निर्बंध: तीन
आत्मा तक को मटियामेट कर देने वाली कार्य संस्कृति
यादवेन्द्र
यादवेन्द्र |
पिछले दिनों एक मित्र के इंजीनियर बेटे को मेरे सामने उसकी माँ बार बार नौकरी बदल देने की बात कह रही थीं - वह बंगलुरु में किसी बड़ी कंपनी में नौकरी करता है और अपनी बेटी के जन्म के मौके पर दस बारह दिनों से घर पर था। माँ की दिक्कत यह थी कि वे जब जगी रहतीं बेटा खर्राटे लेकर सोता रहता और जब वे सोतीं तो मोबाइल या लैपटॉप पर काम में लगा होता .... माँ चाहती थीं वह उनकी तरह रात भर सोये और दिन में जगे - बेटा माँ को समझा नहीं पा रहा था कि जितने दिन वह बंगलुरु ऑफिस से अनुपस्थित है उसकी छुट्टी नहीं लेनी पड़ी है और पटना में अपने घर रह कर भी वह बगैर छुट्टी लिए काम कर रहा है - यानि वर्क फ्रॉम होम। काम की यह नयी ग्लोबल संस्कृति हमारी साठ पहले की पुरानी पीढ़ी की समझ और भावना से मेल नहीं खाती - हमारे लिए काम का समय नौ दस बजे दिन से शुरू होकर शाम पाँच साढ़े पाँच खत्म हो जाता था। पर बदलाव परिभाषित रूप से यहीं पर नहीं रुका बल्कि ज्यादा मुनाफ़ा कमाने के चक्कर में धीरे धीरे करके आराम करने और सोने के घंटे निगलता जा रहा है - इसका असर बड़े लक्षित तौर पर अब दिखाई देने लगा है। और मनुष्य इस भट्ठी में झोंक दिया जाए तो भी कोई ग्लानि नहीं।
काम की ज्यादती और आराम की कमी के चलते कामगारों (सिर्फ़ कारखानों या निर्माण के मजदूर ही नहीं बल्कि पत्रकार और दफ्तरों के सफेदपोश एक्जक्यूटिव भी शामिल हैं) के डिप्रेशन में चले जाने और अंततः आत्महत्या करने के मामले पूरी दुनिया में निरंतर बढ़ रहे हैं - अपने वर्क कल्चर के लिए मशहूर जापान का इस मामले में बहुत बुरा ट्रैक रिकॉर्ड है।जापान में प्रति वर्ष लगभग 30हज़ार आत्महत्याएँ (इसके लिए जापानी भाषा में :"कारोशी" शब्द है)ऐसी होती हैं जिन्हें भरसक कोशिश करके दबाने और वास्तविक कारण के सबूत मिटाने की कोशिश की जाती है पर अब जब पानी नाक से ऊपर तक आ गया है तब जापान सरकार ने महीने में 100घण्टे से ज्यादा ओवरटाइम न करने का कानून बनाने की पहल की है।एक समाचार एजेंसी में काम करने वाली पत्रकार मिवा सादो की आत्महत्या के चार साल बाद यह तथ्य उजागर हुआ कि उसे काम की अधिकता के चलते मृत्यु पूर्व के महीने में 159 घण्टे का ओवरटाइम करना पड़ा था...यानि प्रतिदिन 5घण्टे से ज्यादा और वह भी एक दो दिन नहीं लगातार लंबे समय तक। इन्हीं कारणों से अपनी आत्महत्या के बाद दुनिया भर में चर्चा में आये जापानी विज्ञापन कर्मी तोशित्सुगु यागी को शुरू शुरू में सरकार ने काम के बोझ से मरने वाला मानने से इनकार कर दिया था क्योंकि पूरे हफ्ते उसने बिला नागा 16 घंटे से ज्यादा काम नहीं किया था। बाद में यागी के मृत्यु स्थल पर यह नोट मिला तो मामला खुला - ' कौन कह सकता है कि हम आज कॉरपोरेट गुलामों जैसा काम नहीं कर रहे हैं ? इन गुलामों को पैसे फेंक कर खरीद लिया जाता है और उनकी उपयोगिता खटने के घंटों से आँकी जाती है। उनके वरिष्ठ कुछ भी कहें उन गुलामों में उनको इनकार करने का हौसला नहीं है। आज के ये कॉरपोरेट गुलाम और तो और दशकों पहले के बंधुआ मजदूरों से भी गए बीते हैं - उन्हें कम से कम रात को अपने परिवार के साथ एक टेबल पर खाना तो नसीब होता था।आज के गुलामों को तो वह भी नसीब नहीं। "
जापान जो अपने आपको बहुत एथिकल घोषित करता रहा है वहाँ हर पाँचवे कामगार के ऊपर काम के बोझ से आत्महत्या के लिए प्रवृत्त करने वाले काले बादल मंडरा रहे है तो चीन जैसे दुनिया का सरदार बनने के लिए साम दाम दंड भेद कुछ भी कर गुजरने को लालायित देश में काम के हालत क्या होंगे इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।
अपने देश से एक टटका खबर
कुछ साल पहले औरंगाबाद ,महाराष्ट्र के शिक्षा विभाग में कार्यरत एक कर्मचारी ने कथित तौर पर सामान्य जीवन जीना छोड़ कर असमय मृत्यु का वरण कर लिया तो उसकी पत्नी ने मुंबई उच्च न्यायलय की औरंगाबाद बेंच में विभाग के बड़े अधिकारी पर मृत पति के ऊपर काम का अनुचित बोझ लादने ,अक्सर देर शाम तक व्यस्त रखने ,रात बिरात और छुट्टियों में दफ्तर बुलाने और काम को लेकर प्रताड़ित करने का आरोप लगाते हुए मुकदमा किया।यहाँ तक कि तहरीर में मृत का एक महीने का वेतन रोक देने और आगे भी इंक्रीमेंट रोक देने की धमकी का हवाला दिया गया - नतीज़ा यह हुआ कि वह गहरे डिप्रेशन में चला गया और मामला बर्दाश्त बाहर होने से एकदिन आत्महत्या कर ली।याचिकाकर्ता के आरोप का संज्ञान लेते हुए उच्च न्यायलय ने माना कि भले ही आत्महत्या के लिए उकसाने का कोई सीधा साक्ष्य न हो पर मृत के असहनीय मानसिक तनाव के लिए अधिकारी गुनहगार था। इस फैसले को चुनौती देते हुए दोषी ठहराए गए अधिकारी ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जहाँ उच्च न्यायालय के निर्णय को पलट दिया गया - न्यायलय ने माना कि कामों के बंटवारे में किसी तरह की आपराधिक मंशा नहीं थी सो धारा 306 आईपीसी लागू नहीं होती। इस फैसले को व्यापक आधार प्रदान करते हुए कहा गया कि ऑफिस में काम के दबाव न झेल पाने के चलते कोई कर्मचारी आत्महत्या कर ले तो इसके लिए उसके वरिष्ठ या बॉस को आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी नहीं माना जा सकता।
निर्दोषों को कानूनी सुरक्षा जरूर मिलनी चाहिए और अकारण किसी को दण्डित नहीं किया जाना चाहिए। पर रातों रात तीर मार लेने की इस कार्य दिखावा आधारित संस्कृति को बढ़ावा देने वाले इस फैसले के निहितार्थ बहुत बड़े हैं और आम नागरिक के दैनिक जीवन में दूर तक असर डालेंगे।
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इस सन्दर्भ में हाल में पढ़ी अमानवीय कार्य संस्कृति के काले पक्ष को उजागर करती एक ह्रदय विदारक कहानी याद आ गयी .....
लाल पत्तियों वाला पेड़
एंजेला सोरबी (अमेरिका)
लैन काम पर देर से पहुँची तो उसकी बॉस चिल्लाने लगी : 'मालूम नहीं, तुम्हें यहाँ ठीक सात बजे पहुँचना था?' लैन ने पलट कर पूछा :'भला क्यों? सात बजे ऐसा खास क्या होने वाला होता है?'
कल तो यह हँसी मज़ाक में हुआ था पर आज वैसा नहीं था...यह वाकया खूबसूरत खाल वाले कछुए सरीखा था,ऊपर से चमक दमक पर पलटते ही सड़ा हुआ गोश्त।
जिंग से मेरी कोई खास दोस्ती नहीं है पर फैक्टरी में जहाँ खड़ी होकर मैं काम करती हूँ उसी के पास वह भी खड़ी होकर काम करती है - उसका काम खूबसूरत पॉली बैलेरिना के सिर पर बाल चिपकाना है,मैं उनमें गाँठें बाँधती हूँ।पर हम यह काम अपने हाथ से नहीं करते,रोबोट से करते हैं...ऐसा नहीं कि रोबोट खुद ब खुद सारा काम सम्पन्न कर देता है,उसे भी इंसानी सहयोग चाहिए।काम करते हुए शॉप फ्लोर पर हमें एक दूसरे से कुछ भी बात करने की मनाही है फिर भी बातें छुपी कहाँ रह पाती हैं यहाँ से वहाँ तक फैल ही जाती हैं: अभी महीना भी नहीं हुआ था उसको हुनान के किसी गाँव से यहाँ आये कि ऐन यी लॉन्ड्री वाली छत से नीचे कूद गई...नीचे जहाँ लोगबाग पक्षी और फूल बाजार जाने के लिए 17 नं की बस के लिए खड़े थे,उसकी लाश उनके बीच सड़क पर पड़ी रही।
'मुझे अंदेशा था ऐसा होगा',जिंग ने छूटते ही कहा...'वह रातभर जगी रहती थी,कभी कुछ मिनट के लिए आँख लग जाये तो अलग बात...क्या उसकी आँखों के नीचे थैलियाँ लटकी हुई दिखाई नहीं देती थीं?आधी रात को शतरंज उठा कर वह पीछे के गलियारे में आ जाती और एक भूत के साथ देर तक बैठ कर खेलती - वह जगह कोई दूर थोड़े ही है,यहीं पास की दो फैक्ट्रियों की डॉरमिटरी के बीचोंबीच जो लाल पत्तियों वाला पेड़ है वहीं पर वह बैठ कर शतरंज खेला करती थी।'
'जिंग,यह तो सीरियस बात है।', मैं अपने काम के लिए रोबोट को हिदायत देते हुए बोल पड़ी:'यानि ऐन यी सहज मौत नहीं मरी है,उसने खुदकुशी कर ली।'
'उसी भूत ने उसे ऐसा करने को कहा था',जिंग एक रौ में बोलती गयी:'जानती हो वह भूOत कौन था?पिछले साल ऐसे ही कूद कर खुदकुशी करने वाली एक लड़की....उसी ने उसे अपनी तरह कूद कर मर जाने को उकसाया।'
'मुझे यकीन नहीं हो रहा कि तुम भी इतनी अंधविश्वासी हो सकती हो जिंग।तुम तो हुनान के किसी गाँव की अनपढ़ गंवार जैसी बातें कर रही हो।'गुस्से से मेरे कान गरम हो रहे थे जबकि मैं खुद हुनान से यहाँ आयी हूँ पर ऐसी दकियानूस बातों से कोसों दूर रहती हूँ।
जिंग ने मेरे तेवर देख मुझसे नज़रें मिलायीं...उसका चेहरा पीलापन लिए हुए लम्बोतरा है,किसी पुरानी मोटी सी जड़ सरीखा।बोली:'तुम्हें मालूम है, ऐन यी अपने साथ हरदम एक मुर्गी रखा करती थी?'
'मुर्गी?क्या खाने के लिये?'
'धत,खाने के लिए नहीं...पालने के लिए।उसको सीने से चिपका कर रखती थी,इससे उसको सुकून मिलता था।पिछले हफ़्ते जब डॉरमिटरी वाले गैरकानूनी चीजों को हटाने के लिए कमरों की तलाशी ले रहे थे तब मुर्गी को पकड़ कर अपने साथ ले गए।'
जिंग की बातें सुनकर मैं मन ही मन में ऐन यी की छवि निर्मित करने लगी जिसमें वह अपनी पालतू मुर्गी को सीने से चिपकाए हुए खड़ी है...हाँलाकि उसको शायद ही मैं निकट से जानती थी।कल्पना में मुझे वह रोती हुई दिखी और आँसू छुपाने के लिए मुर्गी के पंखों के बीच घुसती हुई...
'चाहे कुछ भी हो उसे नियम नहीं तोड़ना चाहिए था',मैं स्वतःस्फूर्त ढंग से बोल पड़ी...हाँलाकि बोलते हुए मेरा मन वही करने को कह रहा था जिसको न करने की बात मैं कह रही थी - मुझे भी एकदम से एक मुर्गी पालने की इच्छा हो आयी... और मन हुआ कोई भूत आधी रात मेरे पास आये और छत से नीचे छलाँग लगा देने को कहे।
'उसने अपनी मुर्गी का पुकारने का नाम भी रखा हुआ था - पेंग्यू...अपने इलाके की भाषा में वह हर रात पेंग्यू को लोरी गा कर सुनाती थी।'
'पर यह बताओ,तुम्हें इतना सब कुछ मालूम कैसे है?तुम तो उसकी डॉरमिटरी में रहती भी नहीं थी।'
मेरा यह सवाल सुन कर जिंग इतनी जोर से ठहाका लगा कर हँसी कि उसका पूरा शरीर कांप गया...और दूर खड़ी लड़कियाँ उसे घूर घूर कर देखने लगीं।वह बोली: 'मैं यह सब कैसे जानती हूँ?इसलिए जानती हूँ कि मैं भी एक भूत हूँ, जिंदा इंसान नहीं।'
'झूठमूठ गप्पें मत हाँको जिंग',मैं तपाक से बोल पड़ी।वैसे उसको एक के बाद एक किस्से सुनाने की आदत थी...कभी लाल पत्तियों वाले पेड़ का,कभी जादुई अंगूठियों का...कभी हंसों का किस्सा तो कभी बेमौसम फलों का।
'पर तुम भी वही नहीं हो क्या मेरी दोस्त?सच बताना,तुम भूत नहीं तो क्या जिंदा इंसान हो?'
एंजेला सोरबी |
मैं ने कोई जवाब नहीं दिया...वैसे मैं जिंग की नजदीकी दोस्त हूँ भी नहीं कि उसकी तरह खुद को जिंदा इंसान नहीं भूत मानने लगूँ।पर विडम्बना यह है कि हम दोनों यहाँ एक दूसरे से सट कर खड़े हैं।परिस्थितियाँ हर समय एक सी नहीं रहतीं,बदलती रहती हैं।कौन जाने इनके पीछे क्या है,कौन है?
तभी मुझे एहसास हुआ हमारे चारों ओर तमाम लड़कियाँ खड़ी धीमी आवाज़ में बातें कर रही हैं...उनके स्वर स्पष्ट नहीं थे,मशीनों का शोर उन्हें ढाँपे दे रहा था।
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अमेरिका के लोकप्रिय रेडियो एनपीआर के छोटी कहानियों के प्रोग्राम 'थ्री मिनट फ़िक्शन' के राउंड 6 (2011) में यह कहानी शामिल थी और सर्वश्रेष्ठ कहानी के चयन की निर्णायक चिमामांडा अदिची ने इस कहानी की विशेष चर्चा की थी।गौर तलब है कि अमेरिका आकर बस गयी नाइजीरिया मूल की लेखकचिमामांडा अदिची अंग्रेजी की एक पुरस्कृत और बहुचर्चित लेखक हैं - साहित्यिक लेखन के अतिरिक्त वे नारीवादी विमर्श,मानवाधिकार और अफ्रीकी लोकतंत्र की बेहद सक्रिय व मुखर प्रवक्ता हैं।अमानवीय परिस्थितियों में काम करने वाली श्रमिक चीनी युवतियों को केन्द्र में रख कर लिखी गयी इस कहानी के बारे में वे कहती हैं कि यह बेहद संयम के साथ लिखी गयी कहानी है जिससे भावुकता का अतिरेक हावी नहीं होने पाया।यह व्यक्तियों को केन्द्र में नहीं रखती बल्कि आत्मा तक को मटियामेट कर देने वाली कार्य संस्कृति पर आघात करती है।ऊपरी तौर पर कहानी के किरदार जिंदा दिखते हैं पर राक्षसी काम ने उन्हें मार कर चलता फिरता भूत बना दिया है...यहाँ तक कि बुनियादी इंसानियत तक उनमें नहीं बची।
पहला चित्र ग्रैहम टर्नर का द गार्डियन से,
दूसरा चित्र http://jordanbarab.com/ confinedspace/2017/03/29/work- related-suicides-work-bad- kill/ से और
तीसरा चित्र एंजेला सोरबी का http://mikechasar.blogspot. com/2012/06/banner-like- breadth-of-her-wing.html से साभार
Y Pandey
Former Director (Actg )& Chief Scientist , CSIR-CBRI
Roorkee
Former Director (Actg )& Chief Scientist , CSIR-CBRI
Roorkee
निर्बंध: दो नीचे लिंक पर पढ़िए
याचना नहीं, दुर्बल का प्रतिकार
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/1997-2016-tumult-of-bologna.html?m=1
याचना नहीं, दुर्बल का प्रतिकार
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/1997-2016-tumult-of-bologna.html?m=1
कारपोरेट शोषण और अमानवीयता को उजागर करता बढ़िया आलेख है। दासता के आधुनिक संस्करण को कब समझेंगे हम और हमारा समाज।
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