image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

05 जुलाई, 2018

गुजराती कहानी:

पहरावनी

झवेरचंद मेघाणी

अनुवाद: रेखा पंजाबी


       

“बेटा यह सब चँदोवा - चाकण किसके लिए रखकर जाती हो। बेटा हीरबाई यह सबकुछ उतारकर अपने साथ ले जाओ”।

झवेरचंद मेघाणी

“नहीं पिता जी, दिवारों को खाली नहीं रखना चाहिए”।
“अरे बेटा, अब यहाँ (पिता के घर) खाली या भरी दीवारों से कुछ नहीं होगा, सबकुछ उतारकर अपने साथ ले जाओ। बेटा मुझ से अब यह देखा नहीं जायेगा, यहाँ कुछ भी रखकर मत जाना, अगर कुछ भी रखकर जाओगी तो मेरा मन दुखी रहेगा”।
पुत्री (दीकरी) दुखी होकर सभी चीजे दिवार (घर के सुशोभन के साधन) से उतार रही हैं और पिता उसे घर की सभी चीजे पहरावनी में ले जाने के लिए कहते हैं। उसकी माँ की बहुत सालो पहले मृत्यु हो चूकी थी। सात खोट (कमी) में एक की एक पुत्री को पाल पोंसकर बड़ा किया, पिताने अठराह साल की उम्र में उसकी शादी करवा दी। आज जमाई राजा उसे लेने आने वाले थे। उस समय पिता अपनी पुत्री को स्त्रीधन देने लगते हैं। धड़े, तांबे की कूंड़ीयाँ, ताँबे पित्तल के डिब्बे, गद्दे, ओढ़ने और बिछाने के गद्दे, तोरण (बंदनवार), चँदोवा - चाकण, सोने - रूपा के गहने दिये। घर में जो सभी - चीजे थी, उसे पिता पुत्री को अपने साथ ले जाने के लिए कहते है। बैलगाड़ीयों की बैलगाड़ीयां भरकर घर का सभी सामान उसे दे दिया गया।

“हीरबाई अपने पिता से कहती है कि आपने मुझे बहुत कुछ दे दिया है”।
“मैं यह सब चीजे रखकर भी क्या करूँगा? दो बारिश देख भी पाउगाँ की नहीं। मेरी मृत्यु के बाद यह गाँव तुम्हारा होगा परंतु तुम्हें तुम्हारे पित्राई भाई तुम्हें यहाँ आने भी नहीं देगें”।

पुत्री अपना मुँह छीपाकर जा रही हैं। पल्ले (दामन) से अपने आँसू पोंछती है और अपने पिता के घर की सभी चीजें उतारकर ले जा रही हैं।
हीरबाई के पिता अपनी पगड़ी के अंत में बंघे बाघ के नंख लेकर आते है।“ बेटा यह अपने साथ रखलो, जब मेरा भानजा होगा तब उसे उसके गले में पहनाना। बहुत साल पहले दीपड़े को मारकर यह नाखून रखे थे, कि तुम्हारा भाई होगा उसके गले में पहनाऊगाँ, परंतु ईश्वर ने उसे पहनने वाला दिया ही नहीं। जब तुम्हें पुत्र हो तो उसे अवश्य पहेनाना !”

हीरबाई को अपना भाई नहीं होने का बहुत दुख होता हैं। आज उसकी भाभी होती तो उसकी बलियाँ लेकर उसे अपने ससुराल के लिए बिदा करती, परंतु अभी तो कोई भी नहीं है। हीरबाई के पिता की देखभाल अब कौन करेगां, दस सालो तक उन्हें अपने हाथों से बनाया खाना खिलाया है। हीरबाई अकेले में जाकर अपने आँसूओं को बहाती है।

पचीस जितनी बैलगाड़ीयाँ भरकर हीरबाई की पहरावनी तैयारी हुई। स्त्री का जब गौना होता है उस समय वह बहुत सारे श्रृंगार करती है एवं वस्त्र - आभूषण पहनती हैं, उसी प्रकार हीरबाई भी तैयार हो चूकी है। हीरबाई का रूप इतना सुंदर लग रहा था कि जैसे किसीने उसे सोने से मढ़कर रखा हो। वह सोंचती है कि अब कभी पियहर में शांति से बैठने को मौका नहीं मिलेगा, इसलिए वह अंतिम बार घर से बहार निकलती हैं। हीरबाई को गाय - भेंस बहुत प्यारी लगती थी, उनके पास जाकर गले मिलकर रोने लगी। पशु भी हीरबाई की जुदाई को पहचान गये थे, पशुओं हीरबाई के हाथ - पैर चांटने लगे।

“बापू, जब गाय पहली बार माँ बनने वाली होती है तब उसकी बळी (બળી) खाने मुझे अवश्य बुलाना! वरना आप मुजे पित्तल के बरतन में दूध का कस भरकर खींरा अवश्य भेंजना”। हीरबाई ने अपनी पंसदीदा गाय की और अंगूली करते हुए पिता को बताती है।





“बेटा आपको बुलाने की किसे खबर होगीं, आप उसे अपनी बैलगाड़ी के साथ बाँघकर ले जाइयें”।
इस बात को कहकर पिताने पुत्री को गाय भी अपने साथ ले जाने की अनुमति दी।

आगे - आगे पुत्री की बिदाई, पीठ पर लकड़ी लेकर धीरे - धीरे हीरबाई के पिता उसके पीछे - पीछे आ रहे है और उसे अपने ससुराल भेंजते है। उसके पीछे पहेरावनी में दी गई सभी चीजे, जो पंचीस बैलगाड़ीयाँ भरकर दी गई हैं। इस तरह की पूरी सवारी चापरड़ा गांव के दरबारगढ़ से अमृत बैला के समय निकलती है। हीरबाई तो चांपरड़ा का हीरा थी, इसलिए उसे आधा गाँव बिदा करने आया था। एक और अठारह साल की युवान कन्या अपना ससुराल किस तरह का होगा, वह अपने खुशाहल जीवन के सपने सजा रही है और दूसरी तरफ अपने पिता जिनके सभी दांत गिर  गये है। उन्हें घी  में बनाई हुई रोटीयाँ कौन खिलायेगा,  इन सभी बातों को लेकर वह बहुत चिंतित थी, उसे मन ही मन बहुत दुख हो रहा था।  ---

         दादाजी के आंगन में आम का पेड़,
         आम का पेड़ धोर गंभीर है !

         एक पान दादाजी ने तोड़ा,
          दादाजी गाली मत देना !

         हम हरे वन की चिरकती,     
          चले जायेगें परदेश !

          आज है दादाजी के देश में,
           कल चले जायेगें परदेश !

इस तरह करते हुए पूरी सवारी चौराहे तक पहुँच गयी। उतने में ही हीरबाई के चाचा और उसके दो यौवन भाई उसे मिलने आते है तो वह सोंचती है कि मैं पिताजी  की देख रेख के बारे में कह दूँ। इस बात की मन में इच्छा हुई इसलिए बैलगाड़ी के दांये और का परदा उपर किया, उसकी आँखे गीली थी, परंतु उसने हास्य आश्रय का लेकर अपने चाचा और भाईयों की बलियाँ ली।

“चाचाजी आप मेरे पिताजी का ख्याल रखना”।
उतने शब्द अभी खत्म भी नहीं हुए थे कि उसी समय उसके दोनों भाइयों ने कहा कि “बैलगाड़ीयों को वापस गाँव की और ले चलो”।
“पिताजी पूछ रहे है, आप क्यों उसे वापस चलने के लिए कह रहे हो”?
“ए बूढ़े आप निर्वंश हो, हम कोइ निर्वंश नहीं है। हमारी मृत्यु नहीं हुई है। आप अपनी पुत्री को सभी दरबारगढ़ चीजे पहरावनी में दे रहे हो और वह भी अपने गाँव से दूर दूसरे गाँव में भेंज रहे हो”।
“अरे भाई मुझे  एक ही एक पुत्री है। उसे ना भाइ है और न माता, मैं उसे पहरावनी भी न दूँ। मेरी मृत्यु के बाद यह जागीर और दरबार गढ़ आपका ही है ना!”
“आप अपनी बेटी पर सबकुछ न्यौंछावर कर रहे हो, परंतु हम छोटे बच्चे नहीं है, बैलगाड़ी को वापस गाँव की ओर ले चलो, नहीं ले चलोगें तो कुछ न कुछ सुनोगें”।

हीरबाई ने यह सबकुछ अपनी आँखो के सामने देखा। हीरबाई के बूढ़े पिताश्री दो हाथो को जोड़कर भीख माँगते परंतु उसके दोनों भाई आंखे बड़ी करके उसके पिता को दिखाते है। पुत्री के रोम - रोम में गुस्सा भर आया। बैलगाड़ी का परदा उपर करके पल्ला सर से हटाकर हीरबाई नीचे उतरी और पिता का हाथ पकड़कर कहा कि बस “पिताजी अब ख्त्म हुआ, चलो वापस घर, बैलगाड़ीयों को चलाने वाले भाईयों को क्हा वापस घर की तरफ प्रस्थान करो, आज दिन अच्छा नहीं हैं”।





“दुबारा कब यह बिदाई होगी?” इस तरह का प्रश्न करता हुआ हीरबाई का पति घोड़ी पर सवार होकर आया। उसका हाथ तलवार के हाथे तक पहुँच जाता है।
काठी हीरबाई ने पल्ले को थोड़ा हटाकर अपना हाथ उपर किया, “आज की तकरार के बाद नहीं जाना। सब लोग वापस घर की और चलो”।
सभी बैलगाड़ीयाँ वापस घर की और चली, हीरबाई नंगे पाँव वापस अपने घर को लौंटी। घर पहुँचते ही उसने जब पीछे मुंड़कर देखा तो पिताजी धीरे - धीरे घर की और लौंट रहे है। घोड़े पर सवार पति भी सोंच में आ गया कि अब क्या होगा। उसे देखकर वह कहती है कि “काठी आपको संतोष, घीरज रखना होगां। मैं आपको परेशान नहीं करना चाहती”।
यह बात कहकर हीरबाई ने सभी गहने उतारकर अपने पति को दे दिये उसे देते समय वह कहती है कि “ये लो काठी दूसरी जगह विवाह कर लेना, मेरी राह मत देखना”।
“कां (क्यों)”

रेखा पंजाबी


“क्यों? जब तक पिता के घर लड़का नहीं हो जाता तब तक मैं विवाह नहीं करूँगी। जब तक मुजे अपना भाई नहीं मिलता। इस बात को लेकर मेरे पिता की बहुत ईज्जत गयी है जिससे हमारा जीवन इस गाँव में खराब हो गया है। अब तो मैं पालने में भाई को जुलाकर ही आऊँगी, वरना जीवन भर के प्रणाम समझ लेना। काठी आप मेरी राह मत देखना, मैं आपको अपनी इच्छा से अनुमति दे रही हूँ। आप दूसरी जगह विवाह कर लेना। आपका यह खरचाँ”।
इतनी बात को कहकर हीरबाई ने अपने गहने और पैसों की गठरी पति के हाँथों में थमा दी। पहरावनी का सभी सामन घर में वापस रख दिया।
दिन बितने लगे, हीरबाई के घर में सात भैंस थी, उन सभी भैंसो को चराने के लिए ग्वाले रखे गये थे। आप लोग इन सातो भैंसो को सातो पहर गाँव की सीमा में चराना। मेरे पिताजी, आपके हृदय में कभी मखी भी मत बैठने देना, उनका जहाँ मन करे उन्हें बैठने देना।
भरवाड़ उन सभी भैंसो का अच्छी तरह ख्याल रखने लगते है। भैंसो के दूध में फगर (मलाई) चड़ने लगी। दो - दो जन उससे दोहते तब जाकर वह दुहाती थी। एक भेंस का दूध दूसरी भेंस को, दूसरी भेंस का दूध तीसरी भेंस को, तीसरी भेंस का दूध चौथी भेंस को इस तरह छठी भेंस का दूध सातमी भेंस को पिलाते थे। अंत में सातमी भेंस के दूध के अंदर शक्कर, केसर, इलायची - जायफल डालकर जब तक वह घट्ट नहीं हो जाता तब तक उसे हिलाते रहती है। जिस तरह एक माँ अपने बेटे का ख्याल रखती है उसी तरह एक पुत्री अपने पिता का ख्याल रखने लगती है।

पिताजी को एक तरफ हँसी आ रही थी एवं दूसरी और शरम आ रही थी।
शरम से मारा पिता अपनी बेटी से कहता है कि बेटा, मुझे अब इस उम्र में केसर का कढ़े शोभा नहीं देता। आप अपनी ईच्छा को दूर कर दो। बा ! मा’ माह का मावठा कहाँ जाता है”।
“पिता आप कुछ मत कहो”, इतना कहकर बेटी पिता को दूध के कढ़े देने लगी। बेटी अब माता बन गयी है।
एक माह, दूसरा माह, तीसरा माह बीत गये। वहाँ तो साठ साल को बुढ़ा युवान बन गया, काया भी उसकी बदल गयी। सफेद बाल भी काले होने लगें। घोड़े पर सवार होकर पिता सुबह -  शाँम गाँव की सीमा में हरणो के साथ दौड़ लगाता रहता हैं।
मूँह मांगी मूल (पैसे) देकर बेटी ने पिता को एक काठी युवान स्त्री के साथ विवाह करवाया।
एक साल में एक लड़का, दूसरे साल दूसरा लड़का। ईश्वर जैसे भाईयों को बहन अपनी गोद में खिलाने लगी। हीरो की ड़ोरी से उन्हें पालने में जुला ड़ालते हुए बहन लोरी गाने लगती है।
पूरा दिन बहन अपने भाईयों को न्हाने, खिलाने - पिलाने में और उनकी साफ - सफाई में पूरा समय बीत  जाता है।
इस तरह तीन साल बीत गये और चौथे साल गाँव की सीमा में कोई दिखने लगा। देखते ही देखते में रोझी के घोड़े का असवार गाँव के मुख्य दरवाजें तक आ पहुँचा। गाँव की पनिहारियन घड़ो को लेकर दरबारगढ़ आ पहुँची। “बा, खुशखबरी धाँधल आ रहे है !”
घर पहुँचकर काठी ने रुप्यों की गठरी एवं गहने नीचे रख दिये।
“पिता,” से हीरबाई कहती है कि “इस बार तो खील पर एक भी चीज नहीं रहने दूंगी। आप सब चीजे नयी खरीद कर लेकर आना !”
इस बात को कहकर हीरबाई ने वापस सभी बैलगाड़ीयों में सामान रखा, दरबारगढ़ में एक भी चीज रहने नही दी, एक बार वापस पुत्री की बिदाई हुइ, पूरा गाँव उसकी बिदाई में शामिल हुआ, वापस चौराहा आया। अनुकुल पल्ला उपर लेकर वह थोड़ी उपर हुई। हीरबाई ने गलगोटे के फूल की तरह अपना मुख बहार निकालने लगी और चौराहे पर निर्जिव बनकर बैठे हुए “चाचा और भाईयों को बुलाकर कहती है कि अब मेरी बिदाई को रोक कर दिखाओं!”
“ना... रे, बच्चे हम कहा कुछ कहे रहे है”?
“अब आप क्यों कहोगें? एक ही पालने में दो भाई खेल रहे है और अब तो बैलगाड़ीयों की गिनती किया करो !”
००

परिचय :-
लेखक
राष्ट्रीय शायर झवेरचंद मेघाणी का जन्म-२८ अगस्त १८९६, चोटीला  निधन- ९ मार्च १९४७, बोटाद में हुआ था. उनके पिता का नाम कालिदास मेघाणी था. उनकी माता का नाम घोळीबहन था. झवेरचंद मेघाणी का बहुमुखी व्यक्तित्व था. वह एक साहित्यकार, वक्ता, लोकसाहित्य संशोधक, पत्रकार, गायक, स्वातंत्र्य सेनानी थे. उन्होंने अपने जीवन में बहुत उतार चढाव देखे थे. उन्हें बहुत से सम्मान प्राप्त थे जैसे - 
1 1928 में लोकसाहित्य के संशोधन के लिए रणजीतराम सुवर्ण चंद्रक प्राप्त हुआ।
2 1930 में गांधीजी ने “राष्ट्रीय शायर” का सम्मान दिया।
3 1946 में गुजराती साहित्य परिषद के साहित्य विभाग के अघ्यक्षता मिली।
4 1946 में ‘माणसाई ना दीवा’ की श्रेष्ठ पुस्तक के लिये महीड़ा पारितोषिक प्राप्त हुआ।
   

अनुवादक:

रेखा पंजाबी
शोधार्थी
गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय, 
गांधीनगर.
मो. न     : ९९०४३७२३१८
ई.मेल      : rekhapanjabi@yahoo.in

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें