निर्बंध:चार
पहनावे और विचार का गहरा रिश्ता
पहनावे और विचार का गहरा रिश्ता
दो बीघा जमीन पर अपने "दैनिक भास्कर" के कॉलम में लिखते हुए राजकुमार केसवानी ने बलराज साहनी को उद्धृत किया है : "(बिमल रॉय से मिलने) मैं जल्दी से तैयार होकर मोहन स्टूडियो पहुँचा।अपने चेहरे पर मैंने हल्का सा पाउडर लगा लिया था और इंग्लैंड के सिला सूट प्रेस करवा कर पहन लिया था,जो उस मौसम को देखते हुए काफी भारी था।
जब मैं बिमल रॉय के कमरे में दाखिल हुआ तो वे मेज पर बैठे कुछ लिख रहे थे।उन्होंने आँखें उठा कर मेरी ओर देखा तो देखते ही रह गए।मुझे लगा जैसे मैंने कोई कसूर कर दिया।
कुछ देर बाद उन्होंने मुड़कर अपने पीछे कुर्सियों पर बैठे कुछ लोगों से बांग्ला में कहा: एईजे को चोमोत्कर मानुष ! आमार शोंगे ढाढा कोरे छी की?
उन्हें शायद पता नहीं था कि मैं बांग्ला जानता हूँ।उन्होंने मुझे बैठने को भी नहीं कहा।आखिर वे बोले: मिस्टर साहनी,मेरे आदमियों से गलती हुई है।जिस किस्म का पात्र मैं फ़िल्म में पेश करना चाहता हूँ आप उसके बिल्कुल उपयुक्त नहीं हैं।
इतना रूखा व्यवहार! गैरत की माँग थी कि मैं उसी समय वहाँ से चला जाता,लेकिन मैं वहाँ जैसे गड़ा रहा। आसमान को पहुँची हुई आशाएँ इतनी जल्दी मिट्टी में मिल जाएंगी इसके लिए मैं तैयार नहीं था।
क्या पात्र है?, मैंने गला साफ करते हुए पूछा।
एक अनपढ़,गरीब देहाती का...बिमल रॉय के लहजे में व्यंग्य था।"
एकबार रोल मिल जाने पर बलराज साहनी ने मुम्बई के उन इलाकों की खाक छाननी शुरू की जहाँ यू पी बिहार के मेहनतकश मजदूर बड़ी संख्या में रहते थे।
"भैया लोगों को सिर पर गमछा लपेटने का बहुत शौक होता है और हर कोई उसे अपने ढंग से लपेटता है।मैंने भी एक गमछा खरीद लिया और घर में उसे सिर पर लपेटने का अभ्यास करने लगा।लेकिन वह खूबसूरती पैदा न होती।मेरे सामने यह बड़ी समस्या थी।"
लगभग यही स्थिति रही होगी जब खाँटी पंजाबी बम्बइया हीरो राज कपूर को 'जागते रहो' और बाद में 'तीसरी कसम' जैसी फ़िल्मों के लिए चुना गया होगा।पर इन दोनों कलाकारों ने इन तीनों फिल्मों को अपने जमीनी अभिनय से न सिर्फ़ यादगार बना दिया बल्कि देश क्या दुनिया भर में ये फ़िल्में भारतीय सिनेमा की कलात्मक श्रेष्ठता का झंडा गाड़ने में भी कामयाब रहीं।
मुझे यह प्रसंग पढ़ते हुए अनायास एक डेढ़ महीने पहले बिहार के विक्रमशिला संग्रहालय की अपनी यात्रा याद आ गयी। कड़ी धूप में आठवीं नवीं शताब्दी के विश्वविद्यालय के अवशेष देखने के बाद हम थोड़ी छाँह के चक्कर में कुछ साल पहले बने विक्रमशिला संग्रहालय पहुँचे और वहाँ बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से संग्रहीत धरोहरों को देख कर दंग रह गए - हमारी सारी थकान जाती रही और इस पिछड़े उपेक्षित इलाके की सांस्कृतिक गरिमा से मन गर्व से भर गया।एक अनूठी मूर्ति पर बार बार मेरा मन अटक जाता था - मैंने पहली बार कृष्ण सुदामा की मूर्ति देखी और वह भी इतनी सजीव कि दाँतों तले उँगली दबाने का मन हो आया।भरे शरीर के राजा कृष्ण के साथ बालसखा और दरिद्र कृशकाय सुदामा की मूर्ति मैंने जीवन में पहली बार देखी थी।बढ़ी दाढ़ी और पेट की उभरी पसलियों वाले सुदामा को देख कर बगैर बताए पहचाना जा सकता था - मुझे उन कलाकारों की अचूक कल्पनाशीलता का स्मरण हो आया जिन्होंने सदियों पहले अनगढ़ शिलाओं को तराश कर इसकी रचना की और मैंने मन ही मन उनका नमन किया।वह मूर्ति इतनी विलक्षण थी कि मैं अपने निजी चित्र संग्रह में उसकी तस्वीर रखना चाहता था पर वहाँ बैठे गार्ड ने इसकी अनुमति नहीं दी।बालसुलभ शरारत भी मन में आई कि मोबाइल तो जेब में है उसका ही छुप कर इस्तेमाल कर लूँ पर बासठ साल की पकी हुई उम्र में यह निहायत अनुचित अनैतिक लगा और मन मसोस कर मैं बाहर निकल आया।कल अनायास कृष्ण सुदामा की उस मूर्ति की याद आयी और गूगल पर ढूँढते हुए तब मेरे लिए अप्राप्य यह तस्वीर अनायास ही मिल गयी - भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की साइट vikramshilamuseum.orgपर उस विलक्षण मूर्ति की यह छवि है।
बहरहाल बात दो बीघा जमीन और बलराज साहनी की चल रही थी कि कैसे भइयों की जातीय पहचान बलराज ने रिक्शा खींचते हुए सिर पर गमछे बांधने के साथ जोड़ कर देखा और उस छवि को करोड़ों सिनेप्रेमियों के दिलों पर रेखांकित कर दिया...वैसे ही सुदामा के पिचके हुए पेट की उभरी पसलियों ने विपन्नता का वह जादू पत्थर पर रच दिया।अक्सर कला निष्प्राण चीजों में भी मानवीय भावनाओं का समावेश कर के उनकी प्राण प्रतिष्ठा कर देती है।
पहनावे की बात चले और भारत के प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम उभर कर न आये यह हो नहीं सकता - "द प्रिंट" पत्रिका ने कुछ महीने पहले नरेन्द्र मोदी को देश का सबसे वेल ड्रेस्ड राजनेता बताया जिनके पहनावे से उनका आत्मविश्वास ,संकल्प और दूसरों से अलग दिखना झलकता है और पत्रिका के अनुसार राहुल गांधी वर्स्ट ड्रेस्ड राजनेता हैं - उनके कुर्ते की बाँह का फिसलना और बार बार उठाना बताता है कि जो कुर्ते की बाँह नहीं संभाल सकता वह देश क्या संभालेगा। "इंडियन फ़ैशन" समेत अनेक पुस्तकों के लेखक हिंडोल सेनगुप्ता कहते हैं कि मोदी जी का बेदाग झकझक पहनावा उनका कोर मेसेज होता है कि आज भले ही न हो पर भारत जल्द ही सम्पन्न समृद्ध देश बन सकता है .... अब यहाँ मैला कुचैलापन नहीं है। आखिर हो भी क्यों न - भाषणों में नेहरू जी के कपड़े विदेश में सिलवाने का प्रसंग सुना कर तालियां बटोरने वाले मोदी जी पहनने वाले अपने कपड़े आमिर खान ,अनिल कपूर ,ह्रितिक रोशन ,सैफ़ अली खान और फ़रहान अख्तर के कपडे डिजाइन करने वाले मुंबई के ट्रॉय कोस्टा से बनवाते हैं।
मुझे एक घटना याद आती है : कई साल पहले जब विद्यासागर नौटियाल को देहरादून में दसवाँ पहल सम्मान प्रदान किया गया तब उनकी महत्वपूर्ण कहानी "फट जा पंचधार" की नैनीताल की एक नाट्य संस्था की एक कलाकार ( नाम अब याद नहीं, पर एनएसडी से प्रशिक्षित ) ने अविस्मरणीय एकल प्रस्तुति की थी जिसमें पहाड़ की एक दलित और शोषित युवा स्त्री रक्खी की व्यथा कही गयी थी - गाँव के दबंग जमींदार ने दैहिक शोषण कर के जब उसे असहाय छोड़ दिया तब वह एक अँधेरी गुफ़ा में छुप कर किसी भयावह प्राकृतिक आपदा का आह्वान करती है :भूकम्प का झटका आए, तगड़ा भूचाल और इस पहाड़ का जोड़-जोड़ हिल उठे। पंचधार खंड-खंड हो जाए..... इस चरित्र में प्राण फूँकने वाली कलाकार ने अपने चेहरे मोहरे ,पहनावे और भाव भंगिमा से शोषण और करुणा का जो समां बाँधा था वह इतने सालों बाद भी भुलाये नहीं भूलता। नाट्य प्रस्तुति के बाद जब मैं उस कलाकार से मिलकर उसे निजी तौर पर बधाई देना चाहता था तब मुझे जींस टी शर्ट पहने बेहद स्मार्ट सुंदर जिस युवा स्त्री के सामने खड़ा किया गया मैं भौंचक्का रह गया - इस झटके से उबरने में कुछ कुछ समय लगा। और कुछ नहीं बल्कि सबसे ज्यादा उसके पहनावे ने मुझे एक दुनिया से दूसरी दुनिया में धकेल दिया था।
अभी जब मैं नौकरी से निश्चिंत होकर देहरादून गया तो उस कलाकार से मिलने की प्रबल इच्छा थी...कई लोगों से पूछा पर जब 'पहल' के उस कार्यक्रम में शामिल रही गीता गैरोला ने बताया कि सुनीता जुयाल को हम सब से बिछुड़े बीस साल से ज्यादा हो गए तो मेरी आँखों के सामने अंधेरा छा गया - सचमुच विलक्षण लोग उल्का की तरह उगते हैं और विदा हो जाते हैं।
यादवेन्द्र |
1981 में जून महीने के उत्तरार्ध में बनारस में मेरी शादी हुई - मैं नया नया नौकरी में आया था और मनमौजी मिजाज़ के चलते न मेरे पास ज्यादा कपड़े थे न मेरा विश्वास ससुराल के सौजन्य से कपड़े सिलाने में था। मैंने न कभी सूट पहना था न पहनने का शौक था ... ऊपर से भयंकर लू के लिए कुख्यात बनारस में जून का महीना। मेरे मित्र ने भागलपुर से तसर सिल्क का कुर्ते का कपड़ा भेजा था, मैंने तय किया उसके साथ धोती पहनूँगा। वैसे भी किसी उत्सव या पर्व त्यौहार पर धोती पहनना मुझे अच्छा लगता है। सो जब मैने शादी में सूट न पहन कुर्ता धोती पहनने की बात बड़ों को बताई तब घर में तूफान मच गया - परिवार के मुखिया मेरे ताऊ जी ने जो देश के बड़े दार्शनिक और दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर थे,क्रोध में मुझे बहुत बुरा भला कहा....यहाँ तक कि पंडित के घर में जन्म और नान्ह जात जैसा बरताव।पहनावे,तब मुझे बड़े मुखर रूप में मालूम हुआ किस तरह का पहचान और स्टेटस का प्रतीक बन जाते हैं और बड़े बड़े और पढ़े लिखे लोगों को उसकी जकड़ से मुक्त होना नहीं मालूम...शायद होना चाहते ही नहीं।
विनोद कुमार शुक्ल ने सही कहा है - 'वह आदमी चला गया नया गर्म कोट पहन कर विचार की तरह'.....पहनावे और विचार का रिश्ता बड़ा अंतरंग,मुखर और गहरा है।
००
Y Pandey
Former Director (Actg )& Chief Scientist , CSIR-CBRI
Roorkee
Former Director (Actg )& Chief Scientist , CSIR-CBRI
Roorkee
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