिति में थे नहीं। बहुत ज्यादा समझ में भी नहीं आ रहा था। लेकिन, कुछ लोग अभी भी होश में थे। उन्हीं में से एक आदमी बीच-बचाव में जुटा हुआ था। सरदार जी-प्रा जी कहके संबोधित कर रहा था। हालांकि, उसकी टोन उसके पूरबिया होने की पक्की गवाही दे रही थी।
जाने दीजिए प्रा जी। क्यों छोटे आदमी के मुंह लगते हैं। छोड़ दीजिए।
तो इसको क्यों नहीं समझाते।
अरे इतनी समझ होती तो यहां पर दर-दर फिरता। आप तो पढ़े-लिखे हैं।
सरदार जी को अपने पढ़े-लिखे होने का कुछ होश आया। बद्दुवाओं का कोटा भी काफी ज्यादा हो गया था। पत्नी भी लगातार कोहनी से खीचने की कोशिश कर रही थी। सरदार जी के मुक्के चल रहे थे। लेकिन उनसे बद्दुआओं पर लगाम नहीं लग रही थी। सो, उन्होंने इसे अब बंद कर देने में ही भलाई समझी।
पूरबिया आदमी का प्रा जी कहना काम आया। गोल घेरे में खड़े लोग किसी संभ्रांत आदमी द्वारा की जाने वाली इस तरह की मारपीट पर भी मीनमेख निकालने से बाज नहीं आ रहे थे।
ठीक है छोड़ देता हूं। लेकिन, समझा के रखा करो।
वे चले गए। तमाशा बिखर गया। फेरीवाला वहीं पर एक बेंच पर बैठ गया। उसके होंठों के कोरों से खून की कुछ बूंदे रिसने लगी थीं। लेकिन, उसका ध्यान खून की उन बूंदों पर नहीं था। पूरी नफरत से वह सरदार जी को जाता हुआ देख रहा था। मैं उसके सामने वाली बेंच पर बैठ गया। तमाशबीनों की भीड़ घटनाक्रम पर भी कुछ चर्चा कर रही थी। हुआ यह कि सरदार जी गुब्बारे बेचने वाले एक बच्चे से गुब्बारा खरीदने के लिए मोल-भाव कर रहे थे। बच्चा बार-बार इसरार करके उन्हें गुब्बारा खरीदने के लिए कह रहा था। सरदार जी दस रुपये पर अड़े हुए थे। आखिर निराश होकर बच्चा दस रुपये में ही उन्हें गुब्बारे देने पर तैयार हो गया। तभी दूसरे फेरीवाले ने उसके हाथ से गुब्बारा छीन लिया। बीस का गुब्बारा दस का क्यों बेच रहे हो। उसने गुब्बारे बेचने वाले किशोर को गालियां देते हुए उसे दो तमाचे जड़ दिए।
इस पर सरदार जी का गुस्सा भड़क गया। उन्होंने दूसरे फेरीवाले को तमाचे जड़ दिए। बाद का किस्सा तो आपको पता ही है। सामने की बेंच पर बैठा मैं उसे गौर से देखने लगा। बाईस-पच्चीस की उम्र रही होगी। चेहरे पर बेतरतीब दाढ़ी। बाल बिखरे हुए। धूल में फंसे हुए। अपने कंधे पर वह ढेर सारे गुब्बारों की फेरी उठाए हुए था। बड़ी नफरत से उसने वहीं बैठे-बैठे थूक दिया।
तभी उसकी निगाह मेरी बोतल पर पड़ गई। मैं अचकचा गया। उसमें थोड़ी सी अभी बची हुई थी।
सर, थोड़ा पानी दीजिए।
पानी नहीं है ये।
अच्छा पानी नहीं है, कहकर एक बार फिर उसने नफरत से थूक दिया। मैंने मुंह बिचकाया। अब लो, इसमें मैंने क्या गलत कह दिया।
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क्रमशः
लेखक परिचय:
नामः संजय कुशवाहा ।
लेखकीय नामः कबीर संजय।
जन्मः 10 जुलाई 1977, इलाहाबाद।
शिक्षाः स्नातक, इलाहाबाद विश्वविद्यालय।
पताः प्लॉट नंबर—22, फ्लैट नंबर—101,
नन्हे पार्क, किरन गार्डेन एक्सटेंशन, उत्तम नगर, नई दिल्ली।
संप्रतिः दैनिक हिंदुस्तान में प्रमुख संवाददाता।
मोबाइलः 08800265511।
ईमेलः sanjaykabeer@gmail.com।
साहित्यः तद्भव, पल प्रतिपल, नया ज्ञानोदय, लमही, कादंबिनी, इतिहास बोध, गंगा-जमुना व दैनिक हिंदुस्तान जैसे पत्र-पत्रिकाओं में कहानी व कविताएं प्रकाशित। नया ज्ञानोदय में प्रकाशित कहानी ‘पत्थर के फूल’ का लखनऊ में मंचन।
नामः संजय कुशवाहा ।
लेखकीय नामः कबीर संजय।
जन्मः 10 जुलाई 1977, इलाहाबाद।
शिक्षाः स्नातक, इलाहाबाद विश्वविद्यालय।
पताः प्लॉट नंबर—22, फ्लैट नंबर—101,
नन्हे पार्क, किरन गार्डेन एक्सटेंशन, उत्तम नगर, नई दिल्ली।
संप्रतिः दैनिक हिंदुस्तान में प्रमुख संवाददाता।
मोबाइलः 08800265511।
ईमेलः sanjaykabeer@gmail.com।
साहित्यः तद्भव, पल प्रतिपल, नया ज्ञानोदय, लमही, कादंबिनी, इतिहास बोध, गंगा-जमुना व दैनिक हिंदुस्तान जैसे पत्र-पत्रिकाओं में कहानी व कविताएं प्रकाशित। नया ज्ञानोदय में प्रकाशित कहानी ‘पत्थर के फूल’ का लखनऊ में मंचन।
Vivran to thik hai. Par kahna kya chahte hain? Sanvedna jag gai. Eske baad...!
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