मैं क्यों लिखती हूँ
ममता कालिया
अब जब इतने पन्ने काले कर चुकी, इतनी कलम घिस चुकी, इतने रीम कागज बरबाद कर डाला, तुम मुझसे पूछते हो मैं क्यों लिखती हूँ। बहुत नाइंसाफी है पार्टनर। ऐसे सवाल हमें बहुत पीछे ले जाते हैं जब मैं साइकिल से इंदौर की सड़कें नापा करती थी। बी. ए. प्रथम वर्ष की विद्यार्थी थी। हिन्दी मेरा विषय नहीं था, व्यसन था। घर के हर कमरे में किताबों की कतारें थीं। रेसीडेंसी एरिया के बड़े सुनसान बंगले में न बीतने वाली दोपहरें थीं और दिन भर हुई बातें में से सिर उठाते सवाल थे। शहर से निकलने वाले अखबारों के रविवार पृष्ठ उन दिनों जी लुभाते। उनमें छपने की ललक उठती। राहुल बारपुते के सम्पादन में ‘नई दुनिया’ में छपना अनोखा अनुभव देता। ‘जागरण’ में भी मौका मिलता। ये तो थे पहले कदम।
मेरी रचना प्रक्रिया
अगर सूचना विज्ञान में ऐसा कम्प्यूटर निकल आए जो आपकी दिमागी प्रक्रिया को ज्यों -का-त्यों माॅनिटर पर उतार दे तो यकीन मानिए मेरी रचना प्रक्रिया का ऐसा पेचीदा संजाल सामने आए कि मैं खुद उसका विश्लेषण न कर पाऊं। कोई ऊर्जा तरंग है जो चलती चली जाती है, दिमाग में एक बार में पांच-पांच कहानियां लिखी जा रही हैं, कविताएं तो इतनी धकापेल से आ रही हैं कि पूरा कविता संग्रह आंखों के सामने हैं, मय शीर्षक और ब्लर्ब के। दिमाग में तीन उपन्यास एक साथ चल रहे हैं।
ये सारी सक्रियताएँ तभी तक हैं जब तक हाथ खाली नहीं हैं। मैं अपनी मेज पर आकर बैठी नहीं कि सब छू मंतर। किसी पात्र का नाम तक याद नहीं रहता। अपने नाम के सिवा कोई नाम तक नहीं सूझता। पांच मिनट के अंदर प्यास लगती है, सात मिनट के अंदर चयास और पंद्रह मिनट में तो नींद आने लगती है। मैं बड़ी दुःखी होकर कहती हूं - ‘‘रोज मुझे एक पेज लिखते-लिखते नींद आ जाती है, हिंदी साहित्य का क्या होगा!’’ तब मेरे प्रतिपल के साथी रवि हंसकर कहते हैं - ‘‘हिंदी साहित्य का कल्याण ही होगा, तुम चैन से सो जाओ।’’
मेरे घर में आज भी मेरा लिखना या लेखक होना हास्य-विनोद का विषय है। न केवल इसे विशेष नहीं माना जाता, इसे अक्सर कोंचकर, खींचकर, दबाकर परखा भी जाता है। बड़ा बेटा अन्नू कहता है- ’’मां तुम कुछ भी कर लो, कभी शोभा डे या खुशवंत सिंह नहीं बन सकतीं।’’ अगर पलटकर मैं कहूं -‘‘शोभा डे या खुशवंत सिंह भी ममता कालिया नहीं बन सकते।’’ तो अन्नू अपने दोस्तों सहित ठहाका लगाएगा। अपने जवाब से मेरा मरियल आत्मविश्वास भले ही थोड़ा जीवन पा जाए, अन्नू एंड कंपनी के नजरिए में कोई बदलाव नहीं आएगा।
छोटा बेटा मन्नू कम्प्यूटर विशेषज्ञ है। उसने मेरी वेबसाइट बनाई है। जब उससे अपनी कोई रचना वेबसाइट पर डालने को कहती हूं, वह बड़े प्रोफेशनल तरीके से रचला डाल देता है पर उससे पूछो-‘‘उसे कहानी कैसी लगी ?’’ वह कहेगा-‘‘कौन-सी कहानी ? मैंने पढ़ी ही नहीं। आपने डालने को कहा, मैंने डाल दी।’’ मुझे इस सबसे कोई दुख नहीं होता, न ही निराशा होती है। जिन रचनाकारों को घर-परिवार में बहुत प्रोत्साहन मिलता है, वे बड़े हास्यास्पद तरीके से महत्वकांक्षी हो जाते हैं, भले उनमें प्रतिभा हो न हो।
मेरी रचना प्रक्रिया के बारे में मेरे मित्र रवींद्र कालिया का कहना है -‘‘मैंने ममता को विचित्र स्थितियों में लेखन करते देखा है। दूध उफनकर फैल रहा है, ममता का ध्यान उधर नहीं है, वह तल्लीनता से लिख रही है। ट्रेन में वही लिख सकती है, मैं तो पढ़ भी नहीं सकता। उसने लिखा हुआ कभी रिवाइज नहीं किया, जो लिख दिया, वह अंतिम है। अगर मैंने कभी कोई सलाह-मशविरा दे दिया और उसे जंच गया तो उसने वह रचना खारिज कर दी। यह देखकर मैंने सुझाव देना ही छोड़ दिया है। मुझे किसी रचना को साफ करते हुए देखेगी तो सलाह देगी-‘इसे ऐसे ही रहने दो। रिवाइज करके चैपट कर दोगे।’ मेरी बहुत कम रचनाएं ऐसी होंगी, जिन्हें मैंने कम-से-कम दो बार न लिखा हो। ममता को तो मैंने उपन्यास भी साफ करते नहीं देखा। खुदा की उस पर ऐसी रहमत है। ममता के लिए लेखन सबसे प्यारा पलायन भी है। वह किसी बात से परेशान होगी तो लिखने बैठ जाएगी। उसके बाद एकदम संतुलित हो जाएगी...।’’
यही अच्छी बात है। प्रकट, हम एक -दूसरे पर लाख लतीफे सुनाएं, जुमलेबाजी करें, हम एक -दूसरे की सृजनात्मक जरूरतें पहचानते हैं, फिर भी मैं ज्यादा जोखिम मोल नहीं लेती। मेरे लिखने का समय आजकल रात बारह बजे बाद का है, इसलिए अब चैके-चूल्हे और कलम -कागज में कोई स्पद्र्धा नहीं है। जब मैं लिखने बैठती हूं, घर में मच्छरों के अलावा और सब सो जाते हैं।
सुविख्यात विद्वान आलोचक डाॅ. नामवरसिंह के बारे में उनके भाई काशीनाथसिंह ने लिखा है -‘‘वे प्रायः खाने -पीने के बाद रात के बारह बजे दीवार की ओर मुंह करके बैठ जाते। हाथ में कलम होती और घुटनों पर पैड। कागज बिना लाइनों का कोरा होता। उनके लिए सबसे मुश्किल होता पहला वाक्य। उन्हें जितना भी वक्त लगता, पहला वाक्य लिखने में लगता।’’ मुझे यह पढ़कर बड़ा थ्रिल हुआ कि नामवरजी जैसे धुरंधर साहित्यकार की रचना-प्रक्रिया लगभग वही हैं, जो हमसब छुटभैया की, वही आदतें।
मेरे सामने रूलदार कागज आ जाए तो मैं लिखने का इरादा ही छोड़ देती हूं। कुछ वर्ष पहले जब स्याही वाले पेन से रचना लिखी जाती थी, मैं अपने पेन संभालकर रखती थी। अब तो डाॅट पेन और जेल पेन ने लिखावट का सारा चरित्र ही नष्ट कर दिया है। न कहीं अपने कोण हैं, न गोलाइयां, हमारे घर में दो फुलटाइम लेखक हैं पर जब लिखने बैठी तब क्या मजाल कि कोई कलम चलती हालत में मिल जाए। ज्यादातर हम दोनों काले डाॅट पेन इस्तेमाल करते हैं पर नहीं, जब लिखना होगा तो हरदम नीला पेन ही हाथ आएगा। मेरी आदत है, मैं अपनी मेज पर सब चीजें कागज, पिन, टेप, कलम फैलाकर छोड़ देती हूं। फैली हुई चीजों में से मतलब की चीज जल्दी और आसानर से ढूंढी जा सकती है। रवि को सलीका पसंद है। वे अपने कमरे में सब चीजें यथास्थान रखते हैं। कभी -कभी तो वे कमरे को करीना देने में इतने थक जाते हैं कि लिखना मुल्तवी कर एक नींद ले लेते हैं। मेरा कमरा ऊपर है। अक्सर मेरा मन नीचे के कमरों में चल रही गतिविधि में इतना रमा रहता है कि ऊपर जाने की नौबत नहीं आती, कई-कई रोज। अगर मैं ऊपर चली जाऊं तो घंटों नीचे जाने का नंबर नहीं आता। नहीं, इतनी देर लिखती नहीं हूं, कोई संदर्भ ढूंढने के चक्कर में कोई दिलचस्प किताब हाथ लग जाती है और समय का पता ही नहीं चलता।
मेरे ख्याल से एक लेखक अपनी सृजनात्मक प्रक्रिया को जितना समझता है, उससे कहीं ज्यादा उसे उसके समकालीन व अग्रज रचनाकार समझते हैं। समय-समय पर कई वरिष्ठ और साथी लेखकों ने मेरी रचना-प्रक्रिया पर आश्चर्य और आक्रोश दोनों प्रकट किए हैं। श्री उपेंद्रनाथ ‘अश्क’ में यह विशेषता थी कि वे नये से नये लेखक को पढ़ते थे और उस पर अपनी राय जताते। उन्होंने लिखा -‘‘मैं यही कह सकत हूं कि ममता की रचनाओं में हमेशा अपूर्व पठनीयता रही है। पहले वाक्य से उसकी रचना मन को बांध लेती है और अपने साथ बहाए लिए चलती है। कुछ उसी तरह जैसे उर्दू में कृष्णचंदर और हिंदी में जैनेंद्र की रचनाएं। यथार्थ का आग्रह न कृष्ण का था, न जैनेंद्र का, लेकिन ममता रूमानी या काल्पनिक कहानियां नहीं लिखती। उसकी कहानियां ठोस जीवन के धरातल पर टिकी हैं। निम्नमध्यमवर्गीय जीवन के छोटे-छोटे ब्यौरों का गुंफन, नश्तर का सा काटता तीखा व्यंग्य और चुस्त - चुटीले जुमले उसकी कहानियों के प्रमुख गुण हैं। ममता की बहुत अच्छी कहानियों में तीन - चार कहानियों का मैं विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा- ‘लड़के’, ‘बसंत-सिर्फ एक तारीख’, ‘मां’ और ‘आपकी छोटी लड़की’।’’ अभी पिछले दिनों मेरे पहले उपन्यास ‘बेघर’ का नवीन संस्करण वाणी प्रकाशन से छपकर आया तो उसमें अरविंद जैन का लेख ‘बेघर के पच्चीस वर्ष अर्थात् कौमार्य की अग्नि परीक्षा’ शामिल था। लगा कि यह रचना पच्चीस वर्ष (अब चालीस) जीवित और प्रासंगिक रह ली। जब यह रचना लिखी थी तब यह कतई नहीं सोचा था कि इसे इतना लंबा जीवन मिलेगा।
1970 में मैं मुंबई में हाॅस्टल में रह रही थी और रवि इलाहबाद में अपने पैर जमाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। रवि ने सुझाया कि मैं छोटी-छोटी कहानियों के बजाय उपन्यास लिखने की कोशिश कर देखूं। मेरे दिमाग में दो अलग-अलग स्मृति चित्र थे, जो लिखते समय गड्डमड्ड होते रहे। रचना बनती भी इसी तरह है, कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा। जब मैं पुणे में स्कूल में पढ़ती थी, ताड़ीवाला रोड पर हमारे घर के पास एक लड़की रहती थी, जिसने अपने अविवाहित रह जाने की त्रासदी मम्मी को सुनाई थी। उसका प्रेमी उसे रोज घर ले जाता था। उसके साथ उसने शादी की सारी खरीददारी की, घर की तैयारी की पर जब विवाह की तारीख तय करने का समय आया, वह एकदम पीछे हट गया। उसने कहा -‘‘मैं किसी ऐसी -वैसी लड़की से शादी नहीं करूंगा।’’ कांता बेन कला निकेतन और रूपकला से खरीदी साड़ियों के ढेर के बीच बैठी रह गयी और प्रेमी उसकी जिंदगी से निकल गया।
दूसरा स्मृति-चित्र था एक मिल परिवार का, जिसमें पति बड़े खुले दिल का संवेदनशील व्यक्ति था। उसकी पत्नी उतनी ही ठस्स, ठोस और शंकालु महिला थी। वह लगातार अपने पति पर शक करती थी, उसकी जासूसी करती थी और जब वह अकस्मात चल बसा, पत्नी यही विलाप करती रह गयी-‘ये तो मेरे खेलने-खाने के दिन थे’ परमजीत और रमा में इन दोनों के नक्श आए हैं।
वैसे ‘बेघर’ में कथा कई जगह से और खुलती है पर मेरी एक सांस में लिखने की आदत कई कथा- स्थितियों के साथ न्याय नहीं कर पाती। संजीवनी का एकाकीपन एक अलग शोध की मांग करता है, जो आज तक पूरा नहीं हो पाया। एक बार लिख डालने पर दुबारा किसी रचना पर मेहनत करना, संशोधन करना मैंने आजतक नहीं सीखा, अब क्या सीखूंगी। इसलिए कभी कहीं पुरानी रचना छपवाने का सुख भी हासिल नहीं किया। जितनी देर में मैं पुरानी रचना ढूंढंूगी उतने में तो नयी-नकोर रचना लिख डालूं।
कई बार किसी और की कही या लिखी बात मेरे अंदर ऐसा बवाल मचा देती है कि बवंडर की तरह लिख डालती हूं मैं। राजेन्द्र यादव का लेख ‘होना/सोना खूबसूरत दुश्मन के साथ’ पढ़कर मेरा यही हाल हुआ। राजेन्द्र जी के नाकाबिले-बर्दाश्त दांव-पेच के खिलाफ मैंने पचास-साठ कविताएं लिख डाली, जिनमा सामूहिम शीर्षक रखा ‘खांटी घरेलू औरत’। साहित्य के सुधी पाठक शीर्षक से ही समझ गए होंगे मेरा आशय क्या था।
मुझे कोई गुस्सा दिला दे, घर में, दोस्तों में, दुनिया में तो उस वक्त अच्छा तो यही हो कि मेरे सामने कागज-कलम न आए। मैं उस वक्त कविता तो क्या पूरा उपन्यास दन्न-से लिख सकती हूं। कागज पर बाद में उतरती है रचना पर दिमाग में तो पूरी ओरिएंट पेपर मिल चालू रहती है। अब मुझे इतना मान लेना चाहिए कि लिखने के समस्त नियमों, परिपाटियों और प्रयोगों को धता बतातो हुए मेरे दिल-दिमाग का बावलापन ही मेरी रचनाओं का सबसे बड़ा कारण और कारक रहा है। जब मैं अन्य रचनाकारों का स्टडी-रूम देखती हूं तो मैं दंग रह जाती हूं। इतने साफ -सुथरे कमरों में सिर्फ शल्यक्रिया की जा सकती है, सृजन क्रिया नहीं। बहुत अधिक सुविधाओं में मेरी रचना -शैली ठिठुर जाती है। मैंने जब ‘पे्रम कहानी’ उपन्यास लिखा, बहुत से पाठक समय-समय पर मुझसे मिलने आए। सब जानना चाहत थे, मैंने इतना तरल प्रेम कथा किस तरह लिखी। तब बच्चे छोटे थे। मैंने दिखाया उन्हें। जिस कमरे में मैं बैठकर लिखती थी, वहीं बच्चे गेंद-तड़ी खेलते रहते थे, पंचम सुर में स्टीरियो बजता रहता था, जब -तब मेरी सेविका आकर कान पर चिल्लाती रहती थी। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था। वर्षों मेरे पास लिखने के लिए न अकेला कमरा था, न मेज। मैं बच्चों की मेज पर काम करती थी या बिस्तर पर बैठकर घुटनों पर कागज का बोर्ड रखकर। तब मैं कहती थी -
‘‘विस्तृत मेरे घर का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना।’’
जब से हम मेहदौरी काॅलोनी के अपने घर में आए हैं, मेरे पास एक कमरा और मेज है पर रवि को कमरों का इतिहास -भूगोल बदलने का जबरदस्त शौक है। लिहाजा कभी मेरा कमरा नीचे चला जाता है, कभी ऊपर। कभी घर की समस्त धूलभरी किताबें, एक्स्ट्रा कुर्सियां, फोटो, कैलेंडर, गोया हर वह चीज जो कहीं फिट न हो, मेरे कमरे में समा जाती है। कभी मैं खुद ही कमरे से भागी फिरती हूं। शाम-रात के दो-एक घंटे केबिल टीवी की भेंट चढ़ जाते हैं, आध-एक घंटा टाइम्स का क्राॅसवर्ड ले लेता है। रसोई मेरा रसिक पलायन है। मैं अचानक कोई ऐसा व्यंजन बनाने की कोशिश में लग जाती हूं, जो मुझे पढ़कर भी पल्ले नहीं पड़ता। एक साल पहले तक काॅलेज के काम भी इसी पलायनवाद में शामिल थे। एक लेखक के पास न लिखने के कितने बहाने होते हैं।
जब लिखना शुरू किया था, मैं सोचा करती थी कि साधन होने पर मैं एक अखबार निकालूंगी ‘ममता टाइम्स’। हमने पे्रस तो लगाया पर उसमें से ‘ममता टाइम्स’ नहीं निकला और बहुत -सा साहित्य वहां छपा। इलाहाबाद ने मेरे लेखन को जो धूप-ताप और तेवर दिया वह हिन्दुस्तान के और किसी भी नगर में संभव नहीं था।
अब थोड़ी चर्चा उस अल्हड़ वक्त की, जब शब्द की शक्ति और करिश्मे का अनायास आभास मिला। होश संभालते ही दो बातें मेरे लिए अविस्मरणीय बन गई। मैंने नया-नया लिखना सीखा था। मैं आंगन में, दीवारों पर, स्लेट पर अपने अक्षर-ज्ञान का प्रदर्शन करती रहती थी। बैठक की दीवार पर मिट्टी की एक सुंदर-सी मछली टंगी थी। एक दिन मैं कुर्सी पर खड़ी होकर मछली के नीचे लिख रही थी ‘मछली’ तभी हाथ उल्टा और मछली व कुर्सी समेत मैं धड़ाम-से गिर गई। मां ने मुझे एक थप्पड़ मारते हुए कहा-‘‘आने दे आज पापा को, तेरी वह पिटाई होगी कि सब लिखना-विखना भूल जाएगी।’’
मैं अपना दुखता सिर और आहत मन लिए कांपती रही। एक प्रार्थना मेरे अंदर निरंतर चलती रही - हे भगवान, पापा से शिकायत न हो, वे तो जान ही निकाल देंगे।
पापा का क्रोध हमारी स्मृतियों में इस कदर भयंकर था कि उनके दफ्तर से लौटने के समय हम एकदम दुबक जाते। भारत चाचा के बच्चों ने उनका नाम ‘डांटने वाले ताऊजी’ रख रखा था। जैसे ही पापा दफ्तर से आए, बैठक में घुसे कि उनकी नजर सूनी दीवा पर पड़ी।
‘‘मछली कहां गई ?’’ पापा ने पूछा।
मां ने कहा -‘‘पूछो मुन्नी से। सारा दिन शैतानी करती रहती है। इसी ने तोड़ी है।’’
मेरा कान उमेठकर पूछा गया -‘‘कैसे टूटी ?’’
मैंने रूआंसी आवाज में कहा-‘‘पापा, हम मछली के नीचे लिख रहे थे मछली। जैसे ही हमने ‘ली’ की टोपी लगाई, मछली गिर पड़ी। हमने नहीं तोड़ी पापा।’’
आश्चर्य! पापा ने कुछ नहीं कहा। मां दृश्य से सरककर रसोई में चली गईं। पापा ने अपने कागजों में से एक कागज मुझे देकर कहा -‘‘चलो, इस पर बीस बार मछली लिखकर दिखाओ।’’
इस तरह एक जालिम शाम का शांत, अनाटकीय अवसान हुआ। लिखित शब्द की शक्ति से यह मेरा पहला परिचय था। परिचय इस सत्य से भी हुआ कि पिता के जीवन में पढ़ने -लिखने का क्या स्थान था।
दूसरी घटना एक गोष्ठी की है। हमारे घर गोष्ठी का आयोजन था। मां रसोई में केवड़े का पानी और इलायची की चाय बना रही थीं। बैठक में धवल चादें बिछी थीं। एक-एक कर साहित्यकार आते जा रहे थे - विष्णु प्रभाकर, विजयेंद्र स्नातक, इंद्र विद्यावाचस्पति, प्रभाकर माचवे, श्रीकृष्ण, रांगेय राघव, देवराज दिनेश और बाबूराम पालीवाल। अंत में आए जैनेंद्रकुमार जिन्हें अपनी कहानी का पाठक करना था। पापा ने उन्हें श्रद्धापूर्वक झुककर प्रणाम किया। कहानी मेरी समझ में नहीं आई पर मैंने देखा, सब श्रोता मंत्रमुग्ध जैनेंद्रजी को सुन रहे थे। गोष्ठी खत्म होने पर सबको विदा देने के बाद पापा कमरे में आए और बोले -‘‘यादगार दिन है आज। जैनेंद्र जी ने मेरे आग्रह का सम्मान किया। इतने बड़े रचनाकार और कोई ऐंठ नहीं उनमें।’’
पापा से हम डरते भी थे और उनकी श्रद्धा भी करते थे। जैनेंद्रजी श्रद्धा के श्रद्धापात्र थे, यानी हमारे लिए धु्रवतारा। उस दिन मुझे लगा बड़ी होकर मैं भी कहानियां लिखा करूंगी, तब पापा मानेंगे मुझे।
बाद के वर्षों में नागपुर, बंबई, पूना, इंदौर, भोपाल और वापस दिल्ली में रहते हुए हर जगह मैंने पाया कि मेरे पिता के लिए कलाकार सर्वोच्च आदर का पात्र रहा। वे पढ़ते, बहस करते और अंत में कायल होते। उन जैसा जटिल और प्रबुद्ध पाठक लेखक के लिए चुनौती और चेतावनी दोनों था।
बीच में एक बात और याद आ रही है। 1947 का जमाना था। पापा गाजियाबाद के शम्भूदयाल इंटर काॅलेज में प्रिंसिपल बन गए थे। जब तक हमें कोई मकान नहीं मिला, काॅलेज की साइंस लैब में हमारे रहने का इंतजाम किया गया। आए दिन अफवाह उड़ती, स्टेशन के उस पार की बस्ती के लोग छुरा लेकर आने वाले हैं, वे एक-एक को काट डालेंगे। काॅलेज की छत के ऊपर बहुत -सा पुआल डाला हुआ था। ‘अल्लाह-हू-अकबर’ के नारे सुनते ही हम लोगों को पुआल में छुपा दिया जाता। थोड़ी देर बाद चैकीदार आकर बताता - वे लोग चले गए, आप सब बाहर आ जाएं। स्कूल में बच्चे ठोड़ी के नीचे रबरबैंड को सन्-सन् बजाते हुए कहते -‘टोडी बच्चा हाय-हाय’। काॅलेज से सटा जिला अस्पताल था। बीच की दीवार से उस पार देखने पर हमें रोज तरह-तरह की घटनाओं का पता चलता। एक दिन हम बहनों ने देखा, बुरका पहने एक औरत अस्पताल की डिस्पेंसरी के बाहर बरामदे में बेंच पर बैठी थी। अस्पताल का कंपाउंडर उसके गाल पर सुई से टांके लगा रहा था। औरत बुरी तरह चिल्ला रही थी, उसका पति इससे बेपरवाह एक तरफ खड़ा था और कंपाउंडर उसका गाल ऐसे सी रहा था, जैसे मोची जूता सीता है। दीदी ने कहा-‘‘देखो, इनके हाथों में तो छुरा नहीं है, कान्छा हमें यों ही डरता रहता है।’’ उसके बाद ‘अल्लाह-हू-अकबर’ सुनकर हमें वैसा डर कभी नहीं लगा, जैसे पहले लगा करता था।
1948 की एक शाम थी। हमारे घर का चिबिल्ला मसखरा सेवक शिवचरन बाजार से दौड़ा-दौड़ा घर आया और दहाड़े मारकर रोने लगा। वह रोता जा रहा था और चिल्ला रहा था -‘‘महात्मा गांधी के गोली लग गयी। अब मैं किसको बापू कहूंगा। बीबी जी आज शाम चूल्हा नहीं जलेगा, हां नही ंतो...।’’
अगले दिन हम सब राजघाट गए, लक्खाखा भीड़ में क्रंदन और चीत्कार के अलावा और कुछ नहीं था। बड़े-बड़े नेता गांधी जी की चिता के पास मुंह लटकाए, सिर झुकाए खड़े थे। हर एक के मुंह पर यह भाव था, मानो उन्हीं की गलती से गांधी जी की हत्या हुई है। शोक की उस घड़ी में मुझे याद आया, कुछ साल पहले का समय, जब सुबह-सुबह गांधी जी की प्रार्थना सभा दिखाने के लिए पापा हमें रामलीला मैदान में ले गए थे। हम काफी आगे बैठे थे। सभा स्थल पर गांधी जी के आगमन पर सब लोग उनके सम्मान में खड़े हुए। बीच के रास्ते से गुजरते हुए महात्मा गांधी बच्चों की तरफ थोड़ी देर ठिठके। एकाएक मैंने उनका हाथ पकड़कर पूछा,‘बाबा, आप नंगे क्यों रहते हैं ?’ गांधी जी हंस दिए उन्होंने मुझे गोदी में उठा लिया और मेरा माथा चूमकर, जमीन पर खड़ा कर दिया। इस चेष्ठा में कुछ भी कृत्रिम या प्रायोजित नहीं था, नही ंतो कैमरा इस दृश्य को कैद करने के लिए तैनात रहता।
बचपन में देखे दृश्य बिंब कितने लंबे समय साथ चलते हैं, यह आज पता चलता है। वे सब हमारे मानस का हंस बनते है। हमारे छोटे-से परिवार में कुछ तो पापा के आदर्शवाद के कारण और कुछ मम्मी के डांवाडोल स्वास्थ्य के चलते परिश्रम की महिमा अपार थी। आज जब मेरे बच्चे मुझे हर समय किसी-न-किसी काम में जुटे देखते हैं, वे हैरान होते हैं। उन्हें नहीं पता कि हमारे घर में बच्चों का दोपहर को लेटना या सोना नितांत वर्जित था। खाली समय में हमें मोटी-मोटी पुस्तकें दी जाती। बाकायदा होमवर्क की तरह।
‘‘नेहरू जी की आत्मकथा का एक चैप्टर पढ़कर रखना, मैं शाम को आकर पूछूंगा।’’ पापा कहते और हमारी दोपाहरी नेहरू जी के नाम लिख जाती।
मां के मेडिकल बिल्स की लिस्ट बनाना, बिजली और फोन का बिल अदा करने जाना, डाकखाने में रजिस्ट्री करना, घर के लिए दूध और तरकारी लाना सब मेरे हिस्से के काम थे। इन जिम्मेदारियों से मेरे व्यवहार और व्यक्तित्व में शुरू से एक उन्मुक्त्ज्ञ स्वयं सेवक के गुण विकसित होते गए। कभी अपने आप को लड़की मानकर डरना, सीमित या संकुचित होना मेरे स्वभाव में शामिल नहीं हुआ। कम आयु में ही बड़ी-बड़ी किताबें पढ़ने से (जिनका अधिकांश समझ में भी नहीं आता था) सतत पढ़ने का अभ्यास हो गया। साहित्य कर्म और साहित्यकार के प्रति पिता का आदरभाव देख कर जीवन का लक्ष्य भी निर्धारित हो चला। वे समस्त स्त्रियोचित भंगिमाएं-घबराना, शरमाना, चुप रहना - मुझसे बहुत पीछे छूट गई थीं। इंदौर में क्रिश्चियन काॅलेज के मंच से जब-जब वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में अपने छात्र प्रतिद्वंद्वियों को हराया, हारे हुए लड़कों ने घबराकर मेरा नामकरण दिया -‘मिस एटम बम’।
जहां बड़े शहर व्यक्ति की निजता, विश्ष्टिता, आवेग-संवगों को लील जाते हैं, छोटे शहर इन गुणों को सघन, मुखर और केंद्रित करने में सहायक होते हैं। इंदौर क्रिश्चियन काॅलेज में आए दिन कवि-गोष्ठियां होती। किसी ने नयी रचना लिखी तो कहानी - गोष्ठी आयोजित हो जाती। तब आकाशवाणी साहित्योन्मुख साधन था। इंदौर का तेवर उन दिनों कुछ - कुछ अपने इलाहबाद जैसा था। कमिश्नर, कलेक्टर, विधायक, मंत्री किसी को तब तक शहर गिनती में नहीं लेता था, जब तक साहित्य या कला के प्रति उसके अनुराग का संकेत न मिल जाए। कविता के क्षेत्र में नित नये प्रयोग करने वालों में तब चंद्रकांत देवताले, सरोज कुमार, चंद्रसेन विराट, श्रीकांत जोशी, देवव्रत जोशी यहां सक्रिय थे। दूसरी तरफ रमेश बख्शी जैसा कहानीकार जैनेंद्र कुमार की खटिया खड़ी किए रहते थे।
घर से कुछ दूर एक छोटी-सी दुकान थी, जहां दो आने रोज पर किताबें मिलती थीं। मैंने बहुत-सी किताबें वहीं से लेकर पढ़ीं। अश्क जी की ‘बड़ी-बड़ी आंखें’, कृशनचंदर का ‘बावन पत्ते’, धर्मवीर भारती का ‘गुनाहों का देवता’ और रांगेय राघव का ‘मुर्दों का टीला’ इन सबसे उस दुकान के जरिए ही परिचय मिला। हमारे घर में गरिष्ठ और वरिष्ठ पुस्तकें थी हिन्दी और अंग्रेजी की। टाॅलस्टाॅय की ‘वाॅर एंड पीस’ , ‘अन्न कैरिनिना’, जेम्स जाॅइस का ‘युलिसिस’, आॅस्कर वाइल्ड के नाटक, शाॅ के प्रोफेसेज, स्टीफन ज्वीग का ‘बिवेयर आॅफ पिटी’, हार्डी का ‘ज्युड द आॅब्सक्योर’ मेरी सूनी। लंबी दोपहरों के दोस्त थे। अज्ञेय का ‘शेखर’ और ‘नदी के द्वीप’, जैनेंद्र का ‘त्यागपत्र’ और ‘विवर्त’, शरत साहित्य, रवींद्रनाथ ठाकुर का ‘नौका डूबी’- ये सब कृतियां मैंने बीए. करने से पहले ही पढ़ डालीं। मध्यकालीन काव्य से मुझे डर लगता था, इसलिए हिन्दी की पढ़ाई कभी मेरे पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं बनी और मेरा बहुत-सा समय नष्ट होने से बच गया।
कुछ लोग जीवन से किताबों की ओर जाते हैं, वे ज्यादा समझदार, दुनियादार और खबरदार कहलाते हैं पर मेरे पिता स्वयं किताबों की दुनिया को यथार्थ मानते रहे, इसलिए भौतिक अर्थों में समृद्धि उनसे दूर रही। वे फिर भी मगन रहते। पुरानी दिल्ली में सेंट्रल बैंक की सीढ़ियों पर ठंडे बर्फ में लगे दही - बड़े बिकते थे। वे हम सबको वहां दही -बड़े खिलाते और कहते -‘‘हम लोग पंडित नेहरू से ज्यादा खुशकिस्मत हैं।’’
‘‘क्यों ?’’ मैं पूछती।
‘‘पंडित नेहरू इस तरह चांदनी चैक में दही बड़े थोड़ी खा सकते हैं।’’ कहते हुए वे हंस पड़ते।
कई वर्षों तक पापा मेरा शब्दकोश, अर्थकोश और भावकोश बने रहे। जो पापा को पसंद नहीं, ममता वह नहीं करेगी। जो पापा नहीं खाते, ममता वह नहीं खायेगी। जिसे पापा नहीं मानते, उसे ममता नहीं मानेगी। इस दौर को मैंने अपनी कहानी ‘आपकी छोटी लड़की’ में उठाया है।
एक बार यह सामंजस्य गड़बड़ा गया। जितने पापा के दोस्त थे, उनसे चैगुनी मेरी सहेलियां थी। इनमें क्लास में पढ़ने वाली लड़कियां तो थीं ही, काॅलोनी में रहने वाली आंटियां, दीदियां और भाभियां भी थीं। एक लड़की से मैंने अपनी हिन्दी टीचर की आलोचना कर दी। आलोचना क्या थी, उनके शब्द उच्चारण का कार्टून खींचा था, उनके विषयगत ज्ञान को ललकारा था। उस लड़की ने अगले ही दिन हिन्दी टीचर मिसेज भगवाकर को मेरी बात बता दी। मुझे खूब डांट पड़ी। क्लास से बाहर निकाला गया और यह चर्चा आम हुई कि मुझे स्कूल से निकाला जा सकता है।
घर में पापा से मैंने अपनी तकलीफ बांटनी चाही। उन्होेंने कोई डांट फटकार नहीं लगाई पर चिंतित हो गए। पुणे के दस्तूर पब्लिक स्कूल से निकाली गई छात्रा का प्रवेश अन्यत्र होना असंभव होता। तब पापा ने मुझसे कहा-‘‘मुन्नी, आगे से याद रखो, थिंक आॅफ योर फ्रेंड ऐज ऐन ऐनिमी टुमारो (आज का तुम्हारा मित्र कल शत्रु हो सकता है)।’’
यह बात गलत, सिनिकल और नेगेटिव है, यह मुझे तब ही महसूस हो गया था। मैंने असहमति में गर्दन हिलाई। उनकी यह सलाह मैं आज तक नहीं मान सकी। न जाने अब तक कितनी बार धोखा खाया, नुकसान उठाए, मुसीबतें झेलीं, सिर फुड़वाया पर दोस्तों को दुश्मन समझने की आशंका पर कभी विचार नहीं किया। जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, अपने माता-पिता की खूबियों के साथ - साथ उनकी खामियों से भी वाकिफ होते जाते हैं पर अपनी समस्त खूबियों -खामियों पापा एक बहुआयामी व्यक्तित्व थे। उन पर केंद्रित एक रचना पर मैं आजकल काम कर रही हूं पर पात्र इतना विशाल है कि रचना में वह समा नहीं रहा, समेटने की कौन कहे।
यह अजीब, किंतु सच है कि जब मैं गद्य पढ़ती थी, तब कविता लिखने के लिए पे्ररित होती थी और बाद में जब आधुनिक काव्य में रस लिया तो गद्य की ओर मुड़ गयी। 1961 में दिल्ली विश्वविद्यालय में एमए. इंग्लिश में प्रवेश लिया।
शुरू के चार महीने तो एक भी लेक्चर मेरी समझ में नहीं आया। मुझे लगा, यहां का हर लड़का-लड़की मुझसे ज्यादा पढ़ाकू और योग्य है पर थोड़ा परिचय होने पर यह आभास होने लगा कि बोलचाल और व्यवहार में अंग्रेजियत अपना लेने से ही कोई अफलातून नहीं हो जाता, यह पीढ़ी ‘एनकाउंटर’ और ‘क्वेस्ट’ में छपी पुस्तक-समीक्षाएं, आइफैक्स में मंचित नाटक और गलगोटिया के काउंटर पर रखी पुस्तकों के शीर्षक याद रखकर समकालीनता का भरती थी, जबकि मैं तब तक अन्स्र्ट फिशर की ‘नेसेसिटी आॅफ आर्ट’ और शिवकुमार मिश्र का ‘माक्र्सवादी सौंदर्यशास्त्र’ हृदयंगम कर चुकी थी। कनाॅट प्लेस या आसफ अली रोड पर सोवियत पुस्तक प्रदर्शनी लगती, जहां पुस्तकें बेहद सस्ती होतीं।
एमए. में मुझे दस रुपए महीना जेब खर्च मिलत। कभी ‘ज्ञानोदय’ में छपी कविता या ‘सुप्रभात’ में छपी कहानी का चालीस-पचास रुपए पारिश्रमिक आ जाता तो मानो लाटरी खुल जाती। एमए. एब्राम्स का ‘द मिरर एंड द लैम्प’, विम्जट एण्ड बु्रक्स का ‘लिटरेरी क्रिटिसिज्म’ और ‘सिमोन द बोवुआ का ‘द मैडरिंस’ और ‘द सेकेंड सेक्स’ मैंने रचनाओं के पारिश्रमिक से खरीदीं।
उन्हीं दिनों दिल्ली के एक प्रकाशन ने अकविता संकलन ‘प्रारंभ’ के प्रकाशन का प्रस्ताव रखा। जगदीश चतुर्वेदी ने मुझसे कविताएं देने का आग्रह किया। ‘प्रारंभ’ में मेरी कविताएं सम्मिलित की गयीं। समीक्षओं में उन्हें उल्लेख और विस्मय दोनों मिला। उन वर्षों में मेरा रूझान कविता की ओर ही था। मेरी बहुत - सी कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद भी प्रयों की तर्ज पर छपे और चर्चित हुए। मैंने अंगे्रजी में मूल रूप से भी कवितायें लिखीं, जिनके दो संकलन प्रकाशित हुए, लेकिन हिन्दी की इस दुनिया में एक गड़बड़ थी। अकविता आंदोलन की शुरूआत परंपरागत रूमानियत के प्रमि विद्रोह, रूढ़िगत काव्य बिंबों से असहमति और अक्खड़ अस्वीकार जैसी ईमानदार कोशिशों से हुई, किंतु जल्द ही उसमें इतनी हिंसा, जुगुप्सा, नकली विद्रोह, शब्द -बहुलता और सरलीकरण समा गए कि कविता का पूरा परिदृश्य अराजक हो उठा। खासकर स्त्री के प्रति उन काव्य-प्रयोगों में बड़ा वस्तुवादी, भोगवादी दृष्टिकोण था और यह मेरी विरक्ति का कारण बना। रातों-रात कवयित्रियां पैदा हो रही थीं और काव्येत्तर कारणों से सरनाम हो रही थीं। एक अमानवीय वातावरण की सृष्टि होने लगी, जिसमें मुझे लगा कि कविता लिखना एक पतनोन्मुखी भीड़ का हिस्साभर बनना है। फिर दिल्ली में कहानी भी प्रयोगधर्मी होती जा रही थी। अपनी मौलिकता को सुरक्षित रखने के लिए कहानी की ओर मुड़ना किसी रचनाकार के लिए एक अनिवार्य रचनात्मक जरूरत थी।
1965 की जनवरी में रवींद्र कालिया से मिलना मेरे रचनाकर्म के लिए एक ऐसा द्वार बना, जिसने मेरे सोच-विचार और जीवन की गति बदल दी। पहली ही मुलाकात में उन्होंने मुझे अज्ञेय और निर्मल वर्मा की रचनाओं के सम्मोहन से निकाल बाहर खड़ा किया। उन्होंने मेरी आंखों पर से पापा का चश्मा उतारकर अपनी नजर से जीवन देखने -जानने के लिए उकसाया। वे न मिलते तो मैं ममता अग्रवाल ही रही आती और दृष्टि के धुंधजाल में ही समय बिता देती। रवि के दुस्साहस और दबंगई ने मुझे एक नयी रचनात्मक ऊर्जा से भर दिया। यह एक ऐसा शख्स था, जिसके रचना-संसार में गद्य और भाव-संसार में पद्य का अजस्त्र प्रवाह था। साधनों की सीमा उसे कहीं बाधित नहीं करती थी, जितना वह दोस्ती और नौकरी में बेबाक और स्वाभिमानी था, उतना ही प्रणय में। जब भी जहां भी मुझे बोलना होता, रवि कहते -‘‘जाओ, बेधड़क बोलकर आना। बबर शेर की तरह जीना सीखो।’’
1966 में इलाहाबाद आकर बस जाना हमारे जीवन की सबसे महत्वपूर्ण मंजिल रही। सिर्फ यही नहीं कि इस शहर ने हमें जीविका प्रदान की, इसने हमें सामान्यता का सौंदर्यशास्त्र, स्वाभिमान का वर्चस्व और एक्रागता का उन्मेष सिखाया, न जाने लोग इलाहाबाद कैसे छोड़कर चले जाते हैं ? यह शहर नहीं, एक शऊर है। यहां शोध, बोध और अर्थ है - यहां निजता का सम्मान है, रचनाधर्मिता की सार्थकता है। इस शहर के बड़े-से-बड़े रचनाकार और छोटे-से-छोटे रचना-प्रेमी में ये सब विशेषताएं अगर मुझे लगातार विस्मित, प्रभावित और प्रेरित करती हैं तो इसमें विचित्र कुछ भी नहीं है। आरंभ के वर्षों में अश्क जी और उनके परिवार ने हमें यहां बसने में जैसा स्नेहासिक्त संबल दिया, उसने हमारे आगामी जीवन और रचना -क्षेत्र की हदें तय कर दीं। मेरा यह विस्मय अभी तक बना हुआ है कि जिन शीर्ष रचनाकारों को पुस्तकों के पन्नों में पढ़ा, वे यहां कितनी सहजता से न सिर्फ मिले, वरन पथ के साथी बनते गए। फिराक, पंतजी, महादेवी, अश्कजी, इलाचंद्र जोशी, अमरकांत, शेखर जोशी, शैलेश मटियानी, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, शांति मेहरोत्रा, गोपेश जी.......स्मृति - श्रृंखला बहुत लंबी है। इसी शहर में परिवार में दो शिशु आए, यहीं नौकरी मिली। यहीं किस्तों पर सही घर और घर का कुछ साज-सामान आया, यहीं रहकर दो दर्जन किताबें लिखी गईं।
इतना सब पढ़ने के बाद यह कतई न सोचा जाये कि लेखन की दुनिया में मैं कोई तीरंदाज हूं। आज भी हर रचना को लेकर मन में सौ-सौ संशय रहते हैं। कभी किसी रचना की काॅपी रखती नहीं, जो भेजने के बाद पढ़कर देख लूं कि गुड़-गोबर क्या बना। पाठकों की उदारता, सहिष्णुता और स्नेह ने ही मेरा लेखन अब तक बचाए रखा है वरना हम कहां के दाना थे।
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अब जब इतने पन्ने काले कर चुकी, इतनी कलम घिस चुकी, इतने रीम कागज बरबाद कर डाला, तुम मुझसे पूछते हो मैं क्यों लिखती हूँ। बहुत नाइंसाफी है पार्टनर। ऐसे सवाल हमें बहुत पीछे ले जाते हैं जब मैं साइकिल से इंदौर की सड़कें नापा करती थी। बी. ए. प्रथम वर्ष की विद्यार्थी थी। हिन्दी मेरा विषय नहीं था, व्यसन था। घर के हर कमरे में किताबों की कतारें थीं। रेसीडेंसी एरिया के बड़े सुनसान बंगले में न बीतने वाली दोपहरें थीं और दिन भर हुई बातें में से सिर उठाते सवाल थे। शहर से निकलने वाले अखबारों के रविवार पृष्ठ उन दिनों जी लुभाते। उनमें छपने की ललक उठती। राहुल बारपुते के सम्पादन में ‘नई दुनिया’ में छपना अनोखा अनुभव देता। ‘जागरण’ में भी मौका मिलता। ये तो थे पहले कदम।
मेरी रचना प्रक्रिया
अगर सूचना विज्ञान में ऐसा कम्प्यूटर निकल आए जो आपकी दिमागी प्रक्रिया को ज्यों -का-त्यों माॅनिटर पर उतार दे तो यकीन मानिए मेरी रचना प्रक्रिया का ऐसा पेचीदा संजाल सामने आए कि मैं खुद उसका विश्लेषण न कर पाऊं। कोई ऊर्जा तरंग है जो चलती चली जाती है, दिमाग में एक बार में पांच-पांच कहानियां लिखी जा रही हैं, कविताएं तो इतनी धकापेल से आ रही हैं कि पूरा कविता संग्रह आंखों के सामने हैं, मय शीर्षक और ब्लर्ब के। दिमाग में तीन उपन्यास एक साथ चल रहे हैं।
ये सारी सक्रियताएँ तभी तक हैं जब तक हाथ खाली नहीं हैं। मैं अपनी मेज पर आकर बैठी नहीं कि सब छू मंतर। किसी पात्र का नाम तक याद नहीं रहता। अपने नाम के सिवा कोई नाम तक नहीं सूझता। पांच मिनट के अंदर प्यास लगती है, सात मिनट के अंदर चयास और पंद्रह मिनट में तो नींद आने लगती है। मैं बड़ी दुःखी होकर कहती हूं - ‘‘रोज मुझे एक पेज लिखते-लिखते नींद आ जाती है, हिंदी साहित्य का क्या होगा!’’ तब मेरे प्रतिपल के साथी रवि हंसकर कहते हैं - ‘‘हिंदी साहित्य का कल्याण ही होगा, तुम चैन से सो जाओ।’’
मेरे घर में आज भी मेरा लिखना या लेखक होना हास्य-विनोद का विषय है। न केवल इसे विशेष नहीं माना जाता, इसे अक्सर कोंचकर, खींचकर, दबाकर परखा भी जाता है। बड़ा बेटा अन्नू कहता है- ’’मां तुम कुछ भी कर लो, कभी शोभा डे या खुशवंत सिंह नहीं बन सकतीं।’’ अगर पलटकर मैं कहूं -‘‘शोभा डे या खुशवंत सिंह भी ममता कालिया नहीं बन सकते।’’ तो अन्नू अपने दोस्तों सहित ठहाका लगाएगा। अपने जवाब से मेरा मरियल आत्मविश्वास भले ही थोड़ा जीवन पा जाए, अन्नू एंड कंपनी के नजरिए में कोई बदलाव नहीं आएगा।
छोटा बेटा मन्नू कम्प्यूटर विशेषज्ञ है। उसने मेरी वेबसाइट बनाई है। जब उससे अपनी कोई रचना वेबसाइट पर डालने को कहती हूं, वह बड़े प्रोफेशनल तरीके से रचला डाल देता है पर उससे पूछो-‘‘उसे कहानी कैसी लगी ?’’ वह कहेगा-‘‘कौन-सी कहानी ? मैंने पढ़ी ही नहीं। आपने डालने को कहा, मैंने डाल दी।’’ मुझे इस सबसे कोई दुख नहीं होता, न ही निराशा होती है। जिन रचनाकारों को घर-परिवार में बहुत प्रोत्साहन मिलता है, वे बड़े हास्यास्पद तरीके से महत्वकांक्षी हो जाते हैं, भले उनमें प्रतिभा हो न हो।
मेरी रचना प्रक्रिया के बारे में मेरे मित्र रवींद्र कालिया का कहना है -‘‘मैंने ममता को विचित्र स्थितियों में लेखन करते देखा है। दूध उफनकर फैल रहा है, ममता का ध्यान उधर नहीं है, वह तल्लीनता से लिख रही है। ट्रेन में वही लिख सकती है, मैं तो पढ़ भी नहीं सकता। उसने लिखा हुआ कभी रिवाइज नहीं किया, जो लिख दिया, वह अंतिम है। अगर मैंने कभी कोई सलाह-मशविरा दे दिया और उसे जंच गया तो उसने वह रचना खारिज कर दी। यह देखकर मैंने सुझाव देना ही छोड़ दिया है। मुझे किसी रचना को साफ करते हुए देखेगी तो सलाह देगी-‘इसे ऐसे ही रहने दो। रिवाइज करके चैपट कर दोगे।’ मेरी बहुत कम रचनाएं ऐसी होंगी, जिन्हें मैंने कम-से-कम दो बार न लिखा हो। ममता को तो मैंने उपन्यास भी साफ करते नहीं देखा। खुदा की उस पर ऐसी रहमत है। ममता के लिए लेखन सबसे प्यारा पलायन भी है। वह किसी बात से परेशान होगी तो लिखने बैठ जाएगी। उसके बाद एकदम संतुलित हो जाएगी...।’’
यही अच्छी बात है। प्रकट, हम एक -दूसरे पर लाख लतीफे सुनाएं, जुमलेबाजी करें, हम एक -दूसरे की सृजनात्मक जरूरतें पहचानते हैं, फिर भी मैं ज्यादा जोखिम मोल नहीं लेती। मेरे लिखने का समय आजकल रात बारह बजे बाद का है, इसलिए अब चैके-चूल्हे और कलम -कागज में कोई स्पद्र्धा नहीं है। जब मैं लिखने बैठती हूं, घर में मच्छरों के अलावा और सब सो जाते हैं।
सुविख्यात विद्वान आलोचक डाॅ. नामवरसिंह के बारे में उनके भाई काशीनाथसिंह ने लिखा है -‘‘वे प्रायः खाने -पीने के बाद रात के बारह बजे दीवार की ओर मुंह करके बैठ जाते। हाथ में कलम होती और घुटनों पर पैड। कागज बिना लाइनों का कोरा होता। उनके लिए सबसे मुश्किल होता पहला वाक्य। उन्हें जितना भी वक्त लगता, पहला वाक्य लिखने में लगता।’’ मुझे यह पढ़कर बड़ा थ्रिल हुआ कि नामवरजी जैसे धुरंधर साहित्यकार की रचना-प्रक्रिया लगभग वही हैं, जो हमसब छुटभैया की, वही आदतें।
मेरे सामने रूलदार कागज आ जाए तो मैं लिखने का इरादा ही छोड़ देती हूं। कुछ वर्ष पहले जब स्याही वाले पेन से रचना लिखी जाती थी, मैं अपने पेन संभालकर रखती थी। अब तो डाॅट पेन और जेल पेन ने लिखावट का सारा चरित्र ही नष्ट कर दिया है। न कहीं अपने कोण हैं, न गोलाइयां, हमारे घर में दो फुलटाइम लेखक हैं पर जब लिखने बैठी तब क्या मजाल कि कोई कलम चलती हालत में मिल जाए। ज्यादातर हम दोनों काले डाॅट पेन इस्तेमाल करते हैं पर नहीं, जब लिखना होगा तो हरदम नीला पेन ही हाथ आएगा। मेरी आदत है, मैं अपनी मेज पर सब चीजें कागज, पिन, टेप, कलम फैलाकर छोड़ देती हूं। फैली हुई चीजों में से मतलब की चीज जल्दी और आसानर से ढूंढी जा सकती है। रवि को सलीका पसंद है। वे अपने कमरे में सब चीजें यथास्थान रखते हैं। कभी -कभी तो वे कमरे को करीना देने में इतने थक जाते हैं कि लिखना मुल्तवी कर एक नींद ले लेते हैं। मेरा कमरा ऊपर है। अक्सर मेरा मन नीचे के कमरों में चल रही गतिविधि में इतना रमा रहता है कि ऊपर जाने की नौबत नहीं आती, कई-कई रोज। अगर मैं ऊपर चली जाऊं तो घंटों नीचे जाने का नंबर नहीं आता। नहीं, इतनी देर लिखती नहीं हूं, कोई संदर्भ ढूंढने के चक्कर में कोई दिलचस्प किताब हाथ लग जाती है और समय का पता ही नहीं चलता।
मेरे ख्याल से एक लेखक अपनी सृजनात्मक प्रक्रिया को जितना समझता है, उससे कहीं ज्यादा उसे उसके समकालीन व अग्रज रचनाकार समझते हैं। समय-समय पर कई वरिष्ठ और साथी लेखकों ने मेरी रचना-प्रक्रिया पर आश्चर्य और आक्रोश दोनों प्रकट किए हैं। श्री उपेंद्रनाथ ‘अश्क’ में यह विशेषता थी कि वे नये से नये लेखक को पढ़ते थे और उस पर अपनी राय जताते। उन्होंने लिखा -‘‘मैं यही कह सकत हूं कि ममता की रचनाओं में हमेशा अपूर्व पठनीयता रही है। पहले वाक्य से उसकी रचना मन को बांध लेती है और अपने साथ बहाए लिए चलती है। कुछ उसी तरह जैसे उर्दू में कृष्णचंदर और हिंदी में जैनेंद्र की रचनाएं। यथार्थ का आग्रह न कृष्ण का था, न जैनेंद्र का, लेकिन ममता रूमानी या काल्पनिक कहानियां नहीं लिखती। उसकी कहानियां ठोस जीवन के धरातल पर टिकी हैं। निम्नमध्यमवर्गीय जीवन के छोटे-छोटे ब्यौरों का गुंफन, नश्तर का सा काटता तीखा व्यंग्य और चुस्त - चुटीले जुमले उसकी कहानियों के प्रमुख गुण हैं। ममता की बहुत अच्छी कहानियों में तीन - चार कहानियों का मैं विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा- ‘लड़के’, ‘बसंत-सिर्फ एक तारीख’, ‘मां’ और ‘आपकी छोटी लड़की’।’’ अभी पिछले दिनों मेरे पहले उपन्यास ‘बेघर’ का नवीन संस्करण वाणी प्रकाशन से छपकर आया तो उसमें अरविंद जैन का लेख ‘बेघर के पच्चीस वर्ष अर्थात् कौमार्य की अग्नि परीक्षा’ शामिल था। लगा कि यह रचना पच्चीस वर्ष (अब चालीस) जीवित और प्रासंगिक रह ली। जब यह रचना लिखी थी तब यह कतई नहीं सोचा था कि इसे इतना लंबा जीवन मिलेगा।
1970 में मैं मुंबई में हाॅस्टल में रह रही थी और रवि इलाहबाद में अपने पैर जमाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। रवि ने सुझाया कि मैं छोटी-छोटी कहानियों के बजाय उपन्यास लिखने की कोशिश कर देखूं। मेरे दिमाग में दो अलग-अलग स्मृति चित्र थे, जो लिखते समय गड्डमड्ड होते रहे। रचना बनती भी इसी तरह है, कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा। जब मैं पुणे में स्कूल में पढ़ती थी, ताड़ीवाला रोड पर हमारे घर के पास एक लड़की रहती थी, जिसने अपने अविवाहित रह जाने की त्रासदी मम्मी को सुनाई थी। उसका प्रेमी उसे रोज घर ले जाता था। उसके साथ उसने शादी की सारी खरीददारी की, घर की तैयारी की पर जब विवाह की तारीख तय करने का समय आया, वह एकदम पीछे हट गया। उसने कहा -‘‘मैं किसी ऐसी -वैसी लड़की से शादी नहीं करूंगा।’’ कांता बेन कला निकेतन और रूपकला से खरीदी साड़ियों के ढेर के बीच बैठी रह गयी और प्रेमी उसकी जिंदगी से निकल गया।
दूसरा स्मृति-चित्र था एक मिल परिवार का, जिसमें पति बड़े खुले दिल का संवेदनशील व्यक्ति था। उसकी पत्नी उतनी ही ठस्स, ठोस और शंकालु महिला थी। वह लगातार अपने पति पर शक करती थी, उसकी जासूसी करती थी और जब वह अकस्मात चल बसा, पत्नी यही विलाप करती रह गयी-‘ये तो मेरे खेलने-खाने के दिन थे’ परमजीत और रमा में इन दोनों के नक्श आए हैं।
वैसे ‘बेघर’ में कथा कई जगह से और खुलती है पर मेरी एक सांस में लिखने की आदत कई कथा- स्थितियों के साथ न्याय नहीं कर पाती। संजीवनी का एकाकीपन एक अलग शोध की मांग करता है, जो आज तक पूरा नहीं हो पाया। एक बार लिख डालने पर दुबारा किसी रचना पर मेहनत करना, संशोधन करना मैंने आजतक नहीं सीखा, अब क्या सीखूंगी। इसलिए कभी कहीं पुरानी रचना छपवाने का सुख भी हासिल नहीं किया। जितनी देर में मैं पुरानी रचना ढूंढंूगी उतने में तो नयी-नकोर रचना लिख डालूं।
कई बार किसी और की कही या लिखी बात मेरे अंदर ऐसा बवाल मचा देती है कि बवंडर की तरह लिख डालती हूं मैं। राजेन्द्र यादव का लेख ‘होना/सोना खूबसूरत दुश्मन के साथ’ पढ़कर मेरा यही हाल हुआ। राजेन्द्र जी के नाकाबिले-बर्दाश्त दांव-पेच के खिलाफ मैंने पचास-साठ कविताएं लिख डाली, जिनमा सामूहिम शीर्षक रखा ‘खांटी घरेलू औरत’। साहित्य के सुधी पाठक शीर्षक से ही समझ गए होंगे मेरा आशय क्या था।
मुझे कोई गुस्सा दिला दे, घर में, दोस्तों में, दुनिया में तो उस वक्त अच्छा तो यही हो कि मेरे सामने कागज-कलम न आए। मैं उस वक्त कविता तो क्या पूरा उपन्यास दन्न-से लिख सकती हूं। कागज पर बाद में उतरती है रचना पर दिमाग में तो पूरी ओरिएंट पेपर मिल चालू रहती है। अब मुझे इतना मान लेना चाहिए कि लिखने के समस्त नियमों, परिपाटियों और प्रयोगों को धता बतातो हुए मेरे दिल-दिमाग का बावलापन ही मेरी रचनाओं का सबसे बड़ा कारण और कारक रहा है। जब मैं अन्य रचनाकारों का स्टडी-रूम देखती हूं तो मैं दंग रह जाती हूं। इतने साफ -सुथरे कमरों में सिर्फ शल्यक्रिया की जा सकती है, सृजन क्रिया नहीं। बहुत अधिक सुविधाओं में मेरी रचना -शैली ठिठुर जाती है। मैंने जब ‘पे्रम कहानी’ उपन्यास लिखा, बहुत से पाठक समय-समय पर मुझसे मिलने आए। सब जानना चाहत थे, मैंने इतना तरल प्रेम कथा किस तरह लिखी। तब बच्चे छोटे थे। मैंने दिखाया उन्हें। जिस कमरे में मैं बैठकर लिखती थी, वहीं बच्चे गेंद-तड़ी खेलते रहते थे, पंचम सुर में स्टीरियो बजता रहता था, जब -तब मेरी सेविका आकर कान पर चिल्लाती रहती थी। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था। वर्षों मेरे पास लिखने के लिए न अकेला कमरा था, न मेज। मैं बच्चों की मेज पर काम करती थी या बिस्तर पर बैठकर घुटनों पर कागज का बोर्ड रखकर। तब मैं कहती थी -
‘‘विस्तृत मेरे घर का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना।’’
जब से हम मेहदौरी काॅलोनी के अपने घर में आए हैं, मेरे पास एक कमरा और मेज है पर रवि को कमरों का इतिहास -भूगोल बदलने का जबरदस्त शौक है। लिहाजा कभी मेरा कमरा नीचे चला जाता है, कभी ऊपर। कभी घर की समस्त धूलभरी किताबें, एक्स्ट्रा कुर्सियां, फोटो, कैलेंडर, गोया हर वह चीज जो कहीं फिट न हो, मेरे कमरे में समा जाती है। कभी मैं खुद ही कमरे से भागी फिरती हूं। शाम-रात के दो-एक घंटे केबिल टीवी की भेंट चढ़ जाते हैं, आध-एक घंटा टाइम्स का क्राॅसवर्ड ले लेता है। रसोई मेरा रसिक पलायन है। मैं अचानक कोई ऐसा व्यंजन बनाने की कोशिश में लग जाती हूं, जो मुझे पढ़कर भी पल्ले नहीं पड़ता। एक साल पहले तक काॅलेज के काम भी इसी पलायनवाद में शामिल थे। एक लेखक के पास न लिखने के कितने बहाने होते हैं।
जब लिखना शुरू किया था, मैं सोचा करती थी कि साधन होने पर मैं एक अखबार निकालूंगी ‘ममता टाइम्स’। हमने पे्रस तो लगाया पर उसमें से ‘ममता टाइम्स’ नहीं निकला और बहुत -सा साहित्य वहां छपा। इलाहाबाद ने मेरे लेखन को जो धूप-ताप और तेवर दिया वह हिन्दुस्तान के और किसी भी नगर में संभव नहीं था।
अब थोड़ी चर्चा उस अल्हड़ वक्त की, जब शब्द की शक्ति और करिश्मे का अनायास आभास मिला। होश संभालते ही दो बातें मेरे लिए अविस्मरणीय बन गई। मैंने नया-नया लिखना सीखा था। मैं आंगन में, दीवारों पर, स्लेट पर अपने अक्षर-ज्ञान का प्रदर्शन करती रहती थी। बैठक की दीवार पर मिट्टी की एक सुंदर-सी मछली टंगी थी। एक दिन मैं कुर्सी पर खड़ी होकर मछली के नीचे लिख रही थी ‘मछली’ तभी हाथ उल्टा और मछली व कुर्सी समेत मैं धड़ाम-से गिर गई। मां ने मुझे एक थप्पड़ मारते हुए कहा-‘‘आने दे आज पापा को, तेरी वह पिटाई होगी कि सब लिखना-विखना भूल जाएगी।’’
मैं अपना दुखता सिर और आहत मन लिए कांपती रही। एक प्रार्थना मेरे अंदर निरंतर चलती रही - हे भगवान, पापा से शिकायत न हो, वे तो जान ही निकाल देंगे।
पापा का क्रोध हमारी स्मृतियों में इस कदर भयंकर था कि उनके दफ्तर से लौटने के समय हम एकदम दुबक जाते। भारत चाचा के बच्चों ने उनका नाम ‘डांटने वाले ताऊजी’ रख रखा था। जैसे ही पापा दफ्तर से आए, बैठक में घुसे कि उनकी नजर सूनी दीवा पर पड़ी।
‘‘मछली कहां गई ?’’ पापा ने पूछा।
मां ने कहा -‘‘पूछो मुन्नी से। सारा दिन शैतानी करती रहती है। इसी ने तोड़ी है।’’
मेरा कान उमेठकर पूछा गया -‘‘कैसे टूटी ?’’
मैंने रूआंसी आवाज में कहा-‘‘पापा, हम मछली के नीचे लिख रहे थे मछली। जैसे ही हमने ‘ली’ की टोपी लगाई, मछली गिर पड़ी। हमने नहीं तोड़ी पापा।’’
आश्चर्य! पापा ने कुछ नहीं कहा। मां दृश्य से सरककर रसोई में चली गईं। पापा ने अपने कागजों में से एक कागज मुझे देकर कहा -‘‘चलो, इस पर बीस बार मछली लिखकर दिखाओ।’’
इस तरह एक जालिम शाम का शांत, अनाटकीय अवसान हुआ। लिखित शब्द की शक्ति से यह मेरा पहला परिचय था। परिचय इस सत्य से भी हुआ कि पिता के जीवन में पढ़ने -लिखने का क्या स्थान था।
दूसरी घटना एक गोष्ठी की है। हमारे घर गोष्ठी का आयोजन था। मां रसोई में केवड़े का पानी और इलायची की चाय बना रही थीं। बैठक में धवल चादें बिछी थीं। एक-एक कर साहित्यकार आते जा रहे थे - विष्णु प्रभाकर, विजयेंद्र स्नातक, इंद्र विद्यावाचस्पति, प्रभाकर माचवे, श्रीकृष्ण, रांगेय राघव, देवराज दिनेश और बाबूराम पालीवाल। अंत में आए जैनेंद्रकुमार जिन्हें अपनी कहानी का पाठक करना था। पापा ने उन्हें श्रद्धापूर्वक झुककर प्रणाम किया। कहानी मेरी समझ में नहीं आई पर मैंने देखा, सब श्रोता मंत्रमुग्ध जैनेंद्रजी को सुन रहे थे। गोष्ठी खत्म होने पर सबको विदा देने के बाद पापा कमरे में आए और बोले -‘‘यादगार दिन है आज। जैनेंद्र जी ने मेरे आग्रह का सम्मान किया। इतने बड़े रचनाकार और कोई ऐंठ नहीं उनमें।’’
पापा से हम डरते भी थे और उनकी श्रद्धा भी करते थे। जैनेंद्रजी श्रद्धा के श्रद्धापात्र थे, यानी हमारे लिए धु्रवतारा। उस दिन मुझे लगा बड़ी होकर मैं भी कहानियां लिखा करूंगी, तब पापा मानेंगे मुझे।
बाद के वर्षों में नागपुर, बंबई, पूना, इंदौर, भोपाल और वापस दिल्ली में रहते हुए हर जगह मैंने पाया कि मेरे पिता के लिए कलाकार सर्वोच्च आदर का पात्र रहा। वे पढ़ते, बहस करते और अंत में कायल होते। उन जैसा जटिल और प्रबुद्ध पाठक लेखक के लिए चुनौती और चेतावनी दोनों था।
बीच में एक बात और याद आ रही है। 1947 का जमाना था। पापा गाजियाबाद के शम्भूदयाल इंटर काॅलेज में प्रिंसिपल बन गए थे। जब तक हमें कोई मकान नहीं मिला, काॅलेज की साइंस लैब में हमारे रहने का इंतजाम किया गया। आए दिन अफवाह उड़ती, स्टेशन के उस पार की बस्ती के लोग छुरा लेकर आने वाले हैं, वे एक-एक को काट डालेंगे। काॅलेज की छत के ऊपर बहुत -सा पुआल डाला हुआ था। ‘अल्लाह-हू-अकबर’ के नारे सुनते ही हम लोगों को पुआल में छुपा दिया जाता। थोड़ी देर बाद चैकीदार आकर बताता - वे लोग चले गए, आप सब बाहर आ जाएं। स्कूल में बच्चे ठोड़ी के नीचे रबरबैंड को सन्-सन् बजाते हुए कहते -‘टोडी बच्चा हाय-हाय’। काॅलेज से सटा जिला अस्पताल था। बीच की दीवार से उस पार देखने पर हमें रोज तरह-तरह की घटनाओं का पता चलता। एक दिन हम बहनों ने देखा, बुरका पहने एक औरत अस्पताल की डिस्पेंसरी के बाहर बरामदे में बेंच पर बैठी थी। अस्पताल का कंपाउंडर उसके गाल पर सुई से टांके लगा रहा था। औरत बुरी तरह चिल्ला रही थी, उसका पति इससे बेपरवाह एक तरफ खड़ा था और कंपाउंडर उसका गाल ऐसे सी रहा था, जैसे मोची जूता सीता है। दीदी ने कहा-‘‘देखो, इनके हाथों में तो छुरा नहीं है, कान्छा हमें यों ही डरता रहता है।’’ उसके बाद ‘अल्लाह-हू-अकबर’ सुनकर हमें वैसा डर कभी नहीं लगा, जैसे पहले लगा करता था।
1948 की एक शाम थी। हमारे घर का चिबिल्ला मसखरा सेवक शिवचरन बाजार से दौड़ा-दौड़ा घर आया और दहाड़े मारकर रोने लगा। वह रोता जा रहा था और चिल्ला रहा था -‘‘महात्मा गांधी के गोली लग गयी। अब मैं किसको बापू कहूंगा। बीबी जी आज शाम चूल्हा नहीं जलेगा, हां नही ंतो...।’’
अगले दिन हम सब राजघाट गए, लक्खाखा भीड़ में क्रंदन और चीत्कार के अलावा और कुछ नहीं था। बड़े-बड़े नेता गांधी जी की चिता के पास मुंह लटकाए, सिर झुकाए खड़े थे। हर एक के मुंह पर यह भाव था, मानो उन्हीं की गलती से गांधी जी की हत्या हुई है। शोक की उस घड़ी में मुझे याद आया, कुछ साल पहले का समय, जब सुबह-सुबह गांधी जी की प्रार्थना सभा दिखाने के लिए पापा हमें रामलीला मैदान में ले गए थे। हम काफी आगे बैठे थे। सभा स्थल पर गांधी जी के आगमन पर सब लोग उनके सम्मान में खड़े हुए। बीच के रास्ते से गुजरते हुए महात्मा गांधी बच्चों की तरफ थोड़ी देर ठिठके। एकाएक मैंने उनका हाथ पकड़कर पूछा,‘बाबा, आप नंगे क्यों रहते हैं ?’ गांधी जी हंस दिए उन्होंने मुझे गोदी में उठा लिया और मेरा माथा चूमकर, जमीन पर खड़ा कर दिया। इस चेष्ठा में कुछ भी कृत्रिम या प्रायोजित नहीं था, नही ंतो कैमरा इस दृश्य को कैद करने के लिए तैनात रहता।
बचपन में देखे दृश्य बिंब कितने लंबे समय साथ चलते हैं, यह आज पता चलता है। वे सब हमारे मानस का हंस बनते है। हमारे छोटे-से परिवार में कुछ तो पापा के आदर्शवाद के कारण और कुछ मम्मी के डांवाडोल स्वास्थ्य के चलते परिश्रम की महिमा अपार थी। आज जब मेरे बच्चे मुझे हर समय किसी-न-किसी काम में जुटे देखते हैं, वे हैरान होते हैं। उन्हें नहीं पता कि हमारे घर में बच्चों का दोपहर को लेटना या सोना नितांत वर्जित था। खाली समय में हमें मोटी-मोटी पुस्तकें दी जाती। बाकायदा होमवर्क की तरह।
‘‘नेहरू जी की आत्मकथा का एक चैप्टर पढ़कर रखना, मैं शाम को आकर पूछूंगा।’’ पापा कहते और हमारी दोपाहरी नेहरू जी के नाम लिख जाती।
मां के मेडिकल बिल्स की लिस्ट बनाना, बिजली और फोन का बिल अदा करने जाना, डाकखाने में रजिस्ट्री करना, घर के लिए दूध और तरकारी लाना सब मेरे हिस्से के काम थे। इन जिम्मेदारियों से मेरे व्यवहार और व्यक्तित्व में शुरू से एक उन्मुक्त्ज्ञ स्वयं सेवक के गुण विकसित होते गए। कभी अपने आप को लड़की मानकर डरना, सीमित या संकुचित होना मेरे स्वभाव में शामिल नहीं हुआ। कम आयु में ही बड़ी-बड़ी किताबें पढ़ने से (जिनका अधिकांश समझ में भी नहीं आता था) सतत पढ़ने का अभ्यास हो गया। साहित्य कर्म और साहित्यकार के प्रति पिता का आदरभाव देख कर जीवन का लक्ष्य भी निर्धारित हो चला। वे समस्त स्त्रियोचित भंगिमाएं-घबराना, शरमाना, चुप रहना - मुझसे बहुत पीछे छूट गई थीं। इंदौर में क्रिश्चियन काॅलेज के मंच से जब-जब वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में अपने छात्र प्रतिद्वंद्वियों को हराया, हारे हुए लड़कों ने घबराकर मेरा नामकरण दिया -‘मिस एटम बम’।
जहां बड़े शहर व्यक्ति की निजता, विश्ष्टिता, आवेग-संवगों को लील जाते हैं, छोटे शहर इन गुणों को सघन, मुखर और केंद्रित करने में सहायक होते हैं। इंदौर क्रिश्चियन काॅलेज में आए दिन कवि-गोष्ठियां होती। किसी ने नयी रचना लिखी तो कहानी - गोष्ठी आयोजित हो जाती। तब आकाशवाणी साहित्योन्मुख साधन था। इंदौर का तेवर उन दिनों कुछ - कुछ अपने इलाहबाद जैसा था। कमिश्नर, कलेक्टर, विधायक, मंत्री किसी को तब तक शहर गिनती में नहीं लेता था, जब तक साहित्य या कला के प्रति उसके अनुराग का संकेत न मिल जाए। कविता के क्षेत्र में नित नये प्रयोग करने वालों में तब चंद्रकांत देवताले, सरोज कुमार, चंद्रसेन विराट, श्रीकांत जोशी, देवव्रत जोशी यहां सक्रिय थे। दूसरी तरफ रमेश बख्शी जैसा कहानीकार जैनेंद्र कुमार की खटिया खड़ी किए रहते थे।
घर से कुछ दूर एक छोटी-सी दुकान थी, जहां दो आने रोज पर किताबें मिलती थीं। मैंने बहुत-सी किताबें वहीं से लेकर पढ़ीं। अश्क जी की ‘बड़ी-बड़ी आंखें’, कृशनचंदर का ‘बावन पत्ते’, धर्मवीर भारती का ‘गुनाहों का देवता’ और रांगेय राघव का ‘मुर्दों का टीला’ इन सबसे उस दुकान के जरिए ही परिचय मिला। हमारे घर में गरिष्ठ और वरिष्ठ पुस्तकें थी हिन्दी और अंग्रेजी की। टाॅलस्टाॅय की ‘वाॅर एंड पीस’ , ‘अन्न कैरिनिना’, जेम्स जाॅइस का ‘युलिसिस’, आॅस्कर वाइल्ड के नाटक, शाॅ के प्रोफेसेज, स्टीफन ज्वीग का ‘बिवेयर आॅफ पिटी’, हार्डी का ‘ज्युड द आॅब्सक्योर’ मेरी सूनी। लंबी दोपहरों के दोस्त थे। अज्ञेय का ‘शेखर’ और ‘नदी के द्वीप’, जैनेंद्र का ‘त्यागपत्र’ और ‘विवर्त’, शरत साहित्य, रवींद्रनाथ ठाकुर का ‘नौका डूबी’- ये सब कृतियां मैंने बीए. करने से पहले ही पढ़ डालीं। मध्यकालीन काव्य से मुझे डर लगता था, इसलिए हिन्दी की पढ़ाई कभी मेरे पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं बनी और मेरा बहुत-सा समय नष्ट होने से बच गया।
कुछ लोग जीवन से किताबों की ओर जाते हैं, वे ज्यादा समझदार, दुनियादार और खबरदार कहलाते हैं पर मेरे पिता स्वयं किताबों की दुनिया को यथार्थ मानते रहे, इसलिए भौतिक अर्थों में समृद्धि उनसे दूर रही। वे फिर भी मगन रहते। पुरानी दिल्ली में सेंट्रल बैंक की सीढ़ियों पर ठंडे बर्फ में लगे दही - बड़े बिकते थे। वे हम सबको वहां दही -बड़े खिलाते और कहते -‘‘हम लोग पंडित नेहरू से ज्यादा खुशकिस्मत हैं।’’
‘‘क्यों ?’’ मैं पूछती।
‘‘पंडित नेहरू इस तरह चांदनी चैक में दही बड़े थोड़ी खा सकते हैं।’’ कहते हुए वे हंस पड़ते।
कई वर्षों तक पापा मेरा शब्दकोश, अर्थकोश और भावकोश बने रहे। जो पापा को पसंद नहीं, ममता वह नहीं करेगी। जो पापा नहीं खाते, ममता वह नहीं खायेगी। जिसे पापा नहीं मानते, उसे ममता नहीं मानेगी। इस दौर को मैंने अपनी कहानी ‘आपकी छोटी लड़की’ में उठाया है।
एक बार यह सामंजस्य गड़बड़ा गया। जितने पापा के दोस्त थे, उनसे चैगुनी मेरी सहेलियां थी। इनमें क्लास में पढ़ने वाली लड़कियां तो थीं ही, काॅलोनी में रहने वाली आंटियां, दीदियां और भाभियां भी थीं। एक लड़की से मैंने अपनी हिन्दी टीचर की आलोचना कर दी। आलोचना क्या थी, उनके शब्द उच्चारण का कार्टून खींचा था, उनके विषयगत ज्ञान को ललकारा था। उस लड़की ने अगले ही दिन हिन्दी टीचर मिसेज भगवाकर को मेरी बात बता दी। मुझे खूब डांट पड़ी। क्लास से बाहर निकाला गया और यह चर्चा आम हुई कि मुझे स्कूल से निकाला जा सकता है।
घर में पापा से मैंने अपनी तकलीफ बांटनी चाही। उन्होेंने कोई डांट फटकार नहीं लगाई पर चिंतित हो गए। पुणे के दस्तूर पब्लिक स्कूल से निकाली गई छात्रा का प्रवेश अन्यत्र होना असंभव होता। तब पापा ने मुझसे कहा-‘‘मुन्नी, आगे से याद रखो, थिंक आॅफ योर फ्रेंड ऐज ऐन ऐनिमी टुमारो (आज का तुम्हारा मित्र कल शत्रु हो सकता है)।’’
यह बात गलत, सिनिकल और नेगेटिव है, यह मुझे तब ही महसूस हो गया था। मैंने असहमति में गर्दन हिलाई। उनकी यह सलाह मैं आज तक नहीं मान सकी। न जाने अब तक कितनी बार धोखा खाया, नुकसान उठाए, मुसीबतें झेलीं, सिर फुड़वाया पर दोस्तों को दुश्मन समझने की आशंका पर कभी विचार नहीं किया। जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, अपने माता-पिता की खूबियों के साथ - साथ उनकी खामियों से भी वाकिफ होते जाते हैं पर अपनी समस्त खूबियों -खामियों पापा एक बहुआयामी व्यक्तित्व थे। उन पर केंद्रित एक रचना पर मैं आजकल काम कर रही हूं पर पात्र इतना विशाल है कि रचना में वह समा नहीं रहा, समेटने की कौन कहे।
यह अजीब, किंतु सच है कि जब मैं गद्य पढ़ती थी, तब कविता लिखने के लिए पे्ररित होती थी और बाद में जब आधुनिक काव्य में रस लिया तो गद्य की ओर मुड़ गयी। 1961 में दिल्ली विश्वविद्यालय में एमए. इंग्लिश में प्रवेश लिया।
शुरू के चार महीने तो एक भी लेक्चर मेरी समझ में नहीं आया। मुझे लगा, यहां का हर लड़का-लड़की मुझसे ज्यादा पढ़ाकू और योग्य है पर थोड़ा परिचय होने पर यह आभास होने लगा कि बोलचाल और व्यवहार में अंग्रेजियत अपना लेने से ही कोई अफलातून नहीं हो जाता, यह पीढ़ी ‘एनकाउंटर’ और ‘क्वेस्ट’ में छपी पुस्तक-समीक्षाएं, आइफैक्स में मंचित नाटक और गलगोटिया के काउंटर पर रखी पुस्तकों के शीर्षक याद रखकर समकालीनता का भरती थी, जबकि मैं तब तक अन्स्र्ट फिशर की ‘नेसेसिटी आॅफ आर्ट’ और शिवकुमार मिश्र का ‘माक्र्सवादी सौंदर्यशास्त्र’ हृदयंगम कर चुकी थी। कनाॅट प्लेस या आसफ अली रोड पर सोवियत पुस्तक प्रदर्शनी लगती, जहां पुस्तकें बेहद सस्ती होतीं।
एमए. में मुझे दस रुपए महीना जेब खर्च मिलत। कभी ‘ज्ञानोदय’ में छपी कविता या ‘सुप्रभात’ में छपी कहानी का चालीस-पचास रुपए पारिश्रमिक आ जाता तो मानो लाटरी खुल जाती। एमए. एब्राम्स का ‘द मिरर एंड द लैम्प’, विम्जट एण्ड बु्रक्स का ‘लिटरेरी क्रिटिसिज्म’ और ‘सिमोन द बोवुआ का ‘द मैडरिंस’ और ‘द सेकेंड सेक्स’ मैंने रचनाओं के पारिश्रमिक से खरीदीं।
उन्हीं दिनों दिल्ली के एक प्रकाशन ने अकविता संकलन ‘प्रारंभ’ के प्रकाशन का प्रस्ताव रखा। जगदीश चतुर्वेदी ने मुझसे कविताएं देने का आग्रह किया। ‘प्रारंभ’ में मेरी कविताएं सम्मिलित की गयीं। समीक्षओं में उन्हें उल्लेख और विस्मय दोनों मिला। उन वर्षों में मेरा रूझान कविता की ओर ही था। मेरी बहुत - सी कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद भी प्रयों की तर्ज पर छपे और चर्चित हुए। मैंने अंगे्रजी में मूल रूप से भी कवितायें लिखीं, जिनके दो संकलन प्रकाशित हुए, लेकिन हिन्दी की इस दुनिया में एक गड़बड़ थी। अकविता आंदोलन की शुरूआत परंपरागत रूमानियत के प्रमि विद्रोह, रूढ़िगत काव्य बिंबों से असहमति और अक्खड़ अस्वीकार जैसी ईमानदार कोशिशों से हुई, किंतु जल्द ही उसमें इतनी हिंसा, जुगुप्सा, नकली विद्रोह, शब्द -बहुलता और सरलीकरण समा गए कि कविता का पूरा परिदृश्य अराजक हो उठा। खासकर स्त्री के प्रति उन काव्य-प्रयोगों में बड़ा वस्तुवादी, भोगवादी दृष्टिकोण था और यह मेरी विरक्ति का कारण बना। रातों-रात कवयित्रियां पैदा हो रही थीं और काव्येत्तर कारणों से सरनाम हो रही थीं। एक अमानवीय वातावरण की सृष्टि होने लगी, जिसमें मुझे लगा कि कविता लिखना एक पतनोन्मुखी भीड़ का हिस्साभर बनना है। फिर दिल्ली में कहानी भी प्रयोगधर्मी होती जा रही थी। अपनी मौलिकता को सुरक्षित रखने के लिए कहानी की ओर मुड़ना किसी रचनाकार के लिए एक अनिवार्य रचनात्मक जरूरत थी।
1965 की जनवरी में रवींद्र कालिया से मिलना मेरे रचनाकर्म के लिए एक ऐसा द्वार बना, जिसने मेरे सोच-विचार और जीवन की गति बदल दी। पहली ही मुलाकात में उन्होंने मुझे अज्ञेय और निर्मल वर्मा की रचनाओं के सम्मोहन से निकाल बाहर खड़ा किया। उन्होंने मेरी आंखों पर से पापा का चश्मा उतारकर अपनी नजर से जीवन देखने -जानने के लिए उकसाया। वे न मिलते तो मैं ममता अग्रवाल ही रही आती और दृष्टि के धुंधजाल में ही समय बिता देती। रवि के दुस्साहस और दबंगई ने मुझे एक नयी रचनात्मक ऊर्जा से भर दिया। यह एक ऐसा शख्स था, जिसके रचना-संसार में गद्य और भाव-संसार में पद्य का अजस्त्र प्रवाह था। साधनों की सीमा उसे कहीं बाधित नहीं करती थी, जितना वह दोस्ती और नौकरी में बेबाक और स्वाभिमानी था, उतना ही प्रणय में। जब भी जहां भी मुझे बोलना होता, रवि कहते -‘‘जाओ, बेधड़क बोलकर आना। बबर शेर की तरह जीना सीखो।’’
1966 में इलाहाबाद आकर बस जाना हमारे जीवन की सबसे महत्वपूर्ण मंजिल रही। सिर्फ यही नहीं कि इस शहर ने हमें जीविका प्रदान की, इसने हमें सामान्यता का सौंदर्यशास्त्र, स्वाभिमान का वर्चस्व और एक्रागता का उन्मेष सिखाया, न जाने लोग इलाहाबाद कैसे छोड़कर चले जाते हैं ? यह शहर नहीं, एक शऊर है। यहां शोध, बोध और अर्थ है - यहां निजता का सम्मान है, रचनाधर्मिता की सार्थकता है। इस शहर के बड़े-से-बड़े रचनाकार और छोटे-से-छोटे रचना-प्रेमी में ये सब विशेषताएं अगर मुझे लगातार विस्मित, प्रभावित और प्रेरित करती हैं तो इसमें विचित्र कुछ भी नहीं है। आरंभ के वर्षों में अश्क जी और उनके परिवार ने हमें यहां बसने में जैसा स्नेहासिक्त संबल दिया, उसने हमारे आगामी जीवन और रचना -क्षेत्र की हदें तय कर दीं। मेरा यह विस्मय अभी तक बना हुआ है कि जिन शीर्ष रचनाकारों को पुस्तकों के पन्नों में पढ़ा, वे यहां कितनी सहजता से न सिर्फ मिले, वरन पथ के साथी बनते गए। फिराक, पंतजी, महादेवी, अश्कजी, इलाचंद्र जोशी, अमरकांत, शेखर जोशी, शैलेश मटियानी, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, शांति मेहरोत्रा, गोपेश जी.......स्मृति - श्रृंखला बहुत लंबी है। इसी शहर में परिवार में दो शिशु आए, यहीं नौकरी मिली। यहीं किस्तों पर सही घर और घर का कुछ साज-सामान आया, यहीं रहकर दो दर्जन किताबें लिखी गईं।
इतना सब पढ़ने के बाद यह कतई न सोचा जाये कि लेखन की दुनिया में मैं कोई तीरंदाज हूं। आज भी हर रचना को लेकर मन में सौ-सौ संशय रहते हैं। कभी किसी रचना की काॅपी रखती नहीं, जो भेजने के बाद पढ़कर देख लूं कि गुड़-गोबर क्या बना। पाठकों की उदारता, सहिष्णुता और स्नेह ने ही मेरा लेखन अब तक बचाए रखा है वरना हम कहां के दाना थे।
संपर्क:
ममता कालिया
मोबाइल: 9212741322
मित्रों,
जवाब देंहटाएंरचना पढ़ने के बाद मुझे उसके बारे में बताने से बेहतर होगा कि यहीं अपनी राय ज़ाहिर करें, ताकि रचनाकार भी आपकी राय जान सकें।
Mamtadee, Sansmaran rochak hai. 1985 ke samay, Aapkee principalgiree ke vakt ka Sansmaran dena bhee rochak hoga, jo un dino apne mujhe sunaya tha.
जवाब देंहटाएंममता दी को जानना बहुत रोचक रहा..
जवाब देंहटाएंममता जी की कहानियाँ तो धारदार हैं ही, उन्हें इस तरह जानना भी अच्छा लगा. अपने 'लिखने' को इतनी सहजता से बयान करने के जज़्बे को भी सलाम !
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