- परखः नौ
दिन ढल चुका है !
गणेश गनी
गणेश गनी |
मणि मोहन दिन ढलने का अलग किस्सा सुनाते हैं। यहां भी घेरा है, परंतु इस घेरे के अंदर जो कुछ है, वो सब घेरे के बाहर हाशिए के लोगों का हक है। इधर बहुत कुछ प्रायोजित है-
दिन ढल चुका है
रात के अंधेरे में
घेरा बना कर बैठ गए हैं
तमाम लुटेरे
यह हिस्सा बांटने का वक्त है।
प्रायोजित कविता में कवि ने एक और पंक्ति में पूरा सार निचोड़ दिया है कि यह प्रायोजित यात्राओं का समय है। एक और कविता बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान में मणिमोहन ने संघर्ष और जिजीविषा को एक अद्भुत किस्से में पिरोया है-
प्यास की शिद्दत
उसे हमारी आंख की ज़द तक
खींच लाई।
मणिमोहन मेहता की एक कविता की यह पंक्तियां एक अनजान सा असर छोड़ जाती हैं-
जब वह थक गई
खुद से बतियाते - बतियाते
तो एक गीत गाने लगी
और फिर गाते - गाते
सुबकने लगी .....
और हाँ ! उसके पास
इस सँसार की
लुप्त हो चुकी
एक भाषा थी...।
कविता लिखने के लिए एक डूब की जरूरत है। मैं उनसे आंशिक रूप से सहमत नहीं हूँ, जो कहते हैं कि कवि के लिए यायावरी जरूरी है। हमारे अंदर, हमारे आसपास ही, हमारी स्मृतियों में इतना कुछ छुपा हुआ है कि बस खोजने भर की देरी है-
इस तरह
डूबने का
अपना आनन्द है
जैसे दिन भर की
हाड़तोड़ मेहनत के बाद
कोई चुपचाप चला जाए
गहरी नींद में ......
या फिर कोई स्त्री
अपने बच्चे को
स्तनपान कराने
और उसे लोरी सुनाने के बाद
दबे पाँव निकल जाए
रात की पाली में
अपने काम पर !
कवि का दृष्टिकोण गजब का है। वह जो कुछ देखता है, उसके लिये मात्र आंखें नहीं बल्कि एक ऐसा मन चाहिए जो दृश्य के उस पार भी पहुंचे। एक दिन पहाड़ की ओट में बैठे सैन्नी अशेष ने एक कथा सुनाई।
एक राजा बहुत दिनों से विचार कर रहा था कि वह राजपाट छोड़कर अध्यात्म (ईश्वर की खोज) में समय लगाए । राजा ने इस बारे में बहुत सोचा और फिर अपने गुरु को अपनी समस्याएँ बताते हुए कहा कि उसे राज्य का कोई योग्य वारिस नहीं मिल पाया है । उसका पुत्र छोटा है, इसलिए वह राजा बनने के योग्य नहीं है । जब भी उसे कोई पात्र इंसान मिलेगा, जिसमें राज्य सँभालने के सारे गुण हों, तो वह राजपाट छोड़कर शेष जीवन अध्यात्म के लिए समर्पित कर देगा। दरअसल राजा शायद स्थायी खुशी की खोज में था।
गुरु ने कहा, "राज्य की बागड़ोर मेरे हाथों में क्यों नहीं दे देते ? क्या तुम्हें मुझसे ज्यादा पात्र, ज्यादा सक्षम कोई इंसान मिल सकता है ?"
राजा ने कहा, "मेरे राज्य को आप से अधिक अच्छी तरह भला कौन सम्भाल सकता है ? लीजिए, मैं इसी समय राज्य की बागड़ोर आपके हाथों में सौंप देता हूँ ।"
गुरु ने पूछा, "अब तुम क्या करोगे ?"
राजा बोला, "मैं राज्य के खजाने से थोड़े पैसे ले लूँगा, जिससे मेरा बाकी का जीवन चल जाए ।"
गुरु ने कहा, "मगर अब खजाना तो मेरा है, मैं तुम्हें एक पैसा भी लेने नहीं दूँगा ।"
राजा बोला, "फिर ठीक है, "मैं कहीं कोई छोटी-मोटी नौकरी कर लूँगा, उससे जो भी मिलेगा गुजारा कर लूँगा ।"
गुरु ने कहा, "अगर तुम्हें काम ही करना है तो मेरे यहाँ एक नौकरी खाली है । क्या तुम मेरे यहाँ नौकरी करना चाहोगे ?"
राजा बोला, "कोई भी नौकरी हो, मैं करने को तैयार हूँ ।"
गुरु ने कहा, "मेरे यहाँ राजा की नौकरी खाली है । मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे लिए यह नौकरी करो और हर महीने राज्य के खजाने से अपनी तनख्वाह लेते रहना ।"
एक वर्ष बाद गुरु ने वापस लौटकर देखा कि राजा बहुत खुश था । अब तो दोनों ही काम हो रहे थे । जिस अध्यात्म के लिए राजपाट छोड़ना चाहता था, वह भी चल रहा था और राज्य सँभालने का काम भी अच्छी तरह चल रहा था । अब उसे कोई चिंता नहीं थी ।
इस कहानी से समझ में आएगा कि वास्तव में क्या परिवर्तन हुआ, कुछ भी तो नहीं! राज्य वही, राजा वही, काम वही। बस केवल और केवल दृष्टिकोण बदल गया।
यादवेन्द्र |
इधर कविता लिखने के लिए भी एक सही दृष्टिकोण का होना लाज़िमी है। मणि मोहन ठीक कहते हैं कि रोशनी में भी सबका हिस्सा होना चाहिए। दरअसल रोशनी ही क्यों, प्रकृति की हर चीज़ पर सबका हक है। कवि तो तय कर चुका है कि अंधेरे को भी उसका हिस्सा मिलना चाहिए, यह बात मणि मोहन जैसा कवि ही कह सकता है-
इस रोशनी में
थोड़ा - सा हिस्सा उसका भी है
जिसने चाक पर गीली मिट्टी रखकर
आकार दिया है इस दीपक को
इस रोशनी में
थोड़ा - सा हिस्सा उसका भी है
जिसने उगाया है कपास
तुम्हारी बाती के लिए
थोड़ा - सा हिस्सा उसका भी
जिसके पसीने से बना है तेल
इस रोशनी में
थोड़ा - सा हिस्सा
उस अंधेरे का भी है
जो दीये के नीचे
पसरा है चुपचाप ।
प्रेम पर कवि का कोई दावा भी नहीं, और न ही प्रेम पर पहरा लगाता है, कवि प्रेम में कोई शर्त भी नहीं रखता-
कुछ कहा मैंने
कुछ उसने सुना
फिर धीरे - धीरे
डूबती चली गई ...भाषा
साँसों के समंदर में -
हम देर तक
मनाते रहे जश्न
भाषा के डूबने का ।
प्रेम बड़ा कोमल है, अहा! इतना कोमल की कोमलता भी टकराने से डरे। प्रेम की परवरिश करना बहुत ही कठिन है-
अक्सर लौटता हूँ घर
धूल और पसीने से लथपथ
अपनी नाकामियों के साथ
थका - हारा
वह मुस्कराते हुए
एक कप चाय के साथ
सिर्फ थकान के बारे में पूछती है
और मैं भूल जाता हूँ
अपनी हार ।
कवि जीवन की सच्चाइयों को स्वीकार करता है, उनसे वाकिफ़ है, सपने नहीं देखता, कोई उम्मीद नहीं रखता किसी से, न अपनों से और न परायों से-
देखना ! एक दिन
बस हम दोनों ही रह जायेंगे
इस घोंसले में।
मणि मोहन एक बहुत बड़ी बात को पांच छोटी छोटी पंक्तियों में कहने की कुशलता रखते हैं। यह एक अच्छे कवि की शायद पहचान भी है कि कैसे वो मुश्किल बात को भी आसानी से कह जाता है-
कहीं नींद है
कहीं चीखें हैं
कहीं दहशत है
पर सबसे भयावह बात है
कि यह बिना स्वप्न की रात है।
काश! कि प्रतिभा हासिल की जा सकती, खरीद कर, मांग कर, छीन कर या फिर कोई वरदान पाकर। प्रतिभा तो जन्मजात है। इसलिए भले ही कोई इधर से, उधर से या कहीं से भी नकल करके या प्रभावित होकर रचने की कोशिश करे, वो अधिक दूरी तय नहीं कर सकता। मणि मोहन की कविताएं मूल हैं, इनमें दम है, कमाल का ठहराव है-
जरा सम्हल के रहियो
अपने - अपने घरों
और बस्तियों में
कल रात के अंतिम पहर . . .
मैंने स्वप्न में
तमाम मूर्तियों को
निहत्थे देखा है !
छोटी छोटी कविताएं सच में बड़ी कविताएं हैं, विराट हैं। भाषा में ताकत है, शैली में पानी जैसा प्रवाह है, रवानगी है-
अपनी दवा की पर्ची के साथ
एक बूढ़ी स्त्री ने
जब अपने बेटे की तरफ
एक मुड़ा - तुड़ा नोट भी बढ़ाया
तो अहसास हुआ
कि ये दुनियाँ
वाकई बीमार है !
कवि यदि चलने या उड़ने की गति में लय देखता है, गिरने में भी कुछ सपनें खोज लेता है तो समझो कि अच्छा अच्छा होने की आश्वस्ति है यह-
अपनी गति के साथ
थोड़ी सी लय गिरा गई
अपनी परछाई के साथ
थोड़ी सी उदासी
तिनकों के साथ
कुछ सपने भी गिरा गई ...
अभी - अभी
एक उड़ती चिड़िया
कितना कुछ
सिखा गई ।
एक और छोटी कविता में अचम्भा है, राग है, रंग है, लय है। कविताएं पढ़ो दोस्तो, कविताएं। इनमें जीवन का आनंद है, इस आनंद को महसूस करो। मेरे पास तो बातें हैं, बातों का क्या-
शाम ढ़लते ही
अपने घरों की तरफ
लौट गए परिंदे
आज फिर
अपनी परछाइयां
गिरा गए
मेरी छत्त पर ।
पतझड़ को कवियों ने उदासी का मौसम कहा है, निराशा का समय, एक ऐसा समय जब जीवन नीरस हो जाता है। मणि मोहन इसमें भरोसा खोज लेते हैं-
ज़र्द पत्तों से
ढ़क चुकी है धरती
जैसे
सो रहा है
कोई
भरोसा ओढ़कर !
मणि मोहन |
दादी हमेशा चाँदी के गहने पहनती थी। सर पर हरे रंग के कपड़े से बनी और सात रंगों के धागों की कढ़ाई वाली जोजी सजी रहती। कानों में चाँदी की लंबी लम्बी जंजीरें लटकी रहतीं और दोनों कानों पर छोटे छोटे काँटे टँगे रहते। गले में एक ऐसी कण्ठी सजी रहती, जिसके बीच में एक खण्डित मणि और आसपास लाल, हरे और बड़े बड़े पीले मणके पिरोए होते। यूँ दादी के गले में हमेशा बसंत रहता, भले ही मौसम कोई भी हो। मणि मोहन एक ऐसे बसन्त को देखते हैं जो सरसों के बीजों में छुपकर चुपके से आँगन तक आ ही जाता है-
उसके हाथों छनते - बिनते
सरसों के कुछ दाने
आखिर लुढ़क ही जाते हैं
यहाँ - वहाँ
और उग आते हैं
हर बार
घर के आँगन में
कुछ इस तरह
आ ही जाता है
बसन्त।
००
परखः आठ नीचे लिंक पर पढ़िए
http://bizooka2009.blogspot.com/2018/07/blog-post_15.html
मणिमोहन जी की कविताओं के बहाने गणेश गनी जी की यह आलोचकीय टिप्पणी अच्छी लगी । कविता के लिए जो दृष्टि चाहिए उस पर गणेश जी ने जो बातें कहीं हैं उनसे कई आयाम खुलते हैं ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया गनी भाई , इतने विस्तार से इन कविताओं पर लिखा। आभार , आपके श्रम को प्रणाम , हौसला मिला।
जवाब देंहटाएंमणि मोहन
शुक्रिया गनी भाई , इतने विस्तार से इन कविताओं पर लिखा। आभार , आपके श्रम को प्रणाम , हौसला मिला।
जवाब देंहटाएंमणि मोहन
Ganesh Ganeeji , Din dhal raha hai. Lekin Aapki es samiksha ke saath Subah bhe hone vali hai
जवाब देंहटाएंमणि मोहन मेहता की कविताओं का अच्छा गैर अध्यापकीय और आत्मीय विश्लेषण....बढ़िया।
जवाब देंहटाएंयादवेन्द्र
मानी मोहन जी की कविताएं जादुई लेखनी का प्रमाण है ।सही कहा आपने गणेश गनी जी कि मणि जी एक बड़ी बात पर पांच छोटी कविताएं लिख सकते है ।
जवाब देंहटाएंमुझे इनकी कविताएं बहुत पसंद है ।
शुभकामनाएं आपको और मणि मोहन जी को ।
मुझे भी आदरणीय "मोहन" सर की कविताएं बहुत अच्छी लगती हैं
जवाब देंहटाएंमैं इनकी लगभग सभी कविताओं को बड़े ध्यान से पढ़ता हूं